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Thursday, 16 May, 2024
होमफीचर'रिफ्यूजी अपने बच्चों का नाम मेरे नाम पर रख रहे'; तस्मीदा जौहर बनीं भारत की पहली रोहिंग्या ग्रेजुएट

‘रिफ्यूजी अपने बच्चों का नाम मेरे नाम पर रख रहे’; तस्मीदा जौहर बनीं भारत की पहली रोहिंग्या ग्रेजुएट

25 साल की उम्र में स्नातक की उपाधि प्राप्त करने वाली जौहर वंचित वर्ग के बच्चों को स्कॉलरशिप देने वाली यूएनएचसीआर-डुओलिंगो सहयोगी कार्यक्रम के जरिए कानून की पढ़ाई करना चाहती हैं.

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नई दिल्ली: जब तस्मिदा जौहर ने 2022 में दिल्ली विश्वविद्यालय से स्नातक की उपाधि प्राप्त की, तो वह किसी भारतीय विश्वविद्यालय से ऐसा करने वाली पहली रोहिंग्या महिला बन गईं. यह एक ऐसी यात्रा थी जो असफलताओं और उनके जीवन के लिए खतरों से भरी हुई थी, और तीन देशों में 2,000 किलोमीटर से अधिक फैली हुई थी. उसने इस पूरी यात्रा में पांच भाषाएं सीखीं.

जौहर, जिन्होंने 25 साल की उम्र में स्नातक किया, दिल्ली के कालिंदी कुंज में शरणार्थी शिविर के अन्य निवासियों के लिए धैर्य और दृढ़ता का प्रतीक है. यहां तक कि वहां की महिलाएं अपनी बेटियों का नाम उनके नाम पर इस उम्मीद में रख रही हैं कि वे बड़ी होकर उनकी तरह बनेंगी.

स्नातक करने में उन्हें इतना समय क्यों लगा, इस पर जौहर कहती हैं, “मुझे अपनी पढ़ाई दो बार फिर से शुरू करनी पड़ी…लेकिन मैंने जो भी सीखा है, उसे बहुत महत्व देती हूं. मेरे परिवार ने अनगिनत दिन भूखे और वर्षों वही फटे कपड़े और चप्पल पहन कर बिताए हैं ताकि मैं यहां तक पहुंच सकूं.”

नवीनतम सरकारी आंकड़ों के अनुसार, भारत में लगभग 21,000 डॉक्युमेंटेड रोहिंग्या मुस्लिम शरणार्थी हैं. म्यांमार के अल्पसंख्यक समूह ने अगस्त 2017 में अपना प्रवास शुरू किया जब देश में उनके खिलाफ हिंसा भड़क गई, जिससे लगभग 7 लाख रोहिंग्याओं को बांग्लादेश, भारत, थाईलैंड और इंडोनेशिया जैसे देशों में शरण लेने के लिए मजबूर होना पड़ा.

जौहर के पांच भाई हैं- तीन बड़े और दो उनसे छोटे. उनके बड़े भाइयों ने भारत आते ही काम करना शुरू कर दिया. उनमें से सबसे बड़े, जो शरणार्थियों के लिए संयुक्त राष्ट्र उच्चायुक्त (यूएनएचआरसी) की पहल के साथ काम करते हैं, ने उसे देश में जाने की सुविधा दी और फिर उसकी पढ़ाई के लिए पैसे भी दिए.

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अपने परिवार के बारे में बात करते हुए, उसने कहा, “जब हम भारत आए तो तमाम तनावों के कारण मेरे पिता बीमार हो गए. अब वह हमारे घर के पास ही एक छोटी सी किराने की दुकान चलाता है. जबकि मेरा सबसे बड़ा भाई संयुक्त राष्ट्र में एक वॉलंटियर के रूप में काम करता है, मेरे दो छोटे भाई अभी भी पढ़ रहे हैं.”

जहां खाने वाले इतने लोग हों वहां पढ़ाई जारी रखना लगातार एक समस्या रही है. “मेरे पास अपने स्कूल और फिर भारत में कॉलेज की पढ़ाई के लिए पर्याप्त पैसा नहीं था. कुछ भले लोगों ने न केवल मेरी पढ़ाई के लिए पैसे दिए बल्कि उन्होंने मुझे छात्रवृत्ति दिलाने में भी मदद की.”


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कैसी रही जर्नी

जौहर की यात्रा तब शुरू हुई जब उनके पिता अमानुल्लाह जौहर ने 2005 में जान का खतरा होने से और अपने छह बच्चों के लिए बेहतर जीवन की तलाश में म्यांमार छोड़ने का फैसला किया.

जौहर, जो तब तीसरी कक्षा की छात्रा थी, उस समय की अपनी जिंदगी के बारे में याद करते हुए कहती हैं, “मुझे अपना रोहिंग्या नाम बर्मा (म्यांमार) में छिपाना पड़ा, जहां हमें सीखने और बढ़ने के समान अवसर नहीं दिए गए. उदाहरण के लिए, हमारे सामने बौद्ध बच्चों को रोल नंबर आवंटित किए गए और स्कूल में प्रवेश दिया गया. मेरिट रैंक उन्हें ही दी जाएगी. स्कूल में, हमारे साथ भेदभाव किया जाता था और मेरे पिता को कभी भी हिरासत में लिया जाता था.

बांग्लादेश जाने के एक साल बाद, परिवार जौहर को फिर से एक स्कूल में दाखिला दिलाने में कामयाब रहा. हालांकि इस बार, उसे कक्षा 1 से फिर से सब कुछ शुरू करना पड़ा.

वह याद करते हुए कहती हैं, “म्यांमार में मेरी प्रारंभिक शिक्षा के वर्षों का बंगाली भाषी बांग्लादेश में कोई उपयोग नहीं था. मेरे पिता एक दिहाड़ी मजदूर के रूप में काम करते थे और मेरी मां घर चलाने के लिए दूसरों के घरों में कामकाज करती थीं.”

हालांकि, आठ लोगों का परिवार घोर गरीबी में जी रहा था, लेकिन उनको सिर्फ इस बात को लेकर संतोष था कि बच्चे स्कूल जा रहे थे.

बांग्लादेश में अपनी कठिनाइयों के बारे में बात करते हुए उन्होंने कहा, “ऐसे भी दिन थे जब इतनी तेज बारिश हो रही थी कि मेरे पिता काम पर नहीं जा सके. हम दिन में सिर्फ एक बार खाना खाते थे. आर्थिक तंगी से परेशान होकर, हम अक्सर पढ़ाई छोड़ना चाहते थे लेकिन मेरे माता-पिता ने हमें कभी ऐसा नहीं करने दिया.”

हालांकि, यह शांति बहुत ज्यादा समय तक कायम नहीं रह सकी. जून 2012 में, जब म्यांमार में बौद्धों ने रोहिंग्या मुसलमानों का हिंसक तरीके से सफाया करना शुरू कर किया, तो इसकी लहर बांग्लादेश में भी महसूस की गई. इसकी वजह से परिवार को फिर से शिफ्ट होना पड़ा. उस वक्त जौहर कक्षा 7 में थी.

इस बार, परिवार भारत आ गया. चूंकि हरियाणा में कोई भी स्कूल शरणार्थी किशोर छात्रों को अपने यहां एडमिशन देने को तैयार नहीं था, इसलिए उन्होंने दिल्ली में बसने का फैसला किया.

दिल्ली में जीवन

भारत में, परिवार के पास एक रिफ्यूजी कार्ड था, लेकिन जौहर एक नियमित स्कूल में प्रवेश नहीं ले सकी, जिसकी वजह से उसे ओपन स्कूल का विकल्प चुनने के लिए मजबूर होना पड़ा.

जौहर और उनके भाई-बहनों ने रिफ्यूजी स्टूडेंट्स के लिए स्कॉलरशिप प्रोग्राम अल्बर्ट आइन्स्टीन जर्मन एकेडमिक रिफ्यूजी इनीशिएटिव द्वारा संचालित कार्यशालाओं और सत्रों में भाग लेने, भाषाओं और कंप्यूटर कौशल सीखने में चार साल बिताए. उसने भारत में हिंदी और अंग्रेजी, बांग्लादेश में बंगाली और रोहिंग्या व बर्मीज़ म्यांमार में सीखा. इसके बाद उन्होंने 2016 में 10वीं कक्षा और 2018 में 12वीं कक्षा नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ओपन स्कूलिंग से पास की.

जौहर का कहना है कि उस समय उन्हें अपनी कम्युनिटी के लोगों से समर्थन नहीं मिला था. उन्होंने कहा, ‘मैं ट्रेनिंग सेंटर तक पहुंचने और वापस आने के लिए एक-एक घंटे का रास्ता तय करता था. हमारे पड़ोसी अक्सर मेरी मां को ताना मारते थे क्योंकि वह मुझे सीखने के लिए भेजती थी. हालांकि, उसने कभी भी मुझे इन बातों से प्रभावित नहीं होने दिया.

वह लॉ में अपना करियर बनाना चाहती थीं और उन्होंने इस विषय में स्नातक की डिग्री के लिए जामिया मिलिया इस्लामिया में दाखिला लिया, लेकिन विश्वविद्यालय में उन्हें प्रवेश नहीं दिया गया. 2019 में, मैं जामिया की प्रवेश परीक्षा पास कर ली, लेकिन उन्होंने मुझे प्रतीक्षा करने के लिए कहा. मुझे सूचित किया गया था कि चूंकि मैं एक रोहिग्या थी इसलिए विश्वविद्यालय को इसके बारे में गृह मंत्रालय को सूचित करना होगा.”

चार साल बीत जाने के बाद भी जौहर को अभी भी विश्वविद्यालय से कोई जवाब नहीं आया है. जबकि भारत सरकार ने बार-बार अवैध रोहिंग्या अप्रवासियों के मुद्दे को उठाया है, जौहर इस बात पर आश्चर्य करती हैं कि एक भूखी आबादी कैसे खतरा हो सकती है.

“मेरे लोगों के पास एक दिन में दो वक्त की रोटी के लिए पर्याप्त भोजन नहीं है, पीने के लिए साफ पानी या अपना कहने के लिए घर भी नहीं है. भारत सरकार ने हमारे लिए जो कुछ भी किया है, उसके लिए हम उसके ऋणी हैं, (लेकिन) हम उसी देश के लिए खतरा कैसे हो सकते हैं?”

वह कहती है कि वह निर्वासित होने के डर से बाहर निकलना चाहती है. “अब भी, हमें चिंता है कि भारत सरकार किसी भी समय हम पर नकेल कसेगी. हम इस असुरक्षा के साथ भी जीना जारी रखते हैं.

आगे का जीवन – शून्य से शुरू

जब कानून यानी लॉ में करियर का विकल्प काम नहीं आया, तब 22 साल की जौहर ने डीयू से राजनीति विज्ञान में अपनी शिक्षा पूरी करने का फैसला किया. लेकिन अब, बीए कर चुकी जौहर फिर से लॉ करने की तैयारी कर रही है लेकिन इस बार कनाडा में.

वह कहती हैं, “मैं मास्टर्स करना चाहती थी और अपने सर्च के दौरान, मुझे यूएनएचसीआर-डुओलिंगो के सहयोग से चलने वाले कार्यक्रम के बारे में पता चला जो कि वंचित छात्रों को स्कॉलरशिप प्रदान करता है. मैंने आवेदन किया और अब मैं कनाडा में विल्फ्रेड लॉयर यूनिवर्सिटी से स्वीकृति पत्र का इंतजार कर रहा हूं.

लेकिन चूंकि छात्रवृत्ति केवल स्नातक छात्रों के लिए है, जौहर दोबारा स्नातक की डिग्री लेंगी और फिर कानून की पढ़ाई करेंगी.

उसका लक्ष्य अपने लोगों की वकालत करना है. वह कहती हैं, “मैं अल्पसंख्यकों के मानवाधिकारों की हिमायती बनना चाहती हूं, खासकर रोहिंग्या समुदाय के लिए, जिन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उनके अधिकारों की वकालत करने वाली एक आवाज की सख्त जरूरत है.”

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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