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Friday, 25 July, 2025
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दलित महिलाएं पंजाब में खेत वापस ले रही हैं — ‘हम इसी ज़मीन पर पैदा हुए हैं, इस पर हमारा हक़ है’

मालवा इलाके के कई गांवों में दलित महिलाओं ने साझी ज़मीन पर खेती करने का हक़ हासिल किया है. अब वे एक नई बस्ती – बेगमपुरा – बनाने की मांग को लेकर प्रदर्शन कर रही हैं और जानबूझकर गिरफ़्तारी दे रही हैं.

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संगरूर: जसवीर कौर एक चमचमाते नीले ट्रैक्टर पर आती हैं और नीचे उतरती हैं, उनकी फटी हुई चप्पलें जोताई गई ज़मीन में धंस जाती हैं. उनकी आंखों में चमक और हल्की सी मुस्कान के साथ वो नई लगाई गई धान की फसल को देखती हैं.

“यह ज़मीन हमारी है,” उन्होंने गर्व से कहा.

कौर को इस लम्हे तक पहुंचने में कई सालों की लड़ाई लगी है. संगरूर के हेरीके गांव की ये सात एकड़ ज़मीन उनके नाम नहीं है, लेकिन उन्होंने इसे खेती के लिए इस्तेमाल करने का हक़ जीत लिया है. मालवा क्षेत्र के गांवों में दलित महिलाएं अब वह मांग रही हैं जो उन्हें लंबे समय से नहीं दी गई थी.

उन्होंने पहले ही 1961 के एक क़ानून का इस्तेमाल कर उसे ज़मीन, इज़्ज़त और मालिकाना हक़ की लड़ाई में बदल दिया है. उनके भीतर हक़ की आग जल रही है. अब जसवीर और सैकड़ों अन्य महिलाएं बिर ऐशवां गांव की 927 एकड़ बंजर एस्टेट ज़मीन को पाने के लिए एक नई मुहिम का हिस्सा हैं. वे मार्च कर रही हैं, प्रदर्शन कर रही हैं और गिरफ्तारी दे रही हैं ताकि एक नई बसावट की मांग पूरी हो—बेगमपुरा, एक ऐसा गांव जिसकी कल्पना कवि-संत रैदास ने की थी, जहां कोई जात-पात न हो.

“भारत के संविधान ने हमें ज़मीन का हक़ दिया है, तो फिर हमें सिर्फ़ इसलिए ज़मीन क्यों नहीं मिलती क्योंकि हम नीची जाति से हैं?” 41 साल की जसवीर ने कहा. “हम इसी ज़मीन पर पैदा हुए हैं और हमें भी इसका एक हिस्सा मिलने का पूरा हक़ है.”

पंजाब में खेती की बात करते हुए सरसों के खेत, हरित क्रांति और हालिया किसान आंदोलन की तस्वीरें सामने आती हैं. लेकिन इस छवि के पीछे जातीय भेदभाव का एक लंबा इतिहास छिपा है. यहां की ज़मीन पर मुख्य रूप से जाट सिख, साथ ही कम्बोज और सैनी सिखों का दबदबा है. दलित, जो पंजाब की आबादी का लगभग 32 प्रतिशत हैं, राज्य की सिर्फ़ 3.5 प्रतिशत ज़मीन के मालिक हैं. ज़्यादातर दलित लोग दिहाड़ी मज़दूर के रूप में गर्मी और सर्दी में खेतों में काम करते हैं, फसलें लगाते और काटते हैं, जिन पर उनका कोई अधिकार नहीं होता. इसके लिए उन्हें लगभग 300 रुपये रोज़ मिलते हैं.

Dalit women in Punjab, Begumpura protest
संगरूर के गुरु रविदास गुरुद्वारे में 10 जुलाई को आयोजित ZPSC के एक समारोह में दलित महिलाएं. मई में चल रहे बेगमपुरा आंदोलन के दौरान जेल की सज़ा काटने के लिए उन्हें स्मृति चिन्ह देकर सम्मानित किया गया | फोटो: मनीषा मोंडल | दिप्रिंट

लेकिन फिर ग्रामीण पंजाब के दलितों ने मुकाबला करना शुरू किया. उनका पहला हथियार बना 1961 का पंजाब सरकार द्वारा पास किया गया एक क़ानून. पंजाब विलेज कॉमन लैंड्स (रेगुलेशन) एक्ट के तहत गांव की एक-तिहाई साझी ज़मीन—जिसे पंचायत की ज़मीन या शमलात देह कहा जाता है—अनुसूचित जातियों यानी दलितों को खेती के लिए दी जानी थी. कागज़ों पर इस क़ानून ने दलितों को पंचायत की नीलामी के ज़रिए इस ज़मीन पर खेती करने का अधिकार दिया. लेकिन असल में यह ज़मीन नकली बोली लगाने वालों और धमकियों के ज़रिए दबंग जातियों के ही हाथ में रही.

पहला बड़ा विरोध 2008 में हुआ जब संगरूर के बेनरा गांव के दलित मज़दूरों ने पंचायत की ज़मीन पर क़ब्ज़ा कर लिया. 2014 में ज़मीन प्राप्ति संघर्ष समिति (ZPSC) ने पूरे क्षेत्र में आंदोलन को संगठित करना शुरू किया और बिखरे हुए विरोधों को एक बड़ी मुहिम में बदल दिया.

इस आंदोलन की हीरो बनीं दलित महिलाएं. चप्पल और सलवार-कमीज़ में वे सड़कों पर खड़ी रहीं, पोस्टर उठाए और अपनी ज़मीन की मांग की. उन्होंने जाटों और अन्य चौधरियों (भूमि मालिकों) का सामना किया, गिरफ्तारियां दीं और पिटाई सही. यह आंदोलन तेज़ी से पूरे राज्य में फैल गया.

ZPSC के अनुसार सिर्फ़ मालवा क्षेत्र में ही दलित परिवार अब लगभग 4,000 एकड़ ज़मीन पर खेती कर रहे हैं. और अब जसवीर जैसी कई महिलाएं इससे भी आगे की मांग कर रही हैं. वे बे-चिराग (वारिस रहित) ज़मीन को भूमिहीन दलितों में बांटने की मांग कर रही हैं.

पंजाब की दलित महिलाओं की हिम्मत उन सालों की रोज़मर्रा की जिल्लतों और खेतों में सुनी गई जातिवादी गालियों से बनी है, जहां उन्होंने पशु पाले और चारा इकट्ठा किया। अब उन्हें पता है कि उन्हें ये सब सहना नहीं है.

“दलित महिलाएं खेतों में शोषण का शिकार रही हैं. उन्होंने दूसरों की ज़मीन पर मवेशी पाले और चारा इकट्ठा किया,” पंजाब विश्वविद्यालय के पॉलिटिकल साइंस प्रोफेसर रोंकी राम ने कहा. “अब वे दूसरों की ज़मीन पर निर्भर नहीं रहना चाहतीं और रोज़ के शोषण का सामना नहीं करना चाहतीं.”

एक ‘डरावने दौर’ से जीत तक

चार साल पहले तक जसवीर कौर हरिके गांव की एक आम महिला थीं — मवेशियों को चारा देना, घास काटना, बच्चों को पालना और जमींदार के खेतों में मजदूरी करना. उनके पति ठेले पर खाना बेचते थे और परिवार जसवीर की खेत मजदूरी और दूध बेचने से होने वाली 300 रुपये रोज़ की आमदनी से गुजारा करता था. गुरुद्वारे में बैठे मर्द उन्हें “चुरू चमार” कहते थे. अब वह कहती हैं, वे डरते हैं कि दलितों को शायद जल्द ही किसी और नाम से पुकारा जाए — ज़मीन के मालिक.

जुलाई की एक सुहानी सुबह, मानसून की ठंडी हवा जसवीर के कमर तक लंबे बालों को छू रही थी, जब वह उन्हें तेजी से कंघी कर रही थीं. वह खेतों में काम के लिए तैयार हो रही थीं. ऐसे दिनों में वह अपने बालों की चोटी बनाना पसंद करती हैं. उन्होंने जल्दी से तीन रोटियां आलू की सब्ज़ी के साथ खाईं और ठंडा पानी पिया. फिर अपना लाल दुपट्टा उठाया और तीनों भैंसों को चारा देने दौड़ पड़ीं.

Jasveer Kaur, women farmers in Punjab
जसवीर कौर खेतों में जाने से पहले हेरीके स्थित अपने घर के बाहर बालों में कंघी करती हुई. पंचायती ज़मीन का पट्टा मिलने के बाद, वह 2023 से एक सामूहिक खेती कर रही हैं. | फोटो: मनीषा मोंडल | दिप्रिंट

जानवरों के सामने भूसा डालते हुए उन्होंने कहा, “तीन साल पहले तक मैं चौधरी लोगों के खेत में काम करती थी. उनके ही खेत से घास लाकर अपने मवेशियों को खिलाती थी.”

Cutting grass for fodder on a Punjab farm
जसवीर कौर अपने धान के खेत के किनारे ताज़ी घास काट रही हैं. पहले ज़मींदारों के खेतों में ऐसा करने पर जातिवादी गालियां सहनी पड़ती थीं | फोटो: मनीषा मोंडल | दिप्रिंट

यहां के कई गांवों में दलित परिवार पशुपालन और दिहाड़ी मजदूरी के सहारे जीते हैं. दूध बेचकर थोड़ी आमदनी होती है, लेकिन चारे की कमी हमेशा रहती है. सालों तक जसवीर जैसी महिलाएं ऊंची जाति वालों के खेतों से घास लाती थीं और रोज अपमान सहती थीं.

“वह दौर एक डरावना सपना था. मां-बहनों और पूर्वजों को गाली देना उनके लिए आम बात थी,” वह याद करती हैं.

जसवीर का बदलाव तब शुरू हुआ जब 2021 में ज़मीन प्राप्ति संघर्ष कमेटी के लोग हरिके गांव आए. उन्हें कभी 1961 के ज़मीन कानून के बारे में नहीं बताया गया था. पहली बार किसी ने उन्हें बताया कि ज़मीन पर उनका भी हक है. उसी साल, उन्होंने और गांव की 14 दलित परिवारों ने पंचायत की ज़मीन की नीलामी में हिस्सा लिया. उन्होंने धरना दिया और खेतों में काम करने से इनकार कर दिया. दो साल के दबाव के बाद ग्राम पंचायत ने मान लिया. 2023 में ज़मीन उन्हें पट्टे पर दी गई.

पंजाबी यूनिवर्सिटी, पटियाला के रिटायर्ड प्रोफेसर और अर्थशास्त्री रंजीत सिंह घुमान के अनुसार, दलित महिलाएं, ऊंची जातियों की महिलाओं की तुलना में हमेशा बाहर काम करती आई हैं और इसलिए सार्वजनिक संघर्षों से डरती नहीं हैं.

उन्होंने कहा, “एससी महिलाएं पहले से ही मर्दों के साथ खेतों में काम कर रही थीं. वे मनरेगा में भी काम कर रही थीं.”

आज जसवीर और बाकी महिलाएं मिलकर खेती करती हैं. उन्होंने शुरुआत चारे की खेती से की थी. इस सीज़न में उन्होंने धान बोया है. वह महीने के 7,000 से 10,000 रुपये कमा लेती हैं और इस बार मुनाफा होने की उम्मीद है. उनका परिवार दो कमरों के पक्के मकान में रहता है जो पंचायत की ज़मीन पर बना है. जब वह बहू बनकर पहली बार यहां आई थीं, तब बारिश में घर में पानी भर जाता था। अब यह ईंटों से बना है और नई पुताई हुई है.

“यह ज़मीन हमारी नहीं है — हमें यहां घर बनाने के लिए दी गई है,” जसवीर ने कहा. “अगर खेती से लगातार आमदनी होती रही, तो घर को अच्छे से बनवाएंगे.” वह अपने बच्चों को बेहतर जिंदगी देने की कोशिश में लगी हैं — उनके दो बेटे कॉलेज में हैं और बेटी पीएचडी कर रही है.Dalit women farmers in Punjab

जसवीर कौर अपने समूह द्वारा पट्टे पर ली गई कृषि भूमि पर ट्रैक्टर चलाती हैं. कुछ साल पहले तक वह दिहाड़ी मज़दूर के रूप में काम करती थीं | फोटो: मनीषा मोंडल | दिप्रिंटजसवीर ने अपनी स्कूटी स्टार्ट की, जो उन्होंने दो साल पहले खरीदी थी. धान के खेत गांव के किनारे दलित मोहल्ले से कुछ किलोमीटर दूर हैं.

खेतों के बीच की पतली मेड़ पर स्कूटी चलाकर, वह एक पेड़ के नीचे पहुंचती हैं जहां सामूहिक खेती के कुछ मर्द साथी उनका इंतज़ार कर रहे हैं.

“मुझे चुनौतियां पसंद हैं, और मैंने कभी खुद को पीछे नहीं हटने दिया,” जसवीर ने चमकती मुस्कान के साथ कहा.

ज़मीन और जाति को लेकर लड़ाई

जब 2021 में गांव के लाउडस्पीकर पर पंचायत ज़मीन की नीलामी का ऐलान हुआ, तो जसवीर कौर ने उसे अनदेखा नहीं किया, जैसा वो आमतौर पर करती थीं. इस बार, वो गांव के चौक तक गईं, जहां सरकारी और पंचायत अधिकारी मौजूद थे. ये उनका पहला मौका था वहां जाने का। एक स्थानीय चौधरी ने उन्हें देखा और तंज कस.

जसवीर ने उसे कहते हुए याद किया, “तू ज़मीन मांगेगी? तेरे पास बोली लगाने के पैसे भी नहीं हैं.”

लेकिन दलितों को पट्टे पर ज़मीन मिलने के बाद भी, हेरीके गांव में “छोटी जात” जैसे शब्द खुलेआम बोले जाते हैं. इस अन्याय ने जसवीर को अंदर से झकझोर दिया.

Punjab paddy field
दलित महिलाएं सामूहिक बोली के ज़रिए पट्टे पर ली गई ज़मीन पर धान की खेती करती हैं. दशकों से, ऐसी कृषि भूमि को छद्म नीलामी के ज़रिए उनकी पहुंच से दूर रखा गया था | फोटो: मनीषा मोंडल | दिप्रिंट

“हम तुम्हारी ज़मीन पर काम करते हैं, तुम्हारी फसल मंडियों तक पहुंचाते हैं, उसकी देखभाल करते हैं, पानी देते हैं, रक्षा करते हैं — और चौधरी और जाट हमें अछूत समझते हैं,” जसवीर ने कहा, जब उन्होंने एक पुरुष साथी से ट्रैक्टर की चाबी ली.

जाति व्यवस्था के प्रति ये गुस्सा धीरे-धीरे पंजाब के मालवा क्षेत्र में एक आंदोलन का रूप लेने लगा. यहां के बड़े हिस्से की ज़मीन कभी पटियाला और मलेरकोटला जैसी रियासतों की थी. आज़ादी के बाद कुछ ज़मीन ज़मींदारों को दी गई, जबकि बाकी पंचायतों के पास साझा ज़मीन के रूप में चली गई. लेकिन प्रभावशाली जातियों ने उसे हड़पने के तरीके निकाल लिए, अक्सर दलित बोलीदारों को नाम के लिए खड़ा कर दिया जाता था.

2000 के दशक के आखिर में वामपंथी संगठनों ने दलितों को संगठित करने की कोशिश की, लेकिन असली अभियान 2014 में शुरू हुआ. उस साल, जमीनी कार्यकर्ताओं ने ज़मीन प्राप्ति संघर्ष कमेटी (ZPSC) बनाई, जिसने दलित परिवारों को सामूहिक रूप से बोली लगाने के लिए प्रोत्साहित किया. विरोधी बोलीदार न होने से पट्टा दरें कम रहीं और ज़मीन को मिलकर खेती के लिए इस्तेमाल किया गया.

ZPSC के मुताबिक, तब से यह आंदोलन हज़ारों गांवों तक पहुंच चुका है, और इसमें महिलाओं की भूमिका अहम रही है.

Dalit women farmers' movement
संगरूर के बदरूखां गांव की एक गली में दरांती लिए राज कौर चल रही हैं. वह अपने गांव की उन पहली महिलाओं में से एक थीं जो ज़ेडपीएससी भूमि अधिकार आंदोलन में शामिल हुईं। | फोटो: मनीषा मोंडल | दिप्रिंट

संगरूर के बदरूखां गांव की राज कौर सबसे पहले जुड़ने वाली महिलाओं में से थीं. वो और चार अन्य महिलाएं एक ZPSC बैठक में गईं और कुछ क्लिक कर गया.

“हमें देखकर 15 और महिलाएं साथ आईं. आज हमारे गांव से लगभग 50 परिवार साथ हैं,” राज कौर ने कहा, साथ ही बताया कि अब वह अपने परिवार का खर्च खुद चला लेती हैं.

लेकिन ज़मीन और जाति अधिकारों का यह दावा सख्त विरोध का कारण भी बना — न सिर्फ जाटों से बल्कि राज्य मशीनरी से भी.

ZPSC Punjab
ज़मीन प्राप्ति संघर्ष समिति (ZPSC) के नेतृत्व में महिलाएं खेतों में मार्च करती हुई. यह समूह पंजाब भर में दलितों को सार्वजनिक भूमि पर पहुंच की मांग के लिए संगठित कर रहा है | फोटो: Facebook/ZPSC Punjab

जून 2014 में, बलाड़ कलां गांव के दलितों ने एक नीलामी में प्रभावशाली जातियों को ज़मीन हड़पने से रोकने की कोशिश की. पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर लाठीचार्ज किया और 41 लोगों को गिरफ्तार कर करीब दो महीने जेल में रखा. उसी समय, जाट सिख ग्रामीणों ने दलित घरों पर हमला किया और कथित तौर पर महिलाओं के साथ मारपीट और छेड़छाड़ की.

जवाब में, कार्यकर्ताओं ने रैलियां और नुक्कड़ सभाएं कीं. उन्होंने दलित घरों में जाकर साझा ज़मीन कानून के बारे में लाउडस्पीकर पर ऐलान किया. पंजाब के दूसरे हिस्सों में भी प्रदर्शन हुए। अंततः पंचायत ने 121 एकड़ ज़मीन 143 दलित परिवारों को सौंप दी.

इससे दूसरे गांवों में भी आंदोलन शुरू हुए, लेकिन टकराव जारी रहे. अक्टूबर 2016 में, संगरूर के जलूर गांव के कई दलित घायल हो गए जब वे एक धरने से लौट रहे थे और ज़मींदारों के एक समूह ने उन पर हमला किया. एक महीने बाद, उनमें से एक महिला, 70 वर्षीय गुरदेव कौर की चोटों से मौत हो गई. ZPSC ने उन्हें अपने आंदोलन की “पहली शहीद” कहा.

“जलूर गांव के विरोध प्रदर्शन में लगभग 35-40 लोग घायल हुए थे,” ZPSC नेता मुकेश मालोड़ ने कहा. “महिलाएं आंदोलन का अहम हिस्सा बनीं और सबसे आगे खड़ी रहीं. आज भी, प्रदर्शन से लेकर रैलियों के नेतृत्व तक, महिलाएं इस लड़ाई में डटी हुई हैं. उन्हें पुलिस की लाठियां लगती हैं, फिर भी वे पीछे नहीं हटतीं.”

लेकिन दलित समुदाय के भीतर भी दरारें हैं.

Women farmers in Punjab
पंजाब में एक महिला पानी से भरे धान के खेत में काम करते हुए धूप से अपना चेहरा बचा रही है | फोटो: मनीषा मोंडल | दिप्रिंट

दलित Vs दलित

पटियाला के मंडौर गांव में एक पेड़ के नीचे करीब 20 दलित महिलाएं लगातार धरने पर बैठी हैं. वे 39 एकड़ पंचायत की जमीन में अपने हिस्से की मांग कर रही हैं, जिसे उन्होंने दावा किया है कि एक फर्जी नीलामी के जरिए उनसे छीन लिया गया.

पंजाब में दलित एकता अपने आप में तय नहीं होती. अनुसूचित जातियां आपस में बंटी हुई हैं, जिनके बीच जाति के उप-समूह, राजनीतिक झुकाव और जीने की रणनीतियों को लेकर टकराव होता है. राजनीतिक वैज्ञानिक राम ने इसे “जाति के भीतर जाति” कहा है, जहां कांग्रेस और अकाली दल जैसी पार्टियों ने ऐतिहासिक रूप से अलग-अलग दलित समूहों को अपने पाले में करने की कोशिश की, जिससे सामूहिक लामबंदी कमजोर हुई.

मंडौर में यही बंटवारा सामने आ रहा है. पिछले साल सुखविंदर कौर और सतपाल सिंह, दोनों दलित, ने मिलकर 39 एकड़ आम जमीन पर खेती की थी. लेकिन इस साल वे आमने-सामने हैं.

Dalit women farmers in Punjab
सुखविंदर कौर ने पिछले साल अपने सामूहिक प्रयास से 39 एकड़ ज़मीन पर खेती की थी, लेकिन हालिया नीलामी में उन्हें डिफॉल्टर घोषित कर दिया गया. उनका आरोप है कि ज़मीन को गलत तरीके से एक प्रतिद्वंद्वी दलित समूह को दे दिया गया | फोटो: मनीषा मंडल | दिप्रिंट

सुखविंदर अब सतपाल पर आरोप लगा रही हैं कि वह पंचायत प्रधान हरप्रीत से मिलकर काम कर रहे हैं.

मामला 9 जून की सालाना नीलामी के दौरान उभरकर सामने आया, जब जमीन सतपाल और उससे जुड़े करीब 50 परिवारों को दे दी गई. सुखविंदर और उनके साथ के 250 परिवारों को पिछली फसल के सीज़न का डिफॉल्टर घोषित कर दिया गया. बाद में तय हुआ कि सुखविंदर के पक्ष को 13 एकड़ जमीन दी जाएगी, लेकिन उनका कहना है कि वे जमीन का बराबर बंटवारा ही स्वीकार करेंगे.

Dalit women farmers in Punjab
जसवीर कौर और उनके जैसे दूसरे लोग अपने खेतों तक पहुंचने के लिए अक्सर संकरी मेड़ों के सहारे चलते हैं. अगर ढीली मिट्टी धंस जाती है, तो भी उन्हें जातिवादी ताने सुनने पड़ते हैं. उन्होंने कहा, “वे हमसे कहते हैं, हमारे खेतों में मत आओ, तुम हमारे पौधे नष्ट कर दोगे” | फोटो: मनीषा मोंडल | दिप्रिंट

“पूरी संभावना है कि यह जमीन किसी ठेकेदार को खेती के लिए दे दी जाएगी और सतपाल इसका उपयोग नहीं करेगा. पहले भी यही होता था जब नीलामी फर्जी तरीके से होती थी,” नाराज़ सुखविंदर ने कहा। “उच्च जातियों ने दलित भाइयों के बीच फूट डाल दी है.”

हरप्रीत ने हालांकि किसी भी गड़बड़ी से इनकार किया और यह भी नकारा कि दलित समूहों के बीच जानबूझकर कोई फूट डाली गई है.

“अगर इनके पास पैसे थे, तो नीलामी वाले दिन क्यों नहीं दिए?” हरप्रीत ने पूछा. “ये लोग गांव की शांति भंग कर रहे हैं. अगर आज ये लोग डिफॉल्ट करेंगे, तो कल सामान्य वर्ग वाले भी समय पर भुगतान नहीं करेंगे. इससे गांव की अर्थव्यवस्था पर असर पड़ेगा.”

लेकिन दलित परिवारों के लिए एकमुश्त भुगतान करना हमेशा आसान नहीं होता. ज्यादातर लोग रोज़ की मज़दूरी या पशुपालन पर निर्भर हैं. उनके पास लीज़, डीज़ल या बीज के लिए पैसा मुश्किल से होता है, टेक्नोलॉजी की तो बात ही छोड़िए, जो उनके अधिक सुविधा प्राप्त पड़ोसियों के पास होती है.

भेदभाव की संस्कृति भी खत्म नहीं हुई है.

“हमें जमीन तो मिल गई, लेकिन गाली-गलौज बंद नहीं हुई,” जसवीर कौर ने कहा. उनके पैर धान के खेत में पानी में डूबे हैं, और वे मेढ़ पर उगी घास को अपने पशुओं के लिए काट रही हैं.

उन्हें सतर्क रहना पड़ता है. मेढ़ की जमीन किसी एक की नहीं मानी जाती, इसलिए इसे छोटी-छोटी ताकत की लड़ाइयों का मैदान बना लिया गया है.

Jasveer kaur
जसवीर कौर अपने धान के खेत के किनारे से ताज़ा कटा हुआ चारा लेकर दिन का काम ख़त्म करती हुई | फोटो: मनीषा मोंडल | दिप्रिंट

उन्होंने कहा, “जाट और चौधरी लोग मेढ़ पर उगी घास पर कीटनाशक छिड़क देते हैं ताकि हम उसे काट न सकें.”

जसवीर अपना काम जल्दी निपटाती हैं और सफेद कुर्ता और हरे दुपट्टे में तैयार हो जाती हैं. उन्हें संगरूर शहर में एक कार्यक्रम में जाना है, जो बेगमपुरा को लेकर चल रहे आंदोलन का हिस्सा है — यही कारण था कि मई में उन्हें एक हफ्ते के लिए जेल जाना पड़ा था.

बिना दुखों वाला गांव चाहिए

पंचायत ज़मीन की लड़ाई अब एक बड़े आंदोलन का रूप ले रही है. इस बार सिर्फ़ खेती की ज़मीन की मांग नहीं है, बल्कि एक सुरक्षित भविष्य की भी मांग है. प्रदर्शनकारी संगरूर के पास बीर ऐश्वरन गांव में 927 एकड़ बिना इस्तेमाल वाली ज़मीन पर बेगमपुरा नाम की नई बस्ती बसाना चाहते हैं.

यह ज़मीन जिंद के नामधारी राजा की थी, जिनकी 2023 में बिना किसी वारिस के मौत हो गई. इस बार ZPSC (ज़मीन पेदाईश संघर्ष कमेटी) पंजाब लैंड रिफॉर्म एक्ट, 1972 का हवाला दे रही है, जो ज़मीन की मिल्कियत 17.5 एकड़ पर सीमित करता है.

28 फरवरी को हज़ारों मर्द और औरतें गांव पहुंचे. उन्होंने ढोल बजाए, नाचे, चिराग जलाए और सकारात्मक रूप से इस बे-चिराग (बिना वारिस) ज़मीन को अपने कब्ज़े में लिया. उनकी मांग थी कि इस ज़मीन को सार्वजनिक ज़मीन घोषित किया जाए और ज़मीनहीन दलितों में बांटा जाए। ये लड़ाई सिर्फ़ ज़मीन की नहीं, बल्कि जातिगत पहचान की भी थी. उन्होंने कांशीराम का नारा लगाया – “जो ज़मीन सरकारी है, वो ज़मीन हमारी है” और रविदास जी के उस बेगमपुरा की बात की जो गुरु ग्रंथ साहिब में भी दर्ज है – एक ऐसा स्थान जहां कोई ग़म नहीं हो.

और सिर्फ बीर ऐश्वरन ही नहीं, ZPSC ने पंजाब के 153 और गांवों को चिन्हित किया है जहां बे-चिराग ज़मीन है, जिसे वे ज़मीनहीन लोगों में बांटना चाहते हैं.

लेकिन पंचायत ज़मीन आंदोलन की तरह, इस बार भी प्रशासन ने सख़्ती दिखाई है.

ZPSC
जसवीर कौर ज़ेडपीएससी की ओर से एक स्मृति चिन्ह पकड़े हुए हैं, जो मई में बेगमपुरा विरोध प्रदर्शन में उनकी भूमिका को मान्यता देता है, जब सैकड़ों प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार किया गया था | फोटो: मनीषा मोंडल | दिप्रिंट

20 मई को बीर ऐश्वरन की तरफ़ मार्च के दौरान कम से कम 200 पुरुषों और महिलाओं—जिनमें जसवीर भी शामिल थीं—को एहतियातन हिरासत में लिया गया। कुछ दिन बाद, कई लोगों ने जेल में भूख हड़ताल शुरू कर दी और अमानवीय व्यवहार का आरोप लगाया.

संगरूर के डिप्टी कमिश्नर संदीप ऋषिजी ने दिप्रिंट को बताया कि जिन ज़मीनों को लेकर विवाद है, उनमें से 650 एकड़ से ज़्यादा ज़मीन संरक्षित जंगल के रूप में चिन्हित है.

“बाकी ज़मीन विवादित है,” उन्होंने कहा। “मैंने संगठन [ZPSC] से कहा है कि वे इस तरह ज़मीन का दावा नहीं कर सकते. अगर उन्हें ज़मीन चाहिए तो कानूनी रास्ता अपनाएं.”

लेकिन इस बार भी, संगरूर की महिलाएं आंदोलन की लौ जलाए हुए हैं.

10 जुलाई को संगरूर के गुरु रविदास गुरुद्वारे में 60 से अधिक महिलाएं इकट्ठा हुईं. सबने एक ही बात कही— यह लड़ाई अपने बच्चों का पेट भरने के लिए ज़मीन की है, इज़्ज़त की लड़ाई है.

इस आंदोलन की अगुवाई कर रहीं जसवीर कौर और राज कौर ने लोगों को संबोधित किया. उन्होंने बेगमपुरा की मांग के नारे लगाए. हर किसी की ज़ुबान पर एक ही मांग थी— “हमें अपने अधिकार चाहिए.” आंदोलन के दौरान गिरफ्तार हुई महिलाओं को सम्मानित किया गया और उन्हें स्मृति-चिन्ह भेंट किए गए.

“हम औरतों ने कभी अपने पतियों को धान की खेती में झेली गई जिल्लत के बारे में नहीं बताया, क्योंकि डर था कि हमें काम करने से रोक दिया जाएगा. लेकिन आज हम ज़मीन के लिए लड़ रही हैं,” जसवीर कौर ने कहा. “एक दिन हमारी अपनी ज़मीन होगी, जहां हमें किसी को किराया नहीं देना पड़ेगा.”

(इस ग्राउंड रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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