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Monday, 17 February, 2025
होमफीचरहुनर या फिर पुरानी यादें — भारतीय डिज़ाइनरों को रज़ाई बेच रहे हैं पाकिस्तानी हिंदू शरणार्थी

हुनर या फिर पुरानी यादें — भारतीय डिज़ाइनरों को रज़ाई बेच रहे हैं पाकिस्तानी हिंदू शरणार्थी

दिल्ली के आदर्श नगर शरणार्थी कैंप में सिंधी महिलाएं रल्ली रज़ाई बनाकर अपने लिए आय और सम्मान कमा रही हैं. कुछ की खुदरा कीमत ऑनलाइन 15,000 रुपये तक है.

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नई दिल्ली: छह साल पहले पाकिस्तान छोड़ने के बाद पहली बार धानी ठाकुर के पास अपने और अपनी दो बेटियों के लिए भारत में बने कपड़े खरीदने के लिए पैसे थे. दिल्ली के आदर्श नगर में रहने वालीं हिंदू शरणार्थी के रूप में यह उनकी ज़िंदगी का एक बेहतरीन पल था. वक्त गुज़ारने के लिए वे जो रज़ाई सिलती हैं, उनकी अब मांग है जिसके लिए उन्हें हज़ारों रुपये मिलते हैं.

उस ऐतिहासिक खरीदारी यात्रा को दो साल हो चुके हैं. आज, रज़ाई की बाज़ार में काफी डिमांड है और धानी आदर्श नगर की छह महिला शरणार्थियों में से एक हैं जिन्होंने यह शिल्प करना शुरू किया है.

अपने ससुराल वालों सहित 20 परिवार के सदस्यों के साथ कच्चे घर के बगल में एक खुले कमरे में, वे लाल और पीले फूलों की कढ़ाई वाली हरे रंग की रल्ली रज़ाई खोलती हैं. इसे सिलने में उन्हें तीन महीने से ज़्यादा का वक्त लगा और उन्हें इसके लिए लगभग 4,000 रुपये मिलने की उम्मीद है.

धानी जो 2018 में आदर्श नगर शरणार्थी कैंप में चली गई थीं, ने कहा, “यह काम सिंध की संस्कृति का प्रतिनिधित्व करता है, जिसे हमने वहां सीखा और पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ाया. सिंध की हर महिला को इसमें महारत हासिल है.”

फूलों वाली कढ़ाई के साथ एक हस्तनिर्मित रल्ली रजाई. धानी ने कहा, “यह काम सिंध की संस्कृति का प्रतिनिधित्व करता है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ता रहा है” | फोटो: अलमिना खातून/दिप्रिंट
फूलों वाली कढ़ाई के साथ एक हस्तनिर्मित रल्ली रजाई. धानी ने कहा, “यह काम सिंध की संस्कृति का प्रतिनिधित्व करता है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ता रहा है” | फोटो: अलमिना खातून/दिप्रिंट

ठाकुरों जैसे परिवारों के लिए जिन्होंने बिजली के लिए लगभग एक दशक तक इंतज़ार किया, ये रज़ाई सम्मान की ज़िंदगी जीने का ज़रिया देती है.

स्थानीय बाज़ार में खरीदारी की उस यात्रा को याद करते हुए धानी का चेहरा चमक उठा. उस दिन, सब कुछ बहुत चमकीला, जीवंत लग रहा था. उन्होंने फूलों वाले पैटर्न वाला एक नेवी ब्लू कपड़ा चुना और उससे अपने लिए स्कर्ट, टॉप और दुपट्टा सिल लिया.

उन्होंने कहा, “इससे मुझे उम्मीद मिलती है.”


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रज़ाई का कारोबार

मिट्टी के एक बड़े से कमरे में महिलाओं का एक ग्रुप एक साथ बैठा है, हर कोई अपनी अलग रज़ाई पर काम कर रहा है. यह एक सामुदायिक मामला है. दादी, मां और बेटियां सिलाई मशीनों के चारों ओर इकट्ठा होती हैं, ठहाके लगाती हैं, मज़ाक करती हैं और एक-दूसरे से बातें शेयर करती हैं. बच्चे जब स्कूल में नहीं होते हैं या अपने दोस्तों के साथ नहीं खेलते हैं, तो वो भी मदद करते हैं.

धानी की सास, गुलाल, हर आकार की बेलों और फूलों से ढकी एक चटकीली नीली रज़ाई खोलती हैं. महिलाओं ने पैचवर्क, एप्लिक और कढ़ाई समेत चार से ज़्यादा डिज़ाइन टेम्पलेट बनाए हैं. हर रज़ाई को बनाने में तीन महीने से ज़्यादा वक्त लगता है, जिसमें फूलों, पत्तियों और कभी-कभी हाथियों और ऊंट जैसे जानवरों के डिज़ाइन शामिल होते हैं.

धानी के साथ, पांच अन्य महिलाएं ये रज़ाई बनाती हैं, जिन्हें अब रूबल नागी आर्ट फाउंडेशन द्वारा स्टूडियो सक्षम, एक ई-कॉमर्स प्लेटफॉर्म पर बेचा जाता है. कुछ की कीमत ऑनलाइन 15,000 रुपये तक है.

विज़ुअल आर्टिस्ट और सोशल एक्टिविस्ट रूबल नागी के साथ सिंधी रज़ाई बनाने वाली महिलाएं. वह रूबल नागी आर्ट फाउंडेशन के ऑनलाइन स्टोर के ज़रिए अपनी रज़ाई बेचती हैं | फोटो: अलमिना खातून/दिप्रिंट
विज़ुअल आर्टिस्ट और सोशल एक्टिविस्ट रूबल नागी के साथ सिंधी रज़ाई बनाने वाली महिलाएं. वह रूबल नागी आर्ट फाउंडेशन के ऑनलाइन स्टोर के ज़रिए अपनी रज़ाई बेचती हैं | फोटो: अलमिना खातून/दिप्रिंट

कोई भी दो रज़ाई एक जैसी नहीं होती. धानी ने लाल फूलों से कढ़ाई की गई एक पीली सूती रज़ाई की ओर इशारा किया.

उन्होंने कहा, “मुझे सिर्फ एक फूल बनाने में एक हफ्ता लगा. मैंने रज़ाई को लगभग तीन महीने में पूरा किया और अब मुझे कुछ बॉर्डर जोड़कर इसे पूरा करना है.”

रज़ाई बनाने का कारोबार लगभग संयोग से शुरू हुआ. 2022 में विज़ुअल आर्टिस्ट रूबल नागी आदर्श नगर में थीं, जहां वे बच्चों को स्कूल में दाखिला दिलाने और एजुकेशन प्रोग्राम चलाने में मदद कर रही थीं. एक यात्रा के दौरान, उन्होंने धानी के बिस्तर पर एक रज़ाई देखी. इस पैटर्न की कढ़ाई और सटीकता से प्रभावित होकर, उन्होंने महिलाओं से बात करना शुरू किया और उनके साथ सौदा किया.

अब, वे तैयार रज़ाई एक निश्चित कीमत पर खरीदती हैं और उन्हें अपने ई-स्टोर स्टूडियो सक्षम पर बेचती हैं, जो उनके एनजीओ के ज़रिए से स्थानीय हस्तशिल्प को बढ़ावा देता है.

नागी ने कहा, “इन रज़ाईयों पर धागे का काम, डिज़ाइन और कढ़ाई भारतीय डिज़ाइन और काम से बिल्कुल अलग है, जो एक अनूठी संस्कृति को दर्शाता है. यह अलग है, जो कुछ ऐसा है जिसे लोग काफी पसंद कर रहे हैं.”

हालांकि, उनके बढ़ते आत्मविश्वास के बावजूद, महिलाओं का कहना है कि उनके काम को कम आंका जाता है.

धानी ने कहा, “हमें अभी भी लगता है कि हम जो बना रहे हैं, उसके बदले हमें बहुत कम मिल रहा है. एक रज़ाई बनाने में बहुत वक्त और मेहनत लगते हैं, लेकिन हमें उम्मीद है कि हमारा काम ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक पहुंचेगा और हम अपनी मेहनत के बदले ज़्यादा कमाने लगेंगे.” ग्रुप के बाकी लोगों ने सहमति में सिर हिलाया.

24-वर्षीय माली अपनी रज़ाई को सावधानी से सिल रही हैं | फोटो: अलमिना खातून/दिप्रिंट
24-वर्षीय माली अपनी रज़ाई को सावधानी से सिल रही हैं | फोटो: अलमिना खातून/दिप्रिंट

इन रज़ाइयों के लिए इस्तेमाल होने वाले धागे अभी भी पाकिस्तान से आते हैं.

धानी ने कहा, “भारत में जो रज़ाईयां मिलती हैं, वो हमारी कढ़ाई के हिसाब से बहुत मोटी हैं. जब भी हमारे कोई रिश्तेदार या दोस्त भारत आते हैं, तो हम उनसे धागे लाने के लिए कहते हैं.”

महिलाएं दोपहर और शाम को घर के काम निपटाने के बाद रल्लियों पर काम करती हैं. तब तक ज़्यादातर पुरुष काम पर निकल जाते हैं — कुछ बतौर दिहाड़ी मज़दूर, तो कुछ स्थानीय दुकानों में. धानी के देवर के पास एक ई-रिक्शा है, जिसे उन्होंने पाकिस्तान से अपनी बचत और दोस्तों से लिए गए कर्ज़ से खरीदा है. एक और पुरुष रिश्तेदार प्लास्टिक मोबाइल कवर और स्मार्टफोन और ईयरबड्स के लिए टेम्पर्ड ग्लास बेचकर हर महीने लगभग 12,000 रुपये कमाता है.

47-वर्षीय कमल लाल 2016 में अपने परिवार के साथ पाकिस्तान से भारत आए थे और तब से आदर्श नगर कैंप में रह रहे हैं. 2017 तक वे रिक्शा खरीदने में सक्षम हो चुके थे. पाकिस्तान में उनके अभी भी रिश्तेदार हैं जो भारत आने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन उनका वापस लौटने का कोई इरादा नहीं है.

उन्होंने कहा, “हमने हमेशा भारत को अपना घर माना है और अब, जब लोग हमें स्वीकार करने लगे हैं, तो यह हमारी अपनी ज़मीन जैसा लगता है.”

उत्पीड़न से संभावना तक

पाकिस्तान में अल्पसंख्यक होने के कारण, ठाकुरों को ज़मीन खरीदने, कारोबार शुरू करने या अपने धर्म का स्वतंत्र रूप से पालन करने से रोक दिया गया था. धानी के रज़ाई बनाने के काम ने उन्हें दिखाया है कि भारत में ऐसे मौके हैं, जिनका वो लाभ उठा सकती हैं.

आज, 300 से अधिक हिंदू परिवार दिल्ली के आदर्श नगर शरणार्थी कैंप में रहते हैं, जिन्होंने पाकिस्तान में उत्पीड़न और जबरन धर्मांतरण वाली ज़िंदगी को पीछे छोड़ दिया है.

ठाकुरों ने आज़ादी, सुरक्षा और अपना घर ढूंढने के लिए 2018 में सिंध छोड़ दिया. उनमें से किसी को भी पाकिस्तान में पीछे छोड़ी गई ज़िंदगी की याद नहीं आती.

गुलाल ने कहा, “मुश्किलें, डर और मौकों की कमी थी.”

इस बीच, धानी की भाभी माली नामक एक अन्य महिला ने अपनी गुलाबी रज़ाई पर काम करना बंद कर दिया और बातचीत में शामिल हो गईं.

उन्होंने कहा, “हम पाकिस्तान से अपना हुनर ​​अपने साथ लाए हैं, लेकिन कोई पुरानी यादें नहीं हैं.”

चमकीले फूलों की कढ़ाई के साथ हाथ से सिली गई रल्ली रजाई. हर रज़ाई अपने-आप में अनोखी है और इसे बनाने में महीनों लगते हैं | फोटो: अलमिना खातून/दिप्रिंट
चमकीले फूलों की कढ़ाई के साथ हाथ से सिली गई रल्ली रजाई. हर रज़ाई अपने-आप में अनोखी है और इसे बनाने में महीनों लगते हैं | फोटो: अलमिना खातून/दिप्रिंट

लेकिन आदर्श नगर में ज़िंदगी मुश्किल है. दिल्ली हाई कोर्ट के आदेश के बाद 2022 में ही उन्हें आखिरकार बिजली मिली. अब, वो स्वच्छ बहते पानी, सीमेंटेड सड़कों, शिक्षा और सबसे महत्वपूर्ण नागरिकता के लिए लड़ रहे हैं.

गुलाल ने कहा, “हां, हम यहां भी कई चीज़ों के लिए लड़ रहे हैं, लेकिन हम यहां आज़ाद हैं. हम अपने धर्म का खुलेआम पालन कर सकते हैं, अपने पूजा स्थलों पर जा सकते हैं और कोई भी हमसे इसके लिए सवाल नहीं करेगा.”

‘पाकिस्तानी’ कलंक

आदर्श नगर में आधार कार्ड सबसे कीमती चीज़ है. इसके बिना, स्कूल में एडमिशन जैसी बुनियादी चीज़ भी पहुंच से बाहर है. धानी की बड़ी बेटी नंदिनी अब 15 साल की हैं, वे 2021 में अपना आधार कार्ड मिलने के बाद ही आदर्श नगर के मजलिस पार्क में सरकारी गर्ल्स सेकेंडरी स्कूल में दाखिला ले पाई.

उनकी क्लास में चहल-पहल रहती है, लगभग 30 लड़कियां अपनी बेंच पर बैठी हैं, हंस रही हैं, बातें कर रही हैं और नोट्स शेयर कर रही हैं, लेकिन नंदिनी आखिरी बेंच पर अलग बैठती है, जब कोई उनसे आंख मिलाने की कोशिश करता है तो वे अपना सिर नीचे कर लेती हैं. हालांकि, वे छठी क्लास से स्कूल जा रही है, फिर भी वे “पाकिस्तानी लड़की” हैं.

उनके साथ पढ़ने वाले बच्चे वहां उनकी ज़िंदगी के बारे में जानना चाहते हैं, लेकिन अपने माता-पिता की तरह, वे भी वहां दोबारा नहीं जाना चाहती. भारत में स्कूल में पहला दिन बहुत तनावपूर्ण रहा.

आदर्श नगर की फाइल फोटो. यह कॉलोनी बंजर ज़मीन पर बसी है, जहां लोग कचरा भी फेंकते हैं | फोटो: मनीषा मोंडल/दिप्रिंट
आदर्श नगर की फाइल फोटो. यह कॉलोनी बंजर ज़मीन पर बसी है, जहां लोग कचरा भी फेंकते हैं | फोटो: मनीषा मोंडल/दिप्रिंट

उन्होंने कहा, “मैं सच में बहुत डरी हुई थी. पूरे वक्त मैं सोचती रही, ‘अगर कोई मुझसे पूछे कि मैं कहां से आई हूं और यहां क्या कर रही हूं तो क्या होगा? क्या मुझे पाकिस्तान वापस जाना चाहिए? यह उनका देश है.” लेकिन जिज्ञासा होने के बावजूद किसी ने उन्हें भारत छोड़ने का सुझाव नहीं दिया.

धानी की छोटी बेटी, 13-वर्षीय एश्वरिया, उसी स्कूल में पढ़ती हैं और उनका भी अनुभव कुछ ऐसा ही था. वे बताती है कि कैसे स्टूडेंट्स हमेशा उनसे पूछते थे कि वो कहां से आई है और क्यों और “पाकिस्तान” सुनने के बाद, वो दूरी बना लेते थे. भाषा एक और मुद्दा था — आदर्श नगर में रहने वाले ज़्यादातर हिंदू शरणार्थियों की तरह, वो सिंधी और उर्दू में पारंगत थी, लेकिन हिंदी में नहीं.

एश्वरिया ने कहा, “भाषा दोस्त बनाने में एक रुकावट थी क्योंकि जब कोई मुझसे कुछ पूछता था, तो मैं ठीक से जवाब नहीं दे पाती थी.” लेकिन अब, वो धाराप्रवाह हिंदी बोलती हैं. “मैंने ज़्यादा हिंदी किताबें पढ़कर और स्कूल में स्टूडेंट्स से बात करके सीखा.”

हालांकि, कई शरणार्थी बच्चों के लिए, बड़ी बाधा कागज़ी कार्रवाई है. आधार कार्ड के बिना वो स्कूल में एडमिशन भी नहीं ले सकते.

उनकी मदद करने के लिए धानी के पति, 36-वर्षीय विक्रम ठाकुर ने अनौपचारिक क्लास चलाना शुरू किया. पाकिस्तान में, वो एक सरकारी स्कूल में प्राइमरी स्कूल में टीचर थे. उनके प्रयासों को रूबल नागी आर्ट फाउंडेशन ने मान्यता दी और अब वह दोनों मिलकर आदर्श नगर शरणार्थी कैंप में 400 से ज़्यादा बच्चों को पढ़ाते हैं. औपचारिक स्कूल में एडमिशन मिलने तक बच्चों को बुनियादी शिक्षा दी जाती है.

विक्रम ने कहा, “मैं हमेशा बच्चों को पढ़ाना चाहता था, चाहे मैं कहीं भी रहूं. इसलिए मैंने झुग्गी-झोपड़ियों में बच्चों को पढ़ाना शुरू किया और बाद में एनजीओ से जुड़ गया.”


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फिट होना

धानी, गुलाल और दूसरी महिलाओं के लिए फिट होना बहुत ज़रूरी है, लेकिन काम पर जाने वाले पुरुषों या सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के उलट, उनकी दुनिया शरणार्थी कैंप से आगे शायद ही कभी फैलती है.

24-वर्षीय माली ने अपने दुपट्टे को सिर पर ठीक करते हुए कहा, “जब भी हम बाहर जाते हैं, ज़्यादातर साप्ताहिक बाज़ारों में या सिर्फ घूमने के लिए, हम कभी भी घर पर पहने जाने वाले पारंपरिक कपड़े नहीं पहनते. हम भारतीय दिखना चाहते हैं, इसलिए हम साड़ी पहनते हैं.” घर पर, वो मैचिंग ब्लाउज़ के साथ घाघरा पहनती हैं.

शरणार्थी कैंप को भाजपा पार्टी के झंडों से सजाया गया है और निवासी भारत में उन्हें भविष्य देने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और नागरिकता संशोधन अधिनियम के आभारी हैं.

गुलाल ने कहा, “मैं सबसे पहले वोटर आईडी कार्ड बनवाना चाहती हूं क्योंकि मैं मोदी को वोट देना चाहती हूं. हम हिंदू यहां उनकी वजह से हैं और अब हम खुद को भारतीय कह सकते हैं.”

(इस ग्राउंड रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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