scorecardresearch
Saturday, 21 December, 2024
होमदेश‘सेवाओं’ पर हाईकोर्ट का फैसला - यह सुप्रीम कोर्ट में लंबित LG बनाम दिल्ली सरकार केस से कैसे अलग है

‘सेवाओं’ पर हाईकोर्ट का फैसला – यह सुप्रीम कोर्ट में लंबित LG बनाम दिल्ली सरकार केस से कैसे अलग है

दिल्ली हाईकोर्ट ने दिल्ली विधानसभा अध्यक्ष के एक पूर्व ओएसडी की बर्खास्तगी को बरकरार रखते हुए कहा कि विधानसभा अध्यक्ष सचिवालय में न तो कोई पद सृजित कर सकते हैं और न ही किसी पद पर नियुक्ति कर सकते हैं.

Text Size:

नई दिल्ली: दिल्ली विधानसभा अध्यक्ष के एक पूर्व विशेष कार्याधिकारी (ओएसडी) की बर्खास्तगी को बरकरार रखते हुए दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा है कि विधानसभा का कोई अलग सेक्रेटेरिएट काडर नहीं है, इसलिए अध्यक्ष की तरफ से सचिवालय में न तो कोई पद सृजित किया जा सकता है और न ही वह वहां किसी पद पर कोई नियुक्ति कर सकते हैं.

पूर्व ओएसडी सिद्धार्थ राव की तरफ से दायर याचिका को खारिज करते हुए जस्टिस चंद्र धारी सिंह ने यह टिप्पणी भी की कि ‘दिल्ली एनसीटी (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र) के तहत सेवाएं निश्चित तौर पर संघ की सेवाएं हैं.’

गौरतलब है कि दिल्ली के अधिकारों को लेकर केंद्र और दिल्ली सरकार के बीच हमेशा से ही विवाद चलता रहा है. चूंकि दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी है, इसलिए केंद्र ने कानून-व्यवस्था जैसे कुछ मामलों को अपने अधिकार क्षेत्र में बना रखा है. न्यायपालिका ने पिछले कुछ सालों में कुछ न्यायिक मसलों को तो सुलझा दिया है, लेकिन राष्ट्रीय राजधानी में सिविल सेवाओं पर किसका नियंत्रण है, यह निर्धारित किए जाने का मामला अभी भी सुप्रीम कोर्ट में लंबित है.

क्या दिल्ली हाईकोर्ट के 23 दिसंबर के सुनाए फैसले से बहस का यह मुद्दा सुलझ जाएगा? हाईकोर्ट का फैसला क्या कहता है, और सुप्रीम कोर्ट में लंबित मसले से यह कैसे भिन्न है? इसी पर दिप्रिंट विस्तार से बता रहा है.

‘नियुक्ति अवैध’

सिद्धार्थ राव को जनवरी 1999 में डेपुटेशन पर विधानसभा अध्यक्ष का ओएसडी नियुक्त किया गया था. उसके बाद उन्हें विधानसभा में संयुक्त सचिव का पद दे दिया गया, और फिर दिसंबर 2002 में उन्हें वेतनमान में वृद्धि के साथ ही सचिव की जिम्मेदारी सौंप दी गयी थी. हालांकि, दिसंबर 2013 में लेफ्टिनेंट गवर्नर (एलजी) ने उन्हें सेवाओं से बर्खास्त कर दिया. राव ने तब सेवा से हटाए जाने को हाई कोर्ट में चुनौती दी थी.

हालांकि, हाई कोर्ट ने अपने 23 दिसंबर के फैसले में उनकी नियुक्ति को ‘अवैध’ करार दिया क्योंकि यह एलजी की सहमति और मंजूरी के बिना की गई थी.

हाई कोर्ट ने आगे कहा, ‘ओएसडी के तौर पर इस तरह की प्रतिनियुक्ति, संयुक्त सचिव का पद देने और फिर सचिव पद पर पदोन्नति करने में कहीं भी सक्षम प्राधिकारी की स्वीकृति नहीं ली गई थी, इसलिए यह नियुक्ति शुरू से ही अवैध और फ्रॉड थी.’

कोर्ट ने यह भी कहा कि स्पीकर के ओएसडी का पद ‘अस्तित्व में ही नहीं’ था, जिसे दिल्ली विधानसभा में कभी स्वीकृत या सृजित नहीं किया गया था. दिल्ली विधानसभा सचिवालय में अधिकांश पद गृह मंत्रालय की तरफ से स्वीकृत और सृजित किए गए हैं.


यह भी पढ़ें: भूकंप, बाढ़, आग- बचाव में ‘एक्ट ऑफ गॉड’ के इस्तेमाल का क्या है मतलब और कब इसे खारिज कर देती हैं अदालतें


दिल्ली सरकार बनाम एलजी के बीच खींचतान

केंद्र और दिल्ली सरकार के बीच झगड़े की मुख्य वजह अनुच्छेद 239AA है, जिसे संविधान (69वां संशोधन) अधिनियम, 1991 के जरिये लागू किया गया था. इस प्रावधान के तहत दिल्ली को एक केंद्रशासित प्रदेश के तौर पर खास स्वरूप दिया गया, जिसमें एक विधानसभा है और केंद्र सरकार के प्रतिनिधि के तौर पर उपराज्यपाल इसके प्रशासनिक प्रमुख होते हैं. इसके तहत ही दिल्ली का नाम दिल्ली एनसीटी रखा गया था.

वहीं, संविधान का अनुच्छेद 239 केंद्रशासित प्रदेशों के प्रशासन से संबंधित है और यह निर्धारित करता है कि हर केंद्र शासित प्रदेश का प्रशासन उस हद तक राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त प्रशासक के माध्यम से संचालित होता रहे जिस हद तक उन्हें उचित लगता है.

दिल्ली की विशेष स्थिति के मद्देनजर यहां एलजी की प्रशासनिक शक्तियों को लेकर कानूनी विवाद का मुद्दा 2016-2017 में सुप्रीम कोर्ट पहुंचा. 4 जुलाई 2018 को पांच-न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने फैसला सुनाया कि दिल्ली कोई राज्य नहीं है, और यह कि ‘एनसीटीडी का दर्जा ‘सुई जेनेरिस’, एक वर्ग अलग है, और दिल्ली के एलजी की स्थिति किसी राज्यपाल की नहीं है. इसके बजाय वह एक सीमित अर्थ में प्रशासक होते हैं….’

पीठ ने कहा कि एलजी को भूमि, कानून-व्यवस्था और पुलिस को छोड़कर बाकी के सभी मामलों पर मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह पर काम करना है. अदालत ने यह भी कहा कि दिल्ली सरकार की कार्यकारी शक्तियां उन सभी विषयों पर लागू होंगी जिन पर विधानसभा के पास कानून बनाने की शक्तियां हैं.

संविधान की सातवीं अनुसूची केंद्र और राज्यों के बीच कानून बनाने की शक्तियों को निर्धारित करने से संबंधित है. यह उन विषयों को निर्धारित करती है जिन पर केंद्र और राज्य कानून बना सकते हैं. अनुसूची की सूची II (राज्य सूची) की प्रविष्टि 41 ‘राज्य सार्वजनिक सेवाएं; राज्य लोक सेवा आयोग’ से संबंधित है.

दिल्ली में कोई लोक सेवा आयोग नहीं है. चूंकि यह एक केंद्रशासित प्रदेश है, इसलिए दिल्ली को मिलने वाला मैनपॉवर /लोक सेवक या तो वे हैं जो आईएएस, आईपीएस जैसी अखिल भारतीय सेवाओं से आते हैं या जिन्हें सभी संघ शासित प्रदेशों के लिए भर्ती किया जाता है. शीर्ष कोर्ट के मुताबिक, ये अधिकारी/लोक सेवक विशेष रूप से दिल्ली केंद्र शासित प्रदेश से संबंधित नहीं हैं, या उसके लिए बिल्कुल भी नहीं हैं.


यह भी पढ़ें: गाजियाबाद ‘फर्जी गैंगरेप’ मामले में चार्जशीट- खुद बनाए घाव के निशान, प्रेमी के साथ रचा झूठा नाटक


हाईकोर्ट ने क्या कहा

कोर्ट ने सबसे पहले दिल्ली विधायिका के इतिहास, अनुच्छेद 239AA और अनुच्छेद 239 पर गौर किया. फिर यह समझने के लिए संवैधानिक प्रावधानों पर नजर डाली कि केवल दो प्रकार की पब्लिक सर्विसेज हैं—संघ सेवाएं और राज्य सेवाएं. इसने जोर देकर कहा कि तय कानूनों के तहत एनसीटी की अपनी कोई स्टेट पब्लिक सर्विस नहीं हैं.

अदालत ने स्पष्ट किया कि ‘सेवाओं’ से जुड़े मामले—जैसे दिल्ली विधानसभा के सचिव के पद पर लागू होते हैं—संविधान की सूची II की प्रविष्टि 41 से संबंधित हैं, और यह दिल्ली एनसीटी के विधानसभा के दायरे से बाहर है.

कोर्ट ने कहा कि चूंकि अध्यक्ष के ओएसडी का पद ‘अस्तित्व में नहीं’ था, इसलिए नियुक्ति को सेवा में नियुक्ति नहीं माना जा सकता.

राव को संयुक्त सचिव के तौर पर शामिल करने और सचिव के तौर पर पदोन्नत करने—जो दोनों ही पद केंद्रीय सिविल सेवा (वर्गीकरण, नियंत्रण और अपील) नियम, 1965 के तहत समूह ‘ए’ पदों के तौर पर वर्गीकृत हैं—के संदर्भ में कोर्ट ने कहा कि दिल्ली में ग्रुप एक के सभी पदों पर भर्ती के लिए एलजी ही सक्षम प्राधिकारी हैं.

ओएसडी मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित मामले से अलग कैसे है

फरवरी 2019 में जस्टिस ए.के. सीकरी और अशोक भूषण की एक बेंच ने ‘सेवाओं’ के मुद्दे पर अलग-अलग राय जाहिर की थी. विभाजित फैसले को देखते हुए मामला तीन जजों की बेंच को रेफर कर दिया गया. इसके बाद इसे इस साल 6 मई को एक संविधान पीठ के पास भेजा गया था. मामले पर जनवरी 2023 में बहस शुरू होने वाली है.

हालांकि, सेवाओं पर विधायी नियंत्रण का मसला एक हद तक हल हो चुका है. खंडपीठ के दोनों ही न्यायाधीशों ने इस पर सहमति जताई थी कि संविधान की सातवीं अनुसूची की सूची II की प्रविष्टि 41 दिल्ली विधानसभा के लिए लागू नहीं होती है. इसका सीधा मतलब है कि दिल्ली की विधायी शक्ति उस प्रविष्टि तक नहीं है, या दूसरे शब्दों में कहें तो दिल्ली सरकार इस विषय पर कानून नहीं बना सकती है. साथ ही, केंद्र और दिल्ली दोनों सरकारों ने सुप्रीम कोर्ट के सामने इस पर सहमति जताई थी कि दिल्ली में कौन-से अधिकारियों को तैनात किया जाना है, इसे केंद्र की तरफ से निर्धारित किया जा सकता है.

हालांकि, उनमें इस बात पर असहमति थी कि क्या दिल्ली एनसीटी की सरकार इन ‘सेवाओं’ पर कार्यकारी शक्तियों का इस्तेमाल कर सकती है, या ऐसे अधिकारियों को अलग-अलग स्थानों पर तैनात कर सकती है या उन्हें दिल्ली में नियुक्ति मिलने के बाद विशेष विभागों की जिम्मेदारी सौंप सकती है.

इसलिए, मुद्दा यह है कि क्या इस तरह के पोस्टिंग ऑर्डर राष्ट्रपति या एलजी की तरफ से पारित किए जाने हैं, या फिर दिल्ली सरकार एक बार मैनपॉवर मिलने के बाद उनकी पोस्टिंग को लेकर अपनी शक्तियों का इस्तेमाल कर सकती है.

इसके उलट, हालिया फैसले में हाई कोर्ट की टिप्पणी विधानसभा अध्यक्ष की तरफ से ऐसे पदों के सृजन और उन्हें ग्रुप ‘ए’ पद का जिम्मा सौंपने तक ही सीमित है. इसलिए, हाई कोर्ट का फैसला इस सवाल को लेकर किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचता है.

5 दिसंबर को भारत के चीफ जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की एक बेंच ने दिल्ली में ‘सेवाओं’ पर नियंत्रण के सवाल पर बहस शुरू करने के लिए 10 जनवरी की तारीख तय कर दी थी.

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़नें के लिए यहां क्लिक करें)

(अनुवाद: रावी द्विवेदी) | (संपादन: अलमिना खातून)


यह भी पढ़ें: ‘राज्य कानून के गलत पक्ष में’, निकाय चुनाव में OBC कोटा पर UP सरकार के आदेश को इलाहाबाद HC ने क्यों किया रद्द


share & View comments