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Friday, 20 December, 2024
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मुस्लिम ल​ड़कियों की तुलना में लड़के ज़्यादा छोड़ते हैं स्कूल

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आईआईटी खड़गपुर के शोधकर्ताओं के अनुसार मुस्लिम लड़के अपने परिवारों के लिए पढ़ाई छोड़ देते हैं वहीं लड़कियों के प्रति मुस्लिम समाज का रवैया भी बदला है.

नई दिल्ली: हायर सेकंडरी के स्तर पर मुस्लिम लड़कियों की तुलना में लड़कों के स्कूल छोड़ने के आसार ज़्यादा रहते हैं.

साइंस डायरेक्ट में आईआईटी खड़गपुर के दो शोधार्थी, शोभित गोयल और ज़ाकिर हुसैन– ने उस आम धारणा को गलत साबित कर दिया है कि हाशिए के समाज में स्कूल छोड़ने वालों का लिंग अनुपात दूसरे समुदायों के मुकाबले ज़्यादा होता है.

2011-12 के रोज़गार और बेरोज़गारी पर किए गए राष्ट्रीय सर्वेक्षण का सांख्यिकी विश्लेक्षण में पाया है कि मुसलिम समुदाय में लिंग भेद उच्च शिक्षा के स्तर पर कम हो जाता है और अंतत: नेगेटिव हो जाता है. यानि लड़कियों के मुकाबले ज़्यादा लड़के स्कूल छोड़ देते हैं.

ग्रामीण क्षेत्रों में मुस्लिम और हिंदू अनुसूचित जातियों के बीच स्कूल छोड़ने वालों का लिंगभेद हिंदू अगड़ों के मुकाबले कम होता है.

शहरी क्षेत्रों में सभी सामाजिक धार्मिक गुटों में लड़कियों के स्कूल छोड़ने की संख्या हमेशा ज़्यादा रहती है बनिस्बत हिंदू अगड़ी जातियों की लड़कियों के. वहीं मुस्लिम लड़कियों में ये खतरा एक प्रतिशत ज़्यादा रहता है.

मुसलमानों की स्थिति

श्रम बाज़ार में मुसलमानों से भेदभाव की भावना के कारण मुसलमानों में शिक्षा से होने वाले फायदे को कमतर माना जाता है. यही कारण है कि मुसलमान बच्चे स्कूलों से जल्दी निकाल दिए जाते हैं- क्योंकि शिक्षा पर खर्च और उसके फायदे में मेल नहीं दिखता है.

पर मुस्लिम लड़कियों के मामले में मां बाप के बदलते नज़रिए और इस बात को मानना कि शिक्षा के आर्थिक फायदों के अलावा और भी फायदे हैं, ने स्थिति को बदला है.

हुसैन कहते हैं, “पढ़ी लिखी लड़कियों की शादी मुस्लिम समुदाय में आसान हो जाती है पर ऐसा दूसरे समुदायों में नहीं होता. मुसलमान समाज में कम पढ़े लिखे पुरुष से ज़्यादा पढ़ी लिखी महिला की शादी स्वीकार्य होती है.”


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पर साथ ही ये सब इस बात से बराबर हो जाता है कि मुसलमान न केवल अगड़े हिंदुओं पर अनुसूचित जाति और जनजाति से माध्यमिक और उच्च शिक्षा में पिछड़े हुए हैं.

इस शोध में ‘हैज़र्ड रेशियो’ तैयार किया गया है कि कितनी बार एक लिंग/सामाजिक/धार्मिक गुट दूसरे की तुलना में स्कूल से निकलता है.

ग्रामीण क्षेत्रों में मुसलमान सबसे ज्यादा रिस्क वाले (2.04), जिसके बाद अनुसूचित जनजाति (1.45) और अनुसूचित जाति (1.4)में आते हैं. शहरी क्षेत्र में हैरान करने वाली बात है कि मुसलमान और ज्यादा खतरे में आते हैं. उनका हैज़र्ड रेशियो 2.49 है.

ये इस बात को खारिज कर देता है कि शहरी भारत में सामाजिक धार्मिक भेद तुलनात्मक रूप से मामूली है.

स्कूल छोड़ने के आंकड़े क्या बताते हैं

बच्चों के स्कूल छोड़कर जाने से देश के आर्थिक संसाधनों का नुकसान होता है. साथ ही वो उन बच्चों के लिए समस्या बन जाते हैं जो सामाजिक रूप से पिछड़े तबके से आते हैं.

व्यापक रूप से छात्र वित्तीय जिम्मेदारियों के कारण पढ़ाई छोड़ देते हैं. वे अपने परिवारों के लिए कम ही लेकिन महत्वपूर्ण आजीविका कमाना शुरू कर देते हैं. पढ़ाई को बीच में छोड़ने का संभावित कारण जैसे शिक्षा की लागत को सहन करने की असमर्थता, स्कूलिंग से मोहभंग, शिक्षकों का निर्दयी व्यवहार और अभिवावकों द्वारा प्रोत्साहन में कमी.

समाज में बड़े पैमाने पर पितृसत्तात्मक रवैये को देखते हुए लड़कियां अक्सर इसका शिकार हो जाती हैं और ऐतिहासिक रूप से लड़कों की तुलना में उनकी ड्रॉप-आउट दर ज्यादा रहती है. लेकिन इस समुदाय में लड़कियों की ड्रॉप-आउट दर में कमी आ रही है. 1960 में, शहरी भारत में लड़कों की तुलना में लड़कियों की ड्राप आउट दर 1.6 गुना अधिक थी. 2009 तक यह नंबर घट के 1.0 हो गया इसका मतलब यह है कि लड़कों और लड़कियों का ड्राप आउट रेट एक समान हो गया. हालांकि ग्रामीण इलाकों में लिंग अंतर अभी भी बना हुआ है.


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विद्वानों का मानना है कि इस सुधार के पीछे कई कारण हैं. शिक्षा से लड़की की शादी की संभावनाओं में सुधार के तौर देखा जाता है. और अगर कोई स्त्री विधवा होती है तो उस परिस्थिति में उसको स्वतंत्रता का एहसास दिलाता है. एक शिक्षित महिला अपने बच्चों को शिक्षित कर सकती है. और इस प्रकार दूसरी पीढ़ी को जिम्मेदारी से शिक्षित कर सकती है.

अधिक कुशल सुधार जैसे स्कूल में महिला शिक्षकों का उच्च अनुपात स्कूलों को और अधिक अनुकूल बनाता है. अच्छी सड़कों से जुड़े स्कूलों की एक बड़ी संख्या लड़कियों के ड्रॉप-आउट दर में कमी से जुड़ा एक और कारक है.

हालांकि, अध्ययन में पाया गया है कि पिछले कुछ वर्षों में स्कूलों में नामांकन में उल्लेखनीय सुधार के बावजूद प्राथमिक स्तर पर ड्रॉप-आउट में तेजी से गिरावट आयी है.

सरकारी नीतियों का प्रभाव

1993 में जिला प्राथमिक शिक्षा कार्यक्रम (डीपीईपी) को विभिन्न उद्देश्यों के साथ पेश किया गया था. जिसमें महिला, एससी और एसटी छात्रों के नामांकन और प्रतिधारण की दिशा में सक्रिय रूप से काम करके शिक्षा को सम्मलित करना था.

विकास अर्थशास्त्री एके शिव कुमार का मानना है कि इन नीतियों ने निश्चित रूप से एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.

उन्होंने कहा ‘पारिवारिक लोग अब शिक्षा के महत्व को समझ रहे हैं. इस बात से मानने से इंकार नहीं किया जा सकता है कि सभी नीतियों ने स्कूली शिक्षा को लोकप्रिय बनाने और इसे सुलभ बनाने में योगदान दिया है.’

समझने वाली बात यह है कि यह अध्ययन केवल रोज़ाना स्कूल जाने वाली मुस्लिम लड़कियों पर किया गया है न कि मदरसों पर.

प्रो. शिवा कुमार ने कहा ‘सर्व शिक्षा अभियान और विशेष रूप से मिड-डे मील जैसी योजनाओं ने यह सुनिश्चित किया है कि स्कूलों में अधिक सामाजिक एकीकरण है.’

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