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Thursday, 26 December, 2024
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क्रिप्टो या डिजिटल करेंसी से डरिए मत, युवाओं को ऑनलाइन सेवाओं के विस्तार का लाभ लेने दीजिए

दुनिया में युवाओं की सबसे बड़ी आबादी भारत में है. सवाल यह है कि क्या उन्हें डिजिटल सेवाओं के विस्फोट का फायदा उठाने का नीतिगत माहौल बनाया जाएगा.

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कोविड के बाद की दुनिया ग्लोबल डिजिटल सेवाओं के विस्फोट से रू-ब-रू है और इस बार बात केवल सॉफ्टवेयर इंजीनीयरों की नहीं है. दुनिया भर में ज्यादा से ज्यादा व्यवसाय, घर और संस्थाएं अब डिजिटल अर्थव्यवस्था के किसी-न-किसी पहलू से जुड़ रहे हैं. महामारी के बाद, योग की कक्षाओं से लेकर हिसाब-किताब रखने के मामले उन सेवाओं की मांग काफी बढ़ गई है जो दुनिया के किसी भी कोने से दी जा सकती है.

अब सवाल यह है कि नीति निर्माता यह व्यवस्था कैसे करते हैं कि भारत की श्रम शक्ति और अर्थव्यवस्था को डिजिटल माध्यम से आपस में जुड़ी वैश्विक सेवाओं के बाज़ार के विस्तार से किस तरह फायदा दिलाते हैं. इस नई दुनिया में भारत के लिए लाभ उठाने की बड़ी संभावनाएं हैं. उसके पास दुनिया की सबसे युवा और सबसे विशाल श्रम शक्ति मौजूद है.

खासकर युवा लोग नई टेक्नोलॉजी और कार्य पद्धति को अपनाने में सबसे तेज होते हैं. वो मोबाइल एप्स और डिजिटल लेन-देन को तुरंत अपना लेते हैं और नए हुनर सीखने में में भी आगे रहते हैं. अंग्रेजी भाषा एक अतिरिक्त नेमत है. तमाम दूसरे देशों के मुक़ाबले भारत प्रतिस्पर्द्धी दरों की पेशकश करने में अधिक सक्षम है.

सवाल यह है कि क्या भारत के नीति निर्माता देश के युवाओं को इन अवसरों का लाभ उठाने लायक अनुकूल
माहौल दे पाएंगे?


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भारत को बढ़त

चीन ने बड़े पैमाने पर मैनुफैक्चरिंग से निर्यात में वैश्विक वृद्धि की लहर का फायदा उठाया जबकि इसमें चूक
गया. प्रारंभिक स्थितियों के लिहाज से भारत के पास बेहतर क्षमता है कि वह सेवाओं के क्षेत्र में विस्तार के
कारण जो अगली लहर आ रही है उसका लाभ उठा सके.

इस विस्तार के कई पहलू हो सकते हैं. पारंपरिक सॉफ्टवेयर सेवाओं के निर्यात से लेकर कानून, मेडिकल,
अकाउंटिंग, शिक्षा और सेहत जैसे नए क्षेत्रों में जो वैश्विक वृद्धि होगी वह भारत के लिए सामाजिक और
सांस्कृतिक रूप से अधिक मुफीद होगी.

अपनी युवा और कामगार आबादी के बूते भारत विकसित होते डिजिटल सेवा क्षेत्र से तुरंत जुड़ने में सफल रहा
है. बीपीओ और सॉफ्टवेयर कोडिंग से लेकर योग, भाषा, कूकिंग, टेलीमेडिसिन, शिक्षा तकनीक, लॉजिस्टिक्स
मैनेजमेंट आदि से संबंधित सेवाओं के विस्तार में भारत के युवा सीधे योगदान दे रहे हैं. इनके लिए बड़े निवेश
की जरूरत नहीं होती. ये काम ‘वर्क फ़्रोम होम’ वाली व्यवस्था में किए जा सकते हैं.

भारत में रहने के कारण हम ये सेवाएं काफी प्रतिस्पर्द्धी दरों पर दे सकते हैं. इस लिहाज से यह संगठित और
बड़े सेक्टरों में आए सॉफ्टवेयर, बीपीओ, केपीओ के विस्फोट के जैसा है लेकिन वह भी भारत में सस्ते श्रम और
रहनसहन की नीची लागत के कारण हुआ था.

टियर 2 और 3 वाले शहर और ‘वर्क फ़्रोम होम’ वाली सुविधा लागत में कमी के मामले में मेट्रो में कॉल सेंटर
बनाने से ज्यादा लाभकारी है. शिक्षित युवा महिलाओं में भारी बेरोजगारी भी संभावित कामगारों का बड़ा
समूह उपलब्ध कराती है.

2000 वाले दशक के सॉफ्टवेयर विस्तार के बारे में अक्सर यह कहा जाता है कि इसका श्रेय अन्य बातों के
अलावा इस बात को भी जाता है कि इसमें सरकार ने हस्तक्षेप नहीं किया. एक ओर, सरकार ने टेलिकॉम सेक्टर
में सुधार किया और ब्रॉडबैंड को मंजूरी दी तो दूसरी ओर, उसकी नीतियों ने सॉफ्टवेयर सेवा सेक्टर में हस्तक्षेप
नहीं किया और विकास में बाधा नहीं डाली.


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नीतिगत ढांचा

भारत में आर्थिक सुधारों का एजेंडा आमतौर पर इस पर केन्द्रित नहीं रहा है कि सरकार क्या करे बल्कि इस
पर रहा है कि किन प्रतिबंधों को हटाना ज़रूरी है. इसलिए, अंतरराष्ट्रीय व्यापार संधियां भारतीय फ़र्मों को कानूनी, मेडिकल, अकाउंटिंग और सॉफ्टवेयर आदि की सेवाओं का निर्यात करने की छूट दे सकती हैं लेकिन सीमा पार डिजिटल भुगतान पर प्रतिबंध लोगों को उपलब्ध अवसरों का पूरा फायदा लेने से रोक सकते हैं.

सीमा पार डिजिटल भुगतान को घरेलू डिजिटल भुगतान जितना आसान बनाने से छोटे व्यवसायों, व्यक्तियों और
परिवारों को वैश्विक व्यापार करने में मदद मिलेगी.

अमेरिका और यूरोप में जो बड़े वित्तीय पैकेज दिया गए उन्होंने परिवारों की ओर से मैनुफैक्चर्ड माल की मांग
बढ़ा दी. राजनीतिक मोर्चे पर, मुख्य ज़ोर उस मैनुफैक्चरिंग सेक्टर में रोजगार बचाने पर रहा है जो चीन चला
गया. मजदूर संघ और मतदाता मांग कर रहे हैं कि कारखानों को वापस अमेरिका लाया जाए. परिवारों की ओर
सेवाओं के लिए मांग भी बढ़ी है और अधिक बढ़ सकती है. अमेरिका और यूरोप की कंपनियों के लिए यह
गुंजाइश बढ़ रही है कि वे लोगों को ‘वर्क फ्रॉम होम’ वाली व्यवस्था के तहत काम पर रखें.

आज हम एक ऐसी दुनिया की कल्पना कर सकते हैं जिसमें टियर 2 और 3 वाले शहरों की शिक्षित भारतीय
महिलाएं अपने घर में रहते हुए अमेरिकी कंपनियों के लिए काम करें. मसलन मेडिकल सेवाओं के डेटा का
विश्लेषण कर रही हों.

भारतीय राज्य-व्यवस्था का पहला काम ऐसा फ्रेमवर्क देना हो सकता है जो इस तरह के रोजगार और आय में
वृद्धि को रोकता नहीं है. भारतीय युवाओं की ऊर्जा उनके जोश और इस देश में रहने के कारण रहनसहन
की प्रतिस्पर्द्धी कीमत बाकी काम पूरा कर देगी. डिजिटल भुगतान के मामले में भारत का अनुभव सीखने का
बड़ा जरिया रहा है. देश भर के व्यवसाय अब बाज़ारों और ‘औपचारिक’ सेक्टर में भागीदारी कर रहे हैं.
वैकल्पिक भुगतान प्रक्रियाओं में भागीदारी करने की क्षमता को बाधित नहीं करना चाहिए. पैसे की हेराफेरी
और आतंकियों को पैसे न पहुंचे इसका डर सभी देशों को है.

‘फाइनेंशियल ऐक्शन टास्क फोर्स’ (एफएटीएफ) जैसे संगठन, पैसे की हेराफेरी, आतंकियों को पैसे न पहुंचे इसकी वैश्विक निगरानी और ‘प्रीवेंशन ऑफ मनी लॉन्डरिंग एक्ट’ (पीएमएलए) इस तरह के मसलों से निबटते हैं. एफएटीएफ के सदस्य कई देशॉन ने क्रिप्टोकरेंसी समेत डिजिटल भुगतानों की छूट और उनके नियमन की व्यवस्था की है. खुलासा करने के नियम और केवाइसी की शर्तें इन व्यवस्थाओं का हिस्सा हैं लेकिन वे इतने कष्टप्रद नहीं हैं कि लोग इनमें भागीदारी से
कतराएं.

आगे की सोचें तो जब क्रिप्टोकरेंसी, फेसबुक करेंसी या डिजिटल भुगतान के दूसरे माध्यम अमेरिका, यूरोप, ब्रिटेन और जापान आदि अमीर देशों में प्रचलित हो जाएंगे तब भारतीयों को भी इन करेंसियों में भुगतान स्वीकार करना पड़ेगा. अगर खरीदार इन्हीं का इस्तेमाल करना चाहते हों. नीति निर्माताओं का काम आशंका और आविष्कार के बीच संतुलन बनाना है. क्रिप्टोकरेंसी, स्टेबल क्वाइन और दूसरे डिजिटल भुगतान पर प्रतिबंध लगाना भारतीय गहरों की आय बढ़ाने की संभावना को कम करना होगा जबकि अमीर देशों में यह बढ़ रही होगी.

(इला पटनायक एक अर्थशास्त्री और नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनेंस एंड पॉलिसी में प्रोफेसर हैं. राधिका पांडे एनआईपीएफपी में सलाहकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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