नई दिल्ली: विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने स्पष्ट किया कि कोई भी व्यक्ति जो किसी ऐसे व्यक्ति के शारीरिक संपर्क में आता है, जिसे मंकीपॉक्स है, उसे संक्रमित होने का खतरा है. इसका व्यक्ति की यौन प्रवृत्ति से कोई संबंध नहीं है. लेकिन एलजीबीटीक्यू कार्यकर्ताओं का कहना है कि स्पष्टीकरण ‘बहुत देर से आया है और पर्याप्त नहीं ‘ है. डब्ल्यूएचओ प्रमुख ने खुद इस बीमारी को समलैंगिक पुरुषों से जोड़ते हुए कहा था कि मंकीपॉक्स की चपेट में सबसे ज्यादा गे पुरुष आए हैं.
पिछले हफ्ते डब्ल्यूएचओ के महानिदेशक डॉ टेड्रोस एडनॉम घेब्रेयसस ने कहा था, ‘पुरुषों के साथ संबंध रखने वाले पुरुषों को यौन संबंध को लेकर सावधान रहने की जरूरत है. ऐसे लोगों को अपने सेक्स पार्टनर को कम करना चाहिए. नए पार्टनर के साथ संबंध बनाने से बचना चाहिए.’
लेकिन सोमवार को ग्लोबल स्वास्थ्य संगठन ने नई एडवाइजरी जारी करते हुए कहा, ‘यह ध्यान रखना जरूरी है कि मंकीपॉक्स का जोखिम पुरुषों के साथ यौन संबंध बनाने वाले पुरुषों तक ही सीमित नहीं है. कोई भी व्यक्ति जो किसी संक्रामक व्यक्ति के संपर्क में आता है, उसके लिए मंकीपॉक्स का जोखिम बढ़ जाता है.’
एलजीबीटीक्यू कार्यकर्ता यादवेंद्र सिंह ने दिप्रिंट को बताया कि यह ‘बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि डब्ल्यूएचओ के महानिदेशक ने मंकीपॉक्स को कई समलैंगिक यौन साझेदारों से जोड़ा.’
उन्होंने कहा, ‘हालांकि डब्ल्यूएचओ ने बयान वापस ले लिया है, लेकिन यह पर्याप्त नहीं है और बहुत देर से आया है.’
उन्होंने आगे कहा, ‘ संयुक्त राष्ट्र के एक संगठन की तरफ से आया यह एक ऐसा बयान था जिसने समलैंगिक और उभयलिंगी पुरुषों की सामाजिक आर्थिक कमजोरियों को समझे बिना उस समुदाय को कलंकित किया है.’
कार्यकर्ता ने कहा कि घेब्रेयसस ने बयान देते समय कई देशों की कानूनी प्रणालियों को ध्यान में नहीं रखा. उन्होंने बताया, ‘भारत में समलैंगिक पुरुषों के पास अन्य नागरिकों जैसे कई अधिकार नहीं हैं. वे शादी नहीं कर सकते, उनका परिवार नहीं हो सकता. डब्ल्यूएचओ के लिए इन वास्तविकताओं को समझे बिना यौन साझेदारों को सीमित करने की बात कहना बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है.’
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री मनसुख मंडाविया ने मंगलवार को राज्यसभा को बताया कि भारत में अब तक मंकीपॉक्स के आठ मामले सामने आए हैं.
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‘कलंकित करना बंद करें’
भारत में एचआईवी और उससे पीड़ितों के अधिकारों पर काम करने वाले एक गैर-सरकारी संगठन एलायंस इंडिया ने सोमवार को एक बयान में कहा कि डब्ल्यूएचओ प्रमुख के बयान से ‘कई गलत अवधारणाएं बनाई जा सकती हैं और इससे इन लोगों के प्रति और भेदभाव बढ़ने की संभावना है.’
एनजीओ ने कहा, ‘डब्ल्यूएचओ ने गे और बायसेक्सुअल पुरुषों के सामाजिकता में उनकी स्थिति पर विचार किए बिना इस तरह का बयान दिया गया है. ये शिक्षा संस्थानों में परेशान किए जाने, महिला साथी से शादी करने का दबाव और कार्यस्थल में भेदभाव जैसी स्थितियों का सामना करने के लिए मजबूर है.’
इसने आगे कहा कि सरकारों को जवाबदेह ठहराने और सुझाव देने के बजाय कि वे इन संबंधों को कलंकित करना और उनसे किए जाने वाले भेदभावों को कम करना सुनिश्चित करे. डब्ल्यूएचओ ने इसके लिए गे और बायसेक्सुअल पुरुषों को जिम्मेदार ठहराने और पार्टनर कम कर देने का सुझाव देकर आसान रास्ता अपनाया है.
संगठन ने डब्ल्यूएचओ से ‘समलैंगिक और उभयलिंगी पुरुषों के खिलाफ भेदभाव को बढ़ावा देना बंद करने’ का आग्रह किया.
कई कार्यकर्ता इस बात से सहमत थे कि गे और बायसेक्सुअल पुरुषों की सामाजिक परेशानियों की वास्तविकता को पहचानने और असमानताओं को दूर करने के बजाय, डब्ल्यूएचओ ने उन पर दोष मढ़ने का आसान विकल्प चुना है.
डब्ल्यूएचओ के अनुसार, सामाजिक स्तर पर सेहत को प्रभावित करने वाले (सोशल डिटरमेंट्स ऑफ हेल्थ) गैर-चिकित्सकीय कारक हैं – वो स्थितियां जिनमें लोग पैदा होते हैं, बढ़ते हैं, काम करते हैं, रहते हैं और उम्र, और रोजाना झेलने वाली परेशानियां. ये उनके स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं.
कार्यकर्ता राहुल दुआ ने कहा कि डब्ल्यूएचओ ने सोशल डिटरमेंट्स ऑफ हेल्थ यानी स्वास्थ्य के सामाजिक निर्धारकों को समझे या संबोधित किए बिना भागीदारों को कम करने के बारे में बात की है. ये सामाजिक निर्धारक जो समलैंगिक और उभयलिंगी पुरुषों को कई यौन साथी बनाने के लिए प्रेरित करते हैं.
दुआ ने कहा, ‘व्यावहारिक परिवर्तन के बारे में गहराई में जाने के बिना ये बात करना आसान है कि वे वहां क्यों हैं.’ ‘कौन मरना चाहता है? हम सब जीना चाहते हैं. लेकिन तथ्य यह है कि एक सामाजिक कलंक है जो फ्री स्वास्थ्य सेवा तक पहुंच को सीमित कर देगा.’
दुआ ने कहा कि भारत में समलैंगिक पुरुषों की सुरक्षा के लिए कोई कानून नहीं है. वह बताते हैं, ‘समलैंगिक पुरुष शादी नहीं कर सकते. उन पर अक्सर महिला से शादी करने का दबाव होता है. उनकी सुरक्षा को लेकर कोई कानून नहीं हैं. कोई भी अधिनियम उनके अधिकारों की गारंटी नहीं देता या भेदभाव को नहीं रोकता है.’
उन्होंने कहा कि डब्ल्यूएचओ की पहली प्रतिक्रिया जनसंख्या को दोष देने की रही है, न कि जड़ों तक जाने की. वह सभी एलजीबीटीक्यू लोगों के लिए गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवा तक मुफ्त पहुंच सुनिश्चित करने के लिए सरकारों को जवाबदेह ठहराते हैं ऐसा ही कुछ उन्होंने एड्स महामारी की शुरुआत में किया था.’
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