नई दिल्ली: दिल्ली-NCR में वायु गुणवत्ता सूचकांक (AQI) 400 के पार पहुंचने के बाद एक शीर्ष सर्जन का कहना है कि भारतीयों को वायु प्रदूषण पर अंकुश लगाने के लिए एक जुनूनी दृष्टिकोण अपनाना होगा.
दिप्रिंट के साथ एक इंटरव्यू में गुरुग्राम के मेदांता अस्पताल में इंस्टीट्यूट ऑफ चेस्ट सर्जरी-चेस्ट ओन्को-सर्जरी एंड लंग ट्रांसप्लांटेशन के अध्यक्ष डॉ. अरविंद कुमार ने कहा कि वायु प्रदूषण के खतरनाक स्तर को “गंभीर सार्वजनिक स्वास्थ्य आपातकाल” के रूप में माना जाना चाहिए.
डॉ कुमार, जो नेटवर्क डॉक्टर फॉर क्लीन एयर के सदस्य भी हैं, ने कहा, “हवा में विषाक्त पदार्थों की मात्रा को देखते हुए, भारत में अब कोई भी धूम्रपान न करने वाला नहीं है और 500 से ऊपर AQI वाली हवा में सांस लेना एक दिन में 25-30 सिगरेट पीने के समान है.”
डॉ. कुमार ने बताया कि प्रति घन मीटर हवा में लगभग 22 माइक्रोग्राम (एक ग्राम का दस लाखवां हिस्सा) या पीएम 2.5 का µg/m3 – वायु प्रदूषण के स्तर को बढ़ाने वाले महीन कण – एक सिगरेट पीने के बराबर है.
उन्होंने कहा, “अब AQI और PM 2.5 पर्यायवाची नहीं हैं, लेकिन PM 2.5 AQI में सबसे बड़ा योगदानकर्ता है; इसलिए 300-350 का AQI एक दिन में 15-20 सिगरेट के बराबर हो सकता है, जब इसे 24 घंटों में स्वास्थ्य संबंधी नुकसान के रूप में देखा जाए.”
उनकी टिप्पणी बीमारियों को वायु प्रदूषण से जोड़ने वाले नए सबूतों की पृष्ठभूमि में आई है.
उदाहरण के लिए, पिछले सप्ताह सामने आए भारत को लेकर एक स्टडी से पता चला है कि वायु प्रदूषण का टाइप 2 मधुमेह की बढ़ती महामारी से गहरा संबंध है.
इस साल सितंबर में, अमेरिकी सरकार की एक शोध एजेंसी – नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ (NIH) से जुड़े शोधकर्ताओं ने बताया था कि कणीय वायु प्रदूषण के उच्च स्तर वाले क्षेत्र में रहने से स्तन कैंसर की घटनाओं में बढ़ोतरी हुई है.
इस नए साक्ष्य को पिछले स्टडी से जोड़ा गया है, जिससे पता चला है कि वायु प्रदूषण से उच्च रक्तचाप, श्वसन संबंधी विकार, फेफड़ों के कैंसर और समय से पहले होने वाली मौतों सहित कई स्वास्थ्य समस्याओं से जूझना पड़ सकता है.
पिछले साल मेदांता द्वारा जारी एक पेपर से पता चला था कि पिछले दशक में फेफड़ों के कैंसर के 50 प्रतिशत मरीज धूम्रपान नहीं करते थे, जो पहले के मामले से बिल्कुल विपरीत है.
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‘बच्चों पर सबसे बुरा असर’
कुमार ने बताया कि जिस हवा में हम सांस लेते हैं, उसमें कुछ अक्रिय गैसों के अलावा लगभग 79 प्रतिशत नाइट्रोजन और 21 प्रतिशत ऑक्सीजन होती है.
उन्होंने कहा, “लेकिन इन दिनों इन आवश्यक तत्वों के अलावा बहुत सारे कण, जहरीली गैसें और सैकड़ों जहरीले रसायन हैं जो हर बार सांस लेने पर हमारे फेफड़ों के अंदर चले जाते हैं. एक औसत वयस्क दिन में 25,000 बार सांस लेता है और हम हर 24 घंटे में लगभग 11,000 लीटर हवा अंदर लेते हैं.”
उन्होंने आगे कहा कि, समय के साथ, हवा में थोड़ी मात्रा में विषाक्त पदार्थ और धूल, जो फेफड़ों में जमा हो जाते हैं, जहरीले रसायनों के विशाल भंडार बन जाते हैं जो सिर से पैर तक पूरे शरीर में फैल जाते हैं.
उन्होंने कहा, “इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि छाती के सर्जन के रूप में जब हम इन दिनों छाती खोलते हैं, तो हम केवल किशोरों और गैर-धूम्रपान करने वालों में भी काले फेफड़े पाते हैं और यह हर गुजरते साल के साथ बढ़ रहे हैं.”
कुमार ने कहा कि यही कारण है कि प्रदूषित शहर में, यहां तक कि नवजात शिशुओं और बच्चों को भी जहरीली हवा में सांस लेने के कारण “धूम्रपान करने वालों” के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है.
उन्होंने जोर देकर कहा, “इसके अलावा, जहां नवजात शिशु वयस्कों की तुलना में दो से तीन गुना तेजी से सांस लेते हैं, वहीं बच्चे वयस्कों की तुलना में दोगुनी तेजी से सांस लेते हैं और उनमें विकासशील ऊतक भी होते हैं जो विषाक्त पदार्थों को ग्रहण कहते हैं. तो बच्चों और शिशुओं में, वायु प्रदूषण के कारण होने वाली क्षति वयस्कों की तुलना में और भी अधिक है.”
हालांकि यह साबित हो चुका है कि प्रदूषित शहरों में गर्भवती महिलाएं बड़ी संख्या में जन्म दोष वाले बच्चों को जन्म देती हैं, कुमार कहते हैं कि “कई नवजात शिशुओं को जन्म के तुरंत बाद ब्रोंकाइटिस हो जाता है.”
उन्होंने कहा कि यह कई घरों में नेब्युलाइज़र के सर्वव्यापी हो जाने का एक कारण है.
उन्होंने कहा, “जहरीली हवा बड़े होने पर बच्चों में मंदबुद्धि, अत्यधिक उत्तेजना, फेफड़ों का कम विकास, कई अन्य विकार और सभी प्रकार के कैंसर का कारण बनती है.”
उन्होंने कहा, “वयस्कों में भी, शायद ही कोई अंग या बीमारी है जो वायु प्रदूषण से जुड़ी न हो.”
उन्होंने कहा कि कोई भी यह स्वीकार नहीं कर रहा है कि वायु प्रदूषण अगले दो से तीन दशकों में ”साइलेंट डाइमेज” पैदा कर सकता है.
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कोई त्वरित समाधान नहीं
चेस्ट सर्जन ने यह भी कहा कि एक अच्छी तरह से फिट होने वाला N-95 मास्क कुछ हद तक हमारे वायुमार्ग में कणों के प्रवेश को रोकता है, लेकिन 140 करोड़ लोगों के लिए 24X7 मास्क लगाना संभव या व्यावहारिक नहीं है.
उन्होंने पूछा, “क्या छोटे बच्चे जिन्हें स्कूलों में खेलना, पढ़ना, दौड़ना, बात करना और खाना खाना होता है, वे हर समय मास्क में रह सकते हैं.”
एयर प्यूरीफायर को लेकर, जिनकी इन दिनों काफी मांग है, कुमार ने कहा कि उनकी भी भूमिका सीमित है क्योंकि वे बहुत सीमित जगह में और थोड़े समय के लिए ही हवा को साफ कर सकते हैं, अगर उनके फिल्टर की पर्याप्त रूप से सर्विस नहीं की जाती है.
इसके अतिरिक्त, उन्होंने बताया कि वायु प्रदूषण के बारे में चर्चा केवल तभी होती है जब हवा की गुणवत्ता काफी खराब हो जाती है, जबकि दिल्ली-NCR जैसे क्षेत्रों में AQI साल के किसी भी दिन शायद ही कभी 50 (अच्छी वायु गुणवत्ता) से नीचे होता है, सिवाय इसके कि मानसून के दौरान कुछ दिनों में भारी वर्षा के बाद कुछ घंटों के लिए.
कुमार कहते हैं, “मैं चाहता हूं कि देश वायु प्रदूषण से ग्रस्त रहे. केवल तभी हम महत्वपूर्ण बदलाव ला सकते हैं. इन बदलावों को व्यक्तियों के साथ-साथ नीति-निर्माताओं दोनों को प्रभावित करने की जरूरत है.”
उन्होंने कहा कि लोगों को ऐसी आदतें अपनानी होंगी जो वायु प्रदूषण को सीमित करती हैं, जैसे सार्वजनिक परिवहन का उपयोग करना या पत्तियां या कचरा न जलाना. दूसरी ओर, नीति-निर्माताओं को जीवाश्म ईंधन से ऊर्जा के स्वच्छ स्रोतों की ओर बढ़ने जैसे कठोर निर्णय लेने की आवश्यकता होगी.
डॉ. कुमार ने दिप्रिंट को बताया, “ये कठोर फैसले हो सकते हैं लेकिन लोगों को नीति में इन बदलावों की मांग करनी होगी और सरकारों को पराली जलाने और धूल पैदा करने वाली गतिविधियों को नियंत्रित करने जैसे उपाय करने के अलावा इन्हें लागू करने की जरूरत है, चाहे वे कितने भी असुविधाजनक क्यों न हों.”
उन्होंने कहा कि भविष्य की पीढ़ियों के लिए वायु प्रदूषण के कारण पैदा होने वाले अस्तित्व संबंधी संकट से निपटने के लिए ये उपाय किए जाने चाहिए.
(संपादनः ऋषभ राज)
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