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Thursday, 2 May, 2024
होमदेश‘राज्य कानून के गलत पक्ष में’, निकाय चुनाव में OBC कोटा पर UP सरकार के आदेश को इलाहाबाद HC ने क्यों किया रद्द

‘राज्य कानून के गलत पक्ष में’, निकाय चुनाव में OBC कोटा पर UP सरकार के आदेश को इलाहाबाद HC ने क्यों किया रद्द

अपने 87 पृष्ठों के फैसले में हाईकोर्ट ने राज्य के स्पष्टीकरण को खारिज कर दिया कि सरकार ने 1994 में अपने नगरपालिका कानून में संशोधन किया और शीर्ष अदालत द्वारा निर्धारित 50% की अधिकतम सीमा को पार नहीं किया.

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नई दिल्ली: इलाहाबाद हाई कोर्ट ने मंगलवार को कहा कि उत्तर प्रदेश सरकार ‘कानून के गलत पक्ष’ में है और राज्य चुनाव आयोग को अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के लिए आरक्षण प्रदान की जानकारी दिए बिना स्थानीय नगरपालिका को चुनावों के लिए नोटिफिकेशन जारी करने का निर्देश दिया.

न्यायमूर्ति सौरभ लवानिया और न्यायमूर्ति डी के उपाध्याय ने पांच दिसंबर को राज्य सरकार के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें आगामी शहरी निकाय चुनावों में चार मेयर की सीट आरक्षित की गई और कहा गया था स्थानीय नगर निकायों में ओबीसी के लिए आरक्षण वाली सीटों पर राजनीतिक पिछड़ेपन को निर्धारित करने के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा बनाई गई ‘ट्रिपल टेस्ट’ की शर्तों को पूरा नहीं करता.

उत्तर प्रदेश के 17 नगर निगमों के मेयरों, 200 नगर निगम के प्रमुखों और 546 नगर पंचायतों के प्रमुखों का चुनाव अगले साल की शुरू में होने की संभावना है.

मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट का आदेश 5 दिसंबर की नोटिफिकेशन की वैधता पर सवाल उठाने वाली याचिकाओं के एक बैच पर आया. इसमें दावा किया गया था कि ओबीसी के लिए सीटें आरक्षित करने से पहले ट्रिपल टेस्ट गाइड का पालन करने के लिए आदेश का उल्लंघन किया गया था.

ट्रिपल टेस्ट गाइड के तहत राज्य सरकार को राज्य के भीतर स्थानीय निकायों में ओबीसी के प्रतिनिधित्व का पता लगाने और फिर उनके लिए आरक्षण की व्यवस्था करने के लिए डेटा इकट्ठा करने की जरूरत है. साथ ही इसके मिलान के लिए एक आयोग करने की जरूरत है. यह आरक्षण आयोग की सिफारिशों के आधार पर लागू किया जाना है ताकि नियम का उल्लंघन न हो.

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हालांकि अनुसूचित जाति/ अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षित सीटें कुल सीटों के 50 प्रतिशत से अधिक नहीं हो सकती है.

चूंकि, ट्रिपल टेस्ट मानदंड को पूरा करने के लिए डाटा संग्रह करना एक ‘समय लेने वाला और भारी काम’ है और नगर पालिकाओं का कार्यकाल 31 जनवरी 2023 को समाप्त हो जाएगा. इसलिए हाईकोर्ट ने राज्य चुनाव आयोग को तुरंत स्थानीय निकाय चुनाव के लिए नोटिफिकेशन जारी करने का आदेश दिया. अदालत ने कहा, ‘समाज में शासन के लोकतांत्रिक चरित्र को मजबूत करने के लिए जरूरी है कि चुनाव जल्द से जल्द हो. इसलिए इंतजार नहीं कर सकते.’

अदालत ने आगे कहा कि चुनाव का नोटिफिकेशन जारी करते समय, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित सीटों को छोड़कर, अध्यक्षों की सीटों और कार्यालयों को सामान्य श्रेणी में अधिसूचित किया जाएगा. हालांकि, राज्य चुनाव आयोग के नोटिफिकेशन में संवैधानिक प्रावधान के अनुसार महिलाओं के लिए आरक्षण शामिल होगा.

विशेष रूप से अदालत ने ओबीसी के बीच ट्रांसजेंडरों को शामिल करने के लिए याचिकाकर्ता के अनुरोध को स्वीकार कर लिया. अदालत ने निर्देश दिया कि एक बार शहरी निकायों में ओबीसी आरक्षण प्रदान करने के लिए पिछड़ेपन का अध्ययन करने के लिए एक समर्पित आयोग का गठन किया जाए तो बाद में ट्रांसजेंडरों के दावे पर भी विचार किया जाएगा.

यदि एक नया निर्वाचित निकाय नहीं बनता है और अभी की शर्तें समाप्त हो जाती हैं तो नागरिक एजेंसी के मामलों का संचालन करने के लिए डीएम की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय कमेटी बनाई जाएगी जिसमें एक या तो कार्यकारी अधिकारी या मुख्य कार्यकारी अधिकारी या नगर निगम आयुक्त सदस्य होंगे. आदेश में कहा गया कि कमेटी का तीसरा सदस्य डीएम द्वारा नामित जिला स्तरीय अधिकारी होगा.

हालांकि अदालत ने स्पष्ट किया कि कमेटी सिर्फ संबंधित नगर निकाय के प्रतिदिन के कार्यों को देखेगी लेकिन बड़ा नीतिगत निर्णय नहीं लेगी.


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संवैधानिक जनादेश और सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ: याचिकाकर्ता

याचिकाकर्ता का पहला आरोप यह था कि 5 दिसंबर को जारी नोटिफिकेशन ने न सिर्फ अनुच्छेद 243-टी में दिए गए संवैधानिक आदेश के खिलाफ काम किया बल्कि ओबीसी आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए दो निर्णयों में निर्धारित किए गए नियमों की भी अवहेलना की. महाराष्ट्र में शहरी स्थानीय निकायों में ओबीसी आरक्षण के संबंध में दो फैसलों में से एक 2021 में दिया गया था.

याचिकाकर्ता ने तर्क दिया था कि राज्य ओबीसी आरक्षण प्रदान नहीं कर सकता जब तक पिछड़ेपन के अस्तित्व की जांच से पहले न हो. उनका तर्क था कि अनुच्छेद 243-टी में ‘नागरिकों का पिछड़ा वर्ग’ ‘अनुच्छेद 15(4) और 15(5) में ‘सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ा वर्ग’, समान अर्थ व्यक्त नहीं करता है. नागरिकों का पिछड़ा वर्ग संविधान के अनुच्छेद 16 (4) में होता है.

अनुच्छेद 243-टी संविधान में एक सक्षम प्रावधान है जो राज्य को ओबीसी आरक्षण प्रदान करने के लिए कानून बनाने की अनुमति देता है. अनुच्छेद 15 (4) और 15 (5) राज्य को किसी भी सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों के नागरिकों या अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए और निजी संस्थानों में उनकी शिक्षा के लिए विशेष प्रावधान करने में सक्षम बनाता है, चाहे वह राज्य द्वारा सहायता प्राप्त हो या गैर-सहायता प्राप्त हो. (अल्पसंख्यकों को छोड़कर)

अनुच्छेद 16 (4) कहता है कि राज्य को नागरिकों के किसी पिछड़े वर्ग के पक्ष में नियुक्तियों या पदों के आरक्षण के लिए कोई प्रावधान करने से नहीं रोका जाएगा, जिसका राज्य के अनुसार सेवाओं में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है.

याचिकाकर्ताओं के अनुसार अनुच्छेद 15 (4) और 16 (4) में दी गई आरक्षण नीति का उद्देश्य उच्च शिक्षा और सार्वजनिक रोजगार तक पहुंच में सुधार करना है, जबकि अनुच्छेद 243T के तहत एक अलग है, जिसका उद्देश्य वंचितों के प्रतिनिधित्व में सुधार करना है. राजनीतिक परिदृश्य में नागरिकों का वर्ग.

यह तर्क दिया गया था कि अनुच्छेद 15 और 16 के लिए सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक पिछड़ेपन को शहरी स्व-सरकारी निकायों के चुनावों में आरक्षण प्रदान करने के लिए पिछड़ेपन के साथ नहीं जोड़ा जा सकता है.

इसके अलावा, राजनीतिक प्रतिनिधित्व के दायरे में पिछड़े वर्गों के सामने आने वाली बाधाओं की पहचान करने हेतु जांच करने के लिए पर्याप्त सामग्री और दस्तावेजों को इकट्ठा करने की कोई कवायद नहीं की गई थी. याचिकाकर्ताओं ने कहा कि डेटा के अभाव में आरक्षण के लिए प्रदान की जाने वाली यूपी सरकार को नोटिफिकेशन की अनुमति नहीं है.

इस तरह के डेटा को इकट्ठा करने और स्थानीय निकायों में आरक्षण के अनुपात की सिफारिश करने के लिए कोई समर्पित आयोग गठित नहीं किया गया था, जैसा कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसलों में तय किया था.


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‘केवल एक ड्राफ्ट आदेश’: यूपी सरकार का बचाव

राज्य ने याचिकाओं के खिलाफ प्रारंभिक आपत्ति जताते हुए कहा कि वे विचार योग्य नहीं हैं क्योंकि 5 दिसंबर की ये नोटिफिकेशन केवल एक ड्राफ्ट आदेश है. हालांकि, यह तर्क दिया गया कि याचिकाएं समय से पहले आई थीं जिस वज़ह से अदालत ने 12 दिसंबर की एक सुनवाई के दौरान इसे खारिज कर दिया था.

अपने आदेश के बचाव में, सरकार ने तर्क दिया कि जहां तक ​​​​अनुच्छेद 243-टी के तहत पिछड़े वर्गों को आरक्षण देने की बात है उस संबंध में राज्य ने 1994 में अपने नगरपालिका कानूनों में व्यापक संशोधन किए है. यह बदलाव 73वें संशोधन के बाद किया गया था जिसने पंचायतों से संबंधित संविधान में एक नया हिस्सा जोड़ा था. संशोधनों ने पिछड़े वर्ग को राज्य के आरक्षण अधिनियम 1994 की अनुसूची-1 में सूचीबद्ध पिछड़े वर्गों के रूप में परिभाषित किया है.

राज्य ने तर्क दिया कि जब तक संशोधित नगरपालिका कानूनों और प्रावधानों को चुनौती नहीं दी जाती है और उन्हें रद्द नहीं किया जाता है, तब तक इन कानूनों के अनुसार ही नगर निकायों में ओबीसी के लिए आरक्षण प्रदान किया जाएगा।

ट्रिपल टेस्ट की शर्त को पूरा करने के संबंध में, राज्य ने दावा किया कि उसने अपने फैसले में शीर्ष अदालत द्वारा निर्धारित 50 प्रतिशत की सीमा से अधिक नहीं होने के कारण ऐसा किया है. राज्य ने तर्क दिया कि आरक्षण ओबीसी की कुल जनसंख्या के अनुपात में है.

राज्य ने आगे दावा किया कि अप्रैल 2017 के आदेश के अनुसार, राज्य भर में आरक्षण मिलने वालो का लगातार सर्वेक्षण करने का आदेश भी जारी किया था. इसके अलावा, इस साल जून में जारी एक अन्य आदेश के माध्यम से राज्य ने सभी डीएम को विभिन्न नगर निकायों के प्रत्येक वार्ड में पिछड़े वर्ग के नागरिकों की आबादी का तेजी से सर्वेक्षण करने का निर्देश दिया था.


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खुद की गलती का फायदा नहीं उठा सकते: कोर्ट का फैसला

अपने 87 पन्नों के फैसले में, हाई कोर्ट ने 5 दिसंबर की अधिसूचना को रद्द करने के लिए राज्य द्वारा दी गई सफाई को खारिज कर दिया और साथ ही यह नोट किया गया कि राज्य नगरपालिका कानूनों में एससी/एसटी और ओबीसी के लिए आरक्षण में कोई अंतर न किया जाए, जो अदालत ने माना था वह अनुच्छेद 243-टी के अनुरूप नहीं था, इसमें ओबीसी के पक्ष में सीटों या अध्यक्षों के कार्यालयों में ‘सीधे जनादेश’ की आरक्षण शामिल नहीं है.

2017 के राज्य के आदेश के अनुसार किए जाने वाले अभ्यास को केवल प्रमुखों की गिनती तक ही सीमित रखा गया था और स्थानीय निकायों में ओबीसी के प्रतिनिधित्व का पता लगाने के लिए नहीं.

अदालत ने कहा, ‘सर्वेक्षण में विचार किया गया है कि राज्य में नगर निकायों में अपर्याप्त प्रतिनिधित्व वाले नागरिकों के एक वर्ग या समूह से संबंधित पिछड़ेपन या नुकसानदेह स्थिति के निर्धारण के लिए एक बहुत ही महत्वपूर्ण कारक की कमी है. जो बात छूट गई है वह यह है कि सरकारी आदेश नगर निकायों में पिछड़े वर्ग के नागरिकों के राजनीतिक प्रतिनिधित्व की जांच के लिए नहीं कहता है.

नगर पालिका कानूनों में संशोधन पर सरकार के कदम के बारे में, अदालत ने कहा कि आरक्षण अधिनियम, 1994 में अनुसूची-1 में उन जातियों की गणना की गई है जिन्हें राज्य स्थानीय निकाय चुनावों में आरक्षण प्रदान करने के लिए ‘पिछड़ा वर्ग’ माना गया था.

न्यायालय की राय में, आरक्षण अधिनियम 1994 की अनुसूची-1 में स्पेसिफाइड जातियों के व्यक्तियों की जनसंख्या निर्धारित करने के लिए 2017 के आदेश के तहत सर्वेक्षण किया जा रहा है. साथ ही कहा गया कि SC द्वारा परिभाषित ट्रिपल टेस्ट शर्त की आवश्यकता को पूरा करने के लिए बाध्य नहीं है.

अदालत ने आगे कहा कि उत्तर प्रदेश सरकार शीर्ष न्यायालय के जनादेश के कारण शहरी निकायों के चुनावों के संदर्भ में ओबीसी को उपलब्ध कराए जाने वाले आरक्षण के संबंध में अपनी नीति पर फिर से विचार करने के लिए बाध्य थी. इसमें मौजूदा वैधानिक प्रावधानों में संशोधन शामिल था, इसलिए अदालत ने कहा कि राज्य को ओबीसी आरक्षण से संबंधित अपने कानूनों में आवश्यक बदलाव करने चाहिए थे.

राज्य को ‘कानून के गलत पक्ष’ पर पाते हुए, जिसे सुप्रीम कोर्ट द्वारा घोषित किया गया था, हाई कोर्ट ने कहा कि ‘एक व्यक्ति जिसने गलत किया है वह अपनी गलती का फायदा नहीं उठा सकता है और किसी भी वैध कार्य को विफल करने के लिए किसी भी कानून का विरोध नहीं कर सकता.’

(अनुवादः ऋषभ राज, अलमिना खातून | संपादनः फाल्गुनी शर्मा)

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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