कोलकाता, 28 जनवरी (भाषा) कलकत्ता उच्च न्यायालय ने भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) के एक सेवानिवृत्त अधिकारी की पुनरीक्षण याचिका खारिज करते हुए निचली अदालत का आदेश बरकरार रखा है जिसमें कहा गया था कि लोक सेवकों के खिलाफ जांच करने के लिए मंजूरी की आवश्यकता है।
इस सेवानिवृत्त अधिकारी का दावा था कि उसे गैरकानूनी तरीके से पदोन्नति से वंचित किया गया और 2012 में जब इस पर निर्णय हुआ था तो उस समय मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और तत्कालीन वरिष्ठ अधिकारी ही इसके कर्ताधर्ता थे। इसी आधार पर सेवानिवृत्त अधिकारी ने इनके खिलाफ जांच का निर्देश देने का अनुरोध किया था।
सेवानिवृत्त पुलिस अधिकारी नजरूल इस्लाम ने अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक से पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) के पद पर पदोन्नति से गैरकानूनी तरीके से वंचित किए जाने का दावा करते हुए मुख्य मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट, कोलकाता के समक्ष आईपीसी की धाराओं के तहत जांच के लिए अर्जी दाखिल की थी।
उन्होंने भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की उन धाराओं के तहत जांच कराने का अनुरोध किया था जिसके तहत किसी को चोट पहुंचाने के इरादे से कानून की अवज्ञा करने वाले लोक सेवक, चोट पहुंचाने के इरादे से गलत दस्तावेज तैयार करने, झूठे दस्तावेज बनाने और जालसाजी के मामले में कार्रवाई की जाती है।
नजरूल इस्लाम ने तत्कालीन गृह सचिव, मुख्य सचिव और पुलिस महानिदेशक सहित अन्य अधिकारियों के खिलाफ जांच का अनुरोध करते हुए आरोप लगाया था कि इन अधिकारियों ने उनके खिलाफ साजिश रची।
उच्च न्यायालय ने 25 जनवरी को अपने आदेश में कहा कि उसकी राय है दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 197 के प्रावधान को कानून में शामिल करने का सार्थक उद्देश्य यह है कि लोकसेवक बिना किसी डर या पक्षपात या परेशान किए जाने की किसी भी आशंका के बगैर अपने कर्तव्यों का निर्वहन करें।
न्यायमूर्ति तीर्थंकर घोष ने आदेश में कहा, ‘‘इसलिए, ऐसी किसी कार्रवाई में वैध मंजूरी की आवश्यकता होती है, जहां सीआरपीसी की धारा 156 (3) (संज्ञेय मामलों की जांच करने के लिए पुलिस की शक्ति) के प्रावधान लोक सेवकों के खिलाफ लागू होते हैं।’’
मजिस्ट्रेट ने कहा था कि उक्त धाराओं के तहत कोई भी अपराध प्रतिवादी पक्षों द्वारा नहीं किया गया था और अगर यह मान भी लिया जाए कि अपराध किए गए थे तो सीआरपीसी की धारा 197 के तहत मंजूरी की आवश्यकता होगी।
भाषा आशीष अनूप
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