जयपुर/हुब्बल्ली-धारवाड़: जयपुर में हाल ही में हुआ सबसे अच्छा इंफ्रास्ट्रक्चर विकास असल में एक तोड़फोड़ थी — यही कहा एचआर मैनेजर आयुषी अग्रवाल ने, जिस दिन राजस्थान विधानसभा ने यह घोषणा की कि शहर की बहुचर्चित 500 करोड़ रुपये की बस रैपिड ट्रांजिट सिस्टम (BRTS) को हटाया जाएगा.
आयुषी ने कहा, “इसका कोई फायदा नहीं था. मैंने कभी इसमें बस नहीं ली और इसकी वजह से ट्रैफिक और शोर ने हमारी ज़िंदगी को नर्क बना दिया. मैं खुश हूं कि अब इसे हटाया जा रहा है.”
करीब 15 साल पहले जब BRTS शुरू हुआ था, तब यह वादा किया गया था कि इससे जयपुर एक ‘वर्ल्ड क्लास सिटी’ बन जाएगा और शहर की पब्लिक ट्रांसपोर्ट की समस्या का समाधान होगा, लेकिन जल्दी ही यह सपना एक शहरी दु:स्वप्न में बदल गया. सड़कें बैरिकेड से दो हिस्सों में बंट गईं और जाम बढ़ गया. जिन 300 बसों की बात की गई थी, वो कभी इस रूट पर चली ही नहीं.
और ऐसा सिर्फ जयपुर में नहीं हुआ. देशभर में BRTS कॉरिडोर तोड़े जा रहे हैं. 2006 में केंद्र सरकार ने इन्हें भविष्य की ट्रैफिक समस्या का हल बताया था, लेकिन इन्होंने मौजूदा समस्याएं और बिगाड़ दीं. ट्रैफिक पुलिस इन्हें परेशानी मानती है, कार मालिकों को लगता है उनकी जगह छीन ली गई और पैदल चलने वालों को ये रास्ते जानलेवा लगते हैं. अब राज्य सरकारें भी जनता के दबाव में इन्हें हटाने पर मजबूर हो गई हैं.
दिल्ली, जहां 2008 में BRT शुरू हुआ था, इसे सबसे पहले बंद करने वाला शहर बना. मध्य प्रदेश सरकार ने इसे भोपाल से हटा दिया. एमपी हाईकोर्ट ने इंदौर से भी इसे हटाने का आदेश दिया है. पुणे, जहां देश की सबसे पुरानी BRT प्रणाली थी, वहां भी बैरिकेड हटाए जा रहे हैं. कर्नाटक के हुब्बल्लि-धारवाड़ में तो जनता का विरोध और तेज़ हो गया है.
आज बीआरटीएस एक ऐसा प्रतीक बन गया है जो भारत की बिगड़ती शहरी परिवहन व्यवस्था को दर्शाता है. हर शहर में हालात अलग हैं, लेकिन कहानी एक जैसी है, ऊपर से थोपे गए विदेशी मॉडल, जो भारत में ढंग से लागू नहीं हो पाए. ये उसी बड़ी समस्या का हिस्सा हैं, जहां तेज़ी से बढ़ते भारतीय शहरों में कचरा, ट्रैफिक, आवास और सड़क जैसी हर समस्या के लिए अधूरे और उधार लिए गए समाधान थोपे जाते हैं. एक समस्या का हल ढूंढते-ढूंढते सरकारें तीन नई समस्याएं पैदा कर देती हैं.

BRT सिस्टम का उद्देश्य था — ट्रैफिक कम करना और सार्वजनिक परिवहन को बेहतर बनाना, लेकिन यह एक बुरी योजना का प्रतीक बन गया, जिसे कई लोग ‘सड़क पर समाजवाद’ कहकर मज़ाक उड़ाते हैं. वहीं दूसरी ओर, देश में चलने वाली बसों की संख्या आज भी ज़रूरत से दस गुना कम है. सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, शहरी भारत में सिर्फ 47,000 से कुछ ज़्यादा बसें हैं, जिनमें से सिर्फ 24,000 ही सड़कों पर चल रही हैं.
भारतीय विज्ञान संस्थान (IISc) में ट्रांसपोर्टेशन सिस्टम इंजीनियरिंग के प्रोफेसर अशीष वर्मा का कहना है कि भारत के BRT सिस्टम शुरू से ही विफल होने के लिए बने थे. उन्होंने बताया, “हमारे नगर निकायों ने बिना सोचे-समझे कोलंबिया के बोगोटा शहर का भारी-भरकम ढांचा भारत में लागू कर दिया, लेकिन वहां के संचालन मॉडल को समझे बिना.”
बेंगलुरु स्थित अपने दफ्तर में उन्होंने दिप्रिंट को बताया कि बोगोटा का सिस्टम ज्यादा यात्रियों के हिसाब से बनाया गया था, जबकि भारत में हमने वहां BRT बना दिए जहां बस जगह खाली थी — ये सोचे बिना कि वहां यात्रियों की ज़रूरत भी है या नहीं.
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BRT की शुरुआत कैसे हुई
1990 के दशक के मध्य में भारत के शहर योजनाकारों के सामने एक नया विचार था — “सस्टेनेबिलिटी” यानी टिकाऊ विकास. आज यह एक थका हुआ और अधूरा वादा लगता है, लेकिन तब यह एक चर्चित शब्द था. आर्थिक उदारीकरण के बाद के दौर में वैज्ञानिक और नीति-निर्माता इस कोशिश में थे कि भारतीय शहरों को कैसे ज़्यादा टिकाऊ बनाया जाए.
इस चर्चा के केंद्र में सार्वजनिक परिवहन (पब्लिक ट्रांसपोर्ट) था. दिल्ली मेट्रो उस समय बन ही रही थी और योजनाकार ऐसे ढांचों की तलाश में थे जो मेट्रो को सहयोग दे सकें.
इसी दौरान, आईआईटी दिल्ली के ट्रांसपोर्ट विशेषज्ञ दिनेश मोहन की अगुवाई में एक समूह बना, जो मेट्रो को लेकर अपने संदेहों के लिए जाना जाता था. इस टीम ने बस रैपिड ट्रांजिट सिस्टम (BRT) को लेकर लॉबिंग शुरू की. इस टीम की सोच में बीआरटी एक सस्ता और टिकाऊ उपाय था, जिससे भारत की भीड़भाड़ वाली सड़कों का समाधान निकल सकता था. 2006 में आई नेशनल अर्बन ट्रांसपोर्ट पॉलिसी (NUTP) में इस सिस्टम को जगह भी दी गई.
IISc के प्रोफेसर अशीष वर्मा ने कहा, “भले ही दिल्ली को 18 किलोमीटर लंबा कॉरिडोर मिला हो, लेकिन फिर भी वह फेल होता. जब तक नेटवर्क स्तर पर कनेक्टिविटी, संचालन की स्पष्ट योजना, तेज़ बस सेवा और अधिक यात्री क्षमता नहीं होती — तब तक BRTS सफल नहीं हो सकता.”
बीआरटी का आइडिया भारत में सिर्फ देश के भीतर से नहीं आया, बल्कि लैटिन अमेरिका और एशिया के कई देशों से प्रेरणा ली गई — जैसे ब्राज़ील, कोलंबिया, चीन जैसे देश अपने शहरों में तेज़ बस सेवा के लिए अलग कॉरिडोर बना रहे थे. यूरोप के देश जैसे फ्रांस भी इस विचार को अपनाने लगे थे.
ब्राज़ील के आर्किटेक्ट जैमे लर्नर, जिन्हें फास्ट बस सिस्टम का जनक माना जाता है, उन्होंने 1970 के दशक में कुरितिबा शहर में एक अनोखा सिस्टम शुरू किया, इसमें प्री-पेड टिकटिंग और सिर्फ बसों के लिए अलग लेन होती थी. बाद में यह मॉडल बोगोटा और रियो डी जनेरियो में भी अपनाया गया.
आईआईटी दिल्ली की सिविल इंजीनियरिंग प्रोफेसर गीतम तिवारी, जिन्होंने दिल्ली में बीआरटी लागू करने में अहम भूमिका निभाई थी. उन्होंने याद किया, “1990 के आखिरी और 2000 की शुरुआत में शहरों में सस्टेनेबिलिटी को लेकर चर्चा तेज़ हो रही थी, तभी हमने दुनिया के BRT सिस्टम्स को देखना शुरू किया.”
उन्होंने बताया, “क्रैश डेटा से पता चला कि बसें साइकिल वालों से टकरा रही थीं. हम अपने अंतरराष्ट्रीय सहयोगियों से भी संपर्क में थे, जो बसों को आम ट्रैफिक से हटाकर जाम की समस्या हल कर रहे थे.”

2006 में शहरी विकास मंत्री जयपाल रेड्डी के कार्यकाल में बनाई गई नेशनल अर्बन ट्रांसपोर्ट पॉलिसी (NUTP) ने BRTS को एक टिकाऊ और पैदल यात्रियों के अनुकूल विकल्प के रूप में पेश किया था. इस नीति दस्तावेज़ की शुरुआत इस अनुमान के साथ हुई थी कि भारत की शहरी आबादी 2001 में 28.5 करोड़ से बढ़कर 2021 तक 47.3 करोड़ और 2051 तक 82 करोड़ हो जाएगी.
नीति में लिखा गया था: “इसलिए शहरों को न सिर्फ मौजूदा आबादी की आवाजाही की ज़रूरतों को पूरा करना होगा, बल्कि भविष्य में शहरी आबादी में शामिल होने वाले लोगों की ज़रूरतों को भी ध्यान में रखना होगा.”
यह नीति टिकाऊ और सस्ते सार्वजनिक परिवहन को बढ़ावा देती थी और उसमें BRTS का ज़िक्र खासतौर पर किया गया था. इसमें बोगोटा और कुरितिबा जैसे शहरों के उदाहरण दिए गए, लेकिन यह भी कहा गया कि हर शहर की ज़रूरत अलग होती है, इसलिए समाधान भी उसी हिसाब से होने चाहिए. साथ ही यह भी बताया गया कि ट्रांसपोर्ट सिस्टम को शहर की प्लानिंग के शुरुआती चरण में ही शामिल करना चाहिए — बाद में जोड़ने की चीज़ नहीं होनी चाहिए.

NUTP 2006 के आधार पर, UPA सरकार ने जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीकरण मिशन (JNNURM) शुरू किया. इसके तहत 2011 में केंद्र सरकार ने BRTS के लिए 21 शहरों को 1 लाख करोड़ रुपये से अधिक की मंज़ूरी दी. इनमें जयपुर, इंदौर, दिल्ली, कोलकाता और विजयवाड़ा जैसे शहर शामिल थे, लेकिन आखिरकार सिर्फ 9 शहरों में ही यह सिस्टम लागू हो पाया और कुल मिलाकर करीब 4,700 करोड़ रुपये खर्च हुए.
BRT के ज़्यादातर प्रोजेक्ट म्यूनिसिपल कॉरपोरेशनों को सौंपे गए, जो खास एजेंसियों (Special Purpose Vehicles) के ज़रिए काम कर रहे थे, जैसे जयपुर में JVSTL और अहमदाबाद में जनमार्ग. सबसे पहले पायलट प्रोजेक्ट पुणे और दिल्ली में शुरू किए गए.
दिल्ली का 5.8 किलोमीटर लंबा पायलट रूट (मूलचंद से आंबेडकर नगर) शुरुआत से ही लड़खड़ाने लगा था.
IISc के प्रोफेसर आशीष वर्मा ने कहा, “अगर दिल्ली को 18 किलोमीटर का रूट भी मिलता, तब भी यह फेल होता. जब तक नेटवर्क स्तर पर कनेक्टिविटी, अच्छी संचालन योजना, तेज़ बस सेवा और अधिक यात्री क्षमता नहीं होगी — तब तक BRTS सफल नहीं हो सकता.”
असफलता के लिए डिज़ाइन किया गया?
दिल्ली बीआरटीएस शुरू होने के दिन से ही नकारात्मक प्रचार का शिकार रहा. टाइम्स ऑफ इंडिया ने इसे ‘ट्रॉमैटिक’ (आघातकारी) कहा, जबकि इंडियन एक्सप्रेस ने इसे ‘लेन राज’ नाम दिया. ट्रैफिक जाम और दुर्घटनाओं की खबरें आम हो गईं और शीला दीक्षित सरकार पर इसे हटाने का तुरंत दबाव बन गया.
जहां बोगोटा को अक्सर मॉडल के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, वहीं तिवारी का कहना है कि विशेषज्ञों ने ताइपे जैसे शहरों से भी शिक्षा ली थी, और वास्तविक सोच यह नहीं थी कि पूरी तरह बंद लेन बनाई जाएं, बल्कि यह भी था कि गैर-बीआरटी बसें और अन्य हल्के वाहन भी चल सकें.
दिल्ली की पूर्व मुख्य सचिव शैलजा चंद्रा के अनुसार, बस रैपिड ट्रांजिट सिस्टम का उद्देश्य सही था. वह कहती हैं कि यह अन्य शहरों (भारत और विदेश दोनों) में सफल मिसालों की तर्ज पर बना था.
उन्होंने कहा, “2002 में दिल्ली के 62% यात्री सफर के लिए बसों का इस्तेमाल करते थे. इसके बाद दोपहिया वाहन और ऑटो का नंबर आता था. मेट्रो तब नई-नई शुरू हुई थी और दिसंबर 2002 में ही उसकी पहली लाइन शुरू हुई थी. उन्होंने कहा कि ज़रूरी था कि ऐसा पब्लिक ट्रांसपोर्ट विकल्प ढूंढा जाए जो बड़ी संख्या में लोगों को तेज़ी से एक जगह से दूसरी जगह ले जा सके, बिना इस झंझट के कि सड़क पर पहले से ही कई तरह के वाहन जगह के लिए आपस में भिड़ रहे हों.”
लेकिन डिजाइन और अमल में कमजोरियां रहीं. वर्मा का तर्क है कि दिल्ली जैसे भारतीय बीआरटी सिस्टम कम यात्री प्रति-घंटा प्रति-दिशा वहन क्षमता के कारण जूझते हैं.
एक 50-सीटर बस, जो हर 10 मिनट में चलती है, कुल 300 लोग ले जाती है, लेकिन एक आम ट्रैफिक लेन 1,200 लोगों तक का वहन कर सकती है, वर्मा ने कहा: “तो जब तक बसों की क्षमता और आवृत्ति नहीं बढ़ाई जाती, बीआरटीएस सिस्टम आखिरकार कैसे सफल होगा?”
दिल्ली में यह कॉरिडर समाज के लिए, खासकर कार मालिकों के लिए असुविधाजनक माना गया, जिन्होंने समर्पित लेनों तक पहंच की मांग करते हुए कई याचिकाएं दायर कीं. सार्वजनिक रवैया भी मददगार नहीं था.

कॉरिडोर पर जाम इस कदर बढ़ गया कि तत्कालीन संयुक्त पुलिस आयुक्त (यातायात), सत्येंद्र गर्ग को कई बार मूलचंद के पास ट्रैफिक बहाव संभालने के लिए खड़ा रहना पड़ता था. “बीआरटी को और सफल बनाने के लिए और बसें जोड़नी चाहिए थीं, और इसे केवल सबसे कठिन कॉरिडोर तक सीमित नहीं रखना चाहिए था, जिससे छह किलोमीटर का वह हिस्सा काम नहीं कर पाया,” गर्ग ने दिप्रिंट को बताया. “अगर आप किसी महत्वपूर्ण कॉरिडोर का 35 से 40 फीसदी हिस्सा तो बीआरटी को दे देते हैं पर पर्याप्त बसें नहीं चलती, तो आप सेवा के बजाय अफरातफरी ही बढ़ाते हैं.”
शहरी अवसंरचना विशेषज्ञ टिकेंद्र पवार के अनुसार, यह स्थिति यात्रियों के व्यवहार और सोच की वजह से और बिगड़ गई.
“भारतीय यात्री बहुत ही सामंती सोच वाला है,” उन्होंने कहा. “अगर उसके पास कार है, तो वह सार्वजनिक परिवहन का उपयोग करने से इनकार करता है. बीआरटी जैसा सिस्टम वहां नहीं टिक सकती जहां नागरिक चेतना न के बराबर हो.”
चंद्रा ने याद किया कि दिवंगत मुख्यमंत्री शीला दीक्षित, जो आम तौर पर बहुत प्रभावशाली रही थीं, बीआरटी परियोजना के लिए जनता का समर्थन नहीं जुटा सकीं. हांलाकि दीक्षित ने पायलट परियोजना (जो 18 किमी होनी थी) का विस्तार नहीं किया, पर उन्होंने इसे पूरी तरह हटाया भी नहीं. यह काम आखिरकार आम आदमी पार्टी ने किया, जिसने जनवरी 2016 में इसे खुशी के साथ हटाया.
दिल्ली बीआरटी की असफलता और मेट्रो की जबरदस्त सफलता ने अन्य शहरों की सार्वजनिक परिवहन की दिशा तय कर दी. 2014 के बाद, केंद्र और राज्य सरकारें मेट्रो की ओर झुक गईं. 2022 की नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (कैग) की रिपोर्ट ‘बस रैपिड ट्रांजिट इन इंडिया’ में भी जिक्र किया कि “मेट्रो सेवाओं के आने के बाद बीआरटी पर कम ध्यान दिया गया.”
लेकिन यही सिलसिला फिर से दोहराया जा सकता है. भले ही कई भारतीय शहर मेट्रो प्रोजेक्ट की मंज़ूरी के इंतज़ार में हैं, ज़्यादातर मेट्रो ट्रेनें अपनी पूरी क्षमता से कम ही चल रही हैं. वर्मा का कहना है कि टियर-2 शहरों में मेट्रो प्रोजेक्ट भी बीआरटी जैसे ‘सफेद हाथी’ बन सकते हैं — यानी बहुत महंगे लेकिन ज़्यादा काम के नहीं.

दिल्ली बीआरटी की असफलता अकेला उदाहरण नहीं है. राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी और जनता के विरोध के कारण अन्य भारतीय शहरों में भी परियोजनाएं बीच में ही छोड़ दी गईं.
विशाखापत्तनम में बीआरटी परियोजना अब भी पूरी नहीं हुई है, हालांकि राज्य की बसें कॉरिडोर का उपयोग करती हैं, पर प्रोजेक्ट अब तक औपचारिक रूप से शुरू नहीं हुआ. विजयवाड़ा की 15 किमी परियोजना चुपचाप कम होकर पांच किमी रह गई है, और इसे “लंबा कपड़ों का तार” कहकर मजाक उड़ाया गया.

जयपुर के अधिकारी बीआरटीएस परियोजना शुरू करते समय “क्या नहीं करना है” यह समझने के लिए दिल्ली गए थे, लेकिन यहां भी सिस्टम डूब गया. यह जनता का समर्थन नहीं हासिल कर पाया, न ही कारों को बस लेन से रोक सका, और न ही यात्रियों का जीवन आसान बना सका.

‘जयपुर ने कभी बीआरटीएस देखा ही नहीं’
जयपुर में बीआरटीएस की काली और पीली बैरिकेडिंग को एक-एक करके हटाया जा रहा है. 2010 से यह शहर के लिए सिरदर्द बनी हुई थी.
“अब समझदारी आ गई है,” एक निवासी ने कहा, जो उस कॉरिडोर के पास ट्रैफिक सिग्नल पर अपनी कार में इंतजार कर रहे थे. “यहां जाम बहुत बुरा है. जब ये दोनों लेन खुल जाएंगी, तो हम चैन की सांस लेंगे.”
गुलाबी नगर, जो अपनी धरोहर संजोने में माहिर है, आधुनिकता के प्रबंधन में फिसल गया. यह भारत का 11वां सबसे बड़ा शहर है, लेकिन यहां कोई कार्यशील सार्वजनिक परिवहन प्रणाली नहीं है.
जयपुर में प्रति लाख जनसंख्या पर सिर्फ 10 बसें हैं, और अधिकांश निवासी आने-जाने के लिए दोपहिया या ऑटो पर निर्भर रहते हैं.

कुछ मुट्ठीभर बसें—जिनमें मिनी बसें और अंतर-शहर सेवा वाली गाड़ियां शामिल हैं—अब भी कभी-कभी उन खारिज और बंद पड़े बीआरटी बस टर्मिनलों पर रुक जाती हैं, जबकि कारें और बाइकें तेजी से गुजरती रहती हैं.
“ऐसा नहीं है कि बाकी बस स्टॉप ज्यादा अच्छे हैं, लेकिन ये स्टॉप कम से कम हमें खड़े होने और इंतजार करने के लिए एक सुरक्षित जगह देते हैं,” मनेका ने कहा, जो घरेलू कामगार हैं और अपनी नियमित बस का इंतजार कर रही थीं.
जयपुर उन नौ शहरों में था जिन्हें JNNURM के तहत बीआरटीएस के लिए चुना गया था, और राज्य और केंद्र ने इस योजना में 470 करोड़ रुपये से ज्यादा निवेश किए थे.
परियोजना की शुरुआत में काम कर चुके सूत्रों के अनुसार, मंत्री और अधिकारी अहमदाबाद से लेकर बोगोटा तक गए थे. लेकिन वापस कोई भी व्यवहारिक नोट, अनुभव या सबक लेकर नहीं लौटे. बजट का एक हिस्सा जनजागरूकता के लिए था, लेकिन शुरू से ही जनता की भागीदारी और समर्थन एक समस्या बन गई.

शुरुआत में मकसद टोंक रोड जैसे अहम मार्गों पर जाम कम करने का था. सूत्रों के अनुसार मूल प्रस्ताव में दो मुख्य कॉरिडोर थे: एक उत्तर-दक्षिण, जो टोंक रोड और सीकर रोड को जोड़ता था, और एक पूर्व-पश्चिम, जो अजमेर रोड से दिल्ली रोड जाता था. पानी पेच और दुर्गापुरा पर एलिवेटेड स्ट्रेच की भी योजना थी.
लेकिन लगभग शुरुआत से ही जयपुर विकास प्राधिकरण (JDA) को कड़ा विरोध झेलना पड़ा.
“जब हमने दुर्गापुरा में काम करना शुरू किया, तो हमें काफी विरोध का सामना करना पड़ा. लोग सड़क का कोई भी हिस्सा हमें लेने नहीं देना चाहते थे,” एक जेडीए अधिकारी ने कहा.
इस विरोध के बाद, अधिकारियों ने पीछे हटकर नए इलाकों का चयन किया—सीकर रोड और न्यू सांगानेर रोड, जो 45 मीटर से चौड़ी थीं.
2010 में उद्घाटन किए गए इस कॉरिडोर के लिए 300 बसों का वादा किया था (जो JNNURM योजना के तहत खरीदी गईं), लेकिन इन बसों को और ‘महत्वपूर्ण’ माने गए मार्गों जैसे टोंक रोड पर भेज दिया गया.
सीकर रोड कॉरिडोर पर बसों की फ्रीक्वेंसी और नियमितता बेहद खराब थी. आमतौर पर केवल डिपो की कुछ बसें ही इसका इस्तेमाल करती थीं—वो भी डिपो में आने-जाने के लिए। न्यू सांगानेर रोड पर बना कॉरिडोर तो कभी चालू ही नहीं हुआ.
“जयपुर को बीआरटीएस का स्वाद तक नहीं मिल सका,” जेडीए के एक सूत्र ने कहा. “बसों को मेट्रो जितना समयनिष्ठ होना चाहिए था. यह पहियों पर मेट्रो है—यह केवल एक कॉरिडोर नहीं है. लेकिन यह कभी भी सही मायने में शुरू ही नहीं हो पाया.”
असफलता का विश्लेषण
आखिरकार, जयपुर के पास केवल दो कॉरिडोर बचे, जिन पर बसें बेहद कम चलती थीं, और कई नई परेशानियां खड़ी हो गईं. बीआरटी की लेन स्टंट बाइकर्स के लिए एक खेलने का मैदान बन गईं, चौराहों पर अराजकता बढ़ गई, और यात्री खुद को संभालने को मजबूर हो गए क्योंकि मिनी बसें निर्धारित टर्मिनलों पर रुकने से इनकार कर देती थीं, क्योंकि यात्रियों की संख्या बहुत कम थी.
2022 की कैग रिपोर्ट में यह कहा गया कि जयपुर बीआरटी में सभी बीआरटी सिस्टम वाले शहरों में सबसे कम संख्या में यात्री दर्ज हुए. शहर की सबसे बड़ी समस्या यह है कि यहां सड़क पर केवल 100 राज्य-स्वामित्व वाली लो-फ्लोर बसें ही उपलब्ध हैं. इसके विपरीत, लगभग 1,000 निजी मालिकाना के मिनी बसें सार्वजनिक परिवहन की जगह ले रही हैं, जो आमतौर पर नीले कॉलर श्रमिकों और छात्रों को ले जाती हैं.

बहुत जल्द ही यह स्पष्ट हो गया कि बीआरटीएस कभी भी उपयुक्त साबित नहीं होगा. इसकी डिजाइन, खासतौर से, अव्यवस्थित थी. सिर्फ 8 किलोमीटर लंबे सिकर रोड कॉरिडोर में 11 चौराहे थे. हर चौराहे पर फुटबॉल के मैदान जैसे विशाल क्रॉसिंग थे जिन्हें यात्री पार करने में संघर्ष करते थे. मिनी बसें भी यात्रियों को इन चौराहों पर ही बिठाती थीं, निर्धारित बस स्टॉप पर नहीं.
लेकिन जयपुर विकास प्राधिकरण (JDA) और विशेष प्रयोजन वाहन JCTSL के पूर्व प्रमुखों के पास यह बताने के लिए कोई जवाब नहीं था कि आखिर क्या गलत गया. JCTSL के वर्तमान प्रबंध निदेशक नारायण सिंह ने स्वीकार किया कि उनके पास यह “कोई डेटा” नहीं है कि कॉरिडोर पर कितनी बसें चलीं या कितने लोग इसका लाभान्वित हुए.
पिछले साल, केंद्रीय सड़क अनुसंधान संस्थान (CRRI) को बीआरटी परियोजना की व्यवहार्यता का अध्ययन करने के लिए बुलाया गया था. 2025 की एक रिपोर्ट में, CRRI ने कहा कि बीआरटी लेनों के आसपास ट्रैफिक की गति तेज थी, लेकिन फिर भी उन्होंने कॉरिडोर को हटाने की सिफारिश की.
सुरक्षा का मुद्दा भी था, जैसा कि मस्कान फाउंडेशन फॉर रोड सेफ्टी की निदेशक (प्रोजेक्ट्स) नेहा खुल्लर ने बताया, जो बीआरटीएस के शुरूआती समय में ट्रैफिक कंट्रोल बोर्ड का हिस्सा थीं.

सिकर रोड कॉरिडोर के बारे में खुल्लर ने कहा, “हमने शुरुआत से ही JDA को बताया था कि सड़क के बीच में बस कॉरिडोर का यह डिजाइन पैदल यात्रियों के लिए घातक साबित हो सकता है.”
यह सुरक्षा का सवाल भी था, जैसा कि मुसकान फाउंडेशन फॉर रोड सेफ्टी की प्रोजेक्ट डायरेक्टर नेहा खुल्लर ने बताया, जो बीआरटीएस लागू होने के समय ट्रैफिक कंट्रोल बोर्ड का हिस्सा थीं.

खुल्लर ने सिकर रोड कॉरिडोर के बारे में कहा, “हमने शुरुआत से ही JDA को बताया था कि सड़क के बीच में बस कॉरिडोर रखने का यह डिजाइन पैदल यात्रियों के लिए घातक सिद्ध हो सकता है.”
न्यू सांगानेर रोड पर बना दूसरा कॉरिडोर भी कम उपयोग हुआ. उस क्षेत्र में यात्री कम थे, इसलिए मिनी बसें नजदीकी और अधिक व्यवसायिक रूप से सक्रिय मध्यम मार्ग पर चलना पसंद करती थीं.
खुल्लर ने बताया, “न्यू सांगानेर रोड के बीआरटी कॉरिडोर में युवाओं ने तेज रफ्तार से वाहन दौड़ाना और स्टंट करना शुरू कर दिया, जिससे वह मार्ग जानलेवा बन गया.”
खुल्लर के अनुसार, जयपुर के लिए बीआरटीएस समय की जरूरत थी, लेकिन यह अपने डिज़ाइन दोष, जरूरत की वास्तविक समीक्षा की कमी, अंतिम छोर (लास्ट माइल) कनेक्टिविटी न होने और पर्याप्त बसों के अभाव के कारण असफल हो गया.
बीआरटी बजट से लगभग 270 करोड़ रुपये भी ऊंचे (एलिवेटेड) मार्गों के निर्माण पर खर्च कर दिए गए—ऐसे क्षेत्र, जहां कॉरिडोर कभी भी उपयोग में नहीं आ पाया.
ट्रैफिक इंजीनियरिंग और सड़क सुरक्षा ऑडिटर अनिरुद्ध माथुर, जिन्होंने जयपुर बीआरटी की पहले समीक्षा की थी, उन्होंने कहा, “बीआरटी के लिए चुने गए बस मार्ग बहुत छोटे थे. इसमें फीडर ट्रांसपोर्ट की कमी थी. किसी भी प्रकार की प्रणाली को वक्त चाहिए होता है. मेट्रो, बस, ई-रिक्शा जैसे भारी ट्रांसपोर्ट साधनों का समन्वय जरूरी है। बिना एकीकरण के, कोई भी प्रणाली फेल हो जाएगी.”
लेकिन उन शहरों में भी, जहां बीआरटीएस तकनीकी रूप से चालू है, वहां भी यह प्रणाली बेहद अलोकप्रिय बनी हुई है.
हुब्बल्ली-धारवाड़ में छिड़ा विवाद
ईश्वर शिवल्ली आज भी उस पल से पीछा नहीं छुड़ा सके हैं, जब उनके दोस्त ने उनके गोद में आखिरी सांस ली थी. “उसे बचाया जा सकता था, उसे बचाया जा सकता था,” वे झुककर कहते हैं. दो साल पहले हुए उस नुकसान के लिए वे हुब्बल्ली और धारवाड़ को जोड़ने वाले 22 किलोमीटर लंबे बीआरटीएस कॉरिडोर को जिम्मेदार मानते हैं.
उस दिन शिवल्ली अपने गंभीर रूप से घायल दोस्त को, जो सड़क दुर्घटना का शिकार हो गए थे, जल्दबाजी में अस्पताल ले जा रहे थे. लेकिन कार में मरीज होने के बावजूद, ट्रैफिक पुलिस ने उन्हें बीआरटी लेन में घुसने नहीं दिया.
अगले ही दिन, कांग्रेस कार्यकर्ता शिवल्ली ने शहर के जमीनी नेताओं की बैठक बुलाकर ‘धारवाड़ ध्वनि’ नामक संगठन की स्थापना की, जो मांग कर रहा है कि बीआरटीएस हर वाहन के लिए खोल दी जाए.
“यह कॉरिडोर बेंगलुरु जैसे ट्रैफिक की वजह है. हम चाहते हैं कि इसे एक मिक्स्ड-यूज ट्रैफिक कॉरिडोर बनाया जाए,” शिवल्ली ने कहा, जिन्होंने हुब्बल्ली-धारवाड़ के अलग-अलग दलों के नेताओं का समर्थन जुटाया है.

5 मार्च को करीब 500 ‘धारवाड़ ध्वनि’ सदस्य सड़क पर बैठ गए और बीआरटी की मूवमेंट रोक दी. “बीआरटीएस ब्यान ब्यान” (नीचे उतारो बीआरटीएस), वे नारे लगाने लगे. “बीआरटीएस सार्वजनिक करगे, बीआरटीएस रोड वाले, रोड डल्ली मुकवागी” (बीआरटीएस रोड को सार्वजनिक करो, हमें रोड दो)
पिछले दो वर्षों में ‘धारवाड़ ध्वनि’ ने कई प्रदर्शन किए हैं, जिनमें सदस्यों को पुलिस ने हिरासत में भी लिया. उन्होंने बीआरटी लेन ब्लॉक की, कमिश्नर ऑफिस और कलेक्टरेट तक मार्च किया, ज्ञापन सौंपे. ऑटो और व्यापारी यूनियन भी इस मुहिम से जुड़ गए हैं. सभी की मांग एक ही है: बीआरटी को हटाओ.
जयपुर के नाकारा सिस्टम के उलट, हुब्बल्ली-धारवाड़ में बीआरटी वास्तव में व्यावहारिक तौर पर चल रही है. 85 समर्पित नीली एसी बसें चार लेन वाले कॉरिडोर पर दोनों शहरों को जोड़ती हैं. इन बसों को विशेषाधिकार प्राप्त है—यहां तक कि राज्य की बसें भी यहां नहीं चल सकतीं.
यह सिस्टम एक मेट्रो जैसा ही काम करता है. बसों में कंडक्टर नहीं रहते, टिकट के लिए QR कोड स्कैन करना होता है, स्टेशनों पर अलग प्रवेश और निकास द्वार हैं. बीआरटीएस प्राधिकरण के अनुसार, बसें हर तीन मिनट पर चलती हैं. प्रतिदिन लगभग 2.2 लाख लोग हुब्बल्ली और धारवाड़ के बीच सफर करते हैं, जिनमें करीब 85,000 लोग बीआरटीएस का इस्तेमाल करते हैं.

यह कॉरिडोर अब एक विवाद का विषय बन चुका है. विद्यार्थी, वरिष्ठ नागरिक और रोज के यात्री इस सेवा की तारीफ करते हैं, लेकिन सड़क किनारे के दुकानदार, व्यापारी और निजी वाहनधारक इससे नाराज़ हैं.
“हम नीली बसों को रोकने के लिए नहीं कह रहे,” शिवल्ली ने कहा. “लेकिन उन्हें शहर के भीतर, जुबली सर्कल से नवलूर ब्रिज के बीच मिक्स्ड ट्रैफिक में चलना चाहिए.”
शिवल्ली और उनका समूह दलील देते हैं कि कॉरिडोर कुछ लोगों की सेवा तो करता है, लेकिन बाकी को जाम में फंसा छोड़ देता है. राज्य परिवहन की बसें भी यहाँ नहीं चल सकतीं, जिससे आम रास्ते पर और जाम बढ़ता है.
“हर दिन 500-700 नए वाहन हुब्बल्ली-धारवाड़ में रजिस्टर होते हैं, और सभी मुख्य सड़क से आते हैं. पहले बीआरटी में 150 बसें थीं, अब यह संख्या घटकर 70-80 रह गई है. बीआरटी कॉरिडोर खाली है, जबकि सार्वजनिक सड़कें जाम हैं. क्या यह जायज़ है?” वे पूछते हैं.
‘धारवाड़ ध्वनि’ संगठन का यह भी कहना है कि बीआरटीएस के चलते हादसे बढ़े हैं और बाजारों में जहां बैरिकेड लगे हैं, वहां जगह-जगह दुकानों पर भी असर पड़ा है.

एक उदाहरण है लक्ष्मी टॉकीज रोड पर संगम सर्कल मार्केट. कभी धारवाड़ का सबसे व्यस्त व्यवसायिक क्षेत्र था, अब अधिकतर बीआरटी यात्रियों के लिए पार्किंग बन गया है. दुकानों पर ताले लग रहे हैं और ग्राहक कम हो गए हैं.
बीआरटी कॉरिडोर ने सड़क को दो हिस्सों में बांट दिया और न तो यू-टर्न छोड़े गए और न कोई अंडरपास.
दुकानदार नरेंद्र पटेल ने कहा, “यह बाजार पहले बहुत व्यस्त था, लेकिन जब से रास्ता बंद किया, लोग आना बंद हो गए. यह सड़क पहले शहर के भीतर संयोजन थी, अब सिर्फ पार्किंग बन गई है.”
अंतिम कनेक्टिविटी या पार्किंग न होने से बीआरटी यात्री या तो ऑटो का सहारा लेते हैं या अपने वाहन पास की सड़कों पर पार्क करते हैं, जिससे अन्य स्थानीय निवासियों की नाराजगी और बढ़ जाती है.

हालांकि, बीआरटीएस अधिकारी कहते हैं कि सिस्टम ठीक काम कर रहा है, भले ही प्रति किलोमीटर 33 रुपये का घाटा आ रहा है. वे इसके लिए लोगों को दोषी मानते हैं.
“हमने आम जनता के लिए कई जागरूकता अभियान चलाए, लेकिन वे यह समझने में असफल हैं कि जाम उनके निजी वाहनों पर निर्भरता के कारण है, जबकि एक अच्छा विकल्प उपलब्ध है,” एक अधिकारी ने कहा. “वे ट्रैफिक में फंसे हुए खाली बीआरटीएस रोड को देखते हैं और चौड़ी सड़क की मांग करते हैं. लेकिन सड़क चौड़ी करने से जाम खत्म नहीं होगा.”
बीआरटीएस अधिकारियों ने बताया कि ‘धारवाड़ ध्वनि’ और अन्य संगठनों की मांगों पर विचार किया जा रहा है.

2012 में भाजपा के जगदीश शेट्टर (जो हुब्बल्ली के ही हैं) के मुख्यमंत्री रहते इस 970 करोड़ रुपये की परियोजना को मंजूरी मिली थी, जिसमें आंशिक वित्त पोषण वर्ल्ड बैंक ने किया.
दिप्रिंट ने शेट्टर से फोन पर संपर्क किया, पर उन्होंने सफर का हवाला देकर टिप्पणी करने से इनकार कर दिया.
भाजपा नेता और वर्तमान हुबली-धारवाड़ (पश्चिम) विधायक अरविंद बेल्लाड भी इस परियोजना के नतीजों के आलोचक हैं.

बेल्लाड ने कहा, “जिस तरह इसका डिज़ाइन किया गया, उसने लोगों के लिए संकट पैदा किया. 85 बसों के लिए चार समर्पित लेन हैं, जबकि मिक्स्ड ट्रैफिक के लिए दोनों तरफ दो लेन—न पार्किंग की जगह है, न ही पैदल चलने वालों के लिए फुटपाथ. मिक्स्ड ट्रैफिक के यात्री परेशान हो रहे हैं.”
BRTS ‘सक्सेस स्टोरीज़’
ज्यादातर भारतीय बीआरटी सिस्टम अब या तो खत्म होने की कगार पर हैं या बहुत ही अलोकप्रिय हो गए हैं. हालांकि, कुछ शहर अब भी इन्हें गर्व से चला रहे हैं.
पुणे जहां अपनी रेनबो बीआरटी को खत्म कर रहा है, वहीं पड़ोसी पिंपरी-चिंचवाड़ इसे संभाले हुए है. पिंपरी-चिंचवाड़ के नगर आयुक्त शेखर सिंह ने दिप्रिंट को बताया कि बीआरटी शहर की मेट्रो के साथ मिलकर पुणे-मुंबई हाइवे पर ट्रैफिक आसान बनाता है और रोज़ 3.6 लाख यात्रियों को सेवा देता है. इसकी शुरुआत 2010-11 में तीन कॉरिडोरों के साथ हुई थी, जो अब चार हो चुके हैं और पांचवा बन रहा है. शहर ने अपने 2050 व्यापक गतिशीलता योजना में भी बीआरटीएस को शामिल किया है.
शेखर सिंह के अनुसार, चौड़ा राइट ऑफ वे (पुराने मुंबई-पुणे हाईवे का केवल 15% रोड स्पेस बीआरटी लेता है) और फ्रीक्वेंट सर्विस ने पिंपरी-चिंचवाड़ बीआरटी को सफल बनाया है. उन्होंने बताया, “हमारी सभी बीआरटीएस सड़कें 45 से 60 मीटर चौड़ी हैं, और इनको यात्रियों के गंतव्य को ध्यान में रखकर सावधानी के साथ डिजाइन किया गया है. अब कॉरिडोर 54 किलोमीटर लंबा है.”
गुजरात में सूरत ने 2046 तक अपने 95% इलाके को बीआरटीएस से जोड़ने का लक्ष्य रखा है और इसके लिए नए बसें भी खरीदी जा रही हैं. फिलहाल, इसके पास देश का सबसे लंबा बीआरटी कॉरिडोर (102 किलोमीटर) है, जिस पर हर रोज़ 85,000 लोग सफर करते हैं.
भारत की बीआरटी सफलता की कहानी का सितारा अहमदाबाद है, जहां शहरी विशेषज्ञ और अधिकारी नियमित रूप से इसके सुव्यवस्थित सिस्टम का अध्ययन करने आते हैं. जनमार्ग नाम के अहमदाबाद का बीआरटी नेटवर्क 89 किलोमीटर तक फैला है और रोजाना 1.6 लाख यात्रियों को ले जाता है. इसमें 200 इलेक्ट्रिक और 150 सीएनजी बसें 10-10 मिनट के अंतराल पर चलती हैं.
हालांकि जनमार्ग को अक्सर ‘सक्सेस’ कहा जाता है, इसी साल दैनिक भास्कर ने रिपोर्ट किया कि बीआरटीएस बसें 89 किलोमीटर एक्सक्लूसिव कॉरिडोर पर ही चलती हैं, ‘बाकी 78 किलोमीटर पर आम ट्रैफिक के साथ मिल जाती हैं.’
बस सेवा कथित तौर पर कम फ्रीक्वेंट और कम भरोसेमंद हो गई है; “निरंतर यात्रा का युग ठहर गया”—ऐसा शीर्षक था. शहर के मुताबिक, साल के अंत तक 260 और इलेक्ट्रिक बसें (1,800 करोड़ रुपये की लागत पर) लाई जाएंगी. लेकिन ‘लास्ट माइल कनेक्टिविटी’ की समस्या बनी हुई है.
सीईपीटी यूनिवर्सिटी के एक अध्ययन के अनुसार, अहमदाबाद में सार्वजनिक परिवहन का उपयोग करने वाले 67% लोगों को लास्ट डेस्टीनेशन तक पहुंचने के लिए अब भी मोड बदलना पड़ता है.

एक जनमार्ग अधिकारी के अनुसार, “बीआरटीएस मुख्यतः अहमदाबाद की विविध आबादी की सेवा करता है, जिसमें अच्छी-खासी संख्या कम और मध्यम-आय वर्ग की है… बस नेटवर्क शहर के चारों ओर फैला है.”
हालांकि जनमार्ग के अध्यक्ष बंचानिधि पानी, उप नगर आयुक्त अमरूतेश और सीईपीटी के प्रो. शिवानंद स्वामी ने बार-बार अनुरोध के बावजूद टिप्पणी नहीं दी.

जयपुर में, जेडीए अधिकारी जनमार्ग की सफलता पर ईर्ष्या व्यक्त करते हैं. उनका मानना है कि, “गुजरात में राजनीतिक इच्छाशक्ति थी, तब नरेंद्र मोदी मुख्यमंत्री थे और उन्होंने सुनिश्चित किया कि यह प्रोजेक्ट पूरा हो.”
गलत गणित
जब पुणे नगर निगम ने अप्रैल में अपने रेनबो बीआरटीएस को तोड़ना शुरू किया, तो एक्टिविस्ट कनीज़ सुकृणी को संतोष मिला.
“शुरुआत से ही मैंने कहा था कि ये सिस्टम कमियों से भरपूर है, अव्यावहारिक है और सड़कों पर जाम का कारण बनता है,” उन्होंने दिप्रिंट को फोन पर बताया.
करीब तीन साल तक, सुकृणी ने PMC अधिकारियों के साथ सड़कों पर घूम-घूमकर कोशिश की कि नागरिकों की चिंताओं को सिस्टम के डिजाइन में शामिल किया जाए, लेकिन इसका कोई परिणाम नहीं निकला. आखिरकार, जब नगर रोड जैसे क्षेत्रों में भीड़-भाड़ और जाम को लेकर जनता में विरोध बढ़ा, तब महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री अजित पवार ने कॉरिडोर हटाने का आदेश दे दिया.
फिर भी, कई शहरों में असफलता के बावजूद, कुछ विशेषज्ञ अभी भी बीआरटी मॉडल को पूरी तरह खारिज करने से बचते हैं.
प्रोफेसर तिवारी के शब्दों में, “आप कारों के लिए अनंत जगह नहीं बना सकते. जितनी ज्यादा जगह बनाएंगे, उतनी कारें भर जाएंगी.”
IISc के वर्मा के अनुसार, बीआरटीएस नेटवर्क्स को बिना गंभीर सुधार की कोशिश किए यूं ही नहीं छोड़ देना चाहिए.
“भोपाल और इंदौर अपने बीआरटीएस हटाने का पछतावा करेंगे,” उन्होंने कहा.

आंकड़ें बताते हैं कि भारत के बीआरटी नेटवर्क वैश्विक मानकों के सामने बहुत पिछड़े हैं. अहमदाबाद, जिसे देश की गिनी-चुनी बीआरटी ‘सक्सेस स्टोरी’ में गिना जाता है, वहां 2022 की सीएजी रिपोर्ट के अनुसार हर घंटे सिर्फ 20 बसें चलती हैं और अधिकतम यात्री भार (पीक लोड) प्रति दिशा सिर्फ 1,780 यात्री है. तुलना करें तो रियो डी जनेरियो और गुआंगझोऊ जैसे शहरों में प्रति घंटे क्रमशः 600 और 350 बसें चलती हैं. पीक लोड के रूप में साओ पाउलो 98,000 यात्री प्रति दिशा प्रति घंटा और रियो 65,000 तक संभालता है.
सीएजी रिपोर्ट के मुताबिक, पेरू का बीआरटी प्रदर्शन सबसे बेहतर रहा, जहां यह प्रति किलोमीटर प्रति दिन 27,000 से अधिक यात्रियों को ले जाता है—जो भारत के 2,182 (पीकेएमपीडी) से 12.5 गुना ज्यादा है. चीन में यह आंकड़ा 6,155 रहा. यानी, भारतीय शहरी बीआरटी प्रणाली विश्व के अग्रणी शहरों के सामने बहुत कमज़ोर साबित होती है.
इसके अलावा, भारत में बार-बार हुईं दुर्घटनाओं ने बीआरटी के खिलाफ सार्वजनिक भावना और मजबूत कर दी. जैसे जयपुर के पूर्व परिवहन मंत्री प्रताप सिंह खाचरियावास ने बार-बार दुर्घटनाओं के लिए बीआरटीएस को जिम्मेदार ठहराया और ऐसे “विशेषज्ञों” के खिलाफ कार्रवाई की मांग की, जिन्होंने इस मॉडल का समर्थन किया था. उनके शब्दों में—”बीआरटीएस मौत का कुआं है. यह बहुत सारी दुर्घटनाएं कराता है. इन मौतों को कम करना हमारी जिम्मेदारी है, इसलिए हमने बीआरटी संचालन काफी समय पहले बंद कर दिया.”
विश्लेषणात्मक रूप से, भारत का बीआरटीएस ‘2+2=3’ जैसी मिसाल बन गया—यानी न गणना में खरी उतरती है, न भावनाओं में.
पुणे में सुकृणी याद करती हैं कि किस तरह परियोजना की शुरुआत में नगर रोड के संकरेपन पर जताई गई चिंताओं को नजरअंदाज किया गया. यह सड़क मूल प्लान का हिस्सा नहीं थी और “हर ओर से जबरदस्त विरोध” था, क्योंकि नागरिक नहीं चाहते थे कि यू-टर्न और डिवाइडर ब्लॉक कर दिए जाएं. “शुरुआत से ही इस परियोजना की धारणा बहुत नकारात्मक रही,” उन्होंने कहा. और ज्यादातर शहरों के लिए इसका अंत भी ऐसा ही रहा.
यह “अर्बन प्रेशर” सीरीज की पहली रिपोर्ट है, जिसमें बताया जा रहा है कि कैसे बुरी योजनाएं भारतीय शहरों का दम घोंट रही हैं.
(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
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