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Saturday, 20 April, 2024
होममत-विमतबिलकीस के वो 11 अपराधी जब सड़कों पर आज़ाद घूमेंगे, भारत का सिर शर्म से नीचा हो रहा होगा

बिलकीस के वो 11 अपराधी जब सड़कों पर आज़ाद घूमेंगे, भारत का सिर शर्म से नीचा हो रहा होगा

मामले के 11 हत्यारों और बलात्कारियों को माफ करने का गुजरात सरकार का फैसला प्रधानमंत्री मोदी महिलाओं की सुरक्षा के बारे में जो कुछ कहते रहे हैं उसका मज़ाक उड़ाता है.

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क्या सामूहिक बलात्कार एक जघन्य अपराध है? अपनी सत्ता का दुरुपयोग करके महिलाओं से दुर्व्यवहार करने वालों को समाज क्या कभी माफ न करे? क्या बलात्कार के साथ की जाने वाली बर्बरता से कोई फर्क पड़ता है?

अगर आपने इन सवालों के जवाब हां में दिए तब आप हममें से अधिकतर लोगों की भाषा में बोल रहे हैं, जिनमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी शामिल हैं, जो महिलाओं की सुरक्षा के बारे में बराबर बोलते रहे हैं, और सबसे हाल में उन्होंने स्वतंत्रता दिवस पर अपने भाषण में भी कहा.

निर्भया कांड के नाम से कुख्यात दिल्ली में 2012 में हुए सामूहिक बलात्कार और कत्ल के मामले के बाद से यह मान्यता सार्वभौमिक रूप से स्वीकार्य हो गई है. इस मामले को लेकर कांग्रेस सरकार पर हमले करने के लिए भाजपा इसे बार-बार दोहराती रही है.

ऐसे में, बिलकीस बानो के बलात्कारियों को, जिन पर एक आरोप हत्या का भी है, रिहा करने के गुजरात सरकार के फैसले की क्या सफाई दी जा सकती है?

जनता की याददाश्त कमजोर होती है इसलिए पहले हम मामले के तथ्यों पर गौर करें.

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इंसाफ की तलाश और नाइंसाफी

28 फरवरी 2002 को अहमदाबाद के करीब राधिकापुर गांव से बिलकीस बानो और उनका परिवार सांप्रदायिक दंगे से बचने के लिए गांव से पलायन कर रहा था तभी भीड़ ने उन पर हमला कर दिया था. भीड़ ने बिलकीस बानो की तीन साल की बेटी समेत 14 लोगों की हत्या कर दी थी. बच्ची के सिर को पत्थर पर पटककर उसकी हत्या की गई थी.

बिलकीस बानो पांच महीने से गर्भवती थी और यह दिख रहा था लेकिन भीड़ ने उसके साथ बलात्कार किया और हिंसक हमले किए. उन्हें मरा हुआ जान कर भीड़ ने उन्हें नग्न और लहूलुहान हालत में छोड़ दिया. लेकिन वे जिंदा थीं और उन्होंने एक आदिवासी परिवार के यहां शरण ली. बाद में उन्होंने पुलिस में शिकायत दर्ज करने का असामान्य कदम उठाया. असामान्य इसलिए क्योंकि वे गरीब थीं और पुलिस कमजोर, बेसहारा लोगों की शिकायत पर प्रायः ध्यान नहीं देती. बिलकीस बानो के साथ भी यही हुआ, पुलिस ने उनके बयान में तालमेल की कमी का बहाना करके उनकी शिकायत को खारिज कर दिया.

लेकिन बिलकीस बानो ने संघर्ष किया और मामले को गुजरात से बाहर ले गईं. उन्होंने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और फिर सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगाई, जिसने मामले की सीबीआइ जांच करवाने का आदेश दिया. सीबीआइ ने मारे गए लोगों के शवों को कब्रों से निकलवाकर जांच की और इस अपराध के लिए कई लोगों को गिरफ्तार किया. यह तब हुआ जब केंद्र में भाजपा की सरकार थी, इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि सीबीआइ पर आरोपियों को ‘फंसाने’ का राजनीतिक दबाव था.

मामला सुनवाई अदालत के सामने आया, जिसमें सीबीआइ ने 13 लोगों पर बलात्कार और कत्ल करने आरोप लगाया था. अदालत ने उनमें से 11 को उम्रक़ैद की सज़ा सुनाई. इसके बाद सीबीआइ ने सज़ा को बढ़ाने की मांग करते हुए इस फैसले को चुनौती दी, जिसे खारिज कर दिया गया. दूसरी अदालत ने भी सज़ा कायम रखी मगर बलात्कारियों और हत्यारों को फांसी की सज़ा नहीं दी.

इन परिस्थितियों के मद्देनजर यह दावा करना मुश्किल है कि आरोपी बेकसूर थे, या उनके साथ कोई नाइंसाफी की गई. सबूत ठोस थे और फैसला साफ था.

लेकिन आपने सोचा नहीं होगा. वे सारे बलात्कारी और हत्यारे जेल से बाहर आ गए हैं, उनका फूलमालाओं और मिठाई से स्वागत किया जा चुका है.

यह सब इसलिए हुआ है क्योंकि गुजरात सरकार ने (बलात्कारियों की गिरफ्तारी और सज़ा दिलाने में जिसकी कोई भूमिका नहीं है) उनकी सज़ा माफ करने का फैसला किया और उन्हें आज़ाद कर दिया. यह फैसला इस बोर्ड ने किया जिसमें सरकारी अधिकारी और भाजपा के सदस्य शामिल थे. गुजरात सरकार ने फैसला किया कि इन अपराधियों ने पर्याप्त सज़ा काट ली है, कि उनमें से एक का रिश्तेदार बीमार है, कि वे अपने अच्छे आचरण के लिए मुक्त होने के हकदार हैं.

जाहिर है, इस फैसले पर विवाद भड़क गया है. यह सामूहिक बलात्कार और हत्या का ऐसा जघन्य मामला है कि इसके अपराधियों की आज़ादी किसी को भी सदमे में डाल सकती है. इसके अलावा, बिलकीस बानो ने यह भी शिकायत की थी कि मामले की जांच के दौरान उन्हें डराया-धमकाया गया था. उनके परिवार ने कहा है कि बलात्कारियों की रिहाई से वह डरा हुआ है. बिलकीस बानो फिर खतरे में हैं.


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भयावह आशंका

इस सबका क्या मतलब निकाला जाए? महिलाओं के अधिकारों की दुहाई देने वाली मोदी सरकार ऐसा क्यों होने देगी? यह तो केंद्र सरकार द्वारा हाल में ही जारी किए गए इन स्पष्ट निर्देशों के विपरीत है कि राज्य सरकारें अपराधियों की सज़ा माफ करने का फैसला करने में बलात्कारियों और हत्यारों को मुक्त नहीं करेंगी.

गुजरात सरकार कहती है कि ये निर्देश इस मामले पर लागू नहीं होते क्योंकि वह 1992 की अपनी उस माफी नीति का पालन कर रही है, जो तब लागू थी जब इन अपराधियों को सज़ा सुनाई गई थी. तकनीकी रूप से यह मुमकिन है कि गुजरात सरकार को हत्यारों और बलात्कारियों को माफ करने का अधिकार हो, लेकिन यह केंद्र सरकार के चालू निर्देशों की भावना के विपरीत है, और प्रधानमंत्री मोदी महिलाओं की सुरक्षा के बारे में जो कुछ कहते रहे हैं उसका मज़ाक उड़ाता है.

इस साफ तौर पर अकथनीय आचरण के बारे में दो व्याख्याएं मुझे पढ़ने को मिली हैं. पहली यह कि 2002 के गुजरात दंगों का नया इतिहास लिखने की सोची-समझी कोशिश चल रही है. बलात्कार और हत्याओं का उक्त मामला गोधरा में कारसेवकों की हत्या के बाद हुआ था, और इसे दंगों से जुड़ी हिंसा के सामान्य वर्ग में दर्ज किया गया. क्या ऐसा तो नहीं है कि गुजरात सरकार ने यह मान लेने का फैसला कर लिया है कि वह हिंसा हुई ही नहीं? कि इस हिंसा में शामिल खासकर हिंदुओं को सज़ा नहीं देनी है?

दूसरी व्याख्या यह दी जा रही है कि गुजरात विधानसभा का चुनाव नजदीक है इसलिए हिंदुओं के तुष्टीकरण के लिए उन लोगों को रिहा करना राजनीतिक रूप से फायदेमंद माना जा रहा है जिन्होंने मुसलमानों के खिलाफ अपराध किए.

ये दोनों व्याख्याएं भयावह हैं. मैं तीसरी व्याख्या को तरजीह दूंगा, कि यह फैसला राज्य सरकार के स्तर पर किसी ऐसे कट्टरपंथी संप्रदायवादी ने किया है, जो मुसलमानों पर हमला करने वाले किसी हिंदू को सज़ा देने के पक्ष में नहीं है. और यह कि केंद्र सरकार से इस बारे में कोई सलाह नहीं की गई, जबकि केंद्र को मालूम होना चाहिए कि इससे प्रधानमंत्री की छवि कितनी बुरी होगी, खासकर तब जबकि वे स्वतंत्रता दिवस के अपने भाषण में महिलाओं की सुरक्षा को लेकर कैसे-कैसे दावे कर चुके हैं.


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मानवता पर सवाल उठाता फैसला

उन अपराधियों को जिस भी वजह से रिहा किया गया हो, आगे का रास्ता स्पष्ट है. सबसे सीधी बात यह है कि गुजरात सरकार 11 अपराधियों की उम्रक़ैद की सज़ा को माफ करने के अपने फैसले पर पुनर्विचार करे. यह राजनीतिक रूप से मुश्किल होगा इसलिए मुझे शक है कि इस विकल्प पर गंभीरता से विचार किया जाएगा.

इसके बाद एक उपाय बचता है, कि सुप्रीम कोर्ट इस माफी को रद्द कर दे. अगर ऐसा होता है तो गुजरात सरकार अपने समर्थकों से कह सकती है कि वह हस्तक्षेप करने से लाचार है.

लेकिन सियासत से अलग, मूलभूत मानवता से जुड़े कुछ सवाल हैं जिन्हें यहां जरूर उठाया जाना चाहिए. सवाल यह है की हमारा समाज आज कहां पहुंच गया है? क्या वह ऐसा समाज बन गया है जिसे एक गर्भवती महिला का बलात्कार करके उसे मृत मान कर छोड़ देने वाले लोगों की रिहाई कबूल है? उन लोगों की रिहाई, जिन्होंने तीन साल की बच्चे का सिर पत्थर पर पटक कर उसे मार डाला? ऐसे घटनाएं घटीं, यही भयानक है. लेकिन ऐसी घटनाओं को अंजाम देने वालों के प्रति नरमी? यह तो भयावहता की भी हद पार करने वाली बात है.

हां, यह हिंदू-मुस्लिम मसला है. लेकिन यह धार्मिक भेदभाव से आगे का मामला है. यह जिंदगी को सम्मान देने का, महिला को सम्मान देने का मामला है. यह इस सवाल से जुड़ा मामला है कि आज के भारत में इंसाफ करना कितना मुश्किल हो गया है, कि निर्भया कांड जैसे मामले और भी हो सकते हैं क्योंकि महिलाओं का बलात्कार और कत्ल करने वालों की मदद करने वाले नेता हमेशा मौजूद रहेंगे.

वे 11 अपराधी जब सड़कों पर आज़ाद घूमेंगे, बाकी भारत का सिर शर्म से नीचा हो रहा होगा.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(वीर सांघवी भारतीय प्रिंट और टीवी पत्रकार, लेखक और टॉक शो होस्ट हैं. उनका ट्विटर हैंडल @virsanghvi है. व्यक्त विचार निजी हैं)


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