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Thursday, 21 November, 2024
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हर साल की तरह असम में फिर जलप्रलय- क्यों उत्तरपूर्व में बाढ़ की समस्या गंभीर होती जा रही है?

इस साल पूर्वोत्तर भारत और बांग्लादेश में बाढ़ से लाखों लोग विस्थापित हुए हैं. अब एक सालाना रूप ले चुकी इस परिघटना के पीछे कई कारकों का एक अस्थिर संगम है जो एक पहले से ही खराब समस्या को और बदतर बना देता है.

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बेंगलुरू/सिलचर/गुवाहाटी: दक्षिणी असम के कछार जिले के सिलचर कस्बे के रहने वाले जॉयदीप विश्वास के लिए नदियों के द्वारा बरपाया जाने वाला कहर कोई नयी बात नहीं हैं. लेकिन आज के दिन में वह स्वयं असम और अन्य पूर्वोत्तर राज्यों में बड़े पैमाने पर आ रहे बाढ़ के पानी को देख स्तब्ध हैं.

52 वर्षीय प्रोफेसर बिस्वास, जो कछार जाने से पहले बाढ़-के ख़तरे वाली ब्रह्मपुत्र घाटी में ही पले-बढ़े थे, याद करके कहते हैं, ‘मैं यहां (कछार) छात्र था जब 1986 में और फिर 1990 के दशक में भीषण बाढ़ आई थी. पिछली बड़ी बाढ़ 2004 में आई थी. लेकिन मैंने ऐसी बाढ़ पहले कभी नहीं देखी,’

यह यहां एक आम शिकायत है. इस साल19-20 जून की दरमियानी रात को, बराक नदी का पानी एक तटबंध, जो सिलचर से लगभग 3 किमी दूर था, को तोड़ बह गया. रातों रात पूरे कस्बे में पानी भर गया. बिस्वास का अपार्टमेंट परिसर भी जलमग्न हो गया और उन्होंने अपने परिवार के साथ किसी तरह एक होटल में शरण ली. सिलचर के कई हिस्से अभी भी पानी में डूबे हुए हैं.

यह सिर्फ सिलचर की बात नहीं है. असम के अधिकांश जिलों में अप्रैल की शुरुआत से ही अभूतपूर्व बाढ़ आई हुई है, जिससे अब तक 31 लाख से अधिक लोग प्रभावित हुए हैं. बुधवार और गुरुवार के बीच बारह नई मौतें दर्ज की गईं, जिससे इस साल बाढ़ और भूस्खलन के कारण मरने वालों की संख्या बढ़कर 151 हो गई.

पड़ोसी राज्य अरुणाचल प्रदेश में भी पिछले हफ्ते हुई भारी बारिश के बाद आई बाढ़ में कम से कम तीन लोगों की मौत हो गई. मेघालय राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के अनुसार राज्य में 36 लोगों की मौत होने के साथ 6.3 लाख से अधिक लोग बाढ़ से प्रभावित हुए हैं.

बुधवार की देर रात, मणिपुर के नोनी जिले में लगातार हुई बारिश की वजह से बड़े पैमाने पर हुए भूस्खलन के बाद कम से कम 20 लोगों की मौत हो गई. बांग्लादेश में भी ऐसे ही हालात हैं और यहां बाढ़ के कारण लाखों लोग विस्थापित हुए हैं.

बांग्लादेश में इंटरनेशनल सेंटर फॉर क्लाइमेट चेंज एंड डेवलपमेंट (आईसीसीसीएडी ) के निदेशक सलीमुल हक ने कहा, ‘अभी हम जो भी देख रहे हैं वह हर 100 साल में एक बार आने वाले बाढ़ के स्तर का है. इसे अभी नहीं होना चाहिए था, लेकिन ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि जलवायु परिवर्तन ने मानसून के साथ छेड़खानी कर दी है और यह इन घटनाओं की भयावहता को बढ़ा रहा है.’

हालांकि, यह प्राकृतिक और मानव निर्मित ख़तरों से घिरे इस क्षेत्र में उस फेनोमेना का सिर्फ एक घटक है, जिसके कारण यह वर्षों से लगातार बिगड़ती बाढ़ की समस्या से जूझ रहा है.


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शक्तिशाली नदियां, भारी वर्षा

बड़ी, शक्तिशाली नदी प्रणालियां (रिवर सिस्टम्स) और भारी वर्षा भारतीय उपमहाद्वीप के उस हिस्से की विशेषता है जो बांग्लादेश, भूटान और म्यांमार से लेकर भारत के आठ पूर्वोत्तर राज्यों तक फैला है.

उपजाऊ मिट्टी और हरी-भरी हरियाली यहां की अच्छी बातें हैं. लेकिन भारतीय राज्यों के उबड़-खाबड़ एवं नुकीली चट्टानों वाले इलाके और ग्लेशियर, तथा बांग्लादेश के जलोढ़ मैदानों में आसानी से घुल कर बह जाने मिट्टी बाढ़ के प्रति उनकी संवेदनशीलता को बढ़ा देती है.

यह क्षेत्र गंगा-ब्रह्मपुत्र-मेघना बेसिन का हिस्सा है, जो दुनिया की सबसे बड़ी नदी प्रणालियों में से एक है. इसमें भारत, नेपाल, चीन, बांग्लादेश और भूटान में बंटा हुआ लगभग 1.7 मिलियन वर्ग किलोमीटर रकबा और एक 600 मिलियन (60करोड़) से अधिक लोग शामिल हैं.

ये तीन अलग-अलग नदियां और उनकी पेचीदा तौर से गुत्थमगुत्था सहायक नदियां, इन सभी का उद्गम हिमालय के ग्लेशियरों से ही है.

गंगा-ब्रह्मपुत्र-मेघना नदी बेसिन | दिप्रिंट टीम

एक ओर जहां गंगा भारत की ओर से निकलती है, वहीं ब्रह्मपुत्र चीन के तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र में यारलुंग ज़ंगपो (त्संगपो) के रूप में बहती है, और बाद में भारत से होकर गुजरते हुए बांग्लादेश में फिर जमुना के रूप में बहती है (इस गंगा के साथ मिलने वाली यमुना नहीं समझा जाना चाहिए). यह अंततः गंगा में विलीन हो जाती है और फिर संयुक्त रूप से पद्मा के रूप में बहती है.

बांग्लादेश में मेघना, जो पद्मा में विलीन हो जाती है, का उदगम बराक नदी के रूप में होता है जो नागालैंड, असम, मणिपुर और मिजोरम से होकर बहती है.

गर्मियों की शुरुआत से ही, मार्च के आसपास, ग्लेशियर पिघलने लगते हैं, जिससे इन सभी नदियों में बहने वाले पानी की मात्रा बढ़ जाती है. पूरे ब्रह्मपुत्र क्षेत्र में मानसून के दौरान 1,000 से 6,000 मिमी बारिश होती है, जो जून से अक्टूबर के दौरान काफ़ी बढ़ जाती है.

पुणे के भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान (इंडियन इन्स्टिट्यूट ऑफ ट्रॉपिकल मिटीयरॉलजी – आईआईटीएम) में सेंटर फॉर क्लाइमेट चेंज रिसर्च (सीसीसीआर) में जलवायु वैज्ञानिक के रूप में कार्यरत डॉ रमेश वेल्लोर और भूपेंद्र सिंह ने कहा कि मार्च और मई के बीच होने वाले मानसून के पहले की तीव्र वर्षा, और मानसून के बाद होने वाली सितंबर की बारिश बाढ़ आने का एक प्रमुख कारक है.

उन्होंने दिप्रिंट को भेजे गये एक संयुक्त ई-मेल में समझाते हुए लिखा, ‘जब मुख्य भूमि भारतीय ग्रीष्मकालीन मानसून (जून-सितंबर) में ब्रेक की स्थिति का अनुभव करती है, तो मध्य-पूर्वी हिमालयी तलहटी क्षेत्र की हिमालयी नदियों में अत्यधिक वर्षा और भारी बाढ़ की स्थिति पैदा करने में टॉप पर होती है.’

भारी मानसून के प्रभाव और हिमनदों के पिघलने की वजह से पानी की बढ़ी हुई मात्रा के कारण नदियों के निचले प्रवाह की तीव्रता बढ़ जाती हैं, जिसके परिणामस्वरूप अक्सर बाढ़ आ जाती है.


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‘लटदार’ नदियां और उनमें होने वाला कटाव

ब्रह्मपुत्र मे बड़ी मात्रा में पानी इसकी गाद लाने वाली सहायक नदियों के एक तंत्र (नेटवर्क) द्वारा पहुंचाया जाता है.

साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम्स, रिवर एंड पीपल के समन्वयक हिमांशु ठक्कर ने कहा, ‘जब नदी में बहुत अधिक मलबा जमा होता जाता है, तो यह इसे और अधिक उथला बनाता है और इसकी वहन क्षमता को कम करता है.’

मुख्य नदी में सीमाहीन, उथले पानी की बड़ी मात्रा के अस्थिर प्रवाह से कई परस्पर जुड़े हुए चैनल ( नहरों जैसी प्रवाह) बनते हैं, जो अपने रास्ते से अस्थायी डेपॉज़िट आइलैंडस (गाद जमा होने से बने द्वीप) पीछे छोड़ देते हैं, जिससे यह एक ‘लटदार’ (ब्रेडेड) नदी बन जाती है.

इन सहायक नदियों मे बारिश से पानी भर जाता है, जिससे बाढ़ के दौरान चैनल विलीन हो जाते हैं और व्यापक अनियंत्रित जल समूझ के रूप में मुड़ने और गिरने वाली पानी का एक धार का निर्माण होता है.

इस नदी प्रणाली में नदी के किनारों का कटाव स्वाभाविक रूप से काफ़ी अधिक और परिवर्तनशील होता है, यह बाढ़ में वृद्धि करता है और उन्हीं से उत्पन्न भी होता है, जिससे हर साल जलप्रलय की तीव्रता बिगड़ती जाती है.

A visual from Assam's flood-hit Nalbari district | ANI
असम के बाढ़ प्रभावित नलबाड़ी जिले का एक दृश्य | एएनआई

अध्ययनों से पता चला है कि ब्रह्मपुत्र और उससे भी अधिक अस्थिर पद्मा, जितनी मात्रा में सामग्री जमा करते हैं, उससे अधिक सामग्री को कटाव के द्वारा नष्ट कर देते हैं और सैकड़ों वर्ग किलोमीटर तक मिट्टी को लगातार चौड़ा और ढीला करते रहते हैं.

सर्वेक्षण के आंकड़ों से पता चलता है कि ब्रह्मपुत्र की लंबाई 1920 के दशक में 3,870 वर्ग किमी से बढ़कर 2006 में 6,080 वर्ग किमी हो गई है. इसमें शामिल हुआ बड़ी मात्रा वाला गाद – साल 2019 तक 11 मिलियन मीट्रिक टन – इसे बाढ़ के दौरान और भी विनाशकारी बना देता है.

ठक्कर ने कहा, ‘साक 1950 में एक आए बड़े भूकंप ने ब्रह्मपुत्र की पूरी बनावट को ही बदल दिया, जिससे बहुत अधिक गाद निकली और वह उथली हो गई.’

तटबंध: मददगार या हानिकारक?

हालांकि इस नदी का बेसिन हमेशा बाढ़ के ख़तरे वाला रहा है, फिर भी बाढ़ से निपटने के लिए बनाए गये तंत्र की वजह से कुछ अनपेक्षित परिणाम भी देखने को मिले हैं

जल शोधकर्ता सायनांग्शु मोदक द्वारा ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन के लिए लिखे गये एक लेख के अनुसार बांध, नहरों और तटबंधों को अंग्रेजों द्वारा बाढ़ नियंत्रण उपायों के रूप में पेश किया गया था और ये बाढ़ को रोकने के लिए ‘प्रमुख संस्थागत प्रतिक्रिया’ (डॉमिनेंट इन्स्टिट्यूशनल रेस्पॉन्स) बन गए हैं.

Assam Chief Minister Himanta Biswa Sarma visits Darrang district of Assam to inspect the breached LB embankment, caused due to the surging Saktola river in June | ANI
असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने जून में सकटोला नदी के उभार के कारण टूटे हुए एलबी तटबंध का निरीक्षण करने के लिए असम के दरांग जिले का दौरा किया | एएनआई

मोदक ने कहा, ‘मगर, कुछ तटबंधों के ‘अनावश्यक और अवैज्ञानिक निर्माण’ का अर्थ यह हुआ है कि आम तौर पर बाढ़ के दौरान आस-पास के मैदानों में वितरित हो जाने वाली गाद अब नदी के नाले में जमा हो जाती है, जिससे नदी के तल का स्तर उपर उठ जाता है.’

कई सारे तटबंध ब्रह्मपुत्र को सीमित करने में विफल रहे हैं और इस क्षेत्र में मनुष्यों द्वारा लगाए गए संरक्षण उपायों – आम तौर पर अस्थायी बाढ़ की दीवारें और कुछ मामलों में जियोट्यूब – को पानी द्वारा नष्ट कर दिया जाता है. इनके बारे में यह भी कहा जाता है कि कभी-कभी, ये पानी को वापस नदी में जाने से रोकते हैं, जिससे भूमि जलभराव में फंसी रहती है.

स्थानीय रिपोर्टों के अनुसार, असम में ब्रह्मपुत्र के साथ बनाए गये 423 तटबंधों में से 295 – जो साल 1940 के दशक के बाद से बनाए गये हैं – अब टूटने की चपेट में हैं. ‘नेचर फाउंड’ नामक पत्रिका में प्रकाशित के एक पेपर में कहा गया है कि 1960 के दशक में बने तटबंधों के कारण दक्षिण-पश्चिम बांग्लादेश में द्वीपों की ऊंचाई 1-1.5 मीटर तक कम हो गई है.

इस बीच, सरकारी संस्थाएं मौजूदा तटबंधों के अपग्रेड और नए तटबंधों के निर्माण पर जोर दे रही हैं. अगस्त 2021 की एक रिपोर्ट में, जल संसाधन पर स्थायी समिति ने इस बात को रेखांकित किया कि ब्रह्मपुत्र और उसकी सहायक नदियों की मुख्य धारा पर अधिकांश तटबंध 1960 और 1970 के दशक में बनाए गए थे, और उन्हें ऊपर उठाने और मजबूत करने की आवश्यकता थी, साथ ही साथ रीइन्फोर्स्ड सेमेंट कांक्रीट (आरसीसी) पोर्क्युपाइन्स के साथ इसके तटबंध के सुरक्षा उपायों की भी जरूरत है.

इस साल जनवरी में, असम सरकार ने घोषणा की कि वह 1,500 करोड़ रुपये की अनुमानित लागत से 1,000 किलोमीटर कंक्रीट के तटबंधों का निर्माण करेगी.

हालांकि, ठक्कर के अनुसार, तटबंध इस समस्या का अल्पकालिक समाधान हैं क्योंकि वे उनके निर्माण के समय तो सबसे अधिक कुशलता से काम करते हैं, लेकिन समय बीतने के साथ वे उसी तरह का प्रदर्शन करने की उनकी क्षमता खो देते हैं.
उनका कहना था, ‘नदी के किनारे बने तटबंधों ने समस्या को और भी बदतर बना दिया है, क्योंकि उनके भीतर गाद जमा हो जाती है, जिससे यह और भी उथला हो जाता है. जब नदी इन तटबंधों में से किसी एक को तोड़ती है, तो जिस तेज़ी से पानी बहता है, यह विनाशकारी होता है.’

आईसीसीएडी-बांग्लादेश के हक ने कहा कि जंगलों की कटाई और मैंग्रोव को हटाए जाने से बाढ़ का प्रभाव और बदतर हो गये हैं.

मैंग्रोव लहरों को तोड़कर निचले तटीय क्षेत्रों को तूफानी लहरों से बचाने के लिए जाने जाते हैं. वे तलछट को बनाए रखने और कटाव को कम करके भूमि को स्थिर भी रखते हैं.

हक ने कहा, ‘हमें पानी को नमी वाली ज़मीन (वेटलंड्स) में बहने देने के प्रति चौकस रहना होगा. इसके बजाय, हमने उन क्षेत्रों में सड़कों का निर्माण किया है, जो बाढ़ के प्रभावों का और भी बदतर बनाना निश्चित करते हैं. नदियों के साथ-साथ सड़कों और तटबंधों का निर्माण ग़लत परंपरा का एक रूप है.’

सड़कों के निर्माण में संरचनात्मक अखंडता को बनाए रखने के लिए पैड-पौधों को हटाना, सतह को दबाना और पानी की घुसपैठ को कम करना शामिल है. बाढ़ की वजह से हमेशा सड़कों के धवस्त होने का खतरा बना रहता है.

सड़कें बारिश के पानी और बाढ़ के पानी के निकालने की दक्षता में कमी आने का कारण बन सकती हैं, और ये अक्सर छोटे जल मार्गों को अवरुद्ध करते हुए, प्राकृतिक जल निकासी चैनलों के साथ आडे तौर पर बनाए जाते हैं. वे नदी द्वारा बहा कर लाई गई गाद के जमा होने का कारण बनते हैं, जिससे जल निकासी में स्थानीय स्तर पर रुकावटें आती हैं.


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असम का मामला

असम के बराक घाटी में स्थित कछार में भी भारी वर्षा के बाद आई अत्यधिक बाढ़ के चिरपरिचित पैटर्न का अनुसरण किया है, जिसके परिणामस्वरूप तटबंध टूट जाते हैं, इसके बाद कस्बों और गांवों में बाढ़ आ ज़ाती है.

दिप्रिंट के साथ बात करते हुए, कछार की उपायुक्त कीर्ति जल्ली ने कहा कि बाढ़ की पहली लहर इस क्षेत्र में 14 मई को आई थी.

उन्होंनें कहा, ‘उस समय बराक नदी खतरे के निशान को पार कर गई थी. कछार भी तेज बारिश से प्रभावित था. उत्तरी कछार की पहाड़ियों, मेघालय और मणिपुर से आने वाला पानी कछार जिले के जलग्रहण क्षेत्र में बहता है, जो फिर बांग्लादेश और फिर बंगाल की खाड़ी में चला जाता है. आखिरकार 23 मई को यह खतरे के निशान से नीचे चला गया.’

हालांकि, 18 जून को ‘यह फिर से खतरे के स्तर को पार कर गया और 24 घंटों के भीतर 1 मीटर तक ऊपर उठ गया’.
ब्रह्मपुत्र बराक के साथ मिलकर असम राज्य की पूरी लंबाई से होकर बहती है, जिससे पूरा राज्य बाढ़ की चपेट में आ जाता है.

कछार में बराक नदी | अंगना चक्रवर्ती | दिप्रिंट

विकास और पर्यावरण के क्षेत्र में काम करने वाले असम स्थित स्वतंत्र सलाहकार जयंत कुमार सरमा ने कहा कि पिछले तीन दशकों में, मानवीय गतिविधियों, जिसमें बस्तियां और नदियों तथा नदी के गलियारों पर बनी संरचनाएं जैसे कि पुल, बांध और तटबंध बनाना शामिल है, के कारण नदी बेसिन क्षेत्रों में ‘दबाव’ काफ़ी बढ़ा है.

उन्होंने कहा, ‘बाढ़ की बढ़ती तीव्रता में इनका सहवर्ती प्रभाव (कॉनकॉमिटेंट एफेक्ट) देखा जा सकता है.’

ग्लोबल हीटिंग से सब कुछ बिगड़ता जा रहा है.

विशेषज्ञों का कहना है कि इस अभूतपूर्व बाढ़ में हवा और सतह के तापमान में आई वृद्धि एक अहम भूमिका निभाती है जो इस क्षेत्र में जन-जीवन और आर्थिक गतिविधियों को प्रभावित कर रही है.

जलवायु वैज्ञानिक वेल्लोर और सिंह ने कहा, ‘वायुमंडलीय तापमान में वृद्धि से अधिक पानी भाप बनकर उड़ जाता है, जिससे हवा में नमी बढ़ जाती है. यह अत्यधिक वर्षा को बढ़ावा देता है. उन्होंने बताया कि मिनिस्ट्री ऑफ अर्थ साएंसेस (पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय) ने तीव्र, कम अवधि की बारिश के लिए अपनी रिपोर्ट में ‘मिनी-क्लाउडबर्स्ट’ शब्द का उपयोग करना शुरू कर दिया है, जो हिमालय (और पश्चिमी घाट) की तलहटी में इस तरह की बढ़ती प्रवृत्ति को दर्शाता है.

हिमालय के ग्लेशियरों के अत्यधिक रूप से पिघलने से उत्तरी तट की ओर से ब्रह्मपुत्र में प्रवेश करने वाले पानी के अत्यधिक प्रवेश में वृद्धि हुई है, जिससे यह अपने साथ और भी अधिक गाद लेकर आया है.

दूसरे तरफ, बांग्लादेश का समतल भूभाग भी विशेष रूप से बंगाल की खाड़ी से आने वाले चक्रवातों के प्रति ख़तरों से भरा है, जो जलवायु परिवर्तन और बढ़ती बाढ़ की घटनाओं से और अधिक मजबूत हुआ है.

इसके अलावा, अध्ययनों से पता चला है कि बढ़ते वैश्विक तापमान से भारत में मानसून का पैटर्न लगातार प्रभावित हुआ है, और लगातार पैदा हो रही समुद्री गर्मी की लहरें उस मौसमी बारिश में बड़े बदलाव का कारण बन सकती हैं, जिस पर कम से कम एक अरब लोग निर्भर करते हैं.

ऊर्जा, पर्यावरण और जल परिषद के अनुसार, असम भारत के सबसे जोखिम भरे राज्यों में से एक है, जो चरम जलवायु परिवर्तन की घटनाओं से त्रस्त है.

इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) के अनुसार, तापमान में हुई हर एक डिग्री की वृद्धि अपने साथ नमी में 7 प्रतिशत की वृद्धि लाती है, जो दक्षिण एशियाई मानसून को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करती है. पूर्व-औद्योगिक काल की तुलना में वैश्विक तापमान पहले ही 1.1 डिग्री तक बढ़ चुका है.

आईआईटीएम के वेल्लोर और सिंह, जो संभावित जलवायु परिदृश्यों के मॉडल भी तैयार करते हैं, ने कहा कि विभिन्न जलवायु मार्गों के भविष्य के अनुमान भूमि के तापमान, वर्षा, उष्णकटिबंधीय चक्रवात, हिमालयी क्रायोस्फीयर (जमे हुए हिस्से) जैसे कई प्रमुख मापदंडों में ‘ज़बर्दस्त’ परिवर्तन दिखाते हैं, जो क्षेत्र के लिए एक बुरी खबर है.

उन्होंने आगे कहा, ‘इस तरह के स्थलाकृतिक रूप से (टपोग्रॅफिकली) जटिल क्षेत्र के साथ, गर्म होते वातावरण में वर्षा की चरम सीमा में आई वृद्धि, ग्लेशियर के पिघलने की दर में आई वृद्धि के साथ मिलकर भविष्य में लगातार और अधिक तीव्र चरम घटनाओं में अपना योगदान कर सकती है.’

‘अब तक के उपाय अस्थायी ही रहे हैं’

शोधकर्ता जयंत सरमा के अनुसार, अब तक किए गये राहत और बचाव के उपाय काफी हद तक अल्पकालिक और प्रतिक्रियास्वरूप ही रहे हैं.

दूसरे विशेषज्ञों के साथ सहमति जताते हुए उन्होंने कहा, ‘ राहत और बचाव के जो भी उपाय किए गये हैं, वे बहुत अस्थायी हैं.’

उनका कहना है कि इस सब के बजाय, ‘संरचनात्मक’ और ‘दीर्घकालिक पहल’ की आवश्यकता है इनमें प्रभावित क्षेत्रों में रहने वाले लोगों की आजीविका को समर्थन पर ध्यान केंद्रित करने के साथ-साथ ‘नदी बेसिन प्रबंधन, जलग्रहण क्षेत्र के उपचार, वाटरशेड प्रबंधन, नदी गलियारों को बनाए रखने के लिए रिपेरियन (नदी तट) प्रबंधन, इसके प्रवाह नेटवर्क, और भूमि एवं मिट्टी का संरक्षण शामिल हैं,

NDRF personnel with relief material leave for the outskirts of Silchar town | Angana Chakrabarti | ThePrint
राहत सामग्री के साथ एनडीआरएफ कर्मी सिलचर शहर के बाहरी इलाके के लिए रवाना | अंगना चक्रवर्ती | दिप्रिंट

इसके अलावा, शहरीकरण की तीव्र दर को देखते हुए, शहर / नगर की प्लांनिंग (नियोजन) को 30 वर्षों के लिए बारिश की भविष्यवाणियों को ध्यान में रखना होगा. उन्होंने कहा कि विभिन्न जलवायु परिवर्तन अध्ययनों से संकेत मिलता है कि पूर्वोत्तर के शहरी वायुमण्डलीय क्षेत्रों जैसे कि होजई, कार्बी आंगलोंग, दीमा हसाओ और सिलचर में आगे और अधिक वर्षा होगी.’

विशेषज्ञों का यह भी मानना है कि भूमि और जल प्रबंधन के लिए ‘पारंपरिक ज्ञान-आधारित प्रथाओं‘ पर अधिक जोर दिया जाना चाहिए. सरमा ने कहा, ‘ऐसी प्रथाओं के गायब होने के साथ, कुछ क्षेत्रों में अनिश्चितता भी काफ़ी बढ़ गई है.’

असम के एक स्वतंत्र शोधकर्ता मिर्जा जुल्फिकार रहमान ने जोर देकर कहा कि बाढ़ की तैयारी के उपायों को लागू करने में स्थानीय समुदायों को भी शामिल किया जाना चाहिए.

उन्होंने कहा, ‘ये समुदाय दशकों से बाढ़ के साथ जी रहे हैं. उनकी बात को सुनना और फिर बाढ़ से पहले उन्हें अमल में लाने की कोशिश करना इसके बुरे प्रभाव को कम करने में मदद कर सकता है.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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