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Saturday, 5 October, 2024
होममत-विमतभारत में निजी स्वाधीनता खत्म की जा रही है, सत्ता का कोई ओहदेदार आपको जब चाहे जेल भेज सकता है

भारत में निजी स्वाधीनता खत्म की जा रही है, सत्ता का कोई ओहदेदार आपको जब चाहे जेल भेज सकता है

जब नेतागण लोगों की निजी स्वाधीनता का सम्मान न कर रहे हों और गिरफ्तारी के मनमाने आदेश दे रहे हों, तब यह उम्मीद करना बेकार ही है कि पुलिसवाले और अफसर लोग उनके नक्शेकदम पर नहीं चलेंगे.

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एक तानाशाही शासन और एक उदार लोकतंत्र में बड़ा अंतर इस बात से आंका जाता है कि किस शासन में व्यक्ति को कितनी आज़ादी मिली है. आज के भारत में वह आज़ादी खतरे में है. बात केवल अभिव्यक्ति की आज़ादी की नहीं है, हालांकि वह भी एक मुद्दा है. असली बात स्वाधीनता के अधिकार की है.

हमारे देश में आज जो भी सत्ता के ओहदे पर है, चाहे वह कोई मंत्री हो, नौकरशाह हो, पुलिसवाला हो, राजस्व विभाग का अधिकारी हो, या जिसका कोई मित्र सत्ता में हो, वह हममें से किसी को भी गिरफ्तार करवा के जेल भेज सकता है.

अधिकतर मामलों में व्यक्ति के खिलाफ कोई मामला न हो तो भी उसे एक महीने तक तो जेल में रहना ही पड़ सकता है.
भारत में ऐसा क्यों है, जबकि जिन्हें हम उदार लोकतांत्रिक देश मानते हैं उनमें ऐसा नहीं है? इसके दो कारण हैं.

एक कारण तो यह है कि अधिकतर आधुनिक लोकतांत्रिक देशों में सत्ताधारी व्यक्तियों को कानून और निजी स्वाधीनता का सम्मान करने के लिए मजबूर किया जाता है. इसका मतलब यह नहीं है कि वहां उल्लंघन नहीं होते. लेकिन उन देशों में नियंत्रण और संतुलन की मजबूत व्यवस्था है. बिना किसी ठोस वजह के किसी की गिरफ्तारी का आदेश देने वाले अधिकारियों को आम तौर पर दंडित किया जाता है और पश्चिम के कई लोकतांत्रिक देशों में तो गलत गिरफ्तारी के लिए अधिकारी पर मुकदमा भी ठोका जा सकता है.

दूसरा कारण : कोई भी कानून तभी काम कर सकता है जब ऊपर सत्ता में कोई ऐसा शख्स बैठा हो जो न्याय का सम्मान करता हो. यह ज़िम्मेदारी न्यायपालिका की होती है. जब पुलिस किसी को बिना मजबूत कारण के गिरफ्तार करती है या उसे जेल में रखने की इजाजत मांगती है तब यह फैसला करना जजों के हाथ में होता है कि वह गिरफ्तारी उचित है या नहीं, कि उस व्यक्ति को सज़ा दिए जाने से पहले जेल में रखना उचित है या नहीं.


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निजी खुंदक बनाम निजी स्वाधीनता

भारत में, ये दोनों कवच नाकाम किए जा रहे हैं. सत्ता के ओहदों पर बैठे लोग जिसे चाहे उसे मनमर्जी गिरफ्तार कर सकते हैं और वे अक्सर ऐसा कर रहे हैं. उन्हें इस बात की भी परवाह नहीं होती कि उस व्यक्ति के खिलाफ ऐसा मामला बनाया जाए जो अदालत में टिक सके. उन्हें भरोसा होता है कि जज उनका समर्थन ही करेंगे. ये दो बातें निजी स्वाधीनता का जनाजा निकाल सकती हैं. सत्ता में बैठा शख्स अगर आपको ठिकाने लगाना चाहता है तो वह ऐसा कर सकता है, और करेगा.

इस पर इसलिए विश्वास मत कर लीजिए कि मैं यह कह रहा हूं. सिर्फ ‘आल्ट न्यूज’ के सह-संस्थापक, मोहम्मद जुबैर, जिन्हें निचली अदालतों ने जमानत देने से तीन बार मना कर दिया था, के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पढ़ लीजिए.
सुप्रीम कोर्ट ने कहा है— ‘किसी व्यक्ति को केवल आरोपों के आधार पर और बिना निष्पक्ष सुनवाई के दंडित नहीं किया जाना चाहिए. गिरफ्तार करने के अधिकार का जब बिना सोचे-विचारे और कानून का उचित पालन किए बिना इस्तेमाल किया जाता है तो यह सत्ता का दुरुपयोग होता है.’ यह कहते हुए सुप्रीम कोर्ट ने जुबैर को जमानत दी, जिन्हें दिल्ली और उत्तर प्रदेश की पुलिस ने निशाना बना लिया था; और सुप्रीम कोर्ट ने उस एसआइटी को भी भंग कर दिया जिसे उत्तर प्रदेश की सरकार ने जुबैर के तथाकथित अपराधों की जांच के लिए गठित किया था. इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि हम उस ओर बढ़ रहे हैं जिसे ‘पुलिसिया राज’ कहा जाता है.

निजी स्वाधीनता के लिए खतरा बने दो बड़े कारणों में, सत्ता का दुरुपयोग उस स्थिति में पहुंच गया है जिसमें उससे लड़ना लगभग असंभव हो गया है. नार्कोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो (एनसीबी) अब कह रहा है कि आर्यन खान के खिलाफ कोई मामला नहीं है, मगर आर्यन को प्रचार के भूखे एक अधिकारी की वजह से एक महीने जेल में रहना पड़ा जबकि उनके पिता शाहरुख खान के पास साधन की कोई कमी नहीं है. लेकिन उस अधिकारी को अपने ओहदे का दुरुपयोग करने की हिम्मत इसलिए हुई क्योंकि पिछले कुछ मामलों में उसे राजनीतिक नेताओं की ओर से प्रोत्साहन मिला था.

एजेंसियों का दुरुपयोग और बेखबर अदालतें

हकीकत यह है कि केंद्र और राज्यों के नेता अपनी निजी खुंदक निकालने के लिए, आलोचकों को निशाना बनाने के लिए पुलिस (और राजस्व विभाग के अधिकारियों) का प्रायः इस्तेमाल करते हैं. पिछले कुछ वर्षों में एजेंसियों का दुरुपयोग नयी ऊंचाइयों को छू रहा है.

जब नेतागण लोगों की निजी स्वाधीनता का सम्मान न कर रहे हों और गिरफ्तारी के मनमाने आदेश दे रहे हों, तब यह उम्मीद करना बेकार ही है कि पुलिसवाले और अफसर लोग उनके नक्शेकदम पर नहीं चलेंगे. पुलिसवाले को एक बार जब पता चल जाता है कि उसका बॉस उसे बेकसूर लोगों को निशाना बनाने के लिए कह रहा है, तब वह अपनी कुछ खुंदक निकालने से क्यों हिचकेगा? या अपनी जेब गरम करने से क्यों परहेज करेगा?

इसलिए, निजी स्वाधीनता की रक्षा करने की ज़िम्मेदारी न्यायपालिका के कंधे पर आती है. और यहीं पर आकर चिंता सबसे ज्यादा बढ़ जाती है. इधर कुछ वर्षों से हममें से कई लोग बार-बार दोहराते रहे हैं कि जजों ने जैसे इस पुराने नियम को भुला दिया है कि ‘बेल ही नियम है, जेल अपवाद है’. हमारी इन फरियादों पर किसी ने थोड़ा भी ध्यान नहीं दिया है. आर्यन खान की गिरफ्तारी के लिए आप समीर वानखेड़े को दोषी बता सकते हैं. लेकिन यह मत भूलिए कि जजों ने वानखेड़े की बात मान ली थी. जिस सबूत को हाइकोर्ट ने आर्यन को जेल में बंद रखने के लिए नाकाफी माना था उसके आधार पर निचली अदालतों ने फैसला किया था कि उन्हें जेल में रहना होगा. इसी तरह, मोहम्मद जुबैर, मुनव्वर फारूखी, और ऐसे तमाम लोगों को जेल में रखा गया. तो अगर न्यायाधीशगण निजी स्वाधीनता की रक्षा नहीं करेंगे तब कौन करेगा?

सुप्रीम कोर्ट को अब न्याय-व्यवस्था संभाल रहे लोगों को यह याद दिलाना पड़ रहा है, जो कानून की पढ़ाई करने आए छात्रों को पहले साल में मालूम हो जाता है. वह यह कि गिरफ्तार किए गए हरेक व्यक्ति को जमानत का अधिकार है, बशर्ते उसे इसलिए जेल में रखना जरूरी न हो कि वह बाहर आकर ‘सबूतों से छेड़छाड़ कर सकता है या उन्हें नष्ट कर सकता है या गवाहों पर दबाव डाल सकता है या उन्हें धमका सकता है या उन्हें अदालत में हाजिर होने से रोक सकता है.
जुबैर के मामले में आदेश देने से पहले सुप्रीम कोर्ट ने जमानत के अधिकार पर भी एक आदेश जारी किया है. मुख्य न्यायाधीश एन.वी. रमना ने एक सार्वजनिक आयोजन में दिए भाषण में भी इन्हीं बातों को दोहराया. जाहिर है, सुप्रीम कोर्ट जजों की इस प्रवृत्ति से काफी चिंतित हो गया है कि वे पुलिस जो भी कहती है उस पर यकीन कर लेते हैं और लोगों को जेल भेजने के आदेश दे देते हैं.

ऐसा हो सकता है. एक अनुमान के मुताबिक देशभर की अदालतों में जमानत के लिए दो लाख से ज्यादा अर्ज़ियां लटकी पड़ी हैं. इनमें से करीब 18 हजार तो पांच साल से ज्यादा से लंबित हैं. इन सबका निबटारा अदालतें क्यों नहीं कर पा रही हैं, यह समझा जा सकता है. आखिर, अदालतों और जजों की कमी तो है ही. लेकिन क्या यह जरूरी है कि जिन लोगों को सज़ा नहीं सुनाई गई है उन्हें पहले से भीड़ भरी जेलों में भेजकर उनका बोझ बढ़ाया जाए?

सुप्रीम कोर्ट एकमत तो हो

माना कि कार्यपालिका की करतूतों और न्यायपालिका की निष्क्रियता से निजी स्वाधीनता को पहुंच रहे खतरे को लेकर सुप्रीम कोर्ट चिंतित है. तो अब आगे क्या?

न्यायाधीश लोगों को जमानत नहीं देते इसकी एक वजह यह बताई जाती है कि उन्हें मालूम है कि भारत में न्यायिक प्रक्रिया इतनी सुस्त है कि दोषी लोग कभी जेल नहीं जा सकते. इसलिए इस तरीके से तो कम-से-कम वे कुछ कीमत तो चुकाते हैं. यह तर्क आकर्षक लग सकता है मगर इसे न्यायशास्त्र के अनुकूल शायद ही कहा जा सकता है. इस तर्क को कबूल भी कर लें तो यह ज्यादा-से-ज्यादा शातिर बदमशों और खतरनाक अपराधियों पर ही लागू किया जा सकता है. लेकिन यहां तो ट्वीट करने वालों या हशीश आदि पीने वालों को लपेटे में लिया जा रहा है.

सुप्रीम कोर्ट ने ही सुझाव दिया है कि जमानत के मसले को लेकर नया कानून बनाया जाए. वकीलों को तो इसकी जरूरत नहीं लगती है. मुख्य न्यायाधीश अपनी तरफ से कदम उठा सकते हैं. अदालत के निर्देश का पालन करवाने के पर्याप्त अधिकार उन्हें हासिल हैं. वैसे भी, जजों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम व्यवस्था का मकसद अदालतों को स्वतंत्र करना ही था.

लेकिन आप कह सकते हैं कि सुप्रीम कोर्ट भी एकमत नहीं है. बुधवार को उसने ‘मनी लॉन्डरिंग’ पर रोक लगाने के 2002 के कानून (पीएमएलए) के सख्त और विवादास्पद हिस्सों को कायम रखने का फैसला किया जिसमें यह प्रावधान भी शामिल है जिसके तहत आरोपी को जमानत लेना काफी मुश्किल होगा. जरूरी नहीं कि इसे स्वाधीनता के अधिकार का समर्थन माना जाए. यानी, क्या अदालत में भी मतभेद हैं?

बाहर बैठे हम लोगों के लिए कठोर बात है. लेकिन एक बात साफ है, कि सुप्रीम कोर्ट के बहुमत ने स्वाधीनता के अधिकार के सिद्धांत पर ज़ोर देना शुरू कर दिया है. और अब वह पीछे नहीं हट सकता, उसे इस मसले पर एक आवाज़ में बोलना पड़ेगा.

हमारे लोकतंत्र का चरित्र ही दांव पर लगा है.

(वीर सांघवी भारतीय प्रिंट और टीवी पत्रकार, लेखक और टॉक शो होस्ट हैं. उनका ट्विटर हैंडल @virsanghvi है. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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