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Tuesday, 23 April, 2024
होमहेल्थमंजूरी, कीमत, वितरण- कोविड वैक्सीन के बाज़ार में आने से पहले भारत के सामने ये हैं 5 सवाल

मंजूरी, कीमत, वितरण- कोविड वैक्सीन के बाज़ार में आने से पहले भारत के सामने ये हैं 5 सवाल

तीन कंपनियों ने आपात इस्तेमाल की मंज़ूरी मांगी है लेकिन अभी स्पष्ट नहीं है कि क्या लोग वैक्सीन चुन सकेंगे या उसकी खरीद में राज्य की क्या भूमिका होगी.

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नई दिल्ली: तीन निर्माताओं- फाइज़र, सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया और भारत बायोटेक के आपात इस्तेमाल की स्वीकृति मांगने के बाद से भारत में कोविड-19 वैक्सीन की प्रक्रिया अचानक तेज़ हो गई है. कंपनियों के इस कदम ने टीकाकरण प्रक्रिया के जल्द शुरू होने की उम्मीदें जगाकर खुशी की एक लहर पैदा कर दी है. कयास ये है कि साल खत्म होने से पहले ही संभवत: 25 दिसंबर को स्वर्गीय पीएम अटल बिहारी वाजपेयी की जयंती पर टीकाकरण का कोई ‘आयोजन’ भी हो सकता है.

अगस्त में इसके गठन के बाद से नेशनल एक्सपर्ट ग्रुप ऑन वैक्सीन एडमिनिस्ट्रेशन फॉर कोविड (एनईजीवीएसी) की कम से कम नौ बैठकें हो चुकी हैं. इसके अलावा वैक्सीन प्रशासन के तौर-तरीकों पर चर्चा के लिए राज्यों और राजनीतिक दलों के साथ भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अध्यक्षता में कई बैठकें हुई हैं.

लेकिन वैक्सीन को बाज़ार में लाने को लेकर कुछ अहम सवाल अभी भी बने हुए हैं जिनमें धन के विकल्प, वैक्सीन्स का भौगोलिक वितरण और नियामक विवेक शामिल हैं. दिप्रिंट ऐसे पांच सवाल बता रहा है.

भौगोलिक वितरण

जिन तीन वैक्सीन कैंडिडेट्स ने आपात स्वीकृति के लिए आवेदन किया है, उनमें से दो फिलहाल भारत में बन रही हैं और तीसरे दौर के क्लीनिकल ट्रायल से गुज़र रही हैं. सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (एसआईआई) का दावा है कि उसने अपने यहां बन रही वैक्सीन के चार करोड़ डोज़ तैयार कर लिए हैं. इसे ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी ने तैयार किया है और फिर एस्त्राज़ेनेका ने अलग-अलग देशों में इसका ट्रायल किया है.

भारत की टीकाकरण योजना में करीब 30 करोड़ लोग ‘प्राथमिकता समूह’ के तौर पर चिन्हित किए गए हैं, जो संभवत: वैक्सीन के पहले प्राप्तकर्ता होंगे. इसमें डॉक्टर्स, अन्य स्वास्थ्यकर्मी, बुज़ुर्ग, तथा दूसरी बीमारियों वाले लोग शामिल होंगे. अकेले इन समूहों के लिए 60 करोड़ डोज़ चाहिए होंगे, चूंकि इन सभी वैक्सीन कैंडिडेट्स में दो डोज़ की ज़रूरत होगी. लाने ले जाने आदि में होने वाली कुछ बर्बादी को देखते हुए, सिर्फ इन प्राथमिकता समूहों का टीकाकरण पूरा करने के लिए, भारत को कम से कम 70-80 करोड़ डोज़ चाहिए होंगे- ये एक ऐसी मांग है जिसे कोई भी कंपनी, अकेले पूरा नहीं कर पाएगी.

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इसलिए, सवाल खड़ा हो जाता है वैक्सीन के चुनाव का- क्या किसी प्राप्तकर्ता या किसी राज्य को भी चुनने को मिलेगा कि उसे कौन सी वैक्सीन चाहिए या किस राज्य को कौन सी वैक्सीन मिलेगी, इसका चुनाव केंद्र सरकार द्वारा किया जा सकता है.

इस सवाल पर एनईजीवीएसी में बहस हो चुकी है लेकिन अभी तक कोई स्पष्ट जवाब नहीं हैं. एक छोटे से उप-समूह ने, जो बरसों से भारत के टीकाकरण अभियान से जुड़ा रहा है और जिसमें नेशनल टेक्निकल एडवाइज़री ग्रुप ऑफ इम्युनाइज़ेशन (एनटीएजीआई) के कुछ सदस्य भी शामिल हैं, ने इसपर विचार किया है और अपनी सिफारिशें, एनईजीवीएसी को भेज दी हैं.

एक सीनियर अधिकारी ने दिप्रिंट को बताया, ‘जन स्वास्थ्य के इस्तेमाल के लिए मंज़ूर की जा रही कई वैक्सीन्स के संदर्भ में, एक्सपर्ट ग्रुप ने दो बातों पर ज़ोर दिया है. पहली, और सबसे अहम चीज़ ये है कि चूंकि ज़्यादातर वैक्सीन्स दो डोज़ वाली हैं, इसलिए ये सुनिश्चित करना होगा कि हर व्यक्ति को एक ही वैक्सीन के दोनों डोज़ मिलें. उन्होंने ये भी कहा कि लॉजिस्टिक्स और भौगोलिक स्थिति से जुड़ी बातों का भी ध्यान रखा जाना चाहिए.

सूत्रों का कहना है कि सबसे आसान हल ये होगा कि मिश्रण की बजाय एक भौगोलिक क्षेत्र में एक ही तरह की वैक्सीन भेजी जाए. इसका एक पिछला उदाहरण भी है- स्वास्थ्य मंत्रालय में पुराने लोगों को याद है कि 2013 में जब जापानी एंसिफिलाइटिस वैक्सीन बाज़ार में लाई जा रही थी (सिर्फ स्थानीय ज़िलों में पूरे देश में नहीं), तो एनटीएजीआई ने इस सवाल पर विचार किया था कि लाइव एटेनुएटेड वैक्सीन और एक किल्ड वैक्सीन के बीच, कैसे चुनाव किया जाए. उसने सरकार से सिफारिश की थी कि वैक्सीन की इन दोनों किस्मों को मिलाना नहीं चाहिए और एक खास जगह पर एक ही तरह की वैक्सीन दी जानी चाहिए.


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क्या अलग-अलग दामों पर खरीदा जाए

सरकार के खरीद नियम आमतौर से सबसे कम बोली वाले सिद्धांत पर चलते हैं. लेकिन जिन तीन वैक्सीन के आपात इस्तेमाल की मंज़ूरी मांगी गई है, उनके दाम अलग-अलग रहने की संभावना है.

एसआईआई पहले ही कह चुकी है कि वो सरकार को 3 डॉलर या 225 रुपए प्रति डोज़ की दर पर बेचेगी. हालांकि निजी खरीदारों के लिए ये रकम दोगुनी हो सकती है. फाइज़र ने अभी बताया नहीं है कि भारत में उसकी वैक्सीन की कीमत क्या होगी, विदेशों में वो करीब 20 डॉलर प्रति डोज़ (लगभग 1460 रुपए) पर बेच रही है.

एनईजीवीएसी के सूत्रों का कहना है कि भारत बायोटेक के साथ कीमतों को लेकर कोई बातचीत नहीं हुई है. उसके एमडी कृष्णा एला ने कहा था कि वैक्सीन की ‘कीमत पानी की एक बोतल से कम’ होगी लेकिन उसने अभी कोई संख्या नहीं बताई है.

अधिकारी लोग इस बात पर बंटे हुए हैं कि क्या खरीद नियम किसी उत्पाद को अलग-अलग दामों पर खरीदने की अनुमति देते हैं. स्वास्थ्य मंत्रालय के एक अधिकारी ने कहा, ‘हम शायद एल2 (दूसरे सबसे कम बोली वाले) से पूछ सकते हैं कि क्या वो एल1 (सबसे कम बोली) के रेट पर दे सकते हैं. या, चूंकि वैक्सीन्स मालिकाना आइटम्स हैं, इसलिए शायद हम उन्हें अलग-अलग दामों पर खरीद सकते हैं’.

एक दूसरे अधिकारी ने कहा, ‘वित्तीय नियम वैक्सीन्स की ऐसी खरीद की इजाज़त देते हैं. लेकिन आपको ये भी समझना होगा कि एक बार भारतीय वैक्सीन्स बाज़ार में आ जाएं तो 10-20 डॉलर के ये अव्यवहारिक दाम नीचे आ जाएंगे. बाज़ार में काफी हंगामा देखने को मिलेगा’.

कम से कम कोविड टेस्टिंग किट्स के साथ भी यही रहा है- सिर्फ दस महीनों के अंदर 4,500 रुपए की शुरूआती कीमत घटाकर 800 रुपए कर दी गई, चूंकि ज़्यादा से ज़्यादा देसी निर्माता उन्हें बनाने लगे.

केंद-राज्यों का हिस्सा

महामारी की शुरूआत से केंद्र और राज्यों के बीच बहुत सी बैठकें हो चुकी हैं, जिनमें कम से कम तीन बैठकों में जिनमें से एक की अध्यक्षता खुद पीएम मोदी ने की, वैक्सीन प्रशासन के तौर-तरीकों पर चर्चा की गई. केंद्र की ओर से राज्यों को बहुत से आधिकारिक संचार भी हुए हैं जिनमें टीकाकरण के निर्देशों में वैक्सीन की प्रतिकूल प्रतिक्रिया पर नज़र रखने की ज़रूरत पर बल दिया गया है.

लेकिन अधिकारियों का कहना है कि वित्तपोषण पद्धति को लेकर अभी कोई चर्चा नहीं हुई है. कांग्रेस-शासित सूबों ने भी, अब इस मुद्दे को उठाना शुरू कर दिया है और इस पर अधिक स्पष्टता की मांग कर रहे हैं. ये एक ऐसा सवाल है जो बहुत से मुद्दों को प्रभावित करेगा जिनमें वैक्सीन का चुनाव भी शामिल है.

स्वास्थ्य मंत्रालय के एक सीनियर अधिकारी ने कहा, ‘अभी इस पर चर्चा नहीं हुई है. अभी तक, समझ ये है कि हम सूबों को तीन चीज़ें सप्लाई कर रहे हैं- सीरिंज, वैक्सीन्स और मौजूदा कोल्ड चेन सेटअप. वैक्सीन्स की दीर्घकालिक वित्तपोषण पद्धति पर अभी कोई चर्चा नहीं हुई है’.

यूनिवर्सल इम्यूनाइज़ेशन प्रोग्राम के तहत, वैक्सीन्स का खर्च केंद्र और राज्य क्रमश: 60:40 के अनुपात में उठाते हैं. अधिकारी कम से कम बाद की स्टेज में ऐसी व्यवस्था की संभावना से इनकार नहीं करते और इस बात से भी कि राज्यों को खुद से वैक्सीन्स खरीदने की इजाज़त दी जा सकती है, जैसा टेस्टिंग किट्स के मामले में हुआ था.

एक अन्य अधिकारी ने कहा, ‘मैं आपको आश्वासन दे सकता हूं कि व्यय विभाग ने एक अच्छी खासी रकम वैक्सीन खरीदने के लिए रखी हुई है’.


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नियामक विवेक: कितनी संख्या बहुत ज़्यादा होगी?

तीनों वैक्सीन्स ने आपात इस्तेमाल की मंज़ूरी के लिए आवेदन किया है, हालांकि ये वाक्यांश न्यू ड्रग्स एंड क्लीनिकल ट्रायल रूल्स, 2019 में देखने को नहीं मिलता. लेकिन नियमों के तहत, प्रासंगिक विशेषज्ञ समितियों की निगरानी के आधार पर, नियामक को अपवाद के तौर पर अपना विवेक इस्तेमाल करने की अनुमति दी गई है.

केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन (सीडीएससीओ) के अनुसार: ‘गैर-क्लीनिकल और क्लीनिकल डेटा की ज़रूरत में ढिलाई दी जा सकती है, उसे संक्षिप्त किया जा सकता है, हटाया जा सकता है. ऐसा जान को खतरे या गंभीर बीमारी, दुर्लभ बीमारियों या भारतीय परिदृष्य में विशेष रूप से प्रासंगिक बीमारियों में इस्तेमाल होने वाली दवाइयों या भारत में आवश्यक चिकित्सा ज़रूरत, विपदा या विशेष रक्षा इस्तेमाल जैसे कि हेमोस्टैटिक और तेज़ी से घाव भरना, ऑक्सीजन प्रवाह की क्षमता को बढ़ाना, रेडिएशन से सुरक्षा, केमिकल, न्यूक्लियर अथवा बायोलॉजिकल यातना से निपटने वाली दवाएं, वगैरह की सूरत में किया जा सकता है. लेकिन ऐसी किसी भी ढिलाई, संक्षिप्तीकरण या डेटा के स्थगन का अलग-अलग मामलों के आधार पर मूल्यांकन किया जाएगा, जो नई दवाओं की प्रकृति और प्रस्तावित संकेत पर निर्भर होगा.

इन तीन वैक्सीन्स में से सिर्फ एक- फाइज़र- को बाहर मंज़ूरी मिली है. भारत में एक प्रावधान है कि जिन उत्पादों को यूके समेत कुछ देशों में मंज़ूरी मिल चुकी है, उन्हें क्लीनिकल ट्रायल से छूट दी जा सकती है. लेकिन चूंकि यूके ने केवल आपात इस्तेमाल की मंज़ूरी दी है, जिसका मतलब है कि स्वीकृति की पूरी प्रक्रिया मुकम्मल नहीं हुई है, इसलिए भारतीय नियामक के लिए फैसला लेना जटिल हो सकता है.

यूके में मेडिसिन्स एंड हेल्थकेयर प्रोडक्ट्स रेगुलेटरी एजेंसी (एमआचआरए) की स्वीकृति की, यूएस नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एलर्जी एंड इनफेक्शियस डिज़ीज़ेज़ के डायरेक्टर, डॉ एंथनी फॉची ये कहते हुए आलोचना कर चुके हैं कि ये पर्याप्त रूप से ‘सख्त’ नहीं थी. फाइज़र वैक्सीन, तीसरे दौर के ट्रायल की समाप्ति के बाद, 95 प्रतिशत प्रभावी पाई गई.

एसआईआई अभी भी भारत में तीसरे दौर के ट्रायल कर रही है और ये भी दो डोज़ बनाम डेढ़ डोज़ के उस विवाद में फंसी है, जिसमें एस्त्राज़ेनेका द्वारा किया जा रहा अंतर्राष्ट्रीय ट्रायल उलझा हुआ है. एस्त्राज़ेनेका ने डेढ़ डोज़ के मॉडल को ज़्यादा कारगर पाया है.

सूत्रों के अनुसार एसआईआई ने, अपने आवेदन में ब्राज़ील और भारत से फेज़ 3 ट्रायल के डेटा को शामिल किया है. लेकिन नियामक के लिए मुख्य सवाल ये होगा कि उस डेटा पर कितना भरोसा किया जाए. भारत में दो डोज़ के ट्रायल को मंज़ूरी मिली थी और एसआईआई उसी के साथ आगे बढ़ रही है.

भारत बायोटेक फेज़ 3 ट्रायल में सबसे हाल में शामिल हुई है- 16 नवंबर को, जिसके दो दिन बाद ही फाइज़र ने अपने फेज़ 3 ट्रायल की समाप्ति का ऐलान कर दिया था. भारत बायोटेक के आपात इस्तेमाल के आवेदन से भारत की दवा कंपनियों के बीच अटकलबाज़ियां शुरू हो गईं हैं कि एकमात्र देसी प्रतियोगी होने के नाते, क्या उसके साथ तरजीही बर्ताव किया जाएगा. भारत की वैक्सीन, इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईसीएमआर) के सहयोग से तैयार की गई थी, जबकि इसके उलट फाइज़र पूरी तरह विदेशी है और एसआईआई वैक्सीन का सिर्फ भारत में उत्पादन कर रही है, उसने इसे विकसित नहीं किया है.

इस कयास को उस तेज़ी से बल मिलता है जिससे सरकार ने, भारत बायोटेक की कोवैक्सिन का पहला डोज़ लेने के बाद, हरियाणा के स्वास्थ्य मंत्री अनिल विज का पॉज़िटिव टेस्ट आने पर, अपनी प्रतिक्रिया दी, जबकि एक एसआईआई वॉलंटियर पर गंभीर विपरीत असर होने के बाद, उसकी ओर से कंपनी को दिए गए कानूनी नोटिस पर, सरकार काफी समय तक खामोश बैठी रही. पहले मामले में, कुछ घंटों में सरकार की प्रतिक्रिया आ गई, दूसरे मामले में कई दिन और मीडिया के सवालों के बाद आई.

एक वरिष्ठ स्वास्थ्य अधिकारी ने कहा, ‘सभी देश आपात इस्तेमाल की मंज़ूरी देते हैं. लेकिन ज़ाहिरी तौर पर ये एक संदेहास्पद विषय है जिसके अर्थ निकाले जा सकते हैं. हमें देखना होगा कि भारतीय विनियामक क्या फैसला करता है’.

मना करने वालों का क्या होगा?

ऐसी आशंका है कि प्राथमिकता वाले प्राप्तकर्ताओं के पहले बैच में, ऐसे लोग भी होंगे जो टीका लगवाने के इच्छुक नहीं होंगे.

एक वरिष्ठ स्वास्थ्य अधिकारी ने स्पष्ट किया, ‘हम किसी पर ज़बर्दस्ती नहीं कर सकते. ये अनिवार्य नहीं है.’

दिप्रिंट के लिए एक लेख में दिल्ली के आरएमएल अस्पताल के डॉ कबीर सरदाना ने, सभी के लिए टीकाकरण के खिलाफ दलील दी थी, जब तक कि वो सबके लिए मुफ्त न हो, उनका मुख्य तर्क ये था कि महामारी देश में इतने लंबे समय चल गई है कि बहुत से भारतीय लोगों में पहले ही एक टी-शैल रेस्पॉन्स पैदा हो गया है जो वैक्सीन को निरर्थक कर देगा और वो अनावश्यक रूप से इसके दुष्प्रभावों से दोचार हो जाएंगे.

भारत ने पहले ही साफ कर दिया है कि वो सबके मुफ्त टीकाकरण की नहीं सोच रहा है.

राज्यों से कहा गया है कि वैक्सीन के प्रति हिचकिचाहट से निपटने के लिए संचार को बढ़ावा दें जबकि भारत को ये भी तय करना होगा कि वैक्सीन के उपलब्ध हो जाने के बाद, क्या वो विशेष रूप से डॉक्टरों तथा स्वास्थ्यकर्मियों को- जो लगातार कमज़ोर और कम इम्यूनिटी वाले मरीज़ों के संपर्क में रहते हैं- बिना टीका लगवाए अपना काम करने की इज़ाज़त दे सकता है.

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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