नई दिल्ली: उस घटना के बाद स्टेशन हाउस ऑफिसर (SHO) अजय कुमार चतुर्वेदी दो दिनों के लिए कहीं गायब हो गए थे. वह छुपते रहे और उसी बीच एक पेड़ के नीच बैठे और मधुमिता शुक्ला की डायरी की एक कॉपी तैयार की. इसी डायरी ने चार बार के शक्तिशाली विधायक अमरमणि त्रिपाठी को मधुमिता शुक्ला की हत्या से जोड़ा, जो 2002 में मायावती सरकार में मंत्री थे. डायरी शुक्ला की हत्या में त्रिपाठी के शामिल होने की एक कुंजी थी. पुलिस ने शुरू में सोचा कि यह एक अलग हत्या का मामला है, लेकिन इसी डायरी ने त्रिपाठी के साथ उसके प्रेम संबंध और उसके दो गर्भपातों को लेकर एक सबूत के रूप में बाद में प्रस्तुत किया गया.
जब चतुर्वेदी लखनऊ के पेपर मिल कॉलोनी में मधुमिता शुक्ला के घर गए, जहां उनकी हत्या कर दी गई थी. उन्हें वहीं वह डायरी मिली, तो उनका दिल बैठ गया. उन्हें तुरंत एहसास हुआ कि उत्तर प्रदेश को चलाने वाले शक्तिशाली लोग चाहेंगे कि इस डायरी को गायब कर दी जाए. शुक्ला के घर से मिली उस डायरी और अन्य दस्तावेजों को छुड़ाने का दबाव बढ़ रहा था. शीर्ष अधिकारियों ने चतुर्वेदी से इसे छोड़कर शूटरों को खोजने पर ध्यान केंद्रित करने को कहा.
चतुर्वेदी कहते हैं, “पहले दिन से ही दबाव बनना शुरू हो गया था.”
इस हत्या ने लगभग रात भर में उनके जीवन को अस्त-व्यस्त कर दिया. 9 मई 2003 की सुबह, वह लखनऊ के एक पुलिस स्टेशन के SHO थे और पुलिस रैंक में प्रमोशन के बारे में सोच रहे थे. लेकिन एक सप्ताह से भी कम समय में, उन्होंने पाया कि उनका करियर लड़खड़ा रहा है क्योंकि उन्हें अपने जीवन की चिंता थी. साथ ही उन्होंने यह भी सुनिश्चित किया कि उत्तर प्रदेश के एक मंत्री से जुड़े सबसे हाई-प्रोफाइल मामले में सबूत सुरक्षित रहें.
चतुर्वेदी एक मजबूत केस बनाने के लिए प्रतिबद्ध थे. उनकी निगरानी में गवाह गायब नहीं होंगे. उन्होंने एकमात्र गवाह, देशराज, जो मधुमिता का घरेलू नौकर था, और शूटरों की पहचान कर सकता था, को अपने सरकारी आवास पर भेजा. और फिर वह डायरी की एक अलग प्रति बनाने के लिए किसी दूरस्थ स्थान पर गाएब हो गए.
यूपी पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी चतुर्वेदी से हत्यारों का पता लगाने और डायरी पर ध्यान न देने के लिए कहते रहे. वह 20 साल पुराने मामले का विवरण उजागर करते हुए कहते हैं, “एक वरिष्ठ अधिकारी ने मुझसे डायरी और बाकी के दस्तावेज़ छीन लिए और उसे तभी लौटाया जब मैंने उन्हें चेतावनी दी कि मैं केस रिकॉर्ड में उनका नाम भी दर्ज कर दूंगा.”
डायरी पहेली का एक महत्वपूर्ण हिस्सा थी, जिसने अभियोजन पक्ष को 2007 में त्रिपाठी और उनकी पत्नी मधुमणि के लिए आजीवन कारावास की सजा दिलाने में मदद की.
उन्होंने कहा, “ऐसा करने का कोई अन्य तरीका नहीं था. किसी भी जांच में पहले कुछ दिन सबसे महत्वपूर्ण होते हैं और इस तरह के हत्या के मामले में तो और भी अधिक महत्वपूर्ण होते हैं.”
लेकिन 16 साल की उम्रकैद की सजा काटने के बाद अब पति-पत्नी वापस अपने घर जाएंगे. उत्तरप्रदेश सरकार ने 24 अगस्त को उनकी रिहाई का आदेश दिया.
प्रमुख साक्ष्य
डायरी में शुक्ला ने कभी भी त्रिपाठी का नाम लेकर उल्लेख नहीं किया. उन्हें कई स्थानों पर “एटी” और “मंत्री” और अन्य शब्दों का उल्लेख जरूर किया. लेकिन तब तक बात काफी फैल चुकी थी और उसमें लिखे शार्ट फार्म से स्पष्ट रूप से पता चल रहा था.
लखनऊ में सेवानिवृत्त जीवन जी रहे चतुर्वेदी कहते हैं, “कुछ को छोड़कर सभी वरिष्ठ अधिकारियों ने हमसे डायरी और हत्या के पीछे के मकसद को छोड़ने के लिए कहा. लेकिन अगर हमने मकसद को नजरअंदाज कर दिया तो जांच कैसे चल सकती थी? उसके गर्भ में पल रहे बच्चे को जन्म देने से पहले ही उसकी हत्या कर दी गई.”
सनसनीखेज हत्या साबित होने के सात दिनों के भीतर, चतुर्वेदी को महानगर पुलिस स्टेशन से हटा दिया गया था. उनकी पोस्टिंग एक गैर-विवरणित पुलिस चौकी में इंस्पेक्टर रैंक के अधिकारी के रूप में लगा दी गई थी.
वह कहते थे, “मुझे बरेली में एक चौकी में शामिल होने के लिए कहा गया था. आठ-नौ साल तक थानेदार के तौर पर काम करने के बाद मैं इस पोस्ट को कैसे स्वीकार करूंगा? मुझे निलंबित करने की धमकी दी गई. लेकिन हमने डायरी की एक प्रतिलिपि बना ली थी. लेकिन दबाव बढ़ने पर हमने मामले की जांच के सिर्फ सात दिन बाद ही एक महीने की मेडिकल छुट्टी ले ली थी.”
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जिस समय वह मामले की जांच कर रहे थे, उस दौरान चतुर्वेदी ने गहन और पारदर्शी जांच करने की कोशिश की और डराने-धमकाने की रणनीति अपनाई. इसके कारण वह इस मामले के एकमात्र गवाह को बचा पाए और साक्ष्य के रूप में डायरी प्रस्तुत की और उसकी एक प्रति भी बनाई. कई बार ऐसा हुआ जब चतुर्वेदी, जो उस समय 47 साल के थे, को लगा कि उन्हें अपना काम करने के लिए दंडित किया जा रहा है.
चतुर्वेदी कहते हैं, “ऐसा लगा जैसे अपराध अमरमणि ने नहीं, बल्कि मैंने किया है. मैं फिर कभी SHO बनने की हिम्मत नहीं जुटा सका. सात दिनों में मेरी जिंदगी बदल गई.”
हत्या के आठवें दिन—17 मई 2003—मामला क्राइम ब्रांच को ट्रांसफर कर दिया गया. एक महीने बाद इसे सीबीआई को ट्रांसफर कर दिया गया.
राजनीतिक ताकत
9 मई की शाम को महानगर थाने में फोन की घंटी बजी. यह फोन कंट्रोल रूम से था और अधिकारियों को बताया गया कि डकैती और हत्या हुई है. पेपर मिल कॉलोनी में एक महिला को उसके फ्लैट में गोली मार दी गई.
पूरे फ्लैट को पुलिस ने घेर लिया था. जब चतुर्वेदी सोने वाले कमरे में गए, तो उन्होंने फर्श पर बिस्तर के पिछले सिरे पर उसका शव देखा. गोली के घाव ताजा लग रहे थे और उसकी छाती से अभी भी खून बह रहा था.
चतुवेर्दी कहते हैं, “देसराज एकमात्र व्यक्ति था जिसने हत्यारों को घर में प्रवेश करते देखा था. मधुमिता ने उनसे उनके लिए चाय बनाने को कहा था. फिर उन्होंने उसे गोली मार दी और भाग गये. मामले के लिए उसे बचाना बेहद ज़रूरी था.”
उस वक्त किसी को इस बात का एहसास नहीं हुआ कि मधुमिता प्रेग्नेंट हैं. पोस्टमार्टम रिपोर्ट के बाद ही, जब एम्बुलेंस में शव उसके पैतृक गांव लखीमपुर खीरी में अंतिम संस्कार के लिए जा रहा था, तभी यूपी पुलिस को सूचना मिली कि वह वास्तव में गर्भवती थी.
चतुर्वेदी कहते हैं, “मैंने अपने वरिष्ठ अधिकारियों को फोन करके घटनाक्रम के बारे में बताया. इसके बाद तुरंत ही सीतापुर पहुंच चुकी एंबुलेंस को रोकने के लिए फोन किया गया. हमें डीएनए के लिए भ्रूण के ऊतकों को संरक्षित करना था.”
डायरी के अलावा, चतुर्वेदी को शुक्ला के घर से एक तावीज़ भी मिला थी जिस पर मधुमणि का नाम लिखा था.
जबकि चतुर्वेदी और कुछ वरिष्ठ अधिकारी- अनिल अग्रवाल (तत्कालीन एसएसपी लखनऊ), राजेश पांडे (तत्कालीन एसपी क्राइम लखनऊ)- हत्या की कड़ियों को जोड़ने की कोशिश कर रहे थे, इसी बीच त्रिपाठी ने अपनी राजनीतिक ताकत का प्रदर्शन करना शुरू कर दिया.
अपने 40 साल के राजनीतिक करियर में पूर्व विधायक कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी (बसपा) और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) से जुड़े रहे हैं. एक ब्राह्मण बाहुबली नेता, वह यूपी के पूर्वांचल क्षेत्र में सबसे कुख्यात और भयभीत व्यक्तियों में से एक था. 2002 में, उन्होंने बसपा के टिकट पर विधानसभा चुनाव जीता और भाजपा के साथ गठबंधन में मायावती सरकार में मंत्री के रूप में पद संभाला.
चतुर्वेदी ने मामले की कार्यवाही को हर तरफ से राजनीतिक धमकी के साथ प्रेशर कुकर माहौल के रूप में बताया.
मामला 17 मई को राज्य की क्राइम ब्रांच यूनिट को और एक महीने बाद केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) को ट्रांसफर कर दिया गया था. राजनीतिक दबाव के कारण सीबी-सीआईडी के दो वरिष्ठ रैंक के अधिकारियों को निलंबित कर दिया गया और पांच कनिष्ठ अधिकारियों का ट्रांसफर कर दिया गया.
बच्चे के पिता अमरमणि थे इसकी पुष्टि करने वाली डीएनए रिपोर्ट सितंबर 2003 में सीबीआई को सौंपी गई थी.
चतुर्वेदी, जो अपने करियर में अचानक आए ठहराव से जूझ रहे थे, कागजात के माध्यम से मामले की पैरवी करेंगे. अमरमणि, मधुमणि, त्रिपाठी के चचेरे भाई रोहित चतुर्वेदी और दो सुपारी हत्यारों संतोष राय और प्रकाश चंद्र पांडे को सीबीआई ने गिरफ्तार किया और दिसंबर 2003 में आरोप पत्र दायर किया.
2007 में, देहरादून की एक सीबीआई अदालत ने चारों आरोपियों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई. 2012 में, अन्य चार की सजा को बरकरार रखते हुए, पांडे को भी उत्तराखंड उच्च न्यायालय द्वारा आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई थी.
त्रिपाठी और उनकी पत्नी ने सिस्टम से खिलवाड़ किया और सजा का बड़ा हिस्सा गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कॉलेज के एक निजी वार्ड में बिताया, जहां से उन्होंने कथित तौर पर अपना साम्राज्य चलाया था. लेकिन चतुर्वेदी का करियर मंदी में था. मधुमिता की हत्या के बाद, इंस्पेक्टर, जिन्होंने इलाहाबाद (अब प्रयागराज), लखनऊ और कानपुर में पुलिस स्टेशनों में SHO के रूप में काम किया था, को वरिष्ठ अधिकारियों ने पोस्टिंग से इनकार कर दिया था.
सेवानिवृत्ति तक उनके करियर में तबादलों की एक पूरी सीरीज देखी गई. पहले उन्हें क्राइम ब्रांच यूनिट में फिर उन्हें स्पेशल फोर्स और फिर आतंकवाद विरोधी दस्ते में और बाद में राष्ट्रीय जांच एजेंसी में ट्रांसफर किया गया. वह 13 साल बाद 2016 में एक इंस्पेक्टर के रूप में रिटायर हुए.
(संपादन: ऋषभ राज)
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