मुझे नहीं मालूम कि नरेंद्र मोदी सरकार दिल्ली के उप-मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया को गिरफ्तार करने का इरादा रखती है या नहीं. लेकिन पिछली नजीरों को देखकर यह असंभव भी नहीं लगता है. यह सब एक जाने-पहचाने ढर्रे पर चलता रहा है.
एक, हमें बताया जाता है कि ‘बड़ा भारी घोटाला’ उजागर हुआ है और सरकारी या अर्द्धसरकारी सूत्र हैरानी जाहिर करने लगते हैं. फिर, कुछ एक दिनों बाद ईडी या सीबीआई जैसी केंद्रीय एजेंसियों के छापे पड़ते हैं, जिनमें भले कोई खास कीमती चीज मिले या न मिले लेकिन बेहिसाब टीवी कवरेज मिलती है. तीसरा चरण गिरफ्तारी का है. एजेंसियां अदालत से कहती हैं कि गिरफ्तार शख्स रसूखदार है और सबूतों से छेड़छाड़ या गवाहों को धमकाने की आशंका जताकर जमानत न देने की मांग करती हैं. जज महोदय कहते हैं, ठीक है और फौरन आरोपी को जेल भेज देते हैं.
कुछ दिन बाद, मामले में कुछ निकले या नहीं. लेकिन फिलहाल मकसद पूरा हो जाता है और घोटाला सुर्खियों में चढ़ जाता है.
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आप बनाम कांग्रेस लड़ाई
दो-टूक कहूं तो मैं नहीं जानता कि शराब नीति मामले में सिसोदिया के खिलाफ कितने पक्के सबूत हैं. न ही उन्हें मालूम है, जिनसे मैंने बात की. शायद सीबीआई भी अभी पूरी तरह नहीं खोज पाई है कि यह है क्या. इसलिए मैं कोई टिप्पणी नहीं करने जा रहा हूं.
मेरा सरोकार सिसोदिया के खिलाफ मामले के नतीजों यानी कांग्रेस और आप की लड़ाई को लेकर है. कांग्रेस लंबे वक्त से दावा करती रही है कि एजेंसियां मोदी सरकार की दमनकारी राजनैतिक औजार बन गई हैं. अहमियत रखने वाली हर विरोधी पार्टी को कथित आपराधिक अपराधों के लिए छापे और गिरफ्तारियां झेलनी होंगी. कांग्रेस ने कहा है कि यह राजनैतिक विरोधियों को धमकाने और तंग करने के लिए जांच एजेंसियों का खुल्लमखुल्ला दुरुपयोग है.
ईमानदारी की बात तो यह है कि कांग्रेेस का यह रुख नेशनल हेराल्ड मामले (जो सरकारी पहल कतई नहीं, बल्कि सुब्रह्मण्यम स्वामी की निजी मुहिम का हिस्सा है) में सोनिया और राहुल गांधी को समन करने से काफी पहले का है.
लेकिन जब वह हुआ तो कांग्रेस सडक़ों पर उतरी, गिरफ्तारियां दीं और एजेंसियों को बुरा-भला कहा. उसने ऐलान किया कि विपक्ष ऐसी कारगुजारियों से डरने वाला नहीं है. तभी, सिसोदिया का मामला खुला.
कोई भी यही उम्मीद करता कि कांग्रेस फिर एजेंसियों की निंदा करेगी, क्योंकि वह जोरशोर से कहती रही है कि गैर-बीजेपी पार्टियों को परेशान करने के लिए मोदी सरकार एजेसियों का दुरुपयोग करती है. लेकिन हुआ इसके एकदम उलट.
कांग्रेस प्रवक्ता पवन खेड़ा ने ‘राजनैतिक विरोधियों के खिलाफ एजेंसियों के धड़ल्ले से दुरुपयोग’ के खिलाफ ट्वीट तो किया, मगर कुल मिलाकर पार्टी ने सिसोदिया पर छापे का जश्न मनाया और उनके खिलाफ एफआइआर का स्वागत किया. कांग्रेस नेताओं ने कहा कि यह भारी घोटाला है. आप चालबाजों से भरी हुई है. ये आरोप उसके सबूत हैं.
क्या कांग्रेस हर रोज सरकार पर एजेंसियों के दुरुपयोग का आरोप लगाती रह सकती है और फिर अचानक जब सिसोदिया निशाने पर हों तो ऐलान कर सकती है कि एजेंसियां सही काम कर रही हैं, सिर्फ इसलिए कि उसका मानना है कि आप घोटालों वाली सरकार चला रही है और शायद सिसोदिया दोषी हैं?
कांग्रेस के पास अपने इस दोहरे मानदंड का कोई सही जवाब नहीं है. जवाब में ज्यादातर आप की नुक्ताचीनी ही पाएंगे कि वह बीजेपी की ‘बी’ टीम से ज्यादा कुछ नहीं है, कि वह आरएसएस की ही बनाई हुई है, कि उसके नेता संदिग्ध चरित्र के हैं, कि अरविंद केजरीवाल खराब आदमी है, जिसने सोनिया गांधी से ईडी की पूछताछ पर मुंह सिए रखा, वगैरह, वगैरह. इन कुछ बातों में दम नहीं है: अगर आप वाकई बीजेपी का फ्रंट होती तो फिर बीजेपी उस पर निशाना क्यों साधती? लेकिन यहां तो ऐतिहासिक गिले-शिकवे काम रहे हैं.
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कांग्रेस के पास वजह तो वाकई है
यूपीए-2 के आधे कार्यकाल के बाद मनमोहन सिंह सरकार भ्रष्टाचार के आरोपों से पंगु हो गई. उसकी बहुत हद तक बुनियाद वह संदिग्ध सीएजी रिपोर्ट थी, जिसे वक्त की परीक्षा नहीं देनी पड़ी. (तथाकथित 2जी घोटाले में ‘संभावित घाटा’ तो देशवासियों से दशकों में बोला गया सबसे बड़ा झूठ था).
उन आरोपों ने संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए), खासकर उसकी अगुआई करने वाली कांग्रेस को बर्बाद कर डाला. लेकिन उन्हीं से आप का भी जन्म हुआ. हम कई बार भूल जाते हैं कि आप कैसे ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ से निकली, जो बहु मीडिया-प्रचारित, तथाकथित जनांदोलन कथित तौर पर अन्ना हजारे (उन्हें याद करें) की अगुआई में हुआ था, जिसका दावा था कि भ्रष्टाचार ऐसे स्तर पर पहुंच गया है कि सिर्फ एक लोकपाल (उसे भी याद कर लें) ही हालात सुधार सकता है.
वह ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ ही था, जिसने कांग्रेस का दिल तार-तार कर दिया और नरेंद्र मोदी का रास्ता साफ किया. समय गुजरने के साथ, उस आंदोलन में अहमियत रखने वाला लगभग हर कोई चलती बस से नीचे फेंक दिया गया, शुरुआत बेचारे अन्ना हजारे से हुई, और आप अरविंद केजरीवाल (दिल्ली के मुख्यमंत्री) और उनके करीबी सहयोगी मनीष सिसोदिया का राजनैतिक कारवां बन गई.
कांग्रेस में कोई भी आप को न भूला या न माफ कर पाया कि उसके नेताओं ने तब क्या कहा और किया था. उसके बीजेपी की ‘बी’ टीम होने के आरोप सरासर बेबुनियाद है, लेकिन इसकी जड़ें उस रास्ते में हैं जिसमें केजरीवाल ने मोदी की पायलट कार की तरह अगुआई की, उनके गद्दी संभालने के लिए रास्ता साफ किया. और यह भी बड़े पैमाने पर माना जाता है कि ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ की सभाओं में भीड़ जुटाने का काम आरएसएस ने किया था.
कांग्रेस का नजरिया है: कौन पूछता है कि आरोप सही हैं या नहीं? केजरीवाल और सिसोदिया जानते थे कि मनमोहन सिंह और यूपीए के बारे में वे जो बातें कर रहे हैं, वह झूठ है. लेकिन उन्होंने सच्चाई को कभी अपनी महत्वाकांक्षा के बीच में नहीं आने दिया. इसलिए, कांग्रेस को उन्हें वह मौका और समर्थन क्यों देना चाहिए, जो वे किसी और देने से इनकार कर चुके थे?
मेरी राय में कांग्रेस गलत है. इंसाफ बदले की भावना से नहीं हो सकता. लेकिन मैं देख सकता हूं कि पार्टी का यह रवैया कहां से आ रहा है.
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क्यों पुनर्मूल्यांकन सबके लिए जरूरी है
मोदी सरकार जब सिसोदिया को गिरफ्तार करने की दिशा में बढ़ रही है, सभी राजनैतिक पार्टियों को थोड़ा ठहर कर अपने रुख पर दोबारा विचार करना चाहिए.
अरविंद केजरीवाल देश के सबसे घाघ नेता हैं. लेकिन वे हमेशा तलवार की धार पर चलते हैं. वे सांप्रदायिकता के खिलाफ हैं मगर मुसलमानों के साथ होने वाली नाइंसाफी पर मुंह नहीं खोलेंगे. वे सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी के पक्ष में हैं लेकिन उनके मंत्रियों के खिलाफ भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हैं. वे कहते हैं कि जांच एजेंसियों को ‘ऊपर से’ नेताओं को निशाना बनाने को कहा जा रहा है, लेकिन वही एजेंसियां जब कांग्रेस को निशाना बनाती हैं तो एक भी शब्द नहीं बोलेंगे. कई मौकों पर वे तलवार की धार से नीचे गिरने का जोखिम भी उठाते हैं.
कांग्रेस को यह तय करना चाहिए कि क्या उन्हीं एजेंसियों की कार्रवाई पर ताली पीटना रणनीतिक समझदारी है, जो उसके खिलाफ भी लगाई गई हैं, वह भी सिर्फ इसलिए कि वह उन लोगों को पसंद नहीं करती, जिन पर सरकार शिकंजा कस रही है. उसकी असली दुश्मन कौन है: बीजेपी या दूसरी विपक्षी पार्टियां?
और बीजेपी को यह देखने की दरकार है कि वह अपने तथाकथित भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम को कहां तक खींच सकती है. हां, कई नेता भ्रष्ट हैं. इसलिए किसी को आश्चर्य नहीं होता, जब एजेंसियां उनके पीछे लगती हैं. लेकिन एक दिन वह आएगा, जब ज्यादा से ज्यादा लोग पूछेंगे कि क्या बीजेपी में हर नेता ईमानदार है? कैसे सिर्फ गैर-बीजेपी नेताओं पर ही छापे पड़ रहे हैं? और यह कैसे होता है कि कोई भ्रष्ट नेता बीजेपी में शामिल होते ही अचानक किसी तरह की जांच या मुकदमे से मुक्त हो जाता है?
वीर संघवी प्रिंट, टेलीविजन पत्रकार और टॉक शो के होस्ट हैं. उनका ट्विटर हैंडल @virsanghvi है. विचार निजी हैं.
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