भारत की आजादी की बात हो और देश की वीरांगनाओं का जिक्र न हो तो आजादी अधूरी-अधूरी लगती है. इनमें से कई स्वतंत्रता सेनानी प्रसिद्ध हैं, लेकिन उनमें से कई ऐसे हैं जो इतिहास के पन्नों में खो गए हैं. ऐसा ही एक नाम है रानी गाइदिनल्यू का, जो मणिपुर की रहने वाली थी. वह भारत की प्रसिद्ध महिला क्रांतिकारियों में से एक थीं जिनको ‘नागालैंड की रानी लक्ष्मीबाई’ भी कहा जाता है.
गाइदिनल्यू स्वतंत्रता संग्राम में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. हालांकि, उनकी चर्चा अन्य क्रांतिकारियों जितनी नहीं होती है.
किशोरावस्था से ही आंदोलन में हुई थी शामिल
13 साल की उम्र में ही रानी गाइदिन्ल्यू अंग्रजो के खिलाफ स्वतंत्रता की लड़ाई में कूद पड़ीं थी. वह अपने चचेरे भाई जादोनाग के ‘हेराका’ आन्दोलन में शामिल हो गयीं. हेराका आंदोलन का लक्ष्य था क्षेत्र में नागालैंड की विभिन्न जनजातियों की पारंपरिक धार्मिक मान्यताओं और सांस्कृतिक विरासत को स्थापित करना अंग्रेज़ों को अपनी मिट्टी से खदेड़ना. इस आंदोलन में गाइदिन्ल्यू सबसे आगे थीं.
जादोनाग का ये आंदोलन जब तक बड़ा रूप ले पाता उससे पहले अंग्रेजो ने उन्हें गिरफ्तार करके 29 अगस्त, 1931 को फांसी पर लटका दिया था. जिसके बाद स्वतंत्रता के लिए चल रहे आन्दोलन का नेतृत्व अब गाइदिनल्यू के हाथों में आ गई थी. वहां के लोग उन्हें सर्वशक्तिशाली देवी मानने लगे थे.
गाइदिनल्यू ने गांधी के अंग्रेजो के खिलाफ चलाई जा रही टैक्स की कई बातें सुनी थीं, जिसके बाद उन्होंने ब्रिटिश सरकार को किसी प्रकार का ‘कर’ न देने की घोषणा की. गाइदिनल्यू ब्रिटिश सरकार द्वारा लगाए गए कठोर कर और नियमों के ख़िलाफ जेलियांग्रांग कबीले के लोगों को एकजुट करने लगी. लोगों ने किसी भी तरह का कर देने से साफ मना कर दिया था. धीरे-धीरे कई कबीलों के लोग इस आन्दोलन में शामिल भी हो गए.
जब अंग्रेज़ों ने नगाओं का धर्म परिवर्तन कराने की मुहिम शुरु की तो गाइदिनल्यू ने इसका जमकर विरोध किया. तब गाइदिन्ल्यू के शब्द थे, “धर्म को खो देना अपनी संस्कृति को खो देना है, अपनी संस्कृति को खोना यानी अपनी पहचान को खोना”.
उसी के तीन साल बाद यानि गाइदिनल्यू जब 16 साल की थीं तब वह ब्रिटिश सरकार के विरोध में लड़ने वाली एक छापामार दल की नेता बन गयीं.
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16 साल की उम्र में हुई जेल
हालांकि जादोनाग की गिरफ़्तारी के बाद से ही ब्रिटिश प्रशासन गाइदिनल्यू की गिरफ़्तारी की ताक में था लेकिन रानी प्रशासन को चकमा देने के लिए असम, नागालैंड और मणिपुर के एक-गांव से दूसरे गांव घूमती रहीं.
1932 को हान्ग्रुम गांव के 50-60 कबीलों ने अंग्रेज सिपाहियों पर हमला कर दिया जिसके बाद अंग्रेज़ों ने इस हमले का बदला लेने के लिए रानी गाइदिनल्यू की खोज शुरू करी.
असम के प्रशासन ने अंत में रानी गाइदिनल्यू को पकड़ने में मदद करने के लिए इनाम घोषित कर दिया. 17 अक्टूबर 1932 को रानी और उनके कई समर्थकों को गिरफ्तार कर लिया गया.
16 साल की उम्र में ही ब्रिटिश हुकूमत ने उन्हें गिरफ्तार कर आजीवन कारावास की सजा सुना दी थी. 1932 से लेकर 1947 तक यह गाइदिनल्यू उत्तर-पूर्व के कई जेलों में भेजी गईं थीं. 1947 में देश की आजादी के बाद जब उन्हें रिहाई मिली तब भी वो समाज की भलाई के लिए काम करती रहीं.
हमेशा करती रहीं देश की देखभाल
आजाद भारत में रानी नागा नेशनल काउंसिल के खिलाफ थीं. ये काउंसिल वहां के लोगों के लिए अलग देश की मांग कर रही थी और भारत से अलग होना चाहती थी. लेकिन रानी गाइदिन्ल्यू ने भारत में ही अलग जेलियांग्रांग क्षेत्र की मांग की. नागा नेताओं ने रानी की मांग का विरोध किया और उन्हें 1960 में मजबूरन दोबारा अंडरग्राउंड होना पड़ा.
गाइदिनल्यू का कहना था कि, ‘अपनी संस्कृति, भाषा और अपनी मिट्टी को नजरअंदाज करने का मतलब होगा, अपनी पहचान को गंवा देना.’ हेराका संस्कृति को बचाए रखने के लिए वह सिर्फ अंग्रेजों से ही नहीं लड़ी थीं, उन्होंने अपने ही समाज के लोगो का भी सामना किया था.’
‘नागालैंड की लक्ष्मीबाई’
जिस तरह से आज़ादी तक गाइदिनल्यू ने अंग्रेजो का सामना किया और अपना साहस दिखाती रहीं उसे देख के वह ‘नागालैंड की लक्ष्मीबाई’ के तौर पर भी जानी जाने लगीं. गाइदिनल्यू की बढ़ती लोकप्रियता ने ब्रिटिश हुकूमत को परेशान कर दिया था. उन्होंने हमेशा तीर-कमान और भालों से ही अंग्रेजी बंदूकों का मुकाबला किया.
24 अगस्त, 2015 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गाइदिनल्यू को ‘रानी-मां’ कहकर बुलाया था. इनके नाम पर एक स्त्री शक्ति पुरस्कार भी शुरू किया गया और भारतीय तटरक्षक दल के एक जहाज का नाम भी उनके नाम पर रखा गया है.
केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने 2022 में वर्चुअल माध्यम से मणिपुर में ‘रानी गाइदिन्ल्यू ट्राइबल फाइटर्स म्यूजियम’ का उद्धघाटन किया था. इस मौके पर उन्होंने रानी रानी गाइदिनल्यू को वीरता और साहस का प्रतीक बताया था. उन्होंने कहा था भारत सरकार इस म्यूजियम का निर्माण 15 करोड़ रुपये के लागत से करवाएगी, जो जनजातीय कल्याण मंत्रालय ने मंजूर किया है.
देश के प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू जब इम्फाल पहुंचे ने गाइदिनल्यू को ‘पहाड़ों की बेटी’ बताया और उनके साहस के लिए उन्होंने ही उन्हें ‘रानी’ की उपाधि दी.
गाइदिनल्यू को मिले कई पुरस्कार
गाइदिनल्यू को 1972 में स्वतंत्रता सेनानी ताम्रपत्र, 1982 में पद्म भूषण, 1983 में विवेकानंद सेवा सम्मान से सम्मानित किया गया. रानी गाइदिनल्यू की मृत्यु के बाद 1996 में भारत सरकार ने उनके सम्मान में एक डाक टिकट जारी किया था और 2015 में एक स्मारक सिक्का भी जारी किया गया था.
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