सड़ते हुए कूड़े के ढेर और जाम हुई नालियों से घिरी मीरा देवी अपने सात सदस्यों के परिवार के साथ एक झुग्गी में रहती हैं. कुछ समय पहले तक इस बड़े परिवार में एक ही कमाने वाला सदस्य था और आज के दिन वह भी नहीं है. उनकी छोटी बेटी की मई महीने में दिल्ली के मुंडका औद्योगिक क्षेत्र में 26 अन्य लोगों के साथ आग लगने से मौत हो गई थी. वह अपने माता-पिता और भाई-बहनों का पेट भरने के लिए 7,500 रुपये की मासिक कमाई के साथ सीसीटीवी कैमरों और राउटर को इकट्ठा और पैक करती थी. लेकिन अब, मीरा गम, नुकसान और ‘प्रूफ राज’ – यानी कि मुआवजे से संबंधित भारतीय नौकरशाही की दस्तावेजों और सबूतों की अंतहीन मांग – वाली भूलभुलैया से जूझ रही है.
बिना रंग रोगन के ईंट की दीवारों और एक ही रौशनी वाले बल्ब से साथ बनी इस छोटी सी संरचना के भीतर मीरा की एक विकलांग बेटी शून्य में घूर रही है, और वहीं उसकी बगल में नशे में धुत पिता अपनी छोटी सी बेटी के रोने से बेपरवाह लेटा हुआ है. मीरा के दूसरे सारे बच्चे अपने गरीबी से त्रस्त घर से बाहर निकल कर सड़कों पर घूम रहे हैं.
मीरा कहती है, ‘कभी-कभी मैं अपने सभी बच्चों को अपने साथ ले जीवन को नए सिरे से शुरू करने के लिए भाग जाना चाहती हूं, इसे (अपने पति का जिक्र करते हुए) यहीं अकेला छोड़कर. वह कुछ भी कमा कर घर नहीं लाता है. मेरी बेटी अकेली कमाने वाली थी और अब वह हमें हमेशा के लिए छोड़कर चली गई.’ यह सब कहते-कहते उसकी आंखों से आंसू छलक पड़ते हैं.
13 मई को, उसकी 20 वर्षीय बेटी, निशा, उस भीषण आग का शिकार हो गई थी, जिसने मुंडका स्थित एक अवैध चार मंजिला इमारत- जो उसका कार्यस्थल था -को अपनी चपेट में ले लिया था. उसकी मौत के बाद से ही मीरा के घर में तभी कुछ खाने को होता है, जब कोई रिश्तेदार या पड़ोसी उन्हें कुछ पैसे उधार देते हैं या कुछ अनाज दे देता है.
मुआवजे के लिए लंबा इंतजार
इस हादसे के एक दिन बाद ही दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने मृतकों के परिवारों में से प्रत्येक को 10 लाख रुपये और घायलों के लिए 50,000 रुपये मुआवजे की घोषणा की थी. लेकिन, इस एलान के लगभग तीन महीने हो चुके हैं और दिल्ली श्रम विभाग को उन परिवारों के लिए भुगतान की प्रक्रिया पूरी करनी अभी भी बाकी है, जिनमें से लगभग सभी मुंडका से कुछ किलोमीटर दूर स्थित रानी खेरा की पुनर्वास कॉलोनियों में रह रहे हैं. पुलिस में शिकायत दर्ज कराने से लेकर डीएनए टेस्ट तक, इन परिवारों को मृतकों के साथ अपने संबंध साबित करने होते हैं. सरकारी कार्यालयों में हर दिन चक्कर लगाने का मतलब है आने-जाने के खर्च के अलावा एक दिन की मजदूरी गवां देना.
निशा की तरह पीड़ितों में से कई ऐसे थे जिनकी आय पर अनेकों लोग निर्भर थे. गैर सरकारी संगठनों और ट्रेड यूनियनों की एक टीम द्वारा एक तैयार तथ्य-खोजी (फैक्ट फाइंडिंग) रिपोर्ट इस बात का उल्लेख करती है कि मुंडका आग त्रासदी शहर में महिलाओं के काम करने की पूरी कहानी बयां करती है -अनौपचारिक श्रम, कम कुशल, कम वेतन, अनियमित, गैर-मान्यता प्राप्त, अदृश्य और कम करके आंकी जाने वाली.’
मुख्यमंत्री द्वारा घोषित मुआवजे के अलावा, पीड़ितों के परिवार कामगार मुआवजा अधिनियम 1923 के तहत भी मुआवजे के हकदार हैं, जिसके अनुसार नियोक्ता को किसी कर्मचारी की मृत्यु या उसे चोट लगने के मामले में पीड़ितों के परिवारों को भुगतान करना होता है. जिस इमारत में आग लगी उसकी अलग-अलग मंजिलों पर एक फैक्ट्री, गोदाम और एक कार्यालय चल रहा था. इसलिए, यह विभिन्न श्रम कानूनों के अंतर्गत आता है.
दुर्घटना में जीवित बचे लोगों का कहना है कि उन्हें इस बात की कोई जानकारी नहीं है कि उनके मुआवजे को प्रोसेस भी किया जा रहा है अथवा नहीं. इस बारे में बात करने पर उप श्रम आयुक्त ए के बिरुली ने प्रिंट को बताया कि फ़िलहाल जमा किये गए आवेदनों पर काम चल रहा है और मुआवजा आयुक्त को बकाया राशि के भुगतान के लिए एक महीने का समय दिया गया है.
लेकिन इन प्रवासी घरों में, जहां भूख और गरीबी हर दिन की लड़ाई है, एक महीने का इंतजार घातक साबित हो सकता है.
संवेदनहीनता और संघर्ष
दिल्ली में लगभग 30 स्वीकृत औद्योगिक क्षेत्र हैं मगर मुंडका उनमें से एक नहीं है. इस कस्बे की मैली, कचरे से पटी पड़ी संकरी गलियों में स्थित इमारतों से – जो अनियोजित रूप से चौड़ाई और ऊंचाई दोनों रूप से विस्तृत हो गई – बिना किसी जांच पड़ताल के कार्यालय और कारखाने संचालित होते हैं. मुंडका के आस-पास की कॉलोनियों में रहने वाले प्रवासी परिवार इन कार्यालयों को सस्ते मजदूर मुहैया कराते हैं और वे श्रम कानूनों की खुलेआम धज्जियां उड़ाते हैं.
रानी खेड़ा का भाग्य विहार, जो उत्तर प्रदेश और बिहार के गरीब प्रवासी परिवारों की बस्ती है, कोफे इम्पेक्स प्राइवेट लिमिटेड के उस कार्यालय में कर्मचारियों का बड़ा हिस्सा थीं जिसमें आग लग गई थी. उनके लिए, अनापत्ति प्रमाण पत्र (एनओसी), फायर अलार्म, आग बुझाने का यंत्र या पर्याप्त निकास द्वार वाले भवन, ऐसी कंपनियों में काम करने के लिए को पूर्वशर्त नहीं थी.
राजस्थान के अलवर में खदानों में काम करने वाले पति और उस पर बकाया 1.25 लाख रुपये के कर्ज के साथ, 35 वर्षीय यशोदा ने घरेलू आय में थोड़ी सी वृद्धि के लिए इस कंपनी में चार साल तक अथक परिश्रम किया था. अपने 10,000 रुपये के मासिक वेतन, जो अकुशल श्रमिकों के लिए दिल्ली सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतन – 16,506 रुपये – से काफी कम है, के साथ वह घर के खर्च और अपने बच्चों की शिक्षा का ध्यान रखती थी. इस वेतन का एक हिस्सा कर्ज चुकाने के लिए अलग रखा जाता था.
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मगर आगजनी की उस रात यशोदा को बचाया नहीं जा सका
जब उनके पति, विश्वजीत और अन्य पीड़ितों के परिवार के सदस्यों ने मुख्यमंत्री द्वारा घोषित मुआवजे को प्राप्त करने की कोशिश की, तो उन्हें उस प्रणाली का पहली बार प्रत्यक्ष अनुभव हुआ, जिसके खिलाफ वे लड़ रहे हैं.
विश्वजीत कहते हैं, ‘हमने चार बार मुख्यमंत्री से मिलने की कोशिश की, लेकिन उनसे एक बार भी मिल नहीं सके. हमें बताया गया कि वह अपने कार्यालय में नहीं है, या उनके पास समय नहीं है. हर बार, हमने एक आवेदन दायर किया और वापस चले आये.’
उन्हें अन्य विभागों में भी इसी तरह के अपमान का सामना करना पड़ा, जहां नौकरशाहों द्वारा उन्हें पूरे-पूरे दिन इंतजार करने के लिए कहा गया और फिर बताया गया कि उनके आवेदन में डीएनए रिपोर्ट या एफआईआर या आधार कार्ड की एक प्रति या इसी तरह का कोई अन्य दस्तावेज नहीं था.
विगत 6 जुलाई को दिल्ली सरकार की ओर से इन परिवारों को उनके बैंक खातों में 1 लाख रुपये मिले. लेकिन इन परिवारों का कहना है कि पिछले तीन महीने से वे जिन मुश्किल हालातों से गुजर रहे हैं, उनकी इस छोटी सी रकम से भरपाई नहीं हो सकती है.
मिथिलेश, जिन्होंने अपने 24 वर्षीय बेटे, विशाल को खो दिया, कहते हैं, ‘जब मेरे बेटे का शव घर लाया गया, तो हमारे पास उसका अंतिम संस्कार करने के लिए भी पैसे नहीं थे. हमारे रिश्तेदारों और पड़ोसियों ने उसके लिए योगदान दिया और उस एक लाख में से मैंने उनका कर्ज चुका दिया. मेरे ऊपर अभी भी लोगों का पैसा बकाया है.’ विशाल 2015 से इसी कंपनी में 9,000 रुपये की मामूली आय के लिए काम कर रहा था.
कई परिवारों ने कहा कि उन्हें कंपनी के मालिकों- हरीश गोयल और वरुण गोयल – से मिलने वाले उस मुआवजे के बारे में भी जानकारी नहीं है जिसके वे हकदार हैं.
सेंटर ऑफ़ इंडियन ट्रेड यूनियनस (सीटू) के महासचिव अनुराग सक्सेना कहते हैं, ‘उन सभी कामगारों को जो दुर्घटना के समय उस कारखाने में काम कर रहे थे, इसके मालिक द्वारा मुआवजा दिया जाना चाहिए. लेकिन जब हम उनके परिवारों से मिले, तो हमने महसूस किया कि वे श्रम कानूनों से अवगत ही नहीं थे.’
दावों की प्रक्रिया के बारे में इन परिवारों का मार्गदर्शन करते हुए, गैर सरकारी संगठनों और यूनियनों ने उपराज्यपाल के कार्यालय का दौरा किया और दिल्ली के श्रम मंत्री मनीष सिसोदिया से भी मुलाकात की, लेकिन इसका कोई खास नतीजा नहीं निकला.
इसके बाद वे अपनी लड़ाई को श्रम विभाग तक ले गए. 7 जुलाई को, पीड़ितों के परिवारों के साथ मिलकर दिल्ली ट्रेड यूनियनों के एक समूह ने दिल्ली के संयुक्त श्रम आयुक्त गुरमुख सिंह, जो मुआवजे के लिए आवेदनों को प्रोसेस करने के प्रभारी हैं, के कार्यालय में विरोध प्रदर्शन किया. सक्सेना का दावा है कि सिंह ने उनसे कहा कि पीड़ितों के परिजनों का पता नहीं चल पाया है, परिवारों ने अभी तक दावा दायर नहीं किया है और कारखाने के मालिक फिलहाल जेल में हैं, इसलिए विभाग उन्हें नोटिस नहीं दे पा रहा है.
सक्सेना सवाल करते हैं, ‘जब गैर सरकारी संगठनों, यूनियनों और मीडिया को परिजन मिल सकते हैं, तो विभाग उन्हें क्यों नहीं ढूंढ सका? दरअसल उन्होंने कभी उनकी तलाश ही नहीं की.’ उन्होंने यह भी कहा कि अगर मालिक जेल में हैं, तो उनके वकीलों या परिवारों को नोटिस थमाया जा सकता है.
दिप्रिंट ने कई बार सिंह से संपर्क किया लेकिन उन्होंने हमारे सवालों का कोई जवाब नहीं दिया.
इस बीच बिरूली ने कहा कि सिंह अपना काम कर रहे हैं. उन्होंने कहा, ‘पुलिस से हमें जो भी रिपोर्ट मिली है, उसके आधार पर कार्यवाही की जा रही है. मेरे मुआवजा आयुक्त (सिंह) ने पहले ही कार्रवाई शुरू कर दी है और इसकी एक समय सीमा है जो कार्यालय को भी बता दी गई है. अब दावेदार को कुछ सबूत (रिश्तेदारी स्थापित करने के लिए) के साथ आना होगा.’
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अवैधता का मामला
दिल्ली सरकार के आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, कम वेतन और बिना किसी सुरक्षा तंत्र के काम करने वाले, 27 लोगों (जिनमें से 21 महिलाएं थीं) की उस आग में मौत हो गई. लेकिन डीएनए नमूनों का परीक्षण करने वाली फोरेंसिक लैब का कहना है कि वहां 27 से अधिक शव थे. हालांकि, कोई भी उन पर दावा करने के लिए आगे नहीं आया है.
पीड़ितों में से कुछ तो पिछले सात साल से इस कंपनी में काम कर रहे थे. मगर, कॉरपोरेट मामलों के मंत्रालय के पास दर्ज दस्तावेजों से पता चलता है कि उस इमारत से संचालित होने वाली दोनों कंपनियां- आई-क्लियर टेक्नोलॉजीज और कोफे इंपेक्स– 2019 में ही पंजीकृत हुई थीं. उनका एक ही पता था और वे बिजली के उपकरण बनाने का एक जैसा काम कर रहे थे. दिप्रिंट ने जिन कर्मचारियों से बात की उनमें से कोई भी उस कंपनी का नाम नहीं बता सका, जिसमें वे कार्यरत थे.
2012 में एमसीडी को तीन हिस्सों में बांटे जाने से पहले यह इमारत दिल्ली के नजफगढ़ क्षेत्र के नगर निगम के अधीन थी. इसके रिकॉर्ड बताते हैं कि यह 11 साल पुरानी है.
उस पर कभी किसी संपत्ति कर का भुगतान नहीं किया गया था, उसके पास कारखाने का लाइसेंस नहीं था और मालिक ने कभी भी भवन संबंधी योजना की मंजूरी के लिए आवेदन नहीं किया था, और यह लाल डोरा या गांव की जमीन पर अवैध रूप से बनाया गया था. इस जमीन पर कोई भी कारखाना या उद्योग नहीं चल सकता.
कारखाने के मजदूरों के पास रोजगार का कोई सबूत नहीं था. उन्हें कभी कोई अनुबंध या वेतन की पर्ची नहीं दी गई थी. अधिकांश कर्मचारियों को रजिस्टर में एक प्रविष्टि के बाद नकद में वेतन दिया गया, जो दिल्ली के न्यूनतम वेतन से काफी कम था.
इमारत की प्रवेश के एकमात्र द्वारा और बिना खिड़कियों वाला एक सख्त फाइबरग्लास से बना बाहरी आवरण असहाय पीड़ितों के लिए मौत का कारण बना क्योंकि इसने धुएं को अंदर ही कैद कर दिया था.
इस भीषण दुर्घटना की प्रतिक्रिया के रूप में, उत्तरी दिल्ली नगर निगम ने तीन अधिकारियों को निलंबित कर दिया. इसके मालिकों, जो अब न्यायिक हिरासत में हैं, पर भारतीय दंड संहिता की धारा 304 (लापरवाही से मौत), 308 (गैर इरादतन हत्या का प्रयास), और 120 बी (आपराधिक साजिश का पक्ष) के साथ आरोप लगाए गए हैं.
यह आग से होने वाला एकमात्र हादसा नहीं है
हालांकि, मुंडका अग्निकांड आग से होने वाली एकमात्र ऐसी दुर्घटना नहीं है जो इमारतों और कंपनियों के मालिकों, पुलिस, सरकारी विभागों और नगर निगमों के बीच कथित गहरी गठजोड़ के साथ संचालित अनियमित और असुरक्षित औद्योगिक इकाइयों को उजागर करती है.
मुंडका वाले हादसे के एक महीने बाद ही रोहिणी जेल के पीछे स्थित बादली इलाके में एक प्लास्टिक के गोदाम में भीषण आग लग गई थी. कुछ ही दिनों बाद मंगोलपुरी फेज-1 इलाके की एक फैक्ट्री में आग लग गई. इससे पहले, दिसंबर 2019 में दिल्ली की अनाज मंडी में स्कूल बैग और जूते बनाने वाली एक फैक्ट्री में आग लगने से अंदर सो रहे 43 लोगों की मौत हो गई थी.
दिल्ली अग्निशमन सेवा के आंकड़ों के अनुसार, अकेले 2022 में, 1 जनवरी से 30 जून के बीच, दिल्ली में आग लगने की 10,350 घटनाएं हुईं, जिसमें 60 लोगों की मौत हो गई और 395 अन्य घायल हो गए.
उनमें से प्रत्येक में मुआवजे की प्रक्रिया लंबी और कठिन थी.
डैमेज कंट्रोल
1997 में दिल्ली में हुई उपहार सिनेमा आग त्रासदी के 59 पीड़ितों में शामिल अपने दो बच्चों के लिए न्याय की लड़ाई की अगुवाई करने वाली नीलम कृष्णमूर्ति कहती हैं कि आग लगने से हुई दुर्घटनाओं के बारे में सरकार की धारणा में साधारण सा बदलाव इनके पीड़ितों को न्याय दिलाने के तरीके को बदल सकते हैं.
कृष्णमूर्ति कहतीं हैं, ‘इन मामलों को आईपीसी की धारा 304 ए के तहत दर्ज नहीं किया जाना चाहिए. हम मोटर दुर्घटना दावा ट्रिब्यूनल की तर्ज पर आग जैसी मानव निर्मित आपदाओं के लिए अलग से एक ट्रिब्यूनल क्यों नहीं बना सकते हैं जहां तुरंत फिसला लिया जाता है और पीड़ितों को अदालतों में नहीं जाना पड़ता है?’ कृष्णमूर्ति ने उपहार त्रासदी के पीड़ितों के लिए बने एसोसिएशन के अध्यक्ष के रूप में 25 साल तक मुकदमा लड़ा, पर अंत में फैसला उपहार सिनेमा के मालिकों – अंसल भाइयों – के पक्ष में आया.
वह आगे कहती हैं, ‘आग लगने की हर घटना में एक जैसी कहानी होती है- शॉर्ट सर्किट, निकास द्वार का उपलब्ध नहीं होना, आग बुझाने के यंत्र का नहीं होना, ये सब ऐसी चीजें है जिन्हें आसानी से प्रबंधित किया जा सकता है.’
हालांकि कृष्णमूर्ति ने अपने बच्चों के लिए लम्बी क़ानूनी लड़ाई लड़ी, मगर एक आम नागरिक के लिए इस प्रक्रिया से गुजरना असंभव है. मुंडका में इस समय यह लड़ाई लड़ रहे लोग भी इससे सहमत हैं.
विशाल की बहन कविता, सरकारी विभागों द्वारा दिखाई गई संवेदनशीलता की कमी से स्तब्ध हैं. वह विश्वजीत की कठिन परीक्षा से साबका रखती हैं. वे कहती हैं, ‘पिछले तीन महीनों से मैं मुआवजे के लिए कागजी कार्रवाई हेतु इधर-उधर भाग रही हूं. और इस सब के बाद, सरकार ने हमें सिर्फ एक सांकेतिक राशि पकड़ा दी, जैसे वे हमें कोई भीख दे रहे हैं.’
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