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Friday, 22 November, 2024
होमफीचरशैलजा पाईक को मिला 8 लाख डॉलर का मैकऑर्थर अवॉर्ड, ‘जीनियस’ ग्रांट पाने वाली बनीं पहली दलित

शैलजा पाईक को मिला 8 लाख डॉलर का मैकऑर्थर अवॉर्ड, ‘जीनियस’ ग्रांट पाने वाली बनीं पहली दलित

शैलजा पाईक को मिलने वाली यह छात्रवृत्ति आधुनिक भारत में दलित अध्ययन, लिंग और कामुकता की व्याख्या करने पर केंद्रित है.

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नई दिल्ली: अमेरिका में रहने वाली इतिहासकार और लेखिका शैलजा पाईक 8 लाख डॉलर की प्रतिष्ठित और बहुप्रतीक्षित और अक्सर अनौपचारिक रूप से ‘जीनियस ग्रांट’ कहे जाने वाले मैकआर्थर फेलोशिप पाने वाली पहली दलित व्यक्ति बन गई हैं.

पाईक ने अमेरिका के सिनसिनाटी से ईमेल के ज़रिए दिप्रिंट को बताया, “दलितों ने अपना खून और जीवन दिया है, और मुझे उम्मीद है कि गैर-दलित लोग दलितों के साथ खड़े होंगे और दक्षिण एशिया और उसके बाहर जाति, लिंग और नस्लीय भेदभाव से लड़ेंगे. यह [फेलोशिप] दलित अध्ययनों के योगदान की एक शानदार याद दिलाता है, साथ ही साथ मैंने, एक दलित महिला विद्वान ने ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों के साथ-साथ सामाजिक न्याय और मानवाधिकारों पर वैश्विक बातचीत में भी योगदान दिया है.”

उत्कृष्ट बौद्धिक और रचनात्मक प्रतिभा वाले लोगों को उनके कार्य के दायरे का विस्तार करने के लिए प्रदान की जाने वाली यह फेलोशिप, पाईक को शोध और लेखन के लिए “बहुत ज़रूरी समय” समर्पित करने और “दुनिया के विभिन्न हिस्सों में” जाति और सामाजिक न्याय पर काम करने वाले सहकर्मियों के साथ सहयोग करने का अवसर प्रदान करेगी.

ग्रामीण महाराष्ट्र में एक गरीब दलित परिवार में जन्मी पाईक पुणे के यरवदा की झुग्गी बस्ती में एक कमरे के घर में पली-बढ़ी. उनके पिता अपने गांव से स्नातक की डिग्री हासिल करने वाले पहले दलित व्यक्ति थे. पाईक ने सावित्रीबाई फुले पुणे विश्वविद्यालय से स्नातक की उपाधि प्राप्त की और फोर्ड फाउंडेशन अनुदान की मदद से ब्रिटेन के वारविक विश्वविद्यालय से पीएचडी पूरी की. वह अब सिनसिनाटी विश्वविद्यालय में इतिहास पढ़ाती हैं.

अग्रणी छात्रवृत्ति

शैलजा पाईक को मिलने वाली यह छात्रवृत्ति आधुनिक भारत में दलित अध्ययन, लिंग और कामुकता की व्याख्या करने पर केंद्रित है. उनके काम ने दलित नारीवादी विचार के अध्ययन को व्यापक और गहरा किया है. उनकी किताबें एथनोग्राफिक ओरल हिस्ट्री इंटरव्यू के माध्यम से दलित महिलाओं की पीढ़ियों के रोजमर्रा के जीवन की खोज करती हैं, और भेदभाव व गरिमापूर्ण उनकी कहानियों को सामने लाती हैं.

उनकी समृद्ध शोध सामग्री अंग्रेजी, मराठी और हिंदी स्रोतों से ली गई है. भारत के हाशिए पर पड़े समुदायों के छिपे हुए इतिहास को इकट्ठा करना विद्वानों के लिए एक चुनौती रही है क्योंकि मुख्यधारा के भारतीय विश्वविद्यालयों में शोध बहुत कम है. चूँकि लंबे समय से दलित इतिहासलेखन का कोई औपचारिक दस्तावेजीकरण नहीं हुआ है, इसलिए वह अब अपने साक्षात्कारों और फील्डवर्क का एक संग्रह स्थापित करने पर काम कर रही हैं.

मैकआर्थर फाउंडेशन की वेबसाइट कहती है, “पाईक जाति वर्चस्व के इतिहास में नई अंतर्दृष्टि प्रदान करती हैं और उन तरीकों का पता लगाती हैं जिसमें लिंग (जेंडर) और कामुकता (सेक्शुअलिटी) का उपयोग दलित महिलाओं की गरिमा और व्यक्तित्व को नकारने के लिए किया जाता है.”

मैकआर्थर फाउंडेशन फेलोशिप को ‘नो-स्ट्रिंग्स अटैच्ड’ अनुदान कहा जाता है जो प्रत्येक पांच वर्ष में उन रचनात्मक कलाकारों, विद्वानों और शोधकर्ताओं को दिया जाता है जिनका काम ज्ञान सृजन के इतिहास में महत्वपूर्ण अंतराल को भरता है. धन को किस प्रकार से खर्च किया जाता है, इस बारे में वे कोई भी सवाल नहीं पूछते हैं, और फेलो का चयन बाहरी नामांकनकर्ताओं की प्रक्रिया के माध्यम से किया जाता है. इस फेलोशिप को प्राप्त करने वाले अन्य भारतीयों में गणितज्ञ सुभाष खोत और बायोइंजीनियर मनु प्रकाश (2016) के साथ-साथ पर्यावरण इंजीनियर कार्तिक चंद्रन (2015) शामिल हैं जो कि सभी आईआईटी ग्रेजुएट हैं.

इस वर्ष, 22 मैकआर्थर फेलो में एक समाजशास्त्री, एक ट्रांस स्कॉलर, एक डांसर, एक कवि, एक विकलांगता कार्यकर्ता, एक कंप्यूटर वैज्ञानिक, एक फिल्म निर्माता, एक वायलिन वादक, विकासवादी जीवविज्ञानी, एक विज्ञान शिक्षक, एक कानूनी विद्वान और एक समुद्र विज्ञानी शामिल हैं. 1981 से, फाउंडेशन ने 1,131 फेलोशिप प्रदान की हैं.

शैलजा पाईक की पहली पुस्तक, जिसका शीर्षक आधुनिक भारत में दलित महिलाओं की शिक्षा: दोहरा भेदभाव है, एक दशक पहले प्रकाशित हुई थी, जिसे समाजशास्त्रियों और शिक्षाविदों के बीच आलोचनात्मक प्रशंसा मिली. पुस्तक ने 20वीं सदी के भारत में शिक्षा तक पहुंचने के संघर्षों के बारे में भारतीय इतिहासलेखन के भीतर महाराष्ट्र की आम दलित महिलाओं के अनुभवों को केंद्र में रखा. पिछली सदी में बदलते और अपरिवर्तित भारत में जाति और लिंग के दोहरे अत्याचारों पर जोर देकर, पाईक ने शिक्षा की ऐतिहासिक पड़ताल को आगे बढ़ाया.

दलित तमाशा कलाकारों के जीवन पर उनकी दूसरी पुस्तक, पितृसत्तात्मक ताकतों और राज्य के बीच तनाव को उजागर करती है. द वल्गैरिटी ऑफ़ कास्ट नामक पुरस्कार-विजेता पुस्तक में प्रदर्शनों से संबंधित कलचरल स्टिगमा, जिन्हें बड़े पैमाने पर अश्लील और कामुक माना जाता है, और राज्य द्वारा इसे सार्वजनिक धारणा में नया रूप देने के प्रयासों के बारे में बात की गई है. कलाकारों ने समय के साथ हिंसा और शोषण का सामना किया है, लेकिन लोक प्रदर्शन कई दलित महिलाओं के लिए आजीविका और स्वायत्तता का एक प्रमुख स्रोत बने हुए हैं.

पाईक ने बताया कि “मैं दलित महिलाओं के प्रतिरोध और लचीलेपन व तार्किक बुद्धिमत्ता प्रदर्शित करने के तरीकों को उजागर करके हमारी सामूहिक मानवता के नए वैश्विक इतिहास में योगदान देती हूं – वे बार-बार उठ खड़ी होती हैं; वे नीचे से उठकर बाहर निकलती रहती हैं.”

फ़ेलोशिप पाकर वह बहुत खुश हैं. पाईक ने एनपीआर से कहा, “मुझे पहले कभी “जीनियस” नहीं कहा गया. लेकिन जब मैं सोचती हूं कि मैं यहां कैसे पहुंची – एक अक्सर कठिन यात्रा – तो मैं इसे कृतज्ञता के साथ स्वीकार करती हूं.”

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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