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Tuesday, 17 December, 2024
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बिहार के स्टार्ट-अप किंग दिलखुश कुमार ‘रोडबेज़’ के जरिए कैसे छोटे शहरों में ला रहे बदलाव

दिलखुश कुमार स्टार्ट-अप के क्षेत्र में नौसिखिए नहीं हैं बल्कि रोडबेज़ उनका बीते सात सालों में दूसरा स्टार्ट-अप है. और वह ओला, उबर जैसी सुविधाएं ग्रामीण बिहार तक पहुंचाने में लगे हैं.

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फोन की घंटियां बज रही हैं, एप पर लगातार लोगों की बुकिंग आ रही है, चारों तरफ लैपटाप पर बिना थके काम चल रहा है. और इस बीच दिलखुश कुमार पटना शहर के एक कोने में सारी गतिविधियों पर नजर बनाए हुए हैं क्योंकि उन्होंने हाल ही में एक नया स्टार्ट-अप शुरू किया है. उन्हें बिहार का ‘स्टार्ट-अप किंग’ माना जाता है जिन्होंने ग्रामीण इलाकों में लोगों को उबर जैसा अनुभव दिया है.

29 साल के कुमार सात साल पहले दिल्ली में रिक्शा चलाते थे और पटना में सब्जियां बेचते थे लेकिन आज वह एप आधारित स्टार्ट-अप रोडबेज़ के संस्थापक और सीईओ हैं और आईआईटी, आईआईएम में पढ़ चुके युवाओं को नौकरी दे रहे हैं.

उन्होंने बहुत ही सोच समझकर अपने स्टार्ट-अप का नाम रोडबेज़ रखा है क्योंकि बिहार में स्थानीय तौर पर लोग रोडवेज़ को इसी तरह पुकारते हैं. आप इसे मजाक समझ सकते हैं लेकिन ग्रामीण उपभोक्ताओं के बीच पैठ बनाने के लिए यह एक चतुर प्रयास नज़र आता है.

दिलखुश कुमार स्टार्ट-अप के क्षेत्र में नौसिखिए नहीं हैं बल्कि रोडबेज़ उनका बीते सात सालों में दूसरा स्टार्ट-अप है. और वह ओला, उबर जैसी सुविधाएं ग्रामीण बिहार तक पहुंचाने में लगे हैं. सिर्फ एक तरफ का किराया लिए जाने वाले विशेष फीचर ने रोडबेज़ को ग्राहकों में खासा लोकप्रिय बना दिया है.

भारत के छोटे शहरों में, जो लोग लंबे रूट के लिए टैक्सी बुक करते हैं तो उन्हें आने-जाने दोनों का किराया देना पड़ता है. इसी चीज़ से लोगों को छुटकारा दिलाने के लिए कुमार ने प्रयास किया और अपने स्टार्ट-अप के जरिए ग्राहकों से सिर्फ एक तरफ का किराया लेते हैं. रोडबेज़ एक ‘वन-वे टैक्सी, टैक्सीपूल और कारपूल प्लेटफॉर्म ‘ है.

चाय की चुस्की लेते हुए कुमार बताते हैं, ‘हम गांव को शहर से और शहर को गांव से जोड़ रहे हैं.’ लेकिन यह सिर्फ शुरुआत भर है. कुमार अपनी सोच का विस्तार बिहार से बाहर निकलकर भारत के हर इलाके में भी करना चाहते हैं.

लेकिन यहां तक पहुंचने का सफर किसी रोमांच और संघर्ष से कम नहीं है. मई 2022 में उन्होंने अपने फूफेरे भाई सिद्धार्थ शंकर झा के साथ रोडबेज़ लांच किया. अपनी जिंदगी भर की पूंजी और कुछ शुभचिंतकों के सहारे और अपने आइडिया पर भरोसा कर के उन्होंने नए स्टार्ट-अप पर निवेश कर दिया.

आत्मविश्वास के साथ वह कहते हैं, ‘मुझे रिस्क से इश्क है.’

बीते चार महीने में 50 हजार से ज्यादा लोगों ने रोडबेज़ के एप्लीकेशन को डाउनलोड किया है, जिसे गूगल प्ले स्टोर पर 3 प्लस रेटिंग मिली हुई है. कुमार ने बताया कि अब तक लगभग एक लाख ग्राहकों ने उनसे संपर्क किया है.

कुमार ने दिप्रिंट को बताया, ‘गरीब के बच्चे को जीने के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ता है. एक चीज़ मैंने जो सीखी वो यह है कि इज्जत लोगों की नहीं बल्कि पैसे की है. दुनिया उसी को पूजती है जिसके पास पैसा है.’

पटना में स्थित रोडबेज़ के दफ्तर के कॉरीडोर में लगी रतन टाटा की तस्वीर उनकी छोटी सी टीम का मनोबल बढ़ाती है, जो घंटों सिर्फ काम में लगे रहते हैं ताकि ग्राहकों को अच्छी सुविधा दी जा सके.


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स्टार्ट-अप बनाने के लिए अच्छे टैलेंट की जरूरत

पटना में 20×16 फीट के किराए के दफ्तर में तकरीबन 15 लोग काम करते हैं जिनमें महिला और पुरुष कर्मचारी दोनों शामिल हैं. फॉर्मल कपड़े पहने सभी लोग ग्राहकों के फोन कॉल्स उठाने में व्यस्त हैं. सभी के पास लैपटाप और स्मार्टफोन है और लगातार आ रही कॉल्स स्टार्ट-अप की बढ़ती मांग को लेकर उन्हें आश्वस्त कर रहा है.

एमिटी कॉलेज से पढ़ चुकीं 23 साल की अभिलाषा कॉल्स पर लगातार ग्राहकों से संपर्क में रहती हैं. इस बीच उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ‘हमें दिन में सैकड़ों कॉल्स आते हैं लेकिन सभी की राइड अभी कंफर्म बुक नहीं हो पा रही है.’

Rodbez staff is working tirelessly to connect the customers with a ride | Photo: Krishan Murari, The Print
रोडबेज में काम करने वाले कर्मचारी लगातार ग्राहकों को कैब सुविधा देने में लगे रहते हैं | फोटो: कृष्ण मुरारी/दिप्रिंट

कुमार ने अपनी कंपनी में जिन लोगों की भर्ती की है उनमें ज्यादातर देश के बड़े संस्थानों से पढ़े हुए हैं जिसमें आईआईटी, आईआईएम जैसे संस्थान शामिल है. इनमें ज्यादातर लोग बिहार के ही हैं और अपने राज्य में रहकर काम करना चाहते हैं. बड़े संस्थानों से निकलकर भी सभी 40-50 हजार में काम कर रहे हैं क्योंकि इनका लक्ष्य राज्य में रहकर कुछ नया करने का है. लेकिन दिलखुश कुमार का कहना है कि कंपनी का विस्तार होते ही वे सभी को अच्छी सुविधाएं और सैलरी देंगे.

आईआईआईटी भुवनेश्वर से ग्रेजुएट 24 वर्षीय यशवंत कुमार बताते हैं, ‘प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि हवाई चप्पल पहनने वाला भी हवाई जहाज पर चढ़ेगा. हम अपने स्टार्ट-अप के जरिए बिहार के हर व्यक्ति को कार पर तो जरूर चढ़ा देंगे.’

दिलखुश कुमार ने बताया कि इस साल आईआईटी मंडी ने भी कंपनी के अनोखे मॉडल की सराहना की और रोडबेज़ को अपने संस्थान में आकर छात्रों के प्लेसमेंट ड्राइव के लिए आमंत्रित किया. हालांकि कुमार ने कहा, ‘लेकिन हमने आईआईटी गुवाहाटी से एक छात्र की हायरिंग कर ली है पर यह कोई छोटी बात नहीं है कि 2-3 महीने पुरानी संस्था को आईआईटी से आमंत्रण मिल रहा है. यह हमारे काम के लिए एक बड़ी मान्यता है.’

युवाओं की टीम ने स्टार्ट-अप को कम ही समय में एक रफ्तार दे दी है, जिससे कुमार भी खुश हैं. बीते दिनों एक दोपहर में लैपटाप पर डेशबोर्ड दिखाते हुए वह बताते हैं कि हर आधे घंटे में 37 लोग रोडबेज़ पर बुकिंग के लिए आ रहे हैं. उन्होंने कहा, ‘यह डेटा छोटा नहीं है. शाम में यही आंकड़ा प्रति घंटे 150-700 के बीच पहुंच जाता है.’

आईआईटी गुवाहाटी से पढ़ चुके सूरज कुमार रोडबेज़ के चीफ प्रोडक्ट मैनेजर हैं. उन्होंने बताया, ‘बीते 2-3 सालों में बिहार में स्टार्ट-अप को लेकर माहौल बदला है. दिलखुश सर का विज़न काफी अलग है इसलिए मैंने उनके साथ काम करना चुना.’

कुमार इस बात से उत्साहित हैं कि उनका आइडिया एकदम अलग है और वे इसके जरिए भारत के हर कोने तक पहुंचना चाहते हैं. कुमार यह कभी नहीं सोचते कि वह सिर्फ दसवीं तक पढ़े हुए हैं लेकिन उन्हें यह जरूर पता है कि उनके आइडिया और विज़न में दम है.

कई निवेशक जो खुद बिहार से हैं और यहां स्टार्ट-अप के माहौल को बदलना चाहते हैं, वे कुमार की मदद कर रहे हैं. क्योंकि रोडबेज़ की शुरुआत बेंगलुरू या गुड़गांव से नहीं हुई है बल्कि उनके अपने राज्य से हुई है.

टेक डेवलेपर निर्भय दिल्ली में अपनी टेक कंपनी चलाते हैं. लेकिन बिहार के लिए कुछ करने की उनकी चाहत ने उन्हें दिलखुश कुमार से मिला दिया. रोडबेज़ की जब शुरुआत हुई तो निर्भय ने कुमार से संपर्क किया क्योंकि सुपौल के रहने वाले निर्भय अपने राज्य के लिए कुछ करना चाहते हैं. कुमार ने बताया कि वे हर दिन 4-5 घंटे बिना पैसे लिए हमारी कंपनी के लिए काम करते हैं और रोडबेज़ एप को बेहतर बनाने में लगे हुए हैं.

कुमार के फूफेरे भाई सिद्धार्थ शंकर झा कोलकाता में एनजीटी में सरकारी नौकरी करते थे लेकिन कुछ नया करने का जोश उन्हें बिहार ले आया. सरकारी नौकरी छोड़कर उन्होंने कुमार के साथ काम करना चुना और आज वे इस कंपनी के सह-संस्थापक हैं. उन्होंने बताया, ‘यह एक अलग तरह का स्टार्ट-अप है और इसमें यूनिकॉर्न बनने की पूरी संभावना है.’

पर्यावरण जैसे मुद्दे पर पकड़ रखने वाले झा अभी कंपनी में सारा मैनेजमेंट का काम देखते हैं. उन्होंने दिप्रिंट को बताया, ‘अभी हमारा लक्ष्य गाड़ियों और ड्राइवर्स का मजबूत नेटवर्क बनाने का है. हमारा ‘रिवाल्यूशन इज़ ऑन द वे’ है.’ यही कंपनी का टैगलाइन भी है.

दिलखुश कुमार मानते हैं कि उनकी जिंदगी में हमेशा कुछ शुभचिंतक रहे हैं जिन्होंने मुश्किल वक्त में उनकी मदद की. न्यूजेन सॉफ्टवेयर के वाइस-प्रेसिडेंट और आईआईटी खड़गपुर से पढ़ चुके अरविंद झा ने कुमार की कंपनी में 30 लाख रुपए का निवेश किया है और उन्हें मेंटरशिप भी दे रहे हैं. उनके अलावा कोलेरेडो में रह रहे एनआरआई अजय झा भी कुमार को मेंटर कर रहे हैं और आने वाले वक्त में कंपनी में निवेश करने पर विचार कर रहे हैं.

अरविंद झा मिथिला एंजेल नेटवर्क चलाते हैं जिसका लक्ष्य बिहार के मिथिला क्षेत्र में उभर रहे स्टार्ट-अप्स की मदद करना है. झा ने दिप्रिंट को बताया, ‘मैं राज्य में स्टार्ट-अप्स के माहौल को बदलना चाहता हूं. इसलिए जो भी अभी शुरुआती फेज़ में हैं और उनके पास अच्छे आइडिया हैं तो मैं उन्हें मेंटरशिप और वित्तीय मदद देता हूं. वर्तमान में हम बिहार के पांच स्टार्ट-अप को मदद दे रहे हैं.’

झा ने बताया कि दिलखुश का आइडिया काफी रोचक है क्योंकि ग्राहक हमेशा यात्रा के भाड़े को लेकर सशंकित रहता है और अगर वह कम दाम में लोगों को सुविधा दे रहा है तो ज्यादा से ज्यादा लोग उससे जुड़ेंगे. उन्होंने कहा, ‘कुमार के पास ग्राउंड की अच्छी समझ है और उसमें कुछ बेहतर करने की क्षमता है. इसलिए मैं उसे सपोर्ट कर रहा हूं.’

झा ने केवल वित्तीय सहयोग दे रहे हैं बल्कि टेक पसंद लोगों के ग्लोबल नेटवर्क को कुमार के साथ जोड़ रहे हैं ताकि उनका स्टार्ट-अप वैश्विक तौर पर पहचान बना सके. अरविंद झा का मानना है कि बिहार में स्टार्ट-अप का इकोसिस्टम 2030 तक बिल्कुल बदल जाएगा.

बिहार की संस्कृति, इमारत और सांस्कृति धरोहरों के बारे में लोगों को जागरूक करने के लिए रचना प्रियदर्शिनी एक स्टार्ट-अप योर हेरिटेज चला रही हैं और साथ ही मेडिशाला और कैंपस वार्ता जैसे नए स्टार्ट-अप को मेंटर भी कर रही हैं. उन्होंने कहा, ‘अब बिहार के युवा राज्य में ही रहना और नए विज़न से ग्लोबल होना चाहते हैं. उनके पास नए विचार, इनोवेशन और टैलेंट है. और दिलखुश उन्हीं में से एक है.’

रचना ने कहा, ‘परिवहन व्यवस्था को बेहतर बनाने का उनका विचार काफी अच्छा है.’

हालांकि दिलखुश कुमार को पूरा भरोसा है कि वित्तीय वर्ष 2022-23 की पहली तिमाही तक उनकी कंपनी 3 करोड़ रुपए की हो जाएगी.


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खून में है ड्राइविंग

ड्राइविंग दिलखुश कुमार के खून में है. उनके पिता पवन खां ने सहरसा में 30 सालों तक बतौर बस ड्राइवर काम किया है. लेकिन वे नहीं चाहते थे कि उनका बेटा भी मोटर की नौकरी करे बल्कि उनकी इच्छा थी कि वे पढ़-लिखकर अच्छी नौकरी करे. लेकिन भाग्य को कुछ और ही मंजूर था.

पवन खां ने बताया, ‘मैं दिलखुश को कहता था कि ड्राइविंग मत सीखो लेकिन उसने मेरी बात नहीं सुनी.’ लेकिन युवा दिलखुश के लिए ड्राइविंग करना ही उनके आजाद ख्याल को मुकम्मल करता था. और इलाके की बेहतर सड़कों ने सहरसा जिले के बनगांव के इस युवक के सपनों को उड़ान दे दी.

Dilkhush Kumar's mother and father | Photo: Krishan Murari, The Print
दिलखुश कुमार के माता और पिता | फोटो: कृष्ण मुरारी/दिप्रिंट

बचपन में भी साइकिल खरीदने की उनकी चाहत संघर्ष भरी रही थी. कुमार की मां सोनी देवी ने दिप्रिंट को बताया, ‘हमारी पारिवारिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि हम उसे साइकिल खरीद कर दे सके. इसके लिए हमें पड़ोसियों से पैसे उधार लेने पड़े.’ उस वक्त मुश्किल से कुमार की उम्र 7-8 साल रही होगी.

लेकिन कुछ सालों बाद दिलखुश ने पटना में मोटर की नौकरी को ही चुना. 3500 रुपए प्रति महीने की सैलरी पर उन्होंने ड्राइविंग करनी शुरू की लेकिन जल्द ही उनका मन इससे उचट गया और खुद का बिजनेस शुरू करने का सपना उनके दिमाग पर छा गया. जल्द ही उन्होंने लोगों के घरों तक ताज़ी सब्जियां पहुंचाने का बिजनेस शुरू किया लेकिन उन्हें घाटा झेलना पड़ा.

अपने सपने को उड़ान देने के लिए उन्होंने नौकरी भी छोड़ दी. कुमार ने बताया कि मैंने जब नौकरी छोड़ी तो कार मालिक ने मुझसे कहा, ‘देखता हूं कि तुम कितनी जल्दी करोड़पति बनते हो.’ उस वक्त 20 वर्षीय कुमार ने करोड़पति बनने के बारे में सोचा भी नहीं था लेकिन उस व्यक्ति द्वारा कहे गए शब्द उनके दिमाग पर गहरा असर कर गए. उसी बीच कुमार के ही गांव के रहने वाले सुनील मिश्रा ने उसकी मदद की और पटना में फोटोकॉपी की दुकान खुलवाई. लेकिन यह भी ज्यादा दिनों तक चल नहीं सका क्योंकि दिलखुश जीवन में यहीं तक रुकना नहीं चाहते थे.

2016 में कुमार ने ओला, उबर की तर्ज पर कैब राइड सर्विस की शुरुआत की. एक ड्राइवर का बेटा होने के साथ उन्हें मालूम था कि बिहार में ड्राइवर्स की हालत बेहतर नहीं है, इसलिए ये सारी चीज़ें दुरुस्त करने के लिए अपने गांव से ही आर्या गो नाम से कैब सर्विस की शुरुआत कर दी.


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आर्या गो टू रोडबेज़

दिलखुश कुमार ने एक सेकेंड-हैंड नेनो कार से आर्या गो की शुरुआत की जिसे उन्होंने 50 हजार रुपए कर्ज लेकर खरीदा था. उन्होंने बनगांव के अपने घर में स्थित गौहाली (गाय रखने की जगह) में दफ्तर खोला और आने वाले वक्त में सेंट्रो कार भी खरीदी और अपने बिजनेस को विस्तार दिया.

उन्होंने बताया, ‘जब मैंने 2016 में शुरुआत की थी तब लोग स्टार्ट-अप के ‘एस’ शब्द के बारे में भी नहीं जानते थे.’ जब वे ग्रामीण उपभोक्ताओं तक कैब सर्विस पहुंचा रहे थे तब गांववाले ही उनका मजाक बनाते थे.

उन्होंने कहा, ‘पटना के अलावा, कैब के कंसेप्ट के बारे में कोई नहीं जानता था. हमने उन्हें इसके बारे में बताया.’ कुमार ने कहा कि शुरुआत के तीन साल काफी चुनौती भरे थे. उन्होंने कहा, ‘गांववाले मुझपर हंसते थे और मुझे पागल कहते थे कि इतनी महंगी कारों में यहां कौन चढ़ेगा.’

लेकिन अगले दो सालों में सबकुछ बदल गया. बिहार सरकार की बिहार स्टार्ट-अप नीति, 2017 के तहत उन्हें 6 लाख रुपए का लोन मिला जिसके जरिए उन्होंने आर्या गो का विस्तार एक एप-आधारित प्लेटफॉर्म बनाकर किया. गौहाली में छोटे से दफ्तर और एक कार से शुरू हुआ सफर बिहार के सात जिलों तक जल्द ही पहुंच गया जिससे इलाके के 500 ड्राइवर्स जुड़े.

Gaushala in Dilkhush Kumar's village home | Photo: Krishan Murari, The Print
दिलखुश कुमार के घर में स्थित गौशाला | फोटो: कृष्ण मुरारी/दिप्रिंट

लेकिन अब गांव में कोई यह बात नहीं कहता कि उन्हें टैक्सी की जरूरत नहीं है. कुमार कहते हैं, ‘अब वही लोग मेरे प्रयासों की सराहना करते हैं.’ छह सालों तक आर्या गो चलाने के बाद उन्होंने इस कंपनी से बाहर निकलकर कुछ नए आइडिया पर काम करने का सोचा. उन्होंने बताया, ‘आर्या गो में कोई इनोवेशन नहीं था.’

कुमार ने जीवन में फिर से एक चुनौती ली और रोडबेज़ उसी का परिणाम है.


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ड्राइवरों को जोड़ने की पहल

रोडबेज़ के जरिए कुमार बिहार में परिवहन व्यवस्था को दुरुस्त करना चाहते हैं और अपने मॉडल को भारत के दूसरे शहरों तक भी पहुंचाना चाहते हैं. उनका मानना है कि राज्य में स्थानीय परिवहन की सुविधा बेहतर नहीं है और इसी चीज़ को उनके नेटवर्क से जुड़ी गाड़ियां और ड्राइवर्क के जरिए ठीक करने में लगे हैं.

रोडबेज़ के साथ अभी तक 3000 गाड़ियां जुड़ चुकी हैं और हर बुकिंग पर 20 प्रतिशत कमीशन ली जाती है. कंपनी का लक्ष्य राज्य भर में 10 हजार गाड़ियों का नेटवर्क बनाना है. कंपनी ने एक अनोखी पहल भी की है जिसमें बिहार में सड़क दुर्घटना में मारे गए ड्राइवर्स के बच्चों की मुफ्त शिक्षा का खर्च एक एनजीओ की मदद से रोडबेज़ उठाएगी.

कंपनी का मॉडल ऐसा है कि एक रूट पर जो ड्राइवर जाता है, तो वापसी में वहीं किसी इलाके से दूसरा ग्राहक ड्राइवर से कनेक्ट करा दिया जाता है, ताकि गाड़ी को खाली न लौटना पड़े. कुमार कहते हैं कि राज्य में ग्राहकों की कमी नहीं है.

रोडबेज़ से जुड़े 26 साल के बजरंगी झा की आमदनी इस कंपनी में आते ही बढ़ गई. बतौर ड्राइवर अब वह हर महीने 12 हजार रुपए कमा लेते हैं. सहरसा के रहने वाले झा ने बताया, ‘किसी ने सपने में भी नहीं सोचा था कि कोई बिहार में मोबाइल फोन के जरिए अपने घर पर टैक्सी बुला लेगा लेकिन दिलखुश कुमार ने इस स्थिति को बदल दिया.’

रोडबेज़ राज्य के महत्वपूर्ण रूटों पर सस्ती कैब सुविधाएं भी उपलब्ध करा रही है. जैसे की सहरसा से पटना 1999 रुपए, पटना से दरभंगा के लिए 1500 रुपए देने पड़ते हैं. मुज्जफ्फरपुर से पटना के रास्ते में भी सवारियों की कमी नहीं है.


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बिहार में स्टार्ट-अप इकोसिस्टम

माना जाता है कि उद्योग और बिजनेस के लिहाज से बिहार एक ड्राई स्टेट है. लेकिन इस छवि से बाहर निकलने के लिए राज्य ने बीते कुछ समय में काफी प्रयास किए हैं. इसी साल राज्य बिहार स्टार्ट-अप नीति लेकर आया है जिसका उद्देश्य स्वतंत्र और पारदर्शी माहौल बनाना है.

हाल ही में बीती छठ पूजा के दौरान नीतीश कुमार सरकार ने कई अखबारों में विज्ञापन निकालकर व्यापारियों और बड़े उद्योगों को राज्य में आमंत्रित किया.

बात यहीं तक आकर नहीं टिकी है. स्टार्ट-अप रैंकिंग्स 2021 जिसे भारत सरकार के वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय द्वारा जारी किया गया है, उसके अनुसार बिहार स्टार्ट-अप इकोसिस्टम में देश का उभरता हुआ राज्य है. बिहार के विकास आयुक्त विवेक सिंह ने देश के बाहर रह रहे राज्य के लोगों से भी यहां आकर निवेश करने का आग्रह किया है.

बिहार में इन दिनों स्टार्ट-अप्स की बाढ़ आई हुई है और कुमार ने इन सब के बीच एक अलग मुकाम बना लिया है. गरीबी में बीते बचपन को वो अपनी सफलता से भुला देना चाहते हैं. उनका परिवार अभी भी सहरसा के बनगांव में एक मंजिला इमारत में रहता है जहां उनके पिता 4-5 गाय पालते हैं. और दिलखुश ने जिस गोहाली से अपने सफर की शुरुआत की थी वो जगह अब रोडबेज़ का दफ्तर बन गया है.

स्थानीय मीडिया ने उनकी सफलता को लोगों तक पहुंचाने में खासी मदद की है. 2018 में उन्होंने फाउंडर्स टॉक में भी हिस्सा लिया जहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उनके स्टार्ट-अप आर्या गो की काफी तारीफ की थी.

Dilkhush Kumar's home in his village | Photo: Krishan Murari, The Print
बिहार के सहरसा जिले के बनगांव में स्थित दिलखुश कुमार का घर | फोटो: कृष्ण मुरारी/दिप्रिंट

स्थानीय मीडिया में दिलखुश कुमार के लिए कुछ ऐसे शब्दों का इस्तेमाल किया गया, जिसने उनकी लोकप्रियता को इलाके में बढ़ा दिया. युवाओं का रोल मॉडल, टैक्सी वाला बन गया आइकन, बिहार का बेटा, ड्राइवर पुत्र कुछ ऐसे ही शब्द हैं.

सफलता ने कुमार से उनकी शालीनता को नहीं छीना बल्कि आज भी वे बड़े ही संयत ढंग से व्यवहार करते हैं.


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दिल्ली का सपना

दिलखुश की अब रोडबेज़ के 14 प्रतिशत शेयर को बेचकर 1.5 करोड़ रुपए जुटाना है ताकि कंपनी का और विस्तार किया जा सके. लेकिन कुछ चीज़ें अभी भी उनको मुश्किल में डालती है.

उन्होंने दिप्रिंट से बताया, ‘निवेशक बिहार नहीं आना चाहते. यहां 100-200 करोड़ रुपए जुटाना बहुत मुश्किल काम है. हमें भी निवेशकों द्वारा कहा जा रहा है कि यहां के बाजार से निकल जाओ लेकिन हम जिद्दी लोग हैं, यहीं से काम को आगे बढ़ाएंगे.’

ग्रामीण भारत में रोडबेज़ अभी अकेला प्लेयर है जो वन-वे कनेक्टिविटी की सुविधा दे रहा है. लेकिन अब इस आइडिया को कुमार दिल्ली तक ले जाना चाहते हैं. हाल ही में उन्होंने बिहार में एक निजी हवाई जहाज कंपनी से स्पेशल किराए की शर्त पर टैक्सी सर्विस देने के लिए गठजोड़ किया है.

हालांकि कुमार मानते हैं कि अभी उनके पास काफी समय है अपने सपने को और विस्तार देने का. इसी बीच अपने अतीत में झांकते हुए वह बताते हैं कि जब नौकरी की तलाश वह कर रहे थे तब एक बार इंटरव्यू में उनसे एप्पल आई-फोन का लोगो पहचानने के लिए बोला गया लेकिन उस वक्त 20 वर्षीय कुमार लोगो नहीं पहचान पाए. शायद अच्छा ही हुआ कि उस दिन वह ऐसा नहीं कर पाए. अगर ऐसा वह कर लेते तो नौ से पांच तक की नौकरी में उनकी सारी जिंदगी सिमट जाती.

कुमार कहते हैं, ‘अगर उस दिन मैं आई-फोन का लोगो पहचान लेता, तो जहां आज हूं वहां नहीं होता.’

(इस फीचर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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