नई दिल्ली: कोरोना महामारी के फैलने से दुनियाभर की अर्थव्यवस्थाएं अस्त-व्यस्त हुई हैं. इस संकट की चपेट में आने से हिंदी पब्लिशिंग इंडस्ट्री भी अछूती नहीं रही. मार्च महीने में लागू हुए कड़े लॉकडाउन और अंतरराज्यीय परिवहन के बंद होने के बाद से हिंदी प्रकाशनों के सामने एक के बाद एक लगातार कई चुनौतियां आ खड़ी हुई हैं.
ऑनलाइन डिलीवरी चेन के ठप होने से आर्थिक नुकसान तो हुआ ही साथ ही बुक सेलर्स और प्रिंटर्स से भी संपर्क टूट गया. लेकिन शुरुआती तीन महीने की अनिश्चितता के बाद अब प्रकाशक भविष्य को लेकर योजनाएं बना रहे हैं.
दिप्रिंट ने वाणी प्रकाशन, राजकमल प्रकाशन, हिंदी युग्म, प्रभात और राजपाल प्रकाशन के अलावा कई राज्यों में फैले बुक सेलर्स के नेटवर्क से जुड़े लोगों से बात कर हिंदी पब्लिशिंग इंडस्ट्री पर कोरोना के पड़े प्रभाव को जानने की कोशिश की.
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कर्मचारियों को नहीं निकाला गया
गौरतलब है कि लॉकडाउन की घोषणा के तुरंत बाद ही देशभर की कंपनियों में छटनी की खबरें आने लगी थीं. यहां तक कि बड़े मीडिया घरानों में भी कर्मचारियों को ले ऑफ पर भेज दिया गया या फिर वेतन में कटौती की गई.
लेकिन इस बुरे दौर में जब सारा कामकाज ठप था तब हिंदी पब्लिशर्स का दावा है कि उन्होंने अपने यहां से किसी भी कर्मचारी को नौकरी से नहीं निकाला है और ना ही वेतन में कोई कटौती की.
वाणी प्रकाशन की एग्जिक्यूटिव डायरेक्टर अदिति महेश्वरी गोयल दिप्रिंट को बताती हैं, ‘प्रकाशन की दुनिया में ज़्यादातर लोगों से सालों का रिश्ता होता है. आप एक दूसरे से निजी तौर पर जुड़े होते हैं. इसलिए इस महामारी के दौरान किसी को भी निकालना उसे अवसाद से घेर सकता है. ये अपने आप में एक क्रूर बात होती.’
वाणी प्रकाशन हिंदी और इंग्लिश के अलावा छह अन्य भाषाओं में भी किताबें प्रकाशित करता है. समाज शास्त्र, वैचारिक और शायरी की किताबें छापने वाले वाणी प्रकाशन में करीब 100 लोग काम करते हैं.
हिंदी युग्म प्रकाशन के संस्थापक शैलेश भारतवासी भी इस बात की तस्दीक करते हुए कहते हैं, ‘हमारे यहां 12 लोगों की टीम है. हम एक यंग ऑर्गेनाइजेशन हैं लेकिन हमने किसी भी कर्मचारी को नहीं निकाला.’
राजकमल प्रकाशन में करीब 100, प्रभात प्रकाशन में करीब 75 और राजपाल प्रकाशन में करीब 55 लोग काम करते हैं. प्रकाशनों का कहना है कि जब लॉकडाउन को सख्ती से लागू किया गया था तो उनकी टीम ने उस दौरान आगामी किताबों के कवर और एडिटोरियल पर काम किया.
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मई तक किताबों की बिक्री लगभग न के बराबर रही
प्रभात प्रकाशन के पीयूष कुमार दिप्रिंट को सेल्स के बारे में बताते हैं, ’23 मार्च से लेकर 15 मई तक फिजिकल बुक्स की बिक्री जीरो रही.’
यही बात राजकमल प्रकाशन के डायरेक्टर अलिंद महेश्वरी कहते हैं कि मई में जब तक ऑनलाइन डिलीवरी शुरू नहीं हुई तब तक ऑफलाइन सेल जीरो रही लेकिन उसके बाद वेबसाइट और व्हॉटसएप के माध्यम से किताबों की बिक्री फिर से शुरू हुई.
वाणी प्रकाशन के मुताबिक, ‘लॉकडाउन के दौरान हमारे यहां ऑफलाइन किताबों की बिक्री नहीं हुई.’
हालांकि प्रकाशकों का कहना है कि मई के बाद अगस्त तक के आंकड़ें देखें तो ई-बुक्स में लगभग 70-80 फीसदी की बढ़ोतरी देखी गई है.
जैसे वाणी प्रकाशन में ई-बुक्स की सेल में 70 फीसदी बढ़त हुई है. प्रभात प्रकाशन में 150 फीसदी और राजकमल प्रकाशन में 100 फीसदी.
लेकिन उसके बाद फिर से सेल कम हो गई. पूरे लॉकडाउन में राजकमल की ई-बुक्स सेल 22.64 प्रतिशत रही, हिंदी युग्म की 15-20 प्रतिशत और प्रभात प्रकाशन की 30 प्रतिशत.
दिल्ली बुक फेयर कमेटी के चेयरमैन और द फेडरेशन ऑफ इंडियन पब्लिशर्स से जुड़े नवीन गुप्ता दिप्रिंट को इस सिलसिले में बताते हैं, ‘साल 2015 में नेल्सन रिपोर्ट आई थी जिसमें पूरे भारत में किताबों के कुल व्यापार को 26 हजार करोड़ रुपए आंका गया था. इसमें 7 हजार करोड़ रुपए हिंदी और बाकी दूसरी भाषाओं की जनरल बुक्स इंडस्ट्री का था.’
उन्होंने आगे बताया, ‘उसके बाद कोई सरकारी रिपोर्ट नहीं आई है जिसके आधार पर हम सीधे-सीधे हिंदी पब्लिशिंग इंडस्ट्री का नफा या नुकसान जान सकें.’
गुप्ता ने बताया कि पब्लिशिंग इंडस्ट्री को टेक्नोलोजी की वजह से काफी नुकसान हुआ है. 2015 की इस रिपोर्ट के बाद टेक्नोलॉजी के चलते 50 फीसदी की गिरावट आ गई थी.
नवीन कहते हैं, ‘लॉकडाउन के दौरान कितना नुकसान रहा होगा इसका अभी सीधा आंकड़ा बताना तो मुश्किल है लेकिन जब हार्ड कॉपीज बिकी ही नहीं तो आर्थिक कमर बेशक टूटी ही है.’
23 मार्च के बाद से अगस्त तक प्रभात प्रकाशन ने 50 प्रिंटेड बुक्स और 600 ई-बुक्स निकाली हैं वहीं वाणी प्रकाशन ने 24 प्रिंटेड और 600 रिप्रिंटेड बुक्स.
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मोटिवेशनल और सेल्फ हेल्प वाली किताबों की रही डिमांड
कोरोना महामारी ने मेंटल हेल्थ को बुरी तरह प्रभावित किया है. पीएम मोदी इस दौरान अपनी ‘मन की बात’ कार्यक्रम में भी कई बार इस मुद्दे को एड्रेस कर चुके हैं. ऐसे में ये जानना महत्वपूर्ण है कि लोगों ने लॉकडाउन के दौरान किस तरह की किताबें पढ़ीं.
प्रभात प्रकाशन के पीयूष ने बताया कि इस दौरान प्रेरणादायक और सेल्फ हेल्प व योग से जुड़ी किताबें ज़्यादा बिकीं. वो कहते हैं, ‘इस महामारी ने लोगों की मानसिक सेहत पर बहुत बुरा असर डाला है. हो सकता है कि यही कारण रहा कि लोग कुछ हल्का पढ़ना चाहते थे ताकि सकारात्मक महसूस करें.’
उदाहरण के लिए प्रभात प्रकाशन में स्वामी विवेकानंद की किताबें, फिट रहने के लिए योग की किताबें और अब्दुल कलाम की किताबें सबसे ज़्यादा बिकी. हिंदी युग्म में जौन एलिया की शायरी हिट रही. अमेज़न के वेस्टलैंड प्रकाशन की बात करें तो आईएएस निशांत जैन की ‘रुक जाना नहीं’ किताब की डिमांड ज़्यादा रही.
लेकिन अन्य राज्यों के बुक सेलर्स की मानें तो जनता ने सिर्फ पाठ्यपुस्तकें खरीदने के लिए कई किलोमीटर की यात्राएं की.
इस वक्त बिहार में बाढ़ और कोरोना, दोनों ने कहर बरपा रखा है. पटना स्थित अनुपम बुक सेलर के अनूप दिप्रिंट को बताते हैं कि लोग दूर जिलों से यात्रा कर पाठ्यक्रम (कोर्स) की किताबें लेने आए. अनूप, बिहार और झारखंड, दोनों राज्यों में हिंदी के सभी प्रकाशनों की किताबों को पाठकों तक पहुंचाने का काम करते हैं.
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बुजुर्ग साहित्यकार बने ‘टेक-सेवी’
हालांकि, कई प्रकाशक ये भी मानते हैं कि इस सारी नकारात्मकता के बीच एक चीज़ ये हुई कि अस्सी साल के लेखक और कवि भी फेसबुक लाइव का हिस्सा बने. आमतौर पर उम्र के लिहाज़ से कम यात्राएं करने वाले लेखकों से मिलने की संभावना कम रहती है लेकिन लाइव के ज़रिए उन लेखकों को पाठकों से जोड़ा गया.
वाणी प्रकाशन की अदिति बताती हैं कि प्रसिद्ध लेखिका ममता कालिया भी ऐसे लाइव सेशन का हिस्सा बनीं. हालांकि प्रभात प्रकाशन के पियूष मानते हैं कि इससे साहित्य का उत्थान नहीं होगा. उनके प्रकाशन ने इस तरह के ऑनलाइन तरीकों से दूरी बनाए रखी.
हिंद युग्म प्रकाशन ने भी कम ही लाइव सेशन किए. लेकिन हिंद युग्म के शैलेश कहते हैं, ‘अब पारंपरिक तरीके बदल रहे हैं तो ऑनलाइन दुनिया की तरफ आने के प्लान बनाने ही होंगे.’
राजकमल प्रकाशन ने साप्ताहिक साहित्यिक खुराक बरकरार रखने के लिए कई व्हॉटसएप ग्रुप बनाए. इन ग्रुप में साहित्य से जुड़ी सामग्री को आकर्षक तरीकों से 25 हज़ार पाठकों तक पहुंचाया गया और लेखकों के जरिए करीब 150 फेसबुक लाइव किए गए.
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क्या है आगे उम्मीद?
देश और दुनियाभर में पुस्तक मेले, सितंबर से मार्च महीने तक चलते हैं. दिल्ली पुस्तक मेला, विश्व पुस्तक मेला के साथ-साथ कई राज्यों में भी पुस्तक मेलों का आयोजन किया जाता है. ऐसे में इस साल के अंत तक प्रकाशकों को किसी भी मेले की उम्मीद नज़र नहीं आ रही है.
दिल्ली बुक फेयर कमेटी के नवीन गुप्ता बताते हैं कि अगर स्थिति ठीक होगी तो जनवरी में होने वाले इंटरनेशनल बुक फेयर के बारे में फैसला लिया जाएगा. इस बार में मीटिंग अगले महीने यानि सितंबर में की जाएगी.
हालांकि प्रकाशक डिजिटल बुक फेयर्स के बारे में पॉजिटिव हैं. नवीन गुप्ता भी मानते हैं कि लिटरेरी इवेंट और पुस्तक मेले, प्रकाशकों, लेखकों और पाठकों को एक बार फिर से जोड़ पाएंगे. लेकिन डिस्ट्रीब्यूटर्स के लिए समस्या बनी रहेगी.
इस बाबत पटना के बुक सेलर अनूप कहते हैं, ‘ऐसा ना तो कभी इमरजेंसी के वक्त हुआ था और ना ही जेपी के आंदोलन के वक्त. इस महामारी के दौरान जो देख रहे हैं वो 55 साल से इस इंडस्ट्री का हिस्सा बनने के दौरान कभी नहीं देखी. मेरे अकेले का कम से कम 25-30 लाख का नुकसान हो गया है. लेकिन जुलाई महीने में हमने डाक के ज़रिए एक नया रास्ता निकाला है. अब हर रोज़ 5 किलो के करीब 7 पार्सल भेज रहे हैं. आगे भी सेवाएं रिज्यूम नहीं होती हैं तो ऐसे ही काम चलाने की उम्मीद है.’
कुछ ऐसा ही चंडीगढ़ के पंजाब बुक सेंटर के अवतार सिंह कहते हैं, ‘लोग किताबें ऑनलाइन मंगवाना प्रेफर कर रहे हैं. ना कि स्टोर्स पर जाकर खरीदना.’
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आने वाले समय की चुनौतियां
द फेडरेशन ऑफ इंडियन पब्लिशर्स के प्रेसिडेंट रमेश मित्तल दिप्रिंट को बताते हैं, ‘ना सिर्फ हिंदी पब्लिशर्स बल्कि इंग्लिश पब्लिशर्स को भी अब रिवाइव और सर्वाइव के नए तरीके खोजने होंगे. नए रेवेन्यू तलाशने होंगे. अब डिजिटल बुक फेयर्स, लेटरेरी फेस्टिवल्स और लेखकों के साथ डिजिटल सेशन ही आज की जरूरत हैं. ऐसे में कई सारी डिजिटल मार्केटिंग एजेंसी भी आ गई हैं.’
वो आगे कहते हैं, ‘लेकिन हिंदी पब्लिशर्स के सामने दिक्कत ई-बुक्स को लेकर है. क्योंकि हिंदी के पाठकों का अभी ई-बुक्स के लिए टेस्ट विकसित नहीं हुआ है. प्रकाशनों को इस दिशा में एक्सप्लोर करना चाहिए.’
ई-बुक्स से जुड़े इस चैलेंज को अदिति भी स्वीकार करती हैं. वो कहती हैं, ‘ई-बुक्स के कल्चर को लेकर अभी हिंदी के पाठकों को ना तो किंडल का अभ्यास है और न ही इंटरनेट का ठीक ऐक्सेस है.’
उन्होंने कहा, ‘ऐसे में ई-बुक्स प्रकाशनों के लिए एक बड़ी चुनौती रहेगी.’
भले ही स्कूल-कॉलेज भी ऑनलाइन शिक्षा पर ज़ोर दे रहे हैं. ऐसे में ई-लाइब्रेरी ही आने वाले समय में एक विकल्प नज़र आ रहा है लेकिन प्रकाशन इसको लेकर उत्साहित नहीं हैं. शैलेश भारतवासी का मानना है, ‘पिछले 5-6 सालों से स्कूल-कॉलेज में जाने वाली किताबों की संख्या लगातार घट ही रही है.’
उन्होंने कहा, ‘ऐसे में ई-बुक्स को लेकर वो कितना सोच रहे हैं, अभी इस बारे में क्लियर नहीं है.’
हालांकि इस बीच पीयूष का मानना है कि ऑनलाइन मार्केट में प्राइस वॉर बहुत बड़ी समस्या बनकर उभरेगा.
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