scorecardresearch
Monday, 6 May, 2024
होमफीचरवाराणसी से वड़ोदरा — भारत के छोटे शहरों में लिव-इन जोड़े कैसे करते हैं चुनौतियों का सामना

वाराणसी से वड़ोदरा — भारत के छोटे शहरों में लिव-इन जोड़े कैसे करते हैं चुनौतियों का सामना

जैसे-जैसे लिव-इन रिलेशनशिप बढ़ रहे हैं. वैसे-वैसे ही सामाजिक दबाव भी बढ़ रहे हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने अधिकारों का विस्तार किया है, लेकिन उच्च न्यायालयों, वैधानिक निकायों, राजनेताओं की ओर से इसका विरोध हुआ है.

Text Size:

अलीगढ़/वाराणसी: दाल और चावल की गर्म प्लेटों पर चम्मच भर घी डालते हुए, शाज़ी घरेलू जीवन की पारंपरिक तस्वीर पेश करती हुई दिखाई देती है, क्योंकि वह और उनका साथी दोनों दोपहर का भोजन खुद से परोस रहे हैं. वाराणसी के नदेसर क्षेत्र के पास एक आवासीय कॉलोनी में रहने वाली 29 वर्षीय महिला, जो शहजादी के नाम से जानी जाती है, और उसका 46 वर्षीय साथी मनीष, आसानी से अपने क्षेत्र के अन्य परिवारों और विवाहित जोड़ों जैसे ही हैं.

लेकिन एक छोटी सी बात: वे वास्तव में शादीशुदा नहीं हैं, और अपने रिश्ते की स्थिति को लोगों के सामने स्थापित करने का उनका संघर्ष अभी शुरू हुआ है. वे वाराणसी में एक हिंदू-मुस्लिम लिव-इन जोड़े के रूप में रह रहे हैं – योगी आदित्यनाथ के उत्तर प्रदेश में इससे बेहतर स्थिति नहीं हो सकती. दोनों नास्तिक हैं, वह एक मुस्लिम परिवार से आती हैं, जबकि उनका साथी मनीष एक ऊंची जाति के हिंदू परिवार से है. भले ही उनके मकान मालिक को अब इस बारे में पता चला है कि उनके धर्म अलग-अलग हैं, लेकिन वह उनकी वैवाहिक स्थिति से अनजान हैं. मनीष ने ठंडी सांस लेते हुए कहा, “हमने हमेशा सभी को बताया है कि हम शादीशुदा हैं. हमारी पहली चुनौती लोगों को यह बात स्वीकार करने के लिए तैयार करना था कि हमारी धार्मिक पृष्ठभूमि अलग अलग थी, हम अभी भी उस दिशा में कोशिश कर रहे हैं. लिव-इन के बारे में बात करना, खासकर यहां, पूरी तरह से एक अलग खेल है,”

आज के भारत में एक विरोधाभास चल रहा है. एक ओर, सुप्रीम कोर्ट जोड़ों के अधिकारों को व्यापक बनाता जा रहा है, जिसमें अविवाहित लोगों और ऐसे संबंधों से पैदा हुए बच्चों को भी शामिल किया जा रहा है. और उच्च शिक्षा व कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी बढ़ रही है. वहीं भारत के छोटे शहरों में डेटिंग ऐप्स और विवाह पूर्व रोमांस का प्रसार देखा जा रहा है, और भारतीय नैतिकता और सामाजिक स्वीकार्यता के मानदंडों के बाहर रिश्ते बढ़ रहे हैं. दूसरी ओर, इस सब पर प्रतिक्रिया हो रही है, खासकर अंतर्धार्मिक जोड़ों के लिए – चाहे वह उत्तराखंड का समान नागरिक संहिता हो या यूपी का धर्मांतरण विरोधी कानून, लिव-इन के लिए जगह कम हो रही है. और जब श्रद्धा वॉकर-आफताब पूनावाला जैसा मामला जनता के सामने आता है, तो संस्कृति के स्वयंभू संरक्षक एक असहिष्णु नैरेटिव फैलाते हैं जो माहौल को खराब करती है.

इन परिस्थितियों में प्रेमी जोड़ों को समाज – परेशान करने वाले पड़ोसी, शत्रुतापूर्ण व्यवहारव वाले मकान मालिक और गुस्साए माता पिता – का सामना करना पड़ता है. विशेषकर छोटे शहरों में, रणनीति काफी महत्वपूर्ण है. कई लोग खुद को भाई-बहन के रूप में पेश करते हैं, कुछ मंगल-सूत्र पहनती हैं और सिन्दूर लगाती हैं, और फिर भी कुछ लोग उस पितृसत्तात्मक समाज को धन्यवाद देते हैं जिस मानसिकता की वजह से मकान मालिक सिर्फ पति के ही डॉक्टुमेंट्स चेक करते हैं, महिला के नहीं, और उन्हें पति-पत्नी के रूप में पास कर देते हैं.

परेशान करने वाले पड़ोसी मुझसे पूछते रहते थे कि मैंने सिन्दूर क्यों नहीं लगाया या करवा चौथ का व्रत क्यों नहीं रखा. बेकार के सवाल जवाब से बचने के लिए हम किसी को कुछ नहीं बताते
– शाज़ी जो अपने साथी के साथ वाराणसी में रहती है

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

लिव-इन में रहने वालों के लिए कोई जगह नहीं

शाज़ी और मनीष की मुलाकात पांच साल पहले हुई थी, जब शाज़ी ने स्नातक की पढ़ाई पूरी करने के बाद कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्यों के साथ स्वेच्छा से काम करना शुरू किया था. इसके तुरंत बाद, उन्होंने यूपी प्रांतीय सिविल सेवा या पीसीएस परीक्षा की तैयारी शुरू कर दी. “प्रवेश परीक्षाओं के लिए अध्ययन करते समय मुझे एहसास हुआ कि मैं जो पढ़ रहा हूं उसका व्यावहारिक पक्ष मुझे जानना चाहिए. इसलिए मैंने कैंपेन और जागरूकता कार्यक्रमों के लिए कार्यकर्ताओं और स्थानीय कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्यों के साथ स्वेच्छा से काम किया.”

यहीं पर उनकी मुलाकात मनीष से हुई, जो उस समय वाराणसी की सीपीआईएमएल [भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) लिबरेशन] से जुड़े थे. हालांकि, अब वह एक स्वतंत्र कार्यकर्ता बन गए हैं. समाज, राजनीति और जीवन के बारे में बातचीत के दौरान शाज़ी ने कहा, “इस सब के दौरान मैंने सोचा कि मैं समाज में बदलाव लाने के लिए पीसीएस की तैयारी कर रही हूं, लेकिन यहां एक ऐसा व्यक्ति था जिसने वास्तव में समाज में बदलाव लाने, गरीबों और पीड़ितों के लिए काम करने के लिए अपना सब कुछ त्याग दिया था.”

मनीष और शाज़ी दोनों के परिवार अभी तक उनके रिश्ते को लेकर सहमत नहीं हुए हैं, यहां तक कि शाज़ी अब हिम्मत जुटाकर कभी-कभी ही अपने माता-पिता से बात कर पाती हैं, भले ही उनका परिवार उनके किराए के फ्लैट से सिर्फ दो किलोमीटर की दूरी पर रहता है. वह बात करने की कोशिश करती हैं ताकि परिवार के साथ संबंध बनाए रखा जा सके.

खासकर छोटे शहरों और कस्बों में जीवन और प्यार कभी भी आसान नहीं होता. दोनों के प्रेम संबंधों की शुरुआत परीक्षा के लिए कोचिंग करने के दौरान हुई. उत्साह से भरी युवा महिला ने कहा, “जबकि कक्षाएं 3-4 बजे तक ख़त्म हो जाती थीं, लेकिन मैंने अपने माता-पिता से कह रखा था कि यह शाम 7 बजे तक चलती हैं. इसलिए ताकि मुझे उनसे मुलाकात करने के लिए कुछ समय मिल सके,”

मनीष और शाज़ी के बीच प्रेम संबंधों की शुरुआत कोचिंग के दौरान हुई | सबा गुरमत

लेकिन 2020 में महामारी की शुरुआत के बीच सब कुछ नाटकीय ढंग से बदल गया. अप्रैल में शाज़ी ने स्थानीय कार्यकर्ताओं के साथ राशन और भोजन देने के राहत प्रयासों में स्वेच्छा से काम करना शुरू किया. इसकी वजह से वह लॉकडाउन के दौरान शाम को देर से घर आती थी. “एक दिन, मैं देर से घर लौटा और हमारे एक पड़ोसी ने मेरे बड़े भाई से पूछा कि आपकी बहन लॉकडाउन के बीच देर रात तक बाहर रहती है, वह क्या कर रही है? उस दिन मेरी मां ने मुझे थप्पड़ मारा.”

मेरे भाइयों ने भी कहा, “इसको हम लोग बहुत बना दिये, पढ़ा दिये, बाल जो कटवा कर बड़ी प्रियंका गांधी बनी हो न. ये हमारी नाक कटवा देगी.” मेरी मां ने भी सहमति जताते हुए कहा, “इज्जत से ज्यादा बड़ा कुछ भी नहीं है.”

“वह आखिरी दिन था. मुझे एहसास हुआ कि अगर इन्हें मारना ही है, तो स्वतंत्रता की एवज़ में सिविल सेवाओं की तैयारी करने का कोई फायदा नहीं है. शाज़ी ने कहा, मैंने उसी पल अपनी आजादी को चुनने का फैसला किया, और उनका घर छोड़कर अपनी पसंद के साथी के साथ रहने का फैसला किया.

शाज़ी के अपने पिता के घर को छोड़ने के फैसले के बाद, उसने मनीष को फोन किया और उसे बताया कि उसने फैसला कर लिया है. उसने आगे कहा, “मैंने उनसे कहा कि देखो ऐसा है. और फिर कहा कि मैंने अपने लिए एक विकल्प चुना है, इसलिए यदि वह चाहे और विश्वास हो तो वह मेरे छलांग लगा सकता है,” फिर दोनों एक साथ रहने को राजी हो गए।

मई 2020 से, दंपति ने सबसे पहले एक पुराने पूर्व इंजीनियर और कार्यकर्ता मित्र के घर में शरण ली, जहां वे कई महीनों तक बिना किराया चुकाए रहे. इसके बाद 2021 में अपनी खुद की जगह खोजने का उनका प्रयास शुरू हुआ, जहां उन्होंने सभी से झूठ बोला था कि वे शादीशुदा हैं, और उन्हें उम्मीद थी कि पहचान के लिए केवल मनीष के ही दस्तावेजों की जांच की जाएगी.

शाज़ी ने दूसरी तरफ देखते हुए कहा, “लेकिन जब हमें एक फ्लैट मिला भी, तो वह तारक मेहता का उल्टा चश्मा की सोसायटी जैसा था, और परेशान करने वाले पड़ोसी मुझसे पूछते रहते थे कि मैंने सिन्दूर क्यों नहीं लगाया या करवा चौथ क्यों नहीं मनाया. कॉलोनी में दूसरों के हस्तक्षेप से बचने के लिए हमें हमेशा अपने तक ही सीमित रहना पड़ता था.”

वे वहां सिर्फ तीन महीने तक ही रहने में कामयाब हो पाए. क्योंकि उनके मकान मालिक को उनकी वैवाहिक स्थिति के बारे में पता चल गया और उसने उन्हें एक महीने के भीतर मकान छोड़ने का नोटिस दे दिया.

शाज़ी ने बताया कि उन्होंने उन्हें एक दिन के भीतर ही बाहर कर दिया होता, लेकिन उन्होंने केवल इसलिए नोटिस दिया “क्योंकि वह जानते थे कि हम सामाजिक और राजनीतिक रूप से सक्रिय हैं, और कुछ हंगामा कर सकते हैं.” इसके बाद, जब तक नवंबर 2022 में उन्हें एक मकान नहीं मिल गया तब तक वे अपने पूर्व इंजीनियर कार्यकर्ता के घर पर ही रहे. जहां मनीष का परिवार 150 किमी दूर दूसरे शहर में रहता है, वहीं शाज़ी के माता-पिता इस नए फ्लैट से मुश्किल से एक मील दूर रहते हैं.

उन्होंने कहा, “मेरे माता-पिता जानते हैं कि मैं अब कहां रहती हूं, लेकिन उन्होंने इस बात को स्वीकर कर लिया है कि वे इस मामले में ज्यादा कुछ नहीं कर सकते हैं.”

दंपती का वर्तमान सेट-अप एक ऐसी सोसायटी में है जिसमें ज्यादातर विवाहित और पारंपरिक तौर-तरीके वाले परिवार रहते हैं. यहां वे दलदली वरुणा नदी-तट से सटे गंदे कमरे वाले फ्लैट में रहते हैं.

फिर भी, यह सिर्फ उनकी कहानी नहीं है. यही बात उन्हें सांत्वना देती है कि वे अकेले नहीं हैं.

लिव-इन का ट्रेंड बढ़ रहा है

फरवरी 2024 में, उत्तराखंड सरकार अपने आप में अनोखे तरह के पहले समान नागरिक संहिता या यूसीसी को लेकर सुर्खियों में आई.

यूसीसी के प्रावधानों में सबसे विवादास्पद वह धारा है जो अब राज्य में लिव-इन की शुरुआत और अंत दोनों का अनिवार्य पंजीकरण कराना होगा. इसमें शामिल शर्तों के मुताबिक अधिकारियों को रिश्ते के बारे में संक्षिप्त जांच करनी होती है, और अगर जोड़े जानकारी देने में असमर्थ पाए जाते हैं तो उन्हें जेल हो सकती है.

जबकि सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे जोड़ों के लिए अधिकारों का दायरा बढ़ा दिया है, उच्च न्यायालयों, वैधानिक निकायों और राजनेताओं ने इसे कलंकित करने वाली टिप्पणियां की हैं. 2017 में, राजस्थान के मानवाधिकार आयोग के अध्यक्ष प्रकाश टाटिया ने लिव-इन को “सामाजिक आतंकवाद” का एक रूप करार दिया, जो समाज को तेजी से संक्रमित कर रहा है. इस बीच, 2022 में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने कहा कि लिव-इन रिलेशनशिप “यौन अपराधों को” और संकीर्णता को बढ़ावा देता है.

बार-बार, इलाहाबाद उच्च न्यायालय की कई पीठों ने कहा है कि ऐसे रिश्ते “टाइम-पास”, “अनैतिक” और “अवैध” हैं, खासकर अंतर्धार्मिक और अंतर्जातीय जोड़ों के मामलों में जो पुलिस सुरक्षा मांगने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटाते हैं. हाल ही में मार्च 2024 में, सुरक्षा की मांग कर रहे एक लिव-इन जोड़े के मामले की सुनवाई करते हुए, मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने कहा कि ‘संवैधानिक अधिकारों को हमेशा लागू करने की आवश्यकता नहीं है’. वहीं, राज्य की एक अन्य अदालत ने फैसला सुनाया है कि सिन्दूर लगाना एक विवाहित हिंदू महिला का ‘कर्तव्य’ है.

हाल ही में हरियाणा से बीजेपी सांसद धर्मबीर सिंह ने इन्हें ‘खतरनाक बीमारी’ बताते हुए ऐसे रिश्तों के खिलाफ कानून बनाने की मांग की थी.

अदालतों और मीडिया में लगातार सनसनीखेज और लांछन ने परिवारों और रेजिडेंट्स वेलफेयर एसोसिएशंस (आरडब्ल्यूए) में व्याप्त रूढ़िवाद पर भी असर डाला है. पिछले साल, नोएडा में एक शानदार बहुमंजिला अपार्टमेंट परिसर के आरडब्ल्यूए ने अविवाहित व्यक्तियों या ‘कुंवारे किरायेदारों’ को फ्लैट किराए पर देने के खिलाफ एक फरमान जारी किया था.

फिर भी, कई प्रतिबंधों और राज्य अधिकारियों द्वारा ऐसी वर्जनाओं का समर्थन करने के बावजूद, युवा भारतीय पारंपरिक विवाह के इन विकल्पों को अपनाना जारी रखते हैं.

और यह सिर्फ दिल्ली, मुंबई या बेंगलुरु जैसे बड़े महानगरों में नहीं है.

वाराणसी से लेकर वड़ोदरा और अलीगढ़ से लेकर अलवर व अन्य छोटे शहरों और कस्बों में लिव-इन रिलेशनशिप बढ़ रहे हैं, और इन सभी के साथ सामाजिक दबाव भी बढ़ रहे हैं. जैसे-जैसे अधिक से अधिक जोड़े विवाह के बिना अलग अलग विकल्प तलाशने की कोशिश कर रहे हैं, समाज और पॉप-संस्कृति तेजी से आगे बढ़ रही है, और परिवार वालों, मकान मालिकों व सामाजिक पूर्वाग्रहों से लड़ने के लिए नई युक्तियां भी तलाश रहे हैं.

महिला अधिकार कार्यकर्ता और पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज या पीयूसीएल की अध्यक्ष कविता श्रीवास्तव ने कहा, “कौमार्य, एक विवाह, जैसे कई मानदंडों को चुनौती दी जा रही है. शायद, उन्हें हमेशा चुनौती दी जा रही थी लेकिन पहले यह छिपे तौर पर था. लेकिन सौभाग्य से शिक्षा और महिलाओं की गतिशीलता यानि उनके यहां वहां आने जाने की वजह से चीजें बदल गई हैं,” श्रीवास्तव का जयपुर स्थित पीयूसीएल कार्यालय उन युवा जोड़ों और महिलाओं के लिए एक ‘सुरक्षित घर’ के रूप में भी काम करता है, जो अपने माता-पिता के घरों से भाग गए हैं.

जयपुर के वन विहार में एक बंगले के परिसर के एक हिस्से में स्थित, श्रीवास्तव का चार कमरों वाला कार्यालय और निजी आवास मानवाधिकार कार्यों के लिए एक संकट केंद्र है, जहां रहने के लिए सुरक्षित जगह ढूंढने में परेशानी का सामना करने वाले लोगों की मेजबानी के लिए अक्सर इस स्थान का उपयोग किया जाता है. श्रीवास्तव ने कहा, “कभी-कभी जब भागे हुए जोड़े आते हैं, खासकर अंतर्जातीय या अंतर्धार्मिक जोड़े, तो हम लड़के को हमारे साथ यहां रहने के लिए कहते हैं और लड़की राजस्थान विश्वविद्यालय महिला संघ द्वारा संचालित अल्पावास गृह (शॉर्ट-स्टे होम) में चली जाती है.” उन्होंने कहा कि इस दौरान महिलाओं को पुलिस को अपना बयान देने के लिए प्रोत्साहित किया गया.

इस बीच, 2018 में 18-35 आयु वर्ग के 1.4 लाख लोगों के ऑनलाइन अध्ययन से पता चला कि इनमें से लगभग 80 प्रतिशत मिलेनियल्स ने लिव-इन को जीवन जीने के तरीके के रूप में इसका समर्थन किया. सर्वेक्षण में शामिल 26 प्रतिशत लोगों ने कहा कि वे विवाह के बदले लिव-इन को पसंद करेंगे.

बॉलीवुड भी इस घटना से अछूता नहीं रहा है. एक दशक से भी अधिक समय पहले 2013 में, यशराज बैनर की शुद्ध देसी रोमांस स्लीपर-हिट थी, जिसने टियर-1 भारत के बड़े शहरों के बाहर लिव-इन पर फिर से बातचीत को शुरू किया. जयपुर पर आधारित, सुशांत सिंह राजपूत और परिणीति चोपड़ा अभिनीत इस फिल्म में एक छोटे शहर में एक साथ रहने वाले एक युवा जोड़े के संघर्षों पर रोशनी डाली गई है, जिसमें एक वैकल्पिक कहानी पेश की गई है, जो शादी पर आधारित नहीं है, बल्कि इसका सुखद अंत है.

हालांकि इस सब से, दो दशक पहले, सलाम नमस्ते फिल्म 2005 में लिव-इन के विचार को मुख्यधारा में लेकर आई. कार्तिक आर्यन और कृति सैनन स्टारर लुका छुपी फिर से मथुरा और ग्वालियर जैसे छोटे शहरों लिव-इन में रहने वाले जोड़ों की जिंदगी पर चर्चा को जन्म दिया. नेटफ्लिक्स पर, मिथिला पालकर-स्टारर लिटिल थिंग्स में एक जोड़े को उनके लिव-इन रिलेशनशिप के उतार-चढ़ाव से जूझते हुए दिखाया गया है, भले ही वह मुबंई जैसे महानगर में हों.

वाराणसी से लेकर वड़ोदरा और अलीगढ़ से लेकर अलवर व अन्य छोटे शहरों और कस्बों में लिव-इन रिलेशनशिप बढ़ रहे हैं, और इन सभी के साथ सामाजिक दबाव भी बढ़ रहे हैं.

इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि नेहा और दीया, मनीष और शाज़ी, सद्दाम और मणिबेन और अनगिनत अन्य जोड़े, अधिक कठिन इलाके वाले छोटे शहरों में लड़ाई लड़ रहे हैं.

जबकि बड़े शहरों में भी लिव-इन को अनैतिक माना जाता है और यह कठिनाइयों से भरा रहा है, लेकिन ऐसे महानगरों में अपनी पहचान को छिपा कर रहना आसान है. छोटे शहर में चीजों को छिपा के रखना मुश्किल है, खासकर यह देखते हुए कि छोटे समुदायों में एक-दूसरे को जानने की अधिक संभावना है, और छोटे शहरों में सीमित सामाजिक-आर्थिक अवसर हैं जो सीमित स्वतंत्रता ही मिल पाती है.


यह भी पढ़ेंः मिलिए भारत के ‘डंकी इन्फ्लुएंसर्स’ से, वह आपको पनामा जंगल, मेक्सिको का बॉर्डर पार करना सिखाएंगे


छोटा शहर, संकीर्ण सोच

25 साल की नेहा और दीया के लिए, वाराणसी जैसे शहर में एक समलैंगिक जोड़ा होने का मतलब है न केवल अपने परिवारों को समझाने के लिए संघर्ष करना, बल्कि बहुत बाद में उन्हें यह भी अहसास होता है कि समाज में “पितृसत्ता किस हद तक” हावी है. यह जोड़ा, जो पिछले चार वर्षों से एक-दूसरे से मिल रहे हैं, पहली बार लगभग ग्यारह साल पहले स्कूल में दोस्त थे. वाराणसी में जन्मे और पले-बढ़े, दोनों स्वीकार करते हैं कि वहीं रहना और काम करना चाहते हैं, भले ही यहां का समाज में बड़े शहरों जैसा ‘खुलापन’ नहीं है.

जब उन्हें इस बात का अहसास हुआ कि वे एक-दूसरे को पसंद करते हैं तो कुछ ही महीनों में चीजें काफी गंभीर हो गईं, लेकिन सबसे बड़ी चुनौती थी कि परिवार वालों और समाज से इसकी स्वीकृति मिलना. दीया ने कहा, “मेरा परिवार हमारे रिश्ते को स्वीकार करने के लिए तैयार हो गया है, वे जानते हैं कि मैं इसे लेकर गंभीर हूं. लेकिन नेहा के सिर्फ पिता ही हैं, इसलिए उन्हें समझाना कठिन रहा है,”

जबकि दीया का परिवार शुरू में अपनी बेटी की सेक्शुअलिटी को नहीं स्वीकार नहीं कर पा रहा था, लेकिन, 2022 तक चीजें धीरे-धीरे बदलने लगीं, जब उसकी साथी नेहा ने उनके परिवार के घर आना शुरू किया. “मेरे भाइयों और माता-पिता ने नेहा से बातचीत की, उन्होंने देखा कि वह मेरे बारे में गंभीर थी. उन्हें एहसास होने लगा कि यह मेरे लिए सिर्फ एक फेज़ भर नहीं है, और मैं किसी आदमी से शादी नहीं करने वाली. दीया ने हल्की सी मुस्कान के साथ कहा, “मुझे लगता है कि 2023 तक उन्हें मेरे प्यार का एहसास हो जाएगा और उन्हें पता चल जाएगा कि मैं इस रिश्ते को लेकर कितनी गंभीर हूं,” आमने-सामने की मुलाकात और वर्षों की बातचीत की अंतिम परिणति दीया के अपने परिवार से संपर्क तोड़ने और कुछ दिनों के लिए इलाहाबाद भागने के फैसले में हुई. तब तक उसके परिवार और नेहा ने उसे वापस घर बुला लिया.

25 साल की नेहा और दीया के लिए, वाराणसी में एक समलैंगिक जोड़े होने का मतलब परिवार और समाज की पितृसत्तात्मक सोच के साथ संघर्ष करना है | सबा गुरमत | दिप्रिंट

दोनों पिछले तीन सालों से अपने लिए जगह ढूंढने या नेहा के पिता को मनाने और नेहा के घर में एक साथ रहने की कोशिश कर रही हैं. चश्मे वाली नेहा ने कहा, “बेशक, यह हमारे जैसे लोगों के लिए हर जगह मुश्किल है, क्योंकि मुंबई जैसे शहर में भी, एलजीबीटी पहचान वाले लोगों को भेदभाव का सामना करना पड़ता है और हममें से कई लोगों को यह कहकर जगह किराए पर लेनी पड़ती है कि हम दोस्त हैं, या बहनें हैं. विडंबना यह है कि, कुछ मायनों में, इस बारे में झूठ बोलने से हमारे लिए विषमलैंगिक (हेट्रोसेक्शुअल) जोड़ों की तुलना में यह आसान हो जाता है क्योंकि मकान मालिक एक साथ किराए पर रहने वाले पुरुष और महिला को अधिक संदेह की दृष्टि से नहीं देखते. लेकिन हम अपना जीवन झूठ में नहीं जी सकते, है न?”

एक महत्वाकांक्षी इवेंट-मैनेजर, वह एक स्थिर आय खोजने और वित्तीय रूप से स्वतंत्र होने के लिए अपनी साथी दीया के साथ इस उद्यम का निर्माण करने की कोशिश कर रही है. इस बात पर जोर देते हुए कि कैसे एक छोटे शहर या कस्बे में “लोगों द्वारा आपको या आपके परिवारों को जानने की अधिक संभावना होती है”, नेहा ने कहा कि इससे वाराणसी में उनके लिए चीजें और अधिक कठिन हो गईं.

“हमारे परिवार वाले कहते रहते हैं कि भले ही हम जो चाहते हैं वह करें, लेकिन दूसरों को पता नहीं चलना चाहिए. उन्होंने कहा, “हमें कहा जाता रहता है, ‘लोगों को पता नहीं चलना चाहिए'”

यह भी वास्तविकता है कि वित्तीय स्वतंत्रता के अभाव में, विशेष रूप से महिलाओं को शादी करने के दबाव का सामना करना पड़ता है. “दिल्ली में, आप ‘गे (Gay)’ शब्द का प्रयोग बहुत सामान्य रूप से कर सकते हैं, यहां यह सामान्य नहीं है और इसके लिए इस्तेमाल किया जाने वाला हिंदी शब्द किसी पुरुष और पुरुष जोड़े के लिए गाली है. और एक महिला के लिए, यह बस मान लिया गया है कि चलो कुछ समय बाद इसकी तो हम शादी करा ही देंगे. दीया ने कहा, “यह धारणा यहां काफी फैली है कि एक महिला से शादी करा के इस समस्या से निपटा जा सकता है.”

हम वर्तमान में कम से कम 3 या 4 ऐसे मामले देख रहे हैं जहां जोड़ों को सलाह दी गई है कि वे हर मकान मालिक को बताएं कि वे पहले से ही शादीशुदा हैं. उदाहरण के लिए, मैं एक और जोड़े को जानती हूं जिनके पास शादी करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था, क्योंकि महिला के परिवार ने उस व्यक्ति पर अपहरण का आरोप लगाया था और उसके खिलाफ पुलिस में शिकायत दर्ज कराई थी.
– नीति, एनजीओ एशियन ब्रिज इंटरनेशनल में को-ऑर्डिनेटर

एनजीओ एशियन ब्रिज इंटरनेशनल की को-ऑर्डिनेटर और स्थानीय समलैंगिक और लिंग अधिकार कार्यकर्ता नीति का मानना है कि एक अविवाहित पुरुष और महिला के लिए बड़े मेट्रो शहरों में भी कमरा ढूंढने की कोशिश करने की बात को स्वीकार कर पाना मुश्किल है.

“हम वर्तमान में कम से कम 3 या 4 ऐसे मामले देख रहे हैं जहां जोड़ों को सलाह दी गई है कि वे हर मकान मालिक को बताएं कि वे पहले से ही शादीशुदा हैं। उदाहरण के लिए, मैं एक और जोड़े को जानता हूं जिनके पास शादी करने के अलावा कोई विकल्प नहीं था, क्योंकि महिला के परिवार ने उस व्यक्ति पर अपहरण का आरोप लगाया था और उसके खिलाफ पुलिस में शिकायत दर्ज कराई थी.

जिस महिला की बात हो रही है वह 18 साल की उम्र की होने ही वाली लड़की थी, जो 24 साल के आदमी से मिली थी. तीन महीने लिव-इन में रहने के बाद, स्थानीय अदालत और परिवार दोनों ने उन पर शादी के लिए दबाव डाला और उन्हें लगा कि उनके पास ऐसा करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है.

नीति, ने कहा, “उन्होंने उसे उसके साथ रहने के लिए समय या स्थान नहीं दिया, अब उसे शादी पर पछतावा हो रहा है.”

ॉआमतौर पर, वाराणसी के वर्किंग क्लास और सामाजिक-आर्थिक रूप से गरीब इलाकों में रहने वालों को कम सवालों का सामना करना पड़ता है, जिससे जगह ढूंढना अपेक्षाकृत आसान हो जाता है. उन्होंने बताया, “लेकिन यहां भी अगर बात बाहर चली गई तो आप मुसीबत में पड़ सकते हैं. अगर मकान मालिक को भी पता चलता है कि पुलिस मामला दर्ज किया जा सकता है या परिवार मामला दर्ज कर सकते हैं, तो मकान मालिक उन्हें किराए पर देने के लिए और भी अधिक अनिच्छुक होते हैं.”

नेहा और दीया सहमत हैं. फ्लैट ढूंढ़ने का उनका अपना अनुभव बिल्कुल नेहा के पिता की प्रतिक्रिया या यहां तक कि पुलिस केस के डर के कारण रुका हुआ है, जिन्हें अभी तक मनाया नहीं जा सका है. दोनों स्वीकार करते हैं कि उनके जैसे क्वीयर जोड़े के लिए “सिर्फ दोस्त” होने के बारे में झूठ बोलना आसान है, लेकिन परिवार के किसी सदस्य द्वारा उन्हें तलाशने या मकान मालिकों द्वारा विरोध करने और माता-पिता के पक्ष में खड़े होने का जोखिम जोड़ों के लिए किराए पर लेना लगभग असंभव बना देता है.

मैत्री-करार, कानूनी ढाल की तलाश

यह कल्पना करना आसान है कि बाजार की ताकतों और पैसे का लालच सामाजिक रीति-रिवाजों पर हावी हो जाएगा, लेकिन वास्तविकता इससे अधिक भिन्न नहीं हो सकती.

वाराणसी और इलाहाबाद में मकान मालिकों ने माना कि अविवाहित जोड़ों, विशेषकर “अलग जाति से” (धर्म सहित) को किराए पर न देने का दबाव ने पैसे के लालच को पीछे छोड़ दिया था.

Google पर हाई रेटिंग वाले वाराणसी स्थित एक मकान मालिक ने टिप्पणी की कि अगर जोड़े की सगाई हो चुकी है या अगले कुछ महीनों में शादी करने की योजना है तो जगह ढूंढने में आसानी होगी. उन्होंने कहा कि अविवाहित होने से “पुलिस वेरिफिकेन में बड़ी कठिनाइयां आएंगी.”

फिर भी, इलाहाबाद उच्च न्यायालय में प्रैक्टिस करने वाले वकील रमेश कुमार ने इसका खंडन करते हुए कहा कि जब दो वयस्क सहमति से एक साथ रहना चाहते हैं तो कोई कानूनी बाधा नहीं है, जितना कि सोशल स्टिगमा और पुलिस का नैतिक या पारिवारिक संरक्षक के रूप में कार्य करने की वजह से परेशानी होती है.

इस बीच, वाराणसी के कचेहरी (अदालत परिसर) क्षेत्र के पास रहने वाली एक मकान मालिक और सामाजिक क्षेत्र की पेशेवर रंजू सिंह ने बताया कि शहर के साथ-साथ आज़मगढ़ और लखनऊ में रहने और काम करने के उनके अनुभव के अनुसार, यह लगभग असंभव था. “मध्यम वर्ग से उच्च वर्ग के इलाकों” में ऐसे लोगों को ढूंढना जो लिव-इन जोड़े को किराए पर देते हों. ये जोड़े खुद को भारत के शहरों में आवास संबंधी भेदभाव और आवासीय अलगाव के शिकार मुसलमानों, दलितों, ‘मांस खाने वालों’ और सिंगल वूमन की एक लंबी सूची में शामिल पाते हैं. सिंह मानते हैं कि छोटे शहरों में रहने वालों के लिए गलत चीजों का दिखावा करना आसान नहीं, क्योंकि कई लोग सीधे सरनेम या जातिगत पृष्ठभूमि के बारे में सीधे पूछ लेते हैं.

सिंह ने कहा कि अपने घर का एक हिस्सा एक विवाहित ईसाई जोड़े को किराए पर देने के उनके फैसले को वाराणसी में उनकी “मध्यमवर्गीय कॉलोनी” में अस्वीकृति का सामना करना पड़ा.

यहां तक कि उन अविवाहित जोड़ों के लिए भी जिन्हें मकान मालिकों के पूर्वाग्रहों का सामना नहीं करना पड़ता, उन्हें भी अन्य लड़ाइयां लड़नी पड़ती हैं. राजकोट के सद्दाम गरासिया और मणिबेन चौधरी को पता होगा. दंपती की पारिवारिक पृष्ठभूमि (वह खुद एक मुस्लिम और उनकी साथी एक हिंदू) के कारण गुजरात पुलिस में कांस्टेबल के रूप में मणिबेन की नौकरी में मुश्किलें आईं.

जबकि दोनों ने आखिरकार नवंबर 2023 में धर्मनिरपेक्ष विशेष विवाह अधिनियम के तहत शादी कर ली, दोनों जानते थे कि परिवार, पड़ोसियों और यहां तक ​​कि नौकरी पर सहकर्मियों से धमकियां उनके रिश्ते की शुरुआत में जोखिम पैदा करेंगी. जब 24 वर्षीय मणिबेन और 32 वर्षीय सद्दाम पहली बार दो साल पहले वडोदरा के दाभोई शहर में मिले, तो वे एक साथ रहने लगे, क्योंकि मणिबेन वडोदरा जिले में नौकरी पर तैनात थीं.

भले ही वे सद्दाम के घर में रहते थे, लेकिन दोनों ने खुद को निगरानी करने वालों और महिला के परिवार से बचने के लिए ‘मैत्री करार’, या ‘मैत्री समझौता’ करने का फैसला किया. मैत्री करार गुजरात का एक खास कानून है, जो लिव-इन रिलेशनशिप को नोटरीकृत स्थिति प्रदान करने की अनुमति देती है. 1956 में हिंदू विवाह अधिनियम के तहत बहुविवाह को अवैध बना दिए जाने के बाद, मैत्री करार का कानून आया, जिससे पुरुषों को पत्नी के अलावा अपनी प्रेमिका (Mistress) को कानूनी सहायता देने की अनुमति मिल गई, ताकि विवाहेत्तर (शादी के बिना) महिला और बच्चों के अधिकारों की सुरक्षा की जा सके.

लेकिन समय के साथ, इस प्रेक्टिस ने हाशिये पर मौजूद लोगों को अपने रिश्तों के लिए कानूनी शरण लेने और सुरक्षा प्राप्त करने की अनुमति भी दे दी है. विद्वान और कार्यकर्ता माया शर्मा ने अपनी पुस्तक फ़ुटप्रिंट्स ऑफ़ ए क्वीयर हिस्ट्री: लाइफ स्टोरीज़ फ़्रॉम गुजरात में इस बात पर प्रकाश डाला है कि शादी करने की अनुमति देने वाले कानून के अभाव में कितने समलैंगिक और क्वीयर जोड़ों ने इस समझौते के तहत अपने संबंधों को रजिस्टर किया है.

और यह सिर्फ क्वीयर कपल नहीं हैं. मणिबेन और सद्दाम जैसे अंतर्धार्मिक जोड़े भी इस पर निर्भर हैं. सद्दाम के मुताबिक जब तक वह शादी नहीं कर लेते तब तक यह उनके लिए सुरक्षा को लेकर एहतियाती कदम है. सद्दाम ने दिप्रिंट को बताया कि कैसे उनकी अभी की पत्नी, कांस्टेबल मणिबेन का उनके परिवार के सदस्यों द्वारा दो बार अपहरण कर लिया गया था. और धर्मनिरपेक्ष विशेष विवाह अधिनियम (एसएमए) के तहत शादी करना कोई छोटी उपलब्धि नहीं है.

“शादी के संबंध में रजिस्ट्रार को सूचित करने के लिए पहली बार जाने के बाद हमें कम से कम दो महीने इंतजार करना पड़ा. और एसएमए के अनुसार, आपके पते का विवरण रजिस्ट्रार के नोटिस-बोर्ड पर लगा दिया जाता है, और हमारे दोनों परिवारों को भी शादी के बारे में जानकारी भेज दी जाती है. हम जानते थे कि इससे हमारी सुरक्षा को परेशानी होगी, खासतौर पर इसलिए क्योंकि उसका परिवार बहुत कट्टर है. इसलिए हमने सबसे पहले एक साथ रहते हुए मैत्री-करार लेने का विकल्प चुना, ताकि जब तक हमारी शादी न हो जाए तब तक हम सुरक्षित रहें.”

अन्य मामलों में, लिव-इन जोड़ों को नकली दस्तावेज़ प्रस्तुत करने के पहले सोचना पड़ता है. अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पीएचडी स्कॉलर फ़ाज़ली के लिए गांधीनगर से लेकर गोवा और इलाहाबाद तक कई लिव-इन रिलेशनशिप में रहने के कारण, सभी ने उसे इन बाधाओं से निपटने में “अच्छी तरह से एक्सपर्ट” बना दिया है।

33 वर्षीय फ़ाज़ली, जो अब अपने करियर के चलते अपने लिव-इन पार्टनर के साथ लॉन्ग-डिस्टेंस रिलेशनशिप में हैं, बताती हैं कि कैसे, एक वक्त, उन्होंने साबित कर दिया कि उनका पूर्व लिव-इन पार्टनर और वह भाई-बहन थे. “मैं उस सरनेम का उपयोग नहीं करती जिसका मेरे माता-पिता करते हैं, लेकिन गांधीनगर में मेरे साथी का सरनेम मेरे माता-पिता के सरनेम वाला ही था. इसलिए हमने मकान मालिक को मेरे बजाय अपने माता-पिता के दस्तावेज़ दिखाए, और भाई-बहन होने का बहाना करके किराए की जगह ले ली!” लेकिन फ़ाज़ली की कठिनाइयां यहीं ख़त्म नहीं हुईं, तत्कालीन मकान मालिक की पत्नी उन पर नज़र रखने के लिए बार-बार आती थी, कभी-कभी उन पर नज़र रखने के लिए साथ-साथ भी रहती थी.

फ़ाज़ली और इलाहाबाद में उसका लिव-इन पार्टनर अपने घर पर। | सबा गुरमत

सालों बाद, जब वह इलाहाबाद में कोविड के बीच अपने मौजूदा साथी से मिली, तो न केवल मकान मालिकों, बल्कि पड़ोसियों से भी खराब बर्ताव का सामना करने के कारण, जोड़े को एक शहर में कम से कम तीन बार घर बदलने के लिए मजबूर होना पड़ा.

“इलाहाबाद में जिस पहली हाउसिंग सोसाइटी में हम स्थानांतरित हुए थे, वहां लोगों ने मेरे साथी को बैठाया और उससे हमारे रिश्ते के बारे में सटीक जानकारी पाने की कोशिश की, इसके बाद मकान मालिक ने हमें 24 घंटे के भीतर ही बाहर निकाल दिया.” फ़ाज़ली और उसके साथी फिर वर्किंग-क्लास डोम पारा झुग्गी बस्ती एरिया में चले गए. “झुग्गी बस्तियों में लोगों को इन बातों से ज्यादा मतलब नहीं होता है, लेकिन जब झुग्गी-बस्ती एरिया के एक स्थानीय प्रभावशाली राजनीतिक नेता को हमारे रिश्ते के बारे में पता चला, तो हमें वहां से निकलना पड़ा.” सौभाग्य से, इसके तुरंत बाद उन्हें अंततः एक ऐसा मकान मालिक मिल गया, जिसे उनकी अविवाहित होने की स्थिति से कोई आपत्ति नहीं थी.

हालांकि, वह तब से अपने रिसर्च के लिए अलीगढ़ चली गई है, तो वह इस बात को महसूस करती है कि वे दोनों कितनी “मोटी चमड़ी” वाले थे जो इस सह गए. वह बताती हैं कि गांधीनगर की उनकी दो सहेलियों को अंततः अपने लिव-इन रिलेशनशिप को बनाए रखने के लिए ऑरोविले जाना पड़ा. इस जोड़े में एक हिंदू परिवार की महिला और एक कश्मीरी मुस्लिम पृष्ठभूमि का पुरुष था, जिन्हें गुजरात में जब रहने के लिए कोई विकल्प नहीं मिला तो उन्हें अंततः ऑरोविले शिफ्ट होना पड़ा.

ऑरोविले विभिन्न राष्ट्रीयताओं, नस्ल, धर्म, कामुकता और जाति के व्यक्तियों के लिए एक कम्यून प्रदान करता है. पारंपरिक नैतिकता का उल्लंघन करने वाले युवा जोड़ों को यहां आसानी से शरण मिल जाती है. इस तरह के सेट-अप न होने की स्थिति में, छोटे शहरों में रहने वाले लोग क्सर स्थानीय कार्यकर्ताओं और प्रगतिशील सोच वाले लोगों के जरिए व्हिसपर नेटवर्क पर निर्भर होते हैं.

वाराणसी स्थित मकान मालिक और सामाजिक क्षेत्र की कार्यकर्ता रंजू सिंह ने बताया, “आमतौर पर, यह किसी भरोसेमंद दोस्त या प्रगतिशील व्यक्ति के संदर्भ के माध्यम से होता है कि एक जोड़े को ऐसे शहरों में जगह मिल सकती है.”

छोटे शहर की महिलाएं और सदियों पुरानी लड़ाइयां

जबकि अविवाहित जोड़ों को रहने की जगह खोजने के लिए इधर से उधर कूद-फांद करनी पड़ती है, फिर इन रिश्तों में महिलाओं को कहीं ज्यादा दबाव का सामना करना पड़ता है. न केवल विवाह पूर्व यौन-संबंध को लेकर सामाजिक विरोध का दबाव झेलना पड़ता है, बल्कि परिवारों से अलग होना, वित्तीय स्वतंत्रता प्राप्त करने की कोशिश करने के साथ-साथ लैंगिक हिंसा का भी कई बार सामना करना पड़ता है.

कविता श्रीवास्तव बताती हैं कि कैसे लिव-इन इस बात को रेखांकित करता है कि महिलाएं सशक्त हो रही है, “न केवल अपने पैतृक परिवार से अलग होने में, बल्कि आर्थिक स्वतंत्रता और शिक्षा के मामले में भी.” हाई-स्कूल, कॉलेज और कोचिंग सेंटरों में जाने के दौरान युवतियों के अपने भावी साथियों से मिलने के कई उदाहरण सामने आए हैं.

श्रीवास्तव ने अफसोस जताते हुए कहा, “हाल ही में 18 साल की एक लड़की ने हमें बताया कि उसकी परीक्षाएं जल्द ही समाप्त हो गईं हैं और वह चाहती थी कि हम उसे उसके घर से बाहर निकलने में मदद करें. एक अन्य मामले में, एक महिला एक अन्य मित्र के साथ रह रही थी और सामुदायिक जीवन, अहिंसा की वैकल्पिक जीवन शैली अपना रही थी. लेकिन फिर यहां जयपुर में मकान मालिक ने उनके परिवार के साथ मिलकर उन्हें बाहर निकाल दिया.”

बाद की घटना में 24 वर्षीय अंजली से संबंधित थी, जो वर्तमान में जयपुर में स्थित एक स्वतंत्र कलाकार है. जब एक रिश्तेदार ने उसका यौन उत्पीड़न किया और उसके माता-पिता चुप रहे, तब अंजलि ने 16 साल की उम्र में अपने माता-पिता से नाता तोड़ने का फैसला किया. एमबीए पूरा करने के बाद से, जयपुर जैसे राजधानी शहर में भी रहने के लिए उसके लिए जगह ढूंढना एक कठिन काम रहा है.

उन्होंने कहा,“मैं किसी के साथ रिलेशनशिप में नहीं हूं, लेकिन मकान मालिक मुझसे मेरे माता-पिता के बारे में पूछते थे और जब मैं कहती थी कि मैं उनके संपर्क में नहीं हूं, तो मेरे आधिकारिक दस्तावेज पेश करने के बावजूद मुझे फ्लैट देने से इनकार कर दिया जाता था. वे मुझे एक स्वतंत्र वयस्क महिला के रूप में नहीं देख सकते और मेरी पसंद उनके लिए अपरंपरागत हैं,”

दिसंबर 2023 में, अंजलि अपने ही अपार्टमेंट में रह रही थी, जब उसके साथ दुर्व्यवहार करने वाले ने उसका पता लगाया और वहां आ गया, और उसने शिकायत दर्ज करने की कोशिश की, जबकि उसके माता-पिता ने समर्थन नहीं किया. उन्होंने कहा, “उस वक्त मकान मालिक ने हमें बाहर निकाल दिया, उसने मुझे कोई कारण नहीं बताया. और उसने मेरी सिक्युरिटी मनी भी नहीं लौटाई,”

किसी महिला के अपने पैतृक घर छोड़ने का यह मतलब नहीं होता है कि वह किसी लिव-इन रिलेशनशिप में है, बल्कि यह किसी महिला के अपनी पहचान और स्वतंत्रता से जुड़ा हुआ है. इस व्यवस्था की वजह से कपल सामाजिक मानदंडों को एक तरह से चुनौती देते हैं, भले ही उनका ऐसा कभी इरादा न हो.

सिगरेट के कश खींचते हुए फोन पर झुकी हुई शाज़ी बताती हैं कि कैसे उनके लिव-इन रिलेशनशिप ने उन्हें और उनके एक्टिविस्ट पार्टनर दोनों को वित्तीय रूप से सपोर्ट करने के लिए वाराणसी में अपना खुद का क्लाउड किचन शुरू करने के लिए प्रेरित किया.

मनीष ने कहा, “हमने हाल ही में अपने साथियों, दोस्तों और शुभचिंतकों के लिए एक बड़ी पार्टी का आयोजन किया. तब तक, उनमें से अधिकांश को हमारे अलग अलग धर्मों और हमारे संबंधों के बारे में पता नहीं था, लेकिन अब उन्हें पता है. एक रूढ़ि है कि मुसलमान धार्मिक रूप से अधिक कट्टर (कठोर) होते हैं, लेकिन विडंबना यह है कि हमारे कई साथी जो यहां के स्थानीय बुनकर (अंसारी) समुदाय से हैं, उन्होंने सबसे पहले हमें गले लगाया और हमारे साथ खड़े हुए,”

आज, कपल अभी भी अपनी मान्यताओं के साथ-साथ अलग अलग धर्म होने के कारण सामाजिक स्वीकृति पाने के लिए शादी करने और लिव-इन रिलेशनशिप में रहने के बीच झूल रहे हैं. यूपी राज्य में कठोर धर्मांतरण विरोधी कानून ने किसी भी पर्सनल लॉ के तहत विवाह को और अधिक कठिन बना दिया है. मनीष के पिछले इतिहास और सीएए-एनआरसी के विरोध के लिए पुलिस के रडार पर होने के कारण, दोनों का मानना ​​है कि विशेष विवाह अधिनियम का रास्ता भी कई जोखिम पैदा करेगा, जिसमें दक्षिणपंथी समूहों और परिवारों को उनकी व्यक्तिगत जानकारी के बारे में पता होगा.

संयोग से, इलाहाबाद उच्च न्यायालय की न्यायमूर्ति रेनू अग्रवाल ने अब माना है कि यूपी धर्मांतरण विरोधी कानून लिव-इन रिलेशनशिप के मामले में भी लागू होगा. कोई रास्ता न सूझने की वजह से दोनों नास्तिकों ने एक साधारण से सेरेमनी में बौद्ध धर्म को स्वीकार कर लिया ताकि उन्हें अपने विवाह संबंधित कानूनी प्रमाणपत्र मिल सके और उनकी सुरक्षा हो सके. हालांकि, वे अभी भी वैवाहिक स्थिति दिखाने के लिए दस्तावेज़ हासिल नहीं कर पाए हैं.

लेकिन अभी भी उम्मीद बाकी है. और उनके रिश्ते के उतार-चढ़ाव की घटना के जरिए एक दृढ़ संकल्प विकसित हुआ है.

दोनों दृढ़ता से कहते हैं, “हमने वास्तव में यह सब किया है. इस बिंदु पर, केवल एक चीज जो हम कर सकते हैं वह है यहां कम्युनिटी के बीच धीरे-धीरे काम करने की कोशिश करना, लोगों की सोच बदलना. हम छोड़ नहीं सकते या बस उठकर दिल्ली या मुंबई नहीं जा सकते. जो कुछ होना है, यहीं होना चाहिए. यहां चीजें बदलनी चाहिए,”

(इस फीचर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


यह भी पढ़ेंः ‘यहां युवा चेहरे मुश्किल से ही दिखते हैं’, पंजाबियों का विदेश जाने का सपना अब कनाडा तक सीमित नहीं


 

share & View comments