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Thursday, 3 October, 2024
होमफीचरलोगों के दिलों पर राज करने वाले बलराज साहनी कैमरे के सामने कांपते थे, एक्टिंग में थी आत्मविश्वास की कमी!

लोगों के दिलों पर राज करने वाले बलराज साहनी कैमरे के सामने कांपते थे, एक्टिंग में थी आत्मविश्वास की कमी!

थ्री आर्ट्स क्लब द्वारा बलराज साहनी की 1972 की आत्मकथा, 'फ्लैशबैक: द स्टोरी ऑफ बलराज साहनी' का नाट्य वाचन न सिर्फ एक प्रेमपूर्ण श्रद्धांजलि है बल्कि यह याद दिलाता है कि लोगों की समझ किस तरह वास्तविकता से बहुत अलग हो सकती है.

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नई दिल्ली: बलराज साहनी का नाम आते ही 21वीं सदी के लोगों के दिमाग में कई तरह की छवियां उभरती हैं. इंडियन पीपल्स थिएटर एसोसिएशन के सदस्य, एक प्रतिबद्ध कम्युनिस्ट, प्रतिभा का भंडार, ‘दो बीघा ज़मीन’, ‘गरम हवा’ और निश्चित रूप से, ‘वक्त’ मूवी का वह सदाबहार गीत ‘ऐ मेरी ज़ोहरा ज़बीं’.

किसी भी तरह से देखें तो ये सब मिलकर उनकी कला के प्रति एक गर्व और सम्मान का भाव प्रकट करते हैं, लेकिन दिल्ली में एक नया प्रदर्शन एक ऐसे बलराज साहनी को सामने लाता है जो परेशान, असुरक्षित, आत्मविश्वास की कमी से ग्रस्त, और एक बेचैन अभिनेता थे — उस सहज, स्वाभाविक प्रतिभा वाली छवि से बहुत दूर, जिसे सार्वजनिक स्मृति ने अक्सर दर्शाया है.

थ्री आर्ट्स क्लब द्वारा बलराज साहनी की 1972 की आत्मकथा, फ्लैशबैक: द स्टोरी ऑफ बलराज साहनी, का नाट्य वाचन न सिर्फ उनके प्रति एक प्रेमपूर्ण श्रद्धांजलि है बल्कि यह दर्शाती है कि कैसे लोगों के मन में वास्तविकता से बिल्कुल अलग छवि बनाई जा सकती है.

काले कुर्ते पहने बैठे छह अभिनेताओं ने साहनी की पुस्तक के विभिन्न अंशों को ज़ोर-ज़ोर से पढ़कर उसकी भावपूर्ण प्रस्तुति की और रावलपिंडी में उनके शुरुआती जीवन, मुंबई में उनके संघर्ष, ‘दो बीघा ज़मीन’ की कोलकाता में कठिनतम शूटिंग, और बॉलीवुड में महिलाओं के यौन शोषण को फिर से सबके सामने जीवंत कर दिया.

थ्री आर्ट्स क्लब के कलाकार | फोटो: रमा लक्ष्मी/दिप्रिंट
थ्री आर्ट्स क्लब के कलाकार | फोटो: रमा लक्ष्मी/दिप्रिंट

“मैं एक भी अच्छा शॉट नहीं दे पाया. मैं बुरी हालत में था,” एक अभिनेता ने बलराज साहनी की किताब में ‘हम लोग’ (1951) की शूटिंग के बारे में ये पंक्तियां पढ़ीं. यह लोअर मिडिल क्लास की त्रासदी पर आधारित एक हिट फिल्म थी जिसमें नूतन ने टीबी के मरीज़ की भूमिका निभाई थी. “कैमरे का डर मेरे सीने पर पहाड़ की तरह सवार था. मैंने अपनी पैंट में पेशाब भी कर दिया था. मैं उस दिन घर जाकर अपनी पत्नी के सामने रो पड़ा. मैंने कहा, मैं कभी ऐक्टर नहीं बन पाऊंगा.”

और यही इस प्रस्तुति का केंद्रीय आश्चर्य है. यह दिग्गज बॉलीवुड अभिनेताओं से जुड़ी मुंबई की स्टोरीज, फिल्म मैगज़ीन और फैन्स द्वारा बढ़ा-चढ़ाकर पेश की गई कहानियों को उलट देता है.

‘मुझे कोई सिखाए, कोई भी’

बलराज साहनी लिखते हैं कि कैमरे के सामने उन्हें अक्सर घबराहट महसूस होती थी, उनका गला सूख जाता था और पैर कांपने लगते थे. उन्हें किसी भी सीन के लिए लंबी लाइनें याद करने से खासतौर पर डर लगता था. इसकी वजह से उन्हें कई बार री-टेक लेने पड़ते थे जिससे उन्हें शर्मिंदगी महसूस होती थी और उनका आत्मविश्वास डगमगा जाता था.

इस प्रकार की झिझक उस व्यक्ति के लिए प्रतिकूल है जो रावलपिंडी में फिल्मों के प्रति जुनूनी होकर बड़ा हुआ, IPTA नाटकों में अभिनय किया, गुरु दत्त द्वारा निर्देशित और देव आनंद और गीता बाली अभिनीत पथ-प्रदर्शक फिल्म बाज़ी (1951) की पटकथा लिखी, चेतन आनंद के साथ रहा और शांतिनिकेतन में पढ़ाया. लेकिन अभिनय को लेकर उन्हें इतना ज़्यादा संघर्ष करना पड़ रहा था कि उन्होंने डेविड अब्राहम चेउलकर से लेकर दिलीप कुमार तक, सभी से अभिनय के बारे में सलाह ली. वह सीखने के लिए बेताब थे.

एक एक्टर ने उनकी आत्मकथा से पढ़ा, “कैमरे के सामने जाना फांसी के फंदे के सामने खड़े होने जैसा था. मुझे पसीना आ जाता था. मुझे लगता था कि लोग मुझ पर हंस रहे हैं. सब कुछ फोकस से बाहर हो जाता था.”

के. आसिफ की फिल्म ‘हलचल’ (1951) की शूटिंग के दौरान उन्हें फिर से ‘पैनिक अटैक’ शुरू हो गए. लाइनें भूलने की उनकी समस्या जारी रही. यह फिल्म उपन्यास ‘वुदरिंग हाइट्स’ पर आधारित थी. साहनी ने जेलर की भूमिका निभाई. विडंबना यह है कि फिल्म की शूटिंग के लिए उन्हें जेल से बाहर आने की अनुमति लेनी पड़ी थी क्योंकि वह उस वक्त जेल में थे.

बलराज साहनी के पोते वरुणजय साहनी, जो एक अमूर्त कलाकार और मूर्तिकार हैं, आगे की पंक्ति में बैठे हुए बहुत चिंतित दिख रहे थे | फोटो: रमा लक्ष्मी/दिप्रिंट
बलराज साहनी के पोते वरुणजय साहनी, जो एक अमूर्त कलाकार और मूर्तिकार हैं, आगे की पंक्ति में बैठे हुए बहुत चिंतित दिख रहे थे | फोटो: रमा लक्ष्मी/दिप्रिंट

साहनी ने एक दिन दिलीप कुमार से पूछा, “आप कैमरे के सामने इतनी सहजता से कैसे काम करते हैं? उन्होंने जवाब दिया: ‘मैंने दूसरों को देखकर सीखा है. और कुछ दोस्तों ने मदद की है.’ उनके जवाब ने मुझे निराश कर दिया. मैं उनसे सीखना चाहता था, लेकिन उन्होंने मुझे हल्के में चलता कर दिया.”

नलिनी जयवंत के साथ उनकी फिल्म गुंजन (1948) की शूटिंग के दौरान अभिनेता डेविड से भी उन्होंने यही सवाल पूछा था: “आप डायलॉग कैसे याद करते हैं? क्या प्रोसेस है आपका? आप रीटेक नहीं करते.”

डेविड ने उन्हें बताया कि हर लाइन के पीछे एक सीन होता है और आपको को बस उस सीनको याद रखना होता है.

यौन शोषण के बारे में भी लिखा

साहनी ने फिल्म उद्योग में महिला कलाकारों के साथ होने वाले यौन शोषण के बारे में विस्तार से लिखा. उन्होंने बताया कि पुरुष निर्माताओं और निर्देशकों को खुश किए बिना महिला स्टार बनना किस तरह से लगभग असंभव था.

नरगिस के भाई अनवर हुसैन ने साहनी को एक घटना सुनाई. यह 21-वर्षीय मीना कुमारी और एक निर्माता से संबंधित थी. शूटिंग के पहले दिन, उन निर्माता ने मीना कुमारी को अनुचित तरीके से छूना शुरू कर दिया. मीना कुमारी उन्हें एक तरफ ले गईं और ठीक तरीके से व्यवहार करने को कहा. गुस्से में आकर, उन्होंने बदला लेने के लिए फिल्म में वहीं एक सीन जोड़ने का फैसला किया, जिसमें पुरुष अभिनेता — उस समय के एक लोकप्रिय हीरो — उन्हें थप्पड़ मारता है.

नाटक की डायरेक्टर सोहैला कपूर | फोटो: रमा लक्ष्मी/दिप्रिंट
नाटक की डायरेक्टर सोहैला कपूर | फोटो: रमा लक्ष्मी/दिप्रिंट

“थप्पड़ मारने के उस शॉट के 31 री-टेक हुए. 31 थप्पड़. वे एक लोकप्रिय हीरो था. वो जानता था कि क्या हो रहा है. फिर भी, उसने 31 रीटेक दिए. मीना कुमारी ने शूटिंग खत्म की और अपने मेकअप रूम में चली गईं और चुपचाप रो पड़ीं.”

साहनी ने हेलेन के बारे में भी लिखा, जिनसे वे पहली बार बदनाम (1952) के सेट पर मिले थे. उन्होंने लिखा कि हेलेन को जल्दी ही समझ आ गया था कि फिल्म इंडस्ट्री यौन शोषण करने वालों से भरी हुई है. उन्होंने निर्माता पीएन अरोड़ा के साथ करीबियां बढ़ा लीं, जो उनसे 27 साल बड़े थे, और आखिरकार हेलेन ने उनसे शादी कर ली. जिससे वह सुरक्षित और लोगों की पहुंच से बाहर हो गईं.

बलराज साहनी के अंदर की आवाज़

साहनी का सबसे बेहतरीन काम बिमल रॉय की दो बीघा ज़मीन (1953) में सामने आया, जो एक दुष्ट सामंती ज़मींदार, कर्ज और अपने खेत को वापस पाने के लिए एक किसान का कोलकाता जाकर रिक्शा चलाने के ऊपर बनी मौलिक फिल्म थी. इस फ़िल्म ने राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार जीते और इस फिल्म ने नव-यथार्थवादी सिनेमा की शुरुआत की. इसमें अपनी कहानी छोड़ जा और हरियाला सावन जैसे हिट गाने शामिल थे. अपने रोल की तैयारी के दौरान साहनी ने कोलकाता में एक मैनुअल रिक्शा चलाना सीखा और वास्तव में सवारियों को रिक्शे पर बैठाकर सड़कों पर दौड़े. इस दौरान एक ट्रक पर छिपे कैमरे के जरिए फिल्म रिकॉर्डिंग की जाती थी.

वह लिखते हैं, “मैं रिक्शा उठाता और नंगे पैर दौड़ता. मेरी त्वचा छिलने लगी थी. मैं बेदम, थका हुआ महसूस करता और बिमल रॉय से शूटिंग बंद करने की विनती करता. रॉय कहते, ‘बस दो शॉट और’.”

साहनी को यह भूमिका कैसे मिली, यह भी अपने आप में एक कहानी है. एक दिन, जब वे अपने बच्चों के साथ समुद्र तट पर रेत के महल बना रहे थे, तो उन्होंने अभिनेता असित सेन को अपनी ओर आते देखा. उन्होंने कहा, “बिमल रॉय आपको एक भूमिका के लिए ढूँढ रहे हैं.”

Balraj Sahni | Commons
बलराज साहनी | कॉमन्स

“मुझे यकीन नहीं हुआ. मैंने चेहरे पर थोड़ा सा पाउडर लगाया, इंग्लैंड से अपना सूट इस्त्री करवाया और दौड़ कर उनके पास पहुंच गया. रॉय ने मुझे घूरते हुए कहा, ‘मेरे लोगों ने गलती की है. आप इस रोल के लिए उपयुक्त नहीं हैं.’ मैंने पूछा कि रोल क्या है. उन्होंने कहा, एक अनपढ़ गरीब ग्रामीण की. मैं पीछे मुड़कर वहां से जाने वाला था लेकिन मेरे अंदर से एक आवाज़ आ रही थी, जो कह रही थी कि यह मौका फिर कभी नहीं आएगा.”

साहनी ने बिमल रॉय को बंगाल के अकाल पर 1946 में बनी फिल्म धरती के लाल  की याद दिलाई, जिसमें उन्होंने एक दुबले-पतले किसान की भूमिका निभाई थी, जो सोवियत शैली का सामुदायिक खेत या कम्युनल फार्म बनाता है. ख्वाजा अहमद अब्बास द्वारा निर्देशित और इप्टा द्वारा सह-निर्मित यह फिल्म इप्टा के नाटक नबन्ना पर आधारित थी. न्यूयॉर्क टाइम्स ने इसे “कठोर यथार्थवादी नाटक” के रूप में वर्णित किया था. इससे बात बन गई और साहनी को दो बीघा ज़मीन में भूमिका मिल गई. उस समय सेट पर असिस्टेंट रहे ऋषिकेश मुखर्जी, साहनी को फिल्म की कहानी सुनाते हुए रो पड़े. बाद में उन्हें पता चला कि भारत भूषण और अशोक कुमार ने भी इस भूमिका के लिए ऑडिशन दिया था.

साहनी ने लिखा कि हालाँकि, इस फिल्म से उन्हें प्रसिद्धि मिली, लेकिन वे गरीब ही रहे. उन्हें छह महीने तक कोई काम नहीं मिला और इसके बाद उन्होंने बाज़ूबंद (1954) में एक शराबी की भूमिका निभाई.

रॉय ने उनके द्वारा इस तरह का रोल किए जाने पर सवाल उठाया. उनका कहना था कि वह इस तरह का रोल कैसे कर सकते हैं, खास तौर पर दो बीघा ज़मीन जैसी फ़िल्म करने के बाद?

साहनी ने लिखा, “मुझे उनसे यह कहने का मन हुआ: ‘लेकिन आपने फ़िल्म के बाद एक बार भी मेरा हालचाल नहीं पूछा’.”

समय से परे छवि

बलराज साहनी की एक और चिरस्थायी छवि 1965 की यश चोपड़ा की फ़िल्म वक़्त से बनती है जो कि कई बड़े कलाकारों वाली, मिलने और बिछड़ने की दो पीढ़ियों के बीच की कहानी है, और जिसमें आगे भी जाने न तू और कौन आया जैसे मशहूर गाने हैं. लेकिन बलराज साहनी की ऐ मेरी ज़ोहरा जबीं (मन्ना डे द्वारा गाया गया) को लोगों द्वारा सबसे ज़्यादा पसंद किया गया है. शुरुआती गाने में, साहनी द्वारा निभाई इस भूमिका में मध्यम आयु वर्ग का एक पुरुष पठानी सलवार और कुर्ता पहने हुए एक पारिवारिक समारोह में अपनी शर्माती हुई पत्नी के लिए गाना गाता है.

गरम हवा से एक दृश्य में बलराज साहनी | YouTube
गरम हवा से एक दृश्य में बलराज साहनी | YouTube

1973 में एमएस सथ्यू की गरम हवा की डबिंग पूरी करने के बाद उनकी मृत्यु हो गई, जो विभाजन के दौरान एक भारतीय मुस्लिम परिवार की दुविधा के बारे में बनी एक सीरियस फ़िल्म थी.

एक साल पहले ही उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा था कि अगर वह फिल्म अभिनेता न होते तो लेखक या आर्य समाज के प्रचारक बनते.

(इस फीचर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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