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Monday, 16 September, 2024
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सत्व, रजस, तमस — प्राचीन आयुर्वेदिक खाद्य वर्गीकरण किस तरह मांस की राजनीति से जुड़ गया

दिल्ली के आईआईसी में एक व्याख्यान के दौरान जेएनयू की प्रोफेसर आर महालक्ष्मी ने कहा कि समय के साथ सात्विक और तामसिक जैसे शब्दों के अर्थ बदल गए हैं. अब ‘हम सिर्फ भोजन को ही नहीं बल्कि खाने वालों को भी देख रहे हैं’.

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नई दिल्ली: आधुनिक आयुर्वेद में सात्विक आहार का अर्थ अनिवार्य रूप से ‘शाकाहारी’ होता है, जो शुद्धता और सद्गुण से जुड़ा होता है, जबकि तामसिक भोजन मांस और अरुचिकर इच्छाओं से जुड़ा होता है, लेकिन शुरुआती ग्रंथ इतने नैतिक नहीं थे. दरअसल, हैजा को सात्विक माना जाता था क्योंकि इसका तरल पदार्थ साफ होता है, जबकि खांसी को उसके घने, अपारदर्शी बलगम के कारण तामसिक माना जाता था.

यह प्राचीन वर्गीकरण दिखाता है कि उस समय इन शब्दों का कितना आसानी से इस्तेमाल किया जाता था. यह केवल बाद के आयुर्वेदिक ग्रंथों में ही है कि गुण — सत्व (अच्छाई), रजस (ऊर्जा), और तम (अंधकार) — सीधे भोजन से जुड़े हुए हैं.

28 अगस्त को दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में लेखिका और जेएनयू की प्रोफेसर आर महालक्ष्मी द्वारा दिए गए भाषण में भारत में भोजन की राजनीति, जिसमें ये बदलते वर्गीकरण शामिल हैं, पर ध्यान केंद्रित किया गया.

उन्होंने कहा, “सब्जियों और दूध को सात्विक और मांस को तामसिक श्रेणी में रखा गया. यह वर्गीकरण भोजन के अंतर्निहित गुणों के आधार पर भोजन के व्यापक वर्गीकरण को दर्शाता है.”

महालक्ष्मी की वार्ता जिसका शीर्षक: ‘रस, गुण और आहार्य: भारतीय उपमहाद्वीप की खाद्य संस्कृतियों में अवधारणाएं, अभ्यास और प्रतीकवाद’ था, में प्रारंभिक भारत में भोजन से संबंधित विचारों और प्रथाओं पर बात की गई. इसकी शुरुआत भोजन की तीन अभिन्न अवधारणाओं — रस (स्वाद या सार), गुण (गुणवत्ता), और आहार्य (क्या खाना चाहिए) से हुई और फिर सामाजिक, सांस्कृतिक और नैतिक अर्थों को शामिल करने के लिए इसका विस्तार किया गया.

रस मूल रूप से किसी चीज़ के “सार” को संदर्भित करता है, जैसे कि नदी का पानी, जबकि तीन गुण — शाब्दिक रूप से ‘धागा’ या ‘कतरा’ — प्रकृति के मूल गुणों का वर्णन करने के लिए उपनिषदों में विकसित हुए. आयुर्वेदिक ग्रंथों में अक्सर पाया जाने वाला शब्द आहार्य, भोजन से लेकर औषधीय उपचारों तक, क्या खाया जाता है, को शामिल करता है.

महालक्ष्मी, जो पिछले 14 साल से जेएनयू में इतिहास पढ़ा रही हैं, ने यह भी बताया कि भोजन संबंधी वर्जनाएं (टैबू) वर्ग और लिंग के साथ कैसे जुड़ी हुई हैं. उन्होंने बाबासाहेब आंबेडकर की अस्पृश्यता की जांच को याद किया और बताया कि कैसे मांस के सेवन सहित भोजन से संबंधित अवधारणाओं को सामाजिक ढांचों के भीतर प्रासंगिक बनाया जाता है.

उन्होंने कहा, “ऐसे सामाजिक संदर्भों में हम केवल भोजन को ही नहीं बल्कि भोजन खाने वालों को भी देख रहे हैं. इसलिए, ये (वर्गीकरण) भोजन खाने वालों के बारे में धारणाओं के तरीके को इंगित करते हैं.”


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धर्म, अनुष्ठान और मांस

मांस का हिंदू संस्कृति में लंबे समय से स्थान रहा है, जिसमें धार्मिक अनुष्ठान भी शामिल हैं. उदाहरण के लिए असम की नीलांचल पहाड़ियों से कालिका पुराण में कई तरह के जानवरों का वर्णन है जिनकी सदियों पहले बलि दी जाती थी और उनका सेवन किया जाता था.

महालक्ष्मी ने कहा, “कई सहस्राब्दियों तक फैले प्रारंभिक भारतीय ग्रंथों में विभिन्न प्रकार के मांस की चर्चा की गई है, जिनमें कछुए, मगरमच्छ और बंदरों के मांस भी शामिल हैं. उन्हें पौष्टिक और आनंददायक माना जाता था.”

उन्होंने बताया कि ऐतिहासिक रूप से मांस का सेवन हिंदू संस्कृति का एक अभिन्न अंग था — एक ऐसा तथ्य जिसे वर्तमान में अक्सर अनदेखा कर दिया जाता है. यहां तक ​​कि गोमांस भी प्रतिबंधित नहीं था, जैसा कि इतिहासकार डीएन झा द्वारा लिखित ‘The Myth of the Holy Cow’ और पुरातत्वविद् एचडी संकलिया के लेखन सहित कई विद्वानों के कार्यों में बताया गया है.

महालक्ष्मी ने कहा, “यह मुद्दा 19वीं सदी के उत्तरार्ध से ही राजनीतिक और धार्मिक रूप से चर्चित रहा है, जिसमें मुसलमानों के साथ गोमांस खाने का संबंध बाद की बात है और, यह संबंध गलत भी है.”

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बातचीत के दौरान आर महालक्ष्मी | फोटो: त्रिया गुलाटी/दिप्रिंट

उन्होंने ऋग्वेद के मंडल 1 से उदाहरण देते हुए कहा, हिंदू धार्मिक प्रथाओं में अक्सर जानवरों की बलि दी जाती थी.

प्रोफेसर ने कहा, “सूक्त 167 और 168 में उस प्रक्रिया का विवरण दिया गया है, जिसमें देवताओं को घोड़ा चढ़ाने से पहले, एक बकरा लाया जाता है और उसे उपा नामक बलि के खंभे से बांधा जाता है और घोड़े के वध के बाद, उसकी 34 पसलियों को सावधानीपूर्वक अलग करने के बाद मांस को बलि के रूप में चढ़ाया जाता था.”

उन्होंने कहा कि अग्नि देवता को चढ़ाया जाने वाला मांस अक्सर ओमेंटम होता है — एक अंग जिसे आमतौर पर मांस तैयार करते समय त्याग दिया जाता है.

उन्होंने कहा, “यह विवरण अनुष्ठान की प्रतीकात्मक प्रकृति को उजागर करता है, बलि के महत्व पर जोर देता है, यहां तक ​​कि उन पहलुओं में भी जो सांसारिक या व्यावहारिक लग सकते हैं.”

पवित्र ग्रंथों में भोजन की केंद्रीय भूमिका होती है. उदाहरण के लिए भगवद गीता में जीवन को बनाए रखने के लिए भोजन की शक्ति और दैवीय क्रियाओं से इसके संबंध का वर्णन किया गया है. इसी तरह, ऋग्वेद में अनुष्ठानिक और गैर-अनुष्ठानिक दोनों संदर्भों में भोजन की प्रशंसा की गई है और इस पर चर्चा की गई है. कई वैदिक अनुष्ठानों में सोम (शराब), घी, दूध और पशु बलि जैसे प्रसाद शामिल होते हैं.

महालक्ष्मी ने कहा, “बलि के घोड़े और बकरी जैसे इन प्रसादों का प्रतीकवाद भोजन, अनुष्ठान और दैवीय जुड़ाव के बीच जटिल संबंध को दर्शाता है.”

चमड़े की करी से सीख

बातचीत में सबसे रोमांचक मोड़ तब आया जब महालक्ष्मी ने नीली नामक एक धर्मनिष्ठ जैन महिला की कहानी सुनाई, जिनकी सोच ने उन्हें सीधे संघर्ष के बिना एक मुश्किल स्थिति से बचा लिया.

कहानी यह है कि नीली एक ऐसे व्यक्ति से शादी करती हैं जो खुद को जैन बताता है, लेकिन उसके घर में रहने के बाद उन्हें पता चलता है कि वे और उसका परिवार वास्तव में बौद्ध हैं.

मुश्किलें तब आती हैं जब उनके ससुर एक साधु को अपने घर बुलाते हैं और जोर देते हैं कि नीली उनके लिए मांस के साथ भोजन तैयार करें.

अपने धार्मिक सिद्धांतों का उल्लंघन करने के लिए तैयार नहीं, लेकिन मना करने में असमर्थ, नीली एक चतुर योजना बनाती हैं.

महालक्ष्मी ने बताया, “वह साधु के चमड़े के चप्पल को ग्रेवी में पकाकर भोजन तैयार करती हैं, यह सुनिश्चित करते हुए कि यह एक आकर्षक सुगंध दे. साधु, चाल से अनजान, भोजन खा लेता है. हालांकि, जब वो बाद में अपनी चप्पल ढूंढ़ता है, तो उसे पता चलता है कि उनमें से एक गायब है.” दर्शकों ने इस पर खूब ठहाके लगाए.

हालांकि, इस हास्य के पीछे एक गहरा संदेश छिपा था. महालक्ष्मी ने कहा कि धोखे का इस्तेमाल भले ही अपने सिद्धांतों की रक्षा के लिए किया जाए, फिर भी यह नुकसान पहुंचा सकता है. उन्होंने इस तथ्य पर भी विचार किया कि आज भोजन के विकल्पों को लेकर, खासकर मांस खाने वालों के प्रति जो गुस्सा और हिंसा देखी जाती है, वो अपेक्षाकृत आधुनिक विकास है और इसकी जड़ें प्राचीन प्रथाओं में नहीं हैं.

और जबकि कुछ खाद्य विकल्पों से परेशान होना समझ में आता है, हिंसा कभी भी उचित नहीं है, चाहे परिस्थितियां कैसी भी हों.

प्रोफेसर ने कहा, “चाहे कोई भूख से चोरी कर रहा हो या किसी खास तरह का मांस खा रहा हो, उन्हें मारना अस्वीकार्य है. आधुनिक दृष्टिकोण से हमें इस तरह की अतिवादी कार्रवाइयों को अस्वीकार करना चाहिए और मानवीय सिद्धांतों को बनाए रखना चाहिए. हमें मांस खाने के संबंध में ऐतिहासिक या पाठ्य उदाहरणों के बावजूद किसी भी तरह की लिंचिंग के खिलाफ खड़ा होना चाहिए.”

(इस फीचर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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