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Wednesday, 24 April, 2024
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भारत में STD के सही आंकड़े सामने लाने के लिए अस्पतालों में सर्विलांस प्रोग्राम चलाएगा ICMR

भारत में हाल-फिलहाल में STIs पर किसी भी तरह का एपिडेमियोलॉजिकल डेटा इकट्ठा नहीं किया गया है. ऐसे में आज भी आईसीएमआर के द्वारा किए गए 2002-03 के 6% इन्फेक्शन की दर वाले अनुमानित डेटा का ही हवाला दिया जाता है.

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नई दिल्ली: विश्वस्तर पर यौन संचारित रोग (एसटीडी) बढ़ने और भारत में विश्वसनीय एपिडेमियोलॉजिक डेटा के अभाव को देखते हुए भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) यौन संचारित संक्रमणों (STIs) का पता लगाने और इसका प्रसार रोकने के लिए अस्पतालों के स्तर पर एक निगरानी कार्यक्रम शुरू करने की तैयारी कर रहा है.

इन संक्रमणों में सेक्सुअली-ट्रांसमिसेबल बेक्टीरिया, वायरस और पैरसाइट से जुड़े तमाम रोग शामिल है. जिनमें गोनोरिया, क्लैमाइडियल संक्रमण, सिफलिस, ट्राइकोमोनिएसिस, चैंक्रॉइड, जेनिटल हर्पीस दाद, जेनिटल वार्ट्स, ह्यूमन इम्युनोडेफिशिएंसी वायरस (एचआईवी) संक्रमण और हेपेटाइटिस बी संक्रमण सबसे आम बीमारियां हैं.

प्रोग्राम तीन साल की प्रारंभिक अवधि के लिए चलाया जाएगा और नैदानिक संकेतों और लक्षणों, लैब जांच, मैनेजमेंट प्रोटोकॉल, एसटीआई के लिए क्लिनिकल कोर्स, डिजीज स्पेक्ट्रम और मरीजों के परिणामों पर डेटा तैयार करने पर ध्यान दिया जाएगा.

वैज्ञानिक संस्थानों से आशय पत्र आमंत्रित करते हुए एक सार्वजनिक नोटिस में ICMR की योजना की रूपरेखा तैयार की गई है.

नोटिस में कहा गया है, ‘…हालांकि भारत में एसटीआई के मामले व्यापक रूप से सामने आए हैं, लेकिन उनके सटीक प्रसार को निर्धारित करने के लिए अभी तक कोई व्यवस्थित एपिडेमियोलॉजिकल अध्ययन उपलब्ध नहीं हैं’ उसमें आगे लिखा है, ‘विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने 2018 और 2030 के बीच सिफलिस और गोनोरिया जैसी बीमारियों को 90 प्रतिशत तक कम करने का लक्ष्य निर्धारित किया है. इसके लिए नैदानिक संकेतों और लक्षणों, लैब जांच, मैनेजमेंट प्रोटोकॉल, एसटीआई के लिए क्लिनिकल कोर्स,  डिजीज स्पेक्ट्रम और मरीजों के परिणामों पर डेटा तैयार करने पर ध्यान दिया जाएगा. डेटा हमारे समाज में मौजूद बीमारी के बोझ का अनुमान लगाने में एक महत्वपूर्ण उपकरण के रूप में काम करेगा.’

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आईसीएमआर ने साल 2002-03 में एसटीआई/आरटीआई (रीप्रोडक्टिव ट्रैक्ट इनफेक्शन) के प्रसार को लेकर एक  समुदाय आधारित अध्ययन किया था. इसमें अनुमान लगाया गया था कि भारत में 6 प्रतिशत वयस्क आबादी में से एक या अधिक को एसटीआई/आरटीआई हैं. सरकार के अनुमान के मुताबिक, देश में हर साल एसटीआई/आरटीआई के लगभग 3-3.5 करोड़ मामले सामने आते हैं.

प्रस्तावित सर्विलांस प्रोग्राम में सरकारी स्वास्थ्य संस्थान,  नामित आरटीआई क्लीनिक, निजी अस्पताल और क्लीनिक को शामिल किया जाएगा. इन सभी जगहों से बीमारियों के प्रसार, उनका कारण आदि का विश्लेषण करने के लिए डेटा एकत्र किया जाएगा. साथ ही भारत में एसटीआई में आमतौर पर पाए जाने वाले रोगाणुरोधी प्रतिरोध (एएमआर) के पैटर्न का पता लगाया जाएगा.

एसटीआई से पीड़ित लोगों में एक बड़ा हिस्सा युवाओं का है. 2007 में इंडियन जर्नल ऑफ डर्मेटोलॉजी के एक अध्ययन में पता लगाया गया था कि इस बीमारी से किस उम्र के लोग सबसे ज्यादा प्रभावित हैं. अध्ययन के अनुसार जिन लोगों को एसटीआई संक्रमण था, उनमें से ज्यादातर की उम्र 20 से 29 साल के बीच थी.

संक्रमण को लेकर कोई नए आंकड़े नहीं

भारत में हाल-फिलहाल में STIs पर कोई एपिडेमियोलॉजिकल डेटा इकट्ठा नहीं किए गए हैं. ऐसे में आज भी आईसीएमआर के 2002-03 के 6% इन्फेक्शन की दर वाले अनुमानित डाटा का ही हवाला दिया जाता है. वैसे भारत में STIs की इनफेक्शन दर पर कुछ स्थानीय अध्ययन भी किए गए हैं.

2008 में चेन्नई के एक अध्ययन में पाया गया कि हर्पिस सिंप्लेक्स सबसे आम एसटीआई है.

अमेरिका के ब्राउन यूनिवर्सिटी में गैर-लाभकारी वाईआरजी सेंटर फॉर एड्स रिसर्च एंड एजुकेशन और डिविजन ऑफ इंफेक्शियस डिजीज द्वारा किया गया अध्ययन बताता है, ‘सबसे आम प्रचलित एसटीआई हर्पीज सिम्प्लेक्स वायरस (एचएसवी) -2 (50 प्रतिशत महिलाएं, 29 प्रतिशत पुरुष), सिफलिस (11 प्रतिशत महिलाएं, 8 प्रतिशत पुरुष), और ट्राइकोमोनास वेजिनेलिस (महिलाओं का 6 प्रतिशत). नामांकन के समय  महिलाओं, बिना स्कूली शिक्षा वाले प्रतिभागियों, चार से अधिक यौन साझेदारों वाले प्रतिभागियों और एकल प्रतिभागियों में एचएसवी -2 संक्रमण का अधिक जोखिम पाया गया था.

वहीं इंडियन जर्नल ऑफ डर्मेटोलॉजी स्टडी ने अलग-अलग शहरों में किए गए पहले के शोध का हवाला देते हुए एक अलग पैटर्न की बात कही है.

इस अध्ययन के लेखकों ने बताया, ‘कॉन्डिलोमा एक्यूमिनाटा सबसे आम एसटीडी (21.40 प्रतिशत) था, इसके बाद सूजाक (16.9 प्रतिशत), चैंक्रॉइड (12.2 प्रतिशत), जेनिटल हर्पिज (11.4 प्रतिशत), सिफलिस (10.4 प्रतिशत),  नॉन-स्पेशिफिक अल्सर (7.1 प्रतिशत), डोनोवानोसिस (6.3 प्रतिशत), मिश्रित संक्रमण (5.3 प्रतिशत) और एनएसयू (4.1 प्रतिशत) था. इस अध्ययन से साफ हो गया था कि वायरल एसटीडी ने एक अन्य प्रमुख जीवाणु एसटीडी परिदृश्य में अपना प्रभुत्व दिखाना शुरू कर दिया है.’

कॉन्डिलोमा एक्यूमिनाटा का संबंध ह्युमन पेपिलोमावायरस के कारण होने वाले जेनिटिक वार्ट्स बीमारी से है.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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