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Thursday, 25 April, 2024
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अफगान राजदूत मामुंदजई ने कहा—तालिबान के साथ रचनात्मक तरीके से काम कर सकता है भारत

भारत में अफगानिस्तान के राजदूत फरीद मामुंदजई ने दिप्रिंट को दिए एक एक्सक्लूसिव इंटरव्यू में कहा कि अगर भारत तालिबान का साथ दे तो यह तालिबान को ‘कानून का राज स्वीकारने’ के लिए ‘प्रोत्साहित’ कर सकता है.

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नई दिल्ली: भारत के पिछले हफ्ते काबुल में अपना दूतावास फिर खोलने और तालिबान की तरफ से इस कदम का स्वागत किए जाने के बीच भारत में अफगानिस्तान के राजदूत ने कहा है कि नई दिल्ली को अब तालिबान को ‘रचनात्मक तरीके से’ अपने साथ जोड़ना चाहिए और उन्हें कानून का राज स्वीकारने और राजनीतिक दलों को साथ लेकर चलने के लिए ‘प्रोत्साहित’ करना चाहिए.

अशरफ गनी के नेतृत्व वाली सरकार के समय भारत में अफगानिस्तान के राजदूत नियुक्त किए गए फरीद मामुंदजई ने दिप्रिंट के साथ बातचीत में खुलकर अपनी बात कही. उन्होंने कहा कि 15 अगस्त 2021 को तालिबान के सत्ता पर काबिज हो जाने के बाद जब नई दिल्ली ने काबुल में अपना दूतावास बंद कर दिया तो अफगान लोगों को ऐसा लगा कि ‘वे अकेले रह गए हैं.’

नई दिल्ली स्थित दूतावास की दीवार पर अभी भी लगे गनी के एक चित्र और अफगानिस्तान के तत्कालीन इस्लामी गणराज्य वाले पुराने तिरंगे अफगान झंडे के सामने बैठे मामुंदजई ने अफगानिस्तान की राजधानी में अपना दूतावास फिर से खोलने के भारत के फैसले की सराहना की और इसे ‘एक सकारात्मक कदम’ बताया.

उन्होंने कहा कि यह नई दिल्ली को मानवीय संकट से जूझ रहे अफगान लोगों की सीधे मदद में सक्षम बनाएगा, साथ ही भारत के अपने सुरक्षा दृष्टिकोण से भी यह कदम काफी अहम है क्योंकि इससे उसे ‘अफगानिस्तान में आतंकवादी गतिविधियां बढ़ने’ पर नजर बनाए रखने में मदद मिलेगी.

मामुंदजई ने 15 अगस्त 2021 के घटनाक्रम पर भी चर्चा की—जिस दिन पश्चिमी देशों की सेना द्वारा जल्दबाजी में वापसी शुरू करने के साथ ही काबुल पर तालिबान का कब्जा हो गया था, और साथ ही बताया कि उससे कुछ ही दिन पहले तक गनी सरकार तालिबान लड़ाकों से मोर्चा लेने के लिए कैसे ज्यादा से ज्यादा सैन्य समर्थन और हथियारों हासिल करने की कोशिश में जुटी थी. पूर्व राष्ट्रपति गनी अपने पूरे मंत्रिमंडल के साथ उसी दिन अफगानिस्तान छोड़कर भाग गए थे, जिस दिन तालिबान ने काबुल पर कब्जा किया था.

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उन्होंने कहा, ‘अमेरिका ने अफगानिस्तान में युद्ध खत्म नहीं किया था, बल्कि जंग जारी रहने के बीच खुद इससे किनारा कर लिया. उसने हमें ऐसी स्थिति में छोड़ा जब हम युद्ध लड़ रहे थे और दुख की बात है कि खराब नेतृत्व के कारण हमें नाकामी झेलनी पड़ी. हम न केवल पश्चिम की वजह से असफल हुए, बल्कि तमाम ऐसे उदाहरण हैं जो बताते हैं कि हमने ये नाकामी खुद मोल ली.’

अफगानिस्तान में संकट के बावजूद अफगान दूतावासों के बिना किसी रोक-टोक के काम करने पर मामुंदजई ने कहा कि अफगानिस्तान के सैकड़ों  राजनयिक कम राशि मिलने के बावजूद इस उम्मीद के साथ काम कर रहे हैं कि ‘तालिबान शांति को एक मौका देगा.’


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भारत को तालिबान का रुख ‘भुनाने’ की जरूरत है

सितंबर 2020 से भारत में बतौर अफगान राजदूत कार्यरत मामुंदजई ने कहा कि अफगानिस्तान के लोग हमेशा अपने देश में ‘भारत की अधिक से अधिक भागीदारी की इच्छा रखते हैं.’ यही कारण है कि जब भारत ने अचानक ही वहां अपना दूतावास बंद कर दिया तो अफगानों ने ‘खुद को एकदम अकेला महसूस किया.’

उन्होंने कहा, ’हमारे बीच बहुत करीबी संपर्क रहे हैं. आज (अफगान) गणराज्य तो नहीं बचा है लेकिन भारत के लोगों के साथ उनके (अफगान) रिश्ते कायम हैं. यह भारत और अफगानिस्तान के बीच का संबंध है न कि भारत गणराज्य और अफगानिस्तान गणराज्य के बीच का.’

मामुंदजई ने दिप्रिंट से बातचीत में कहा, ‘ये संबंध कई सहस्राब्दियों पुराने हैं. शासन में बदलाव और सरकारों में बदलाव की परवाह किए बिना ये संबंध बने रहे हैं और बने ही रहेंगे.’

उन्होंने कहा, ‘जब काबुल तालिबान के हाथ में जा रहा था, उस समय हम भारत से तमाम उम्मीदें कर रहे थे. हमें भरोसा था कि एक मजबूत और ऐतिहासिक मित्र के तौर पर भारत मुश्किल समय में अफगानिस्तान के लोगों की मदद के लिए कुछ पहल करेगा. लेकिन दुख की बात है कि ऐसा कुछ नहीं हुआ.’

मामुंदजई ने काफी जोर देकर कहा कि भारत तब आगे नहीं आया जब पिछले साल अमेरिका और यूरोपीय देश आम अफगानिस्तानी नागरिकों को तालिबान शासन से दूर भागने में मदद कर रहे थे.

उन्होंने कहा, ‘अफगान नागरिकों को देश छोड़ने के लिए मदद की जरूरत थी. अमेरिका ने बहुत मदद की, यूरोपीय देशों—यूके, फ्रांस, जर्मनी और इटली आदि—ने आगे आकर जिम्मेदारी संभाली. लेकिन दुख की बात है कि भारत की तरफ से ऐसा कुछ नहीं किया गया. ऐसे में अफगान लोगों को लगा कि वे अलग-थलग पड़ गए हैं.’

उन्होंने यह भी याद दिलाया कि कैसे भारत ने अफगान नागरिकों को जारी सभी वैध वीजा रद्द करने का फैसला किया और एक ई-वीजा प्रणाली अपना ली, जिससे उन अफगानों के लिए काफी मुश्किलें खड़ी हो गईं जो भारत आना चाहते थे.

मामुंदजई ने कहा, ‘नई दिल्ली की तरफ से एक आम दृष्टिकोण अपनाया गया…पूरा देश रातों रात तालिबान नहीं बन सकता था. छात्र थे, भारत के कुछ बहुत ही ऐतिहासिक मित्र थे, लेकिन उनका सहयोग नहीं किया गया, उन्हें एक बड़े संकट के समय पर उपयुक्त सहायता मुहैया नहीं कराई गई.’

उन्होंने कहा कि हालांकि, यह अच्छी बात है कि भारत ने विदेश मंत्रालय (एमईए) में संयुक्त सचिव (पाकिस्तान-अफगानिस्तान-ईरान डिवीजन) जे.पी. सिंह के नेतृत्व में एक प्रतिनिधिमंडल के इस माह के शुरू में काबुल पहुंचने के कुछ ही हफ्तों के भीतर अपने राजनयिक मिशन को फिर से खोलने का फैसला किया है.

उन्होंने इस बात को भी रेखांकित किया कि, ‘अफगानिस्तान में जो कुछ भी हो रहा है, सुरक्षा कारणों से भारत उस पर आंखें नहीं मूंद सकता है.’ साथ ही कहा कि अन्य देशों के अलावा चीन, पाकिस्तान, ईरान, उज्बेकिस्तान सहित कई क्षेत्रीय ताकतों ने भी अफगानिस्तान की राजधानी में अपनी उपस्थिति बनाए रखने का विकल्प चुना है.’

‘भारत के लिए इससे बाहर होना मुमकिन नहीं था. अफगान लोग काबुल में नई दिल्ली की मौजूदगी चाहते हैं.’

मामुंदजई ने कहा, ‘भारत तालिबान के साथ रचनात्मक ढंग से काम कर सकता है. दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के नाते भारत को यहां एक बड़ी भूमिका निभानी है और वो यह कि तालिबान को आगे बढ़कर कानून का राज स्थापित करने, राजनीतिक दलों को साथ लेकर चलने और अन्य उचित कदम उठाने के लिए प्रोत्साहित करना.’

यह आगाह करते हुए कि ‘अफगानिस्तान में अस्थिरता से पूरे क्षेत्र को नुकसान होगा’ अफगान राजदूत ने कहा कि वहां भारत की पैठ ‘नैतिक रूप से सही है, राजनीतिक तौर पर भी सही है और तालिबान ने भारत की भागीदारी का स्वागत किया है.’

उन्होंने कहा, ‘मुझे लगता है कि भारत को इस क्षेत्र की बेहतरी और अफगानिस्तान की बेहतरी के लिए इसका फायदा उठाना चाहिए.’


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‘अमेरिका ने युद्ध में भागीदारी खत्म कर दी, लेकिन जंग जारी’

करीब दो दशकों तक जंग लड़ने के बाद अमेरिकी सैनिकों की वापसी का जिक्र करते हुए मामुंदजई ने कहा कि अफगानिस्तान में युद्ध जारी है और इसके साथ ही अफगान लोगों की पीड़ा भी बदस्तूर बरकरार है.

उन्होंने कहा, ‘अफगानिस्तान का पतन कोई रातों रात नहीं हुआ, इसकी शुरुआत तब हुई जब अमेरिका तालिबान के साथ शांति समझौते के करीब पहुंच गया और जब तालिबान को लगा कि जब वे काबुल पर जबरन कब्जा कर सकते हैं, तो फिर बातचीत क्यों करें? उन्हें पश्चिमी जनरलों, अमेरिका की तरफ से खुली छूट दे दी गई थी.’

मामुंदजई ने आगे स्पष्ट किया, ‘तालिबान को यह बात समझ आ गई थी कि जैसे ही सेना चली जाएगी, वे देश पर कब्जा कर सकते हैं. हम तो युद्धक मशीनरी, गोला-बारूद और रसद के लिए अमेरिका और नाटो के अन्य सहयोगियों पर निर्भर थे. और आखिरी दिनों में तो (पतन से पहले) हमारे लिए रसद एक बड़ा मुद्दा बन गया था, गोला-बारूद की उपलब्धता हमारे लिए चुनौती थी. यह कोई ऐसी सेना नहीं थी जो सैकड़ों वर्षों या आधी सदी तक अस्तित्व में रही हो. यह एक ऐसी सेना थी जो करीब 15 वर्षों में ही बनी थी.’

उन्होंने कहा कि अफगान सेना ‘मोटे तौर पर आतंकवाद निरोधक बल जैसी’ थी और यह ‘कोई पारंपरिक सेना नहीं थी.’

मामुंदजई ने कहा, ‘उन्होंने अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया लेकिन अकेले रह गए. अमेरिका ने अफगानिस्तान का युद्ध खत्म नहीं किया, बल्कि जंग जारी रहने के दौरान ही अपनी भागीदारी खत्म कर दी.’

अफगान राजनयिक ने उस समय काबुल तालिबान के हाथों में चले जाने के लिए अफगानिस्तान के ‘खराब नेतृत्व’ को भी दोषी ठहराया. हालांकि, उन्होंने कहा कि पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई और अब्दुल्ला अब्दुल्ला—राष्ट्रीय स्तर पर सुलह के लिए उच्च परिषद के पूर्व अध्यक्ष—वहां एक स्थिर राजनीतिक व्यवस्था के लिए तालिबान के साथ सक्रिय तौर पर बातचीत कर रहे हैं.

अफगानिस्तान में बढ़ रहा आतंकवाद

मामुंदजई ने यह भी कहा कि जहां सभी की नजरें अब रूस-यूक्रेन युद्ध पर टिकी हैं, वहीं इस क्षेत्र में लश्कर-ए-तैयबा (एलईटी), जैश-ए-मोहम्मद (जेईएम) और सबसे बड़ी बात आईएसआईएस-खोरासन (आईएसआईएस-के) की सक्रिय मौजूदगी के साथ अफगानिस्तान में आतंकी गतिविधियां बढ़ रही हैं.

अफगानिस्तान में कम से कम 21 आतंकवादी संगठन सक्रिय हैं, जबकि आईएसआईएस-के के आतंकियों की संख्या पिछले अगस्त से 2,000 से दोगुनी होकर 4,000 पर पहुंच गई है. साथ ही इस ओर भी ध्यान आकृष्ट किया कि मस्जिद और गुरुद्वारों जैसे धार्मिक स्थलों के साथ-साथ उन जगहों पर भी हमले बढ़े हैं जहां सूफीवाद प्रचलन में है.

उन्होंने कहा, ‘अफगान अत्यधिक संघर्षों से तंग आ चुके हैं…हम, अफगान, कभी भी किसी बड़ी आतंकवादी गतिविधियों में शामिल नहीं रहे हैं.’

उन्होंने दिप्रिंट से कहा, ‘9/11 हमले में कोई भी अफगान शामिल नहीं था, किसी भी अफगान ने उन विमानों का अपहरण नहीं किया जो ट्विन टावरों से टकराए थे; लंदन बम विस्फोट 7/7 (2005), मैड्रिड बम हमले (2004), ताज पैलेस हमले (26/11), भारतीय संसद पर हमले (2001), पुलवामा (2019) या क्षेत्र में या अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर किसी भी अन्य हमले में कोई भी अफगान शामिल नहीं था. फिर भी, अफगानों को उन अत्याचारों की कीमत चुकानी पड़ती है. हम पीड़ित हैं. हमें मदद की ज़रूरत है. हमारे लोगों को आतंकवादी संगठनों ने बंधक बना रखा है.’

मामुंदजई ने कहा कि उन्हें उम्मीद है कि अफगानिस्तान की अंतरिम तालिबान सरकार एक संविधान और निर्वाचित सदस्यों और विपक्षी दलों के साथ एक संसद के साथ किसी राजनीतिक संरचना की स्थापना का कोई न कोई तरीका जरूरत खोज लेगी.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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