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Sunday, 3 November, 2024
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बायोकॉन मामले में CBI की चार्जशीट से उठे सवाल, भारत में कैसे होते हैं दवाओं के ट्रायल

भ्रष्टाचार के आरोपी सीडीएससीओ अधिकारी के खिलाफ सीबीआई की कार्रवाई ने भारत के ड्रग रेग्युलेटरी फ्रेमवर्क और नई दवाओं और फार्मास्युटिकल उत्पादों तक पहुंच बढ़ाने में तेजी के लिए किए गए बदलावों की ओर ध्यान आकृष्ट किया है.

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नई दिल्ली: मधुमेह के इलाज में इस्तेमाल होने वाला एक इंसुलिन भारत में फार्मा उद्योग के रेग्युलेटरी सेट-अप में भ्रष्टाचार और अन्य कथित कदाचारों को लेकर विवाद का केंद्र बन गया है. साथ ही, इस मामले ने नई दवाओं के क्लिनिकल ट्रायल को नियंत्रित करने वाले नियमों पर भी सवाल खड़े कर दिए हैं.

केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) ने ‘इंसुलिन एस्पार्ट’ के तीसरे चरण के ट्रायल के सिलसिले में साजिश के आरोपों को लेकर 18 अगस्त को सरकार के केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन (सीडीएससीओ) के एक शीर्ष अधिकारी एस. ईश्वर रेड्डी के खिलाफ भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की विभिन्न धाराओं के तहत आरोपपत्र दायर किया. बेंगलुरू स्थित फार्मा कंपनी बायोकॉन बायोजेनिक्स ने इंजेक्शन के तौर पर ली जाने वाली इंसुलिन एस्पार्ट को भारत आयात करने और बाजार में उतारने का प्रस्ताव दिया था.

इंसुलिन एस्पार्ट को यूरोपीय संघ और कनाडा में दवा नियामकों की मंजूरी पहले से हासिल है और वहां इसे व्यापक रूप से बेचा और इस्तेमाल किया जाता है.

सीबीआई ने अपनी एफआईआर— जिसे दिप्रिंट ने देखा है— में यह आरोप भी लगाया था कि रेड्डी ने ड्रग को तीसरे चरण की छूट के लिए बैठक के मिनट्स में ‘हेरफेर’ की और ‘प्रोटोकॉल’ शब्द को बदलकर ‘डेटा’ कर दिया ताकि बायोकॉन को ‘गलत तरीके से फायदा’ पहुंचाया जा सके. जांच एजेंसी ने अपनी एफआईआर में कुछ अन्य लोगों को भी आरोपी बनाया है, जिनमें सीडीएससीओ के अधिकारी और बायोकॉन और अन्य कंपनियों के अधिकारी शामिल हैं.

इस बीच, उद्यमी किरण मजूमदार शॉ द्वारा स्थापित कंपनी बायोकॉन ने इन आरोपों का खंडन किया है और जोर देकर कहा है कि वह ‘(अपने) सभी उत्पादों की मंजूरी के लिए निर्धारित रेग्युलेटरी प्रक्रिया का पालन करती है.’

यद्यपि मामले पर आगे की कार्यवाही ट्रायल कोर्ट में तय होगी लेकिन सीबीआई की कार्रवाई ने भारत के ड्रग रेगुलेटरी फ्रेमवर्क और खासकर हाल में सरकार की तरफ से इसमें किए गए बदलावों की तरफ ध्यान आकृष्ट किया है. ये बदलाव नई दवाओं और अन्य फॉर्मास्युटिकल उत्पादों तक लोगों की जल्द पहुंच सुनिश्चित करने के उद्देश्य से लाए गए थे.

भारतीय नियमों के तहत संबंधित दवाओं को तीसरे चरण के क्लीनिकल ट्रायल से छूट देने का प्रावधान भी इस पहुंच को सुविधाजनक बनाने का एक उपाय है लेकिन इसके लिए कुछ शर्ते पूरी करना अनिवार्य है. यह प्रावधान आमतौर पर एक नियमित अभ्यास के रूप में अपनाया जाता है.


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किसे मिल सकती है तीसरे चरण के ट्रायल से छूट?

यह मामला मुख्यत: इंसुलिन एस्पार्ट को तीसरे चरण के क्लिनिकल ट्रायल से छूट देने की वैधता से जुड़ा है— जो डायबिटीज के मरीजों के इलाज में तेजी से काम करने वाला एक इंसुलिन है.

बायोकॉन बायोलॉजिक्स लिमिटेड ने इस इंसुलिन इंजेक्शन को भारत आयात करने और उसे बाजार में लाने की अनुमति मांगी थी. इसने उन क्लिनिकल अध्ययनों का हवाला देते हुए तीसरे चरण के ट्रायल से छूट की मांग की, जिनके आधार पर दवा को पहले से ही यूरोपीय संघ और कनाडा के दवा नियामकों यूरोपीय मेडिसिन एजेंसी (ईएमए) और हेल्थ कनाडा की तरफ से मार्केटिंग का अधिकार हासिल है. यूनाइटेड स्टेट्स फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (यूएसएफडीए) अभी इस दवा को लेकर रिव्यू कर रहा है.

भारत में तीसरे चरण के ट्रायल में एक छूट मिल जाती है, बशर्ते संबंधित दवा स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के अधीन केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन (सीडीएससीओ) के न्यू ड्रग्स एंड क्लिनिकल ट्रायल रूल्स, 2019 के तहत कुछ शर्तों को पूरा करती हो.

नियमों के तहत तीसरे चरण के ट्रायल से छूट दी जा सकती है बशर्ते ऐसी किसी नई दवा को केंद्रीय लाइसेंसिंग प्राधिकरण (सीएलए) के ‘नियम 101 के तहत’ तय देशों में पहले ही ‘बेचने और इस्तेमाल करने की मंजूरी’ दी जा चुकी हो. सूची में अमेरिका, ब्रिटेन, ईयू, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और जापान आदि देश शामिल हैं.

नियम-कायदों में आगे स्पष्ट किया गया है कि संबंधित दवा के बारे में ‘अप्रत्याशित ढंग से किसी गंभीर प्रतिकूल असर’ की कोई भी सूचना नहीं होनी चाहिए और न ही इसकी कोई ‘संभावना या साक्ष्य’ होना चाहिए कि इसका भारतीय आबादी पर कोई खास दुष्प्रभाव हो सकता है. छूट के लिए आवेदक को ‘ऐसी किसी नई दवा की सुरक्षा और प्रभावशीलता स्थापित करने के लिए तीसरे चरण के क्लीनिकल ट्रायल से छूट पाने के लिए सीएलए की तरफ से अनुमोदित डिजाइन के मुताबिक शपथपत्र देना होता है.’

चौथे चरण का कोई क्लीनिकल ट्रायल किसी दवा को लॉन्च किए जाने के बाद डेटा संग्रह और विश्लेषण से जुड़ा होता है.


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विषय विशेषज्ञ समिति (एसईसी) की भूमिका

ऐसी किसी छूट से पहले सीडीएससीओ को एक विषय विशेषज्ञ समिति या एसईसी से इनपुट लेना होता है, जिसमें उस बीमारी से जुड़े मेडिकल एक्सपर्ट विशेषज्ञ शामिल होते हैं जिसकी यह दवा होती है.

पहले भी कई दवाओं को आयात करने और बेचने के लिए तीसरे चरण के ट्रायल से छूट दी जा चुकी है.

उदाहरण के तौर पर, इसी साल मई में एक एसईसी ने एली लिली की कैंसर की दवा सेल्परकैटिनिब के लिए तीसरे चरण की ट्रायल छूट की सिफारिश इस आधार पर की थी कि यह अमेरिका, कनाडा, जापान और यूरोपीय संघ में पहले से ही स्वीकृत है और ‘देश की चिकित्सा जरूरतों को पूरा करने वाली है.’ एसईसी ने साथ ही ये प्रावधान भी जोड़ा कि कंपनी को भारत में चौथे चरण का ट्रायल करना चाहिए और ‘कमेटी के आगे के रिव्यू के लिए दवा को मंजूरी के दो महीने के भीतर प्रोटोकॉल सीडीएससीओ के समक्ष पेश करना चाहिए.’

पिछले साल जुलाई में रोशे के पर्टुजुमैब-ट्रैस्टुजुमैब इंजेक्शन के लिए भी इसी तरह की मंजूरी दी गई थी, इस सिफारिश के साथ कि कंपनी को ‘मंजूरी के तीन महीने के भीतर चौथे चरण का स्टडी प्रोटोकॉल पेश करना होगा.’


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इंसुलिन एस्पार्ट को एसईसी की हरी झंडी और एक विवादास्पद ‘बदलाव’

इस साल 18 मई को इन्सुलिन एस्पार्ट के लिए तीसरे चरण की ट्रायल छूट संबंधी बायोकॉन बायोलॉजिक्स के आवेदन को एंडोक्रिनोलॉजी और मेटाबॉलिज्म पर एक विषय विशेषज्ञ समिति की मंजूरी मिल गई जिस पर भारत में चौथे चरण का ट्रायल हो रहा है.

बैठक की सिफारिशें, जो विवादों के घेरे में आईं, उसी तरह की थी जैसी तीसरे चरण के ट्रायल छूट से जुड़े अन्य मामलों में रही थीं.

कंपनी ने देश में तीसरे चरण के क्लीनिकल ट्रायल में छूट के साथ दवा के आयात और मार्केटिंग का प्रस्ताव पेश किया था. फर्म ने सीएमसी (केमेस्ट्री मैन्यूफैक्चरिंग एंड कंट्रोल), प्री-क्लीनिकल और क्लीनिकल ट्रायल डेटा के साथ विस्तृत प्रस्ताव भेजा था.

समिति ने नोट किया कि कंपनी ने जर्मनी और अमेरिका में क्रमश पहले और तीसरे चरण का ट्रायल किया है और ट्रायल नतीजों के आधार पर दवा को ईएमए और हेल्थ कनाडा ने मार्केटिंग के अधिकृत कर दिया है.

विस्तृत विचार-विमर्श के बाद समिति ने देश में तीसरे चरण के क्लिनिकल ट्रायल से छूट के साथ दवा के आयात और मार्केटिंग की अनुमति देने की सिफारिश की. इसके साथ शर्त रखी गई कि फर्म को भारत में चौथे चरण का क्लीनिकल ट्रायल करना होगा— जिसमें एक सब-सेट आबादी पर पीके/पीडी (जिसका मतलब है फार्माकोकाइनेटिक्स और फार्माकोडायनामिक्स और इससे यह पता चलता है कि शरीर के अंदर जाने पर दवा ने क्या असर किया) और इम्युनोजेनेसिटी का पता लगाना और दवा को बाजार में उतारने से पहले सीडीएससीओ को प्रोटोकॉल पेश करना शामिल है.

सीबीआई के आरोपों में एक यह भी है कि इस सिफारिश में ‘प्रोटोकॉल’ (जिस पर उपरोक्त टेक्स्ट में जोर दिया गया था) और ‘डेटा’ शब्द में हेरफेर की गई.

दिप्रिंट के पास मौजूद एफआईआर की प्रति के मुताबिक, ‘जेडीसी डॉ. एस. ईश्वर रेड्डी ने सिफारिशों में ‘डेटा’ शब्द को ‘प्रोटोकॉल’ से बदलकर 18 मई 2022 की एसईसी बैठक के मिनट्स में हेरफेर किया है और इस तरह मेसर्स बायोकॉन बायोलॉजिक्स लिमिटेड, बैंगलोर को अनुचित तरह से लाभ पहुंचाया गया.’


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‘प्रोटोकॉल’ बनाम ‘डेटा’

कभी-कभी ‘पोस्ट-मार्केटिंग निगरानी’ कहे जाने वाला चौथे चरण का ट्रायल व्यापक स्तर पर डेटा जुटाने का साधन साबित होता है क्योंकि इससे विभिन्न आयु समूहों और हेल्थ प्रोफाइल वाले मरीजों पर किसी नई दवा के असर का पता चलता है. दवा विकसित करने के क्रम में यह एक अहम चरण है, क्योंकि जर्नल पर्सपेक्टिव्स इन क्लिनिकल रिसर्च में एक पेपर बताता है, यह ‘वास्तविक स्तर पर प्रभावशीलता’ और दवा सुरक्षित होने का डेटा तैयार करता है.

फार्मास्युटिकल उद्योग से जुड़े सूत्रों ने दिप्रिंट को बताया कि सिफारिश में इस शर्त के साथ दवा की मार्केटिंग की अनुमति मिली कि चौथे चरण का ट्रायल किया जाना चाहिए और वास्तव में मरीजों द्वारा इस्तेमाल किए जाने से पहले इस तरह का डेटा जुटाने का और कोई तरीका नहीं है.

दूसरी ओर, ‘प्रोटोकॉल’ शब्द डेटा संग्रह की प्रक्रिया, विधि या डिजाइन के संदर्भ में इस्तेमाल होता है. पूर्व में उल्लिखित सीडीएससीओ नियम भी चौथे चरण के बारे में इसका उल्लेख करते हैं, जिसमें कहा गया है कि किसी नई दवा की सुरक्षा और प्रभावशीलता स्थापित करने के लिए क्लीनिकल ट्रायल ‘सीएलए द्वारा स्वीकृत डिजाइन के मुताबिक’ किया जाना चाहिए. इसमें ‘डेटा’ का कोई उल्लेख नहीं किया गया है.

दिप्रिंट से बातचीत में उद्योग के एक सूत्र ने स्पष्ट किया कि चौथे चरण का ट्रायल किसी उत्पाद के लॉन्च होने के बाद ही किया जा सकता है.

सूत्र ने कहा, ‘चौथे चरण का डेटा दवा के बाजार में आने से पहले पेश नहीं किया जा सकता है…इस प्रकार तथ्यात्मक तौर पर सही करने के लिए एसईसी की सिफारिश में चौथे चरण के अध्ययन के संबंध में ‘डेटा’ शब्द को ‘प्रोटोकॉल’ से बदला जा सकता है. इसलिए, शब्द में यह बदलाव बायोकॉन को लाभ पहुंचाने के लिए नहीं किया गया था, बल्कि विनियमन के अनुरूप सिर्फ एक तथ्यात्मक बदलाव था.’


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‘भ्रष्टाचार’ के आरोप

जून में सीबीआई की तरफ से जारी एक बयान के मुताबिक, सीडीएससीओ के संयुक्त नियंत्रक एस. ईश्वर रेड्डी को ‘बायोकॉन को लाभ पहुंचाने’ और इंसुलिन एस्पार्ट इंजेक्शन के लिए तीसरे चरण की ट्रायल छूट के बदले 9 लाख रुपये की घूस के एक हिस्से के तौर पर चार लाख रुपये लेते पकड़ा गया था.

सीबीआई ने यह आरोप भी लगाया कि उसे ‘विश्वसनीय जानकारी’ मिली कि बायोइनोवेट रिसर्च सर्विसेज नामक कंपनी के निदेशक गुलजीत सेठी उर्फ गुलजीत चौधरी बायोकॉन के लिए सरकारी नियामक कार्य संभाल रहे थे और वही सिनर्जी नेटवर्क इंडिया नामक एक फर्म के निदेशक दिनेश दुआ के माध्यम से फाइलों को कंपनी के अनुकूल तैयार कराने के बदले घूस के भुगतान का ‘माध्यम’ बने हुए थे.

इस मामले में दुआ और सेठी के अलावा बायोकॉन बायोलॉजिक्स के सहयोगी उपाध्यक्ष एल. प्रवीण कुमार और सीडीएससीओ के असिस्टेंट ड्रग इंस्पेक्टर अनिमेष कुमार को भी गिरफ्तार किया गया था.

एफआईआर के मुताबिक, ‘सेठी…ने एल. प्रवीण कुमार, एसोसिएट वाइस प्रेसिडेंट और हेड— नेशनल रेगुलेटरी अफेयर्स (एनआरए) और मेसर्स बायोकॉन बायोलॉजिक्स लिमिटेड, बैंगलोर के अन्य वरिष्ठ अधिकारियों के साथ मिलकर डॉ. एस. ईश्वर रेड्डी को कुल नौ लाख रुपये देने की साजिश रची, जो उक्त तीन फाइलों को मेसर्स बायोकॉन बायोलॉजिक्स लिमिटेड, बैंगलोर को फायदा पहुंचाने के लिहाज से तैयार कराने, 18 मई को विषय विशेषज्ञ समिति (एसईसी) की बैठक में ‘इंसुलिन एस्पार्ट इंजेक्शन’ की फाइल को कंपनी के अनुकूल सिफारिशों के लिए भेजने, और बायोकॉन बायोलॉजिक्स को इंसुलिन एस्पार्ट इंजेक्शन दवा के लिए तीसरे चरण के ट्रायल से छूट के लिए समर्थन करने के बदले में दी जानी थी.’

दिप्रिंट ने कथित अनियमितताओं के बारे में कुछ खास सवालों के साथ सीबीआई को ई-मेल भेजा था. उसकी तरफ से प्रतिक्रिया मिलने पर इस लेख को अपडेट किया जाएगा.

21 जून को जारी एक बयान में बायोकॉन ने आरोपों से इनकार किया था. कंपनी के मुताबिक: ‘हमारे सभी उत्पादों का अनुमोदन विज्ञान और क्लिनिकल डेटा समर्थित है. हमारे बायोसिमिलर इंसुलिन एस्पार्ट का फुल ग्लोबल क्लिनिकल ट्रायल हो चुका है और इसे ईएमए और हेल्थ कनाडा जैसी वैश्विक नियामक एजेंसियों की तरफ से मंजूरी मिल चुकी है.’

इसमें कहा गया कि भारत में इंसुलिन एस्पार्ट के लिए तीसरे चरण के क्लिनिकल ट्रायल से छूट की मांग करने के लिए ‘सिमिलर बायोलॉजिक्स गाइडलाइन 2016 और न्यू ड्रग्स एंड क्लीनिकल ट्रायल्स 2019 को आधार बनाया गया था.’

कंपनी ने आगे कहा कि ‘भारत में पूरी आवेदन प्रक्रिया ऑनलाइन है और मीटिंग मिनट्स केंद्रीय औषधि मानक नियंत्रण संगठन की वेबसाइट पर देखे जा सकते हैं.’

(डिसक्लोजर: किरण मजूमदार शॉ दिप्रिंट के प्रतिष्ठित संस्थापक निवेशकों में से एक हैं. पूरी सूची आप यहां देख सकते हैं)

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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