नई दिल्ली: केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री मंसुख मंडाविया ने मंगलवार को आवश्यक दवाओं की राष्ट्रीय सूची (एनएलईएम) जारी की, जो केंद्र सरकार की ओर से जारी समय-समय पर संशोधित की गई दवाओं की एक सूची है, जो ऐसे मानकों पर आधारित होती है कि उनका प्रयोग कितना व्यापक होता है, और वो कितनी सुरक्षित हैं. इस सूची में रखी गई दवाओं को नियंत्रित दामों पर बेचना होता है, जो राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण (एनपीपीए) द्वारा जारी की गई सूची पर आधारित होते हैं.
2015 की सूची के मुक़ाबले इस बार एनएलईएम में रखी गई 384 दवाओं में, 34 दवाएं ऐसी हैं जिन्हें पहली बार शामिल किया गया है, और 26 दवाओं को सूची से हटाया गया है. हटाई जाने वाली श्रेणी में एक अहम दवा विवादास्पद रेनिटिडिन भी है. इस एंटासिड की बिक्री को 2020 में दुनिया भर के देशों में निलंबित कर दिया गया था, जब ये पता चला था कि इसके अंदर कैंसरकारी कंपाउण्ड्स थे. उसके बाद से ही भारत में इसकी बिक्री पर विवाद बना हुआ है.
चार दवाएं जो अभी भी पेटेंट में हैं- जिन्हें बहुऔषध-प्रतिरोधक तपेदिक (एमडीआर-टीबी), हेपिटाइटिस और एचआईवी/एड्स के इलाज में इस्तेमाल किया जाता है- सूची में शामिल की गई हैं. एचआईवी और हेपिटाइटिस दवाइयां हैं- क्रमश: डॉलूटेग्रेविर और डेक्लाटासविर. अनुमान है कि 0.5 से 1.5 प्रतिशत भारतीयों को हेपिटाइटिस इन्फेक्शन है, जिसकी संख्या पंजाब जैसे प्रांतों में अधिक है.
टीबी के उपचार में काम आने वाली दो दवाएं- बेडाक्विलीन और डेलामानिड भी अब मूल्य नियंत्रण के दायरे में हैं, बेडाक्विलीन से बहु औषध-प्रतिरोधक पलमोनरी टीबी का इलाज किया जाता है. एमआरडी टीबी का दुनिया में सबसे अधिक बोझ भारत में है, लेकिन ऊंची क़ीमत की वजह से जिन मरीज़ों को इसकी सख़्त ज़रूरत है, वो व्यापक रूप से इसका इस्तेमाल नहीं कर पाए हैं. डेलामानिड भी एमडीआर टीबी में इस्तेमाल की जाती है.
ऐसा अनुमान है कि दुनिया के एमडीआर टीबी के 50 प्रतिशत मामले भारत और चीन में सामने आते हैं, और यही कारण है कि मरीज़ों और कार्यकर्ताओं की ओर से बहुत लंबे समय से, बेडाक्विलीन की क़ीमतों को कम किए जाने की मांग की जाती रही है.
लिस्ट को जारी करते हुए, मंडाविया ने कहा कि ‘आवश्यक दवाइयां’ वो होती हैं जो प्राथमिकता वाली हेल्थकेयर ज़रूरतों को पूरा करती हैं, जो इनके असर, सुरक्षा, गुणवत्ता और कुल उपचार ख़र्च पर निर्भर करती हैं.
उन्होंने कहा, ‘एनएलईएम का मुख्य उद्देश्य दवाओं के तर्कसंगत उपयोग को बढ़ावा देना है, जिनमें तीन महत्वपूर्ण पहलुओं- लागत, सुरक्षा, और असर का ख़्याल रखा जाता है. इससे हेल्थकेयर संसाधनों और बजट के अधिकतम उपयोग, दवा ख़रीद नीतियों, स्वास्थ्य बीमा, नुस्ख़ा लिखने की आदतों में सुधार, यूजी-पीजी के लिए मेडिकल शिक्षा और ट्रेनिंग, और दवा नीतियों के निर्धारण में सहायता मिलती है’.
उन्होंने आगे कहा, ‘दवाओं पर स्वतंत्र स्थायी राष्ट्रीय समिति (एसएनसीएम) का गठन केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने 2018 में किया था. कमेटी ने विशेषज्ञों तथा हितधारकों के साथ विस्तृत परामर्श के बाद, एनएलईएम 2015 को संशोधित किया है, और एनएलईएम 2022 पर अपनी रिपोर्ट स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय को सौंप दी है. भारत सरकार ने कमेटी की सिफारिशें स्वीकार कर ली हैं, और सूची को अपना लिया है’.
उन्होंने ये भी कहा कि एनएलईएम तैयार करने की प्रक्रिया फीडबैक पर आधारित होती है, जिसका हितधारकों और शामिल करने/निकालने के सिद्धांत के वैज्ञानिक स्रोतों द्वारा समर्थन किया जाता है.
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हटाने के लिए मानदंड
एनएलईएम से जल्द हटाए जाने के लिए किसी भी दवा को कई मानदंडों को पूरा करना होता है. स्वास्थ्य मंत्रालय सूत्रों के अनुसार, इन मानदंडों में भारत में दवा पर प्रतिबंध, सुरक्षा के बारे में कथित चिंताएं, बेहतर सुरक्षा प्रोफाइल और असर वाले किसी विकल्प की मौजूदगी, और एंटीबायोटिक्स के मामले में विकसित होता प्रतिरोध पैटर्न शामिल हैं.
प्रतिबंधित दवा रेनिटिडिन सामान्य रूप से ज़िनटेक या रेनटेक ब्राण्ड के नामों से, खुले तौर पर काउंटर से बेची जाती है. 2020 में यूएस एफडीए ने बाज़ार में बिकने वाले सभी रेनिटिडिन उत्पादों को हटाने की मांग की थी, जब इनमें एन-नाइट्रोसोडिमेथाइलामीन (एनडीएमए) नाम के एक दूषित पदार्थ की मौजूदगी पर चिंताएं व्यक्त की गईं थीं.
एफडीए ने कहा है, ‘एनडीएमए एक संभावित मानव कार्सिनोजन (ऐसा पदार्थ जो कैंसर पैदा कर सकता है). 2019 की गर्मियों में, एफडी को एक स्वतंत्र लैबोरेट्री जांच का पता चल गया था, जिसमें रेनिटिडिन में एनडीएमए होने की बात कही गई थी’.
उसने आगे कहा है, ‘एनडीएमए की कम मात्रा आमतौर पर खुराक के साथ अंदर चले जाती है, मसलन एनडीएमए खाद्य पदार्थों और पानी में मौजूद होता है. इसकी कम मात्रा से अपेक्षा नहीं की जाती कि इनसे कैंसर के जोखिम में इज़ाफा होगा. लेकिन, इनके लगातार अधिक मात्रा में अंदर जाने से इंसानों में कैंसर का ख़तरा बढ़ सकता है’.
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