जयपुर: राजस्थान में इन दिनों जाति समूहों की लगातार हो रही महासभाओं ने राज्य की राजनीति को गरमा दिया है. पिछले चार महीनों में राजधानी जयपुर में जाटों, राजपूतों, ब्राह्मणों, गुर्जरों, कुम्हारों, कुमावतों, अहीरों और मालियों की बड़ी सभाएं हुई हैं. आने वाले दिनों में और भी महासभाएं होने वाली हैं. प्रत्येक भव्य रैली में, चुनावी टिकट, जाति-आधारित आरक्षण की मांग की जा रही है और इसका मकसद जाति को ‘सम्मान’ दिलाना है. दो सप्ताह पहले, एक महासभा ने एक नया मोड़ ला दिया जिसमें जातिविहीन होकर लोग शामिल हुए.
यह युवा बेरोजगार महासम्मेलन, या बेरोजगारों की भव्य सभा थी.
जयपुर की चिलचिलाती गर्मी में खड़ी हजारों की भीड़ में से 25 वर्षीय यतिन ने कहा, “हम जाति को पीछे छोड़कर यहां एकत्र हुए हैं. कब तक जाति का नाम लेते रहेंगे? नौकरियां और भविष्य अधिक महत्वपूर्ण हैं.”
राजस्थान की चुनाव पूर्व राजनीतिक परंपरा में विभिन्न मांगों को लेकर राजनीतिक दलों पर दबाव डालने के लिए हजारों लोग जमा होकर बड़ी बैठकें कर रहे हैं. ओबीसी की उप-श्रेणियां बनाने की दिशा में नरेंद्र मोदी सरकार के जोर और विधानसभा चुनाव से पहले समुदाय पर भाजपा के फोकस के साथ, नए गुट महासभाओं के जरिए ताकत दिखा रहे हैं. इसे ब्लैकमेल की राजनीति कहा जा सकता है- कोई भी इसे सीधे तौर पर तो नहीं कहता है लेकिन पार्टियों के बीच समुदाय के वोट खोने का डर बना रहता है. विभिन्न जाति समूहों के साथ नजर आने के लिए नेता इन बैठकों में भाग लेने के लिए कतार में रहते हैं.
नौकरी चाहने वालों के लिए, नए अवसर शायद ही कोई समाधान है क्योंकि प्रवेश परीक्षा चिंता का एक और कारण है. पिछले 10 वर्षों में राजस्थान में 26 बार प्रश्न पत्र लीक हुए हैं, जबकि सरकारी विभागों में एक लाख से अधिक पद खाली हैं. इसके अलावा, नौकरी की मांग करने वाले चाहते हैं कि राज्य इन रिक्तियों को भरने के लिए स्थानीय नागरिकों, विशेषकर उन जाति समूहों को प्राथमिकता दे, जिनका वे प्रतिनिधित्व करते हैं. पिछले विरोध प्रदर्शनों में शामिल होने के लिए दर्ज की गई एफआईआर को वापस लेने की भी मांग की जा रही है.
जाति समूहों की रैलियां पहले भी होती रही हैं लेकिन युवा बेरोजगार महासम्मेलन युवाओं में एक नई उम्मीद लेकर आया है. यह पहली बार है जब राजस्थान के बेरोजगार युवक-युवतियां इतने संगठित तरीके से एकत्र हुए हैं.
राजस्थान बेरोजगार एकीकृत महासंघ के अध्यक्ष उपेन यादव ने कहा, “राजस्थान में हर चुनाव जाति और धर्म के नाम पर लड़ा गया है. लेकिन इस बार रोजगार के नाम पर चुनाव होना चाहिए. हम उस पार्टी के साथ जाएंगे जो हमारी मांगें पूरी करेगी.”
सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) की रिपोर्ट के अनुसार, मार्च 2023 में 26.4% के साथ, राजस्थान में हरियाणा (26.8%) के बाद भारत में दूसरी सबसे अधिक बेरोजगारी दर है.
यह भी पढ़ें: राजस्थान में उभर रहा नया राष्ट्रवाद, मारे गए सैनिकों के भव्य स्मारक बनाने की कैसे लग रही होड़
ओबीसी जातियों की लामबंदी
राजस्थान में 100 से अधिक विधानसभा सीटों पर ओबीसी जाति समूहों का प्रभाव है. लेकिन यह पहली बार है कि माली, कुम्हार और कुमावत जैसी छोटी जातियां अपनी विशिष्ट मांगों की सूची के साथ महासभा का भव्य आयोजन कर रही हैं. जाति जनगणना, ओबीसी आरक्षण 21% से बढ़ाकर 27% और आबादी के अनुपात में राजनीतिक प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने की उनकी मांगे हैं. ये सभाएं गुर्जर, जाट, ब्राह्मण और राजपूत जैसे प्रमुख जाति समूहों द्वारा आयोजित बड़ी रैलियों की तरह ही शक्ति प्रदर्शन है.
राजस्थान विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान विभाग के पूर्व प्रमुख प्रोफेसर नरेश दाधीच ने कहा, “पिछले चार-पांच वर्षों में छोटी जातियों में अपने अस्तित्व को लेकर जागरूकता आई है.”
राजनीतिक विश्लेषक ओम सैनी के मुताबिक, ओबीसी जातियों को बांटकर बीजेपी ने वर्ग और जातीय पहचान को पुनर्जीवित किया है. उन्होंने कहा, “इसने न केवल उपजातियों को विभाजित किया है, बल्कि सूक्ष्म स्तर पर वोटों का ध्रुवीकरण भी किया है.”
मार्च के बाद से दस से अधिक जाति समूहों ने सांसदों/विधायकों और कांग्रेस और भाजपा दोनों के नेताओं जैसे लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला, यूपी के डिप्टी सीएम केशव प्रसाद मौर्य और राजस्थान के सीएम अशोक गहलोत की उपस्थिति में महासभा आयोजित की है. गहलोत स्वयं ओबीसी माली जाति समूह से आते हैं.
जाति समूह स्वतंत्र रूप से राजनीतिक दलों के समक्ष अपनी शिकायतें व्यक्त करते हैं. वे चुनाव प्रचार का इंतजार नहीं कर रहे हैं जब राजनेता उनसे मिलेंगे और वादे करेंगे. 2018 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने माली समुदाय से छह उम्मीदवार मैदान में उतारे, जबकि कांग्रेस ने पांच उम्मीदवार उतारे. इस बार जाति समूह दोनों पार्टियों से 20-20 टिकटों के अलावा सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में 12% आरक्षण की मांग कर रहा है.
माली महासभा के अध्यक्ष छुट्टनलाल सैनी ने कहा, “पहले, हम व्यक्तिगत रूप से नेताओं से मिलते थे और मांगें उठाते थे लेकिन कोई फायदा नहीं होता था. इसलिए हमने अब शक्ति दर्शन का विकल्प चुना है. शक्ति में ही शक्ति होती है.”
राजस्थान की आधी से ज्यादा आबादी ओबीसी है. हालांकि, आज यह एक विभाजित समुदाय है.
सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) के निदेशक प्रोफेसर संजय कुमार ने दैनिक भास्कर में लिखा, “सवर्ण वर्ग परंपरागत रूप से भाजपा के प्रति निष्ठावान रहता है. जबकि दलित और मुस्लिम समुदाय कांग्रेस के पक्ष में एकजुट रहे हैं. लेकिन जाट और ओबीसी वर्ग के वोट वहां एक पार्टी से दूसरी में समय-समय पर शिफ्ट होते रहे हैं. आगामी विधानसभा चुनावों में भाजपा और कांग्रेस की नजर इन फ्लोटिंग वोटर्स पर ही सबसे ज्यादा टिकी होगी.”
यह 2018 के विधानसभा चुनाव परिणाम से स्पष्ट है. जाट उम्मीदवारों (राजस्थान की आबादी का 9%) ने 37 सीटें जीतीं, राजपूतों (6%) ने 17 सीटें और ओबीसी ने 35 सीटें जीतीं. 2018 के चुनाव में जाट, राजपूत, गुर्जर, मीणा, ब्राह्मण और मुस्लिमों के 106 विधायक थे, जबकि 59 सीटें एससी/एसटी के लिए आरक्षित थीं. कांग्रेस ने 15 मुस्लिम उम्मीदवार उतारे, जिनमें से सात जीते.
ओबीसी वोट को लुभाने की बीजेपी की कोशिश पिछले साल जोर पकड़ने लगी थी. सितंबर 2022 में पार्टी ने सीएम गहलोत के गृहनगर जोधपुर में अपनी ओबीसी मोर्चा की बैठक आयोजित की, जहां केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने अध्यक्षीय भाषण दिया. पिछले आठ महीनों में पीएम मोदी पांच बार राजस्थान का दौरा कर चुके हैं.
कांग्रेस प्रवक्ता आरसी चौधरी इस प्रवृत्ति को ‘स्वस्थ लोकतंत्र’ का संकेत मानते हैं. चौधरी ने कहा, “राज्य में हर स्तर पर सामाजिक संगठन बने हैं, जो नेताओं के संपर्क में रहते हैं.”
लेकिन राज्य विधानसभा में भाजपा के नेता प्रतिपक्ष राजेंद्र राठौड़ ने कहा कि चुनाव से पहले जाति महासभाएं राज्य में लंबे समय से स्थापित राजनीतिक परंपरा का हिस्सा हैं, लेकिन जाति और सामाजिक आधार पर वोटों का बढ़ता विभाजन लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है.
राठौड़ ने कहा, “नेताओं के लिए इन महासभाओं में जाना एक राजनीतिक मजबूरी बन गया है. मैं भी इसमें शामिल हूं.” अपनी आलोचना के बावजूद, वह इन समूहों के दबदबे और नेताओं की अपने-अपने समुदायों के साथ खड़े होने की राजनीतिक मजबूरी को नजरअंदाज नहीं कर सकते.
1980 के दशक के उत्तरार्ध में ट्रेड यूनियनों, किसान यूनियनों और महिला-नेतृत्व वाले संगठनों का चुनावों पर प्रभाव था. लेकिन राजनीतिक विश्लेषक ओम सैनी का कहना है कि एक बार जब जाति समूहों ने अपने हितों के लिए काम करना शुरू कर दिया तो उनकी आवाज़ें दबने लगी.
सैनी ने कहा, “जो जातिगत समीकरणों को साध लेता है, सत्ता उसी के हाथ में होती है. अशोक गहलोत ने बार-बार यह कर के दिखाया है. टिकट वितरण के दौरान यह देखा जाता है कि उम्मीदवार जिस जाति (समूह से संबंधित है) में उसका कितना प्रभाव है.”
गहलोत ने इस कथानक को बदलने की लगातार कोशिश यह कहते हुए की है कि समाज के हर तबके से उन्हें स्नेह मिलता रहा है. वह राजस्थान विधानसभा में माली समुदाय का प्रतिनिधित्व करने वाले एकमात्र विधायक हैं.
दिसंबर 2022 में सचिन पायलट को राजस्थान का मुख्यमंत्री बनाने की एक वर्ग की मांग के बीच उन्होंने कहा, “मैं जानता हूं कि जाति के आधार पर कोई मुख्यमंत्री नहीं बनता है.”
यह भी पढ़ें: ‘डबल-मर्डर, ताराबाड़ी की हत्यारी पंचायत’: बिहार के इस गांव ने कैसे खड़ा किया संवैधानिक संकट
महासभाओं की राजनीति
जयपुर विधानसभा से बमुश्किल 12 किमी दूर विद्याधर स्टेडियम इन महासभाओं का केंद्र बन चुका है. लगभग हर महीने, सैकड़ों वैन, ट्रक और कारें सीकर, जालौर, जोधपुर, पाली, बीकानेर समेत राजस्थान के अन्य हिस्सों से हजारों लोगों को लेकर आती हैं.
सैनी भीड़ जुटाने की इस शैली को “चौटाला मॉडल” बताते हैं.
उन्होंने कहा, “ओम प्रकाश चौटाला इसी तरह से हरियाणा में खाप पंचायतों के जरिए भीड़ जुटाते थे.”
महासभा के आयोजकों ने भारी भीड़ पर फूल बरसाने के लिए निजी हेलीकॉप्टर तक किराए पर लिए. गायक उत्साह और जातीय गौरव के नाम पर दर्शकों का मनोरंजन करते हैं और ड्रोन कैमरे कार्यक्रम को रिकॉर्ड करते हैं. अक्सर, हरियाणवी धुनों पर गाने जाति और धार्मिक भावनाओं पर आधारित होते हैं.
ब्राह्मण महासभा में ‘कहो गरज कर हम हिंदू और हिंदुस्तान हमारा है ‘ बजाया गया जबकि अभिनेता आशुतोष राणा की कविता ‘संत भी मैं हूं, अंत भी मैं हूं, आदि और अनंत भी मैं हूं ‘ को रीमिक्स मोड में भी इस्तेमाल किया गया है. जाट महाकुंभ में दर्शक ‘जिंदाबाद जवानी, जिंदाबाद किसानी ‘ जैसे गानों पर खूब थिरके. युवा बेरोजगार महासम्मेलन में बी प्राक का मन भरया और नुसरत फतेह अली खान का तुम्हें दिल्लगी भूल जानी पड़ेगी जैसे बॉलीवुड गाने बजाए गए.
स्टेडियम की ओर जाने वाली सड़कों पर बड़े-बड़े पोस्टर लगे हुए हैं. ट्विटर और फेसबुक के जरिए इन महासभाओं का प्रचार किया जाता है. प्रमुख नेता लोगों से इन महापंचायतों में भाग लेने के लिए कहते हुए वीडियो बनाते हैं. उदाहरण के लिए केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी और धीरेंद्र कृष्ण शास्त्री ने ट्विटर पर ब्राह्मण महापंचायत के लिए वीडियो पोस्ट किए हैं.
आयोजक बड़े भामाशाह (अमीर लोग) होते हैं जो महासभाओं के लिए लाखों रुपये का दान देते हैं. एक सूत्र ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि एक दिवसीय ब्राह्मण महापंचायत का खर्च 1 करोड़ रुपये से अधिक था.
21 मई को विद्याधर स्टेडियम में आयोजित कुमावत महापंचायत में आयोजकों ने जाति समूह के बारे में जागरूकता पैदा करने के लिए 30 मिनट की एक डॉक्युमेंट्री भी चलाई.
आयोजकों में से एक छोटूराम कुमावत ने कहा, “यह जाति कम पढ़ी-लिखी है, कम जागरूक है और इसे कोई राजनीतिक लाभ भी नहीं मिला. हम अपनी जाति को पीछे नहीं रहने देंगे. हम उस पार्टी को हरा देंगे जो इस बार हमें टिकट नहीं देगी.” कुमावत समुदाय राजपूतों को वोट देता रहा है. छोटूराम कुमावत राजस्थान में सबसे पिछड़ी जातियों का एक संयुक्त संगठन बनाने की भी योजना बना रहे हैं.
मंच पर, जाति समूहों के प्रतिनिधि अतिशयोक्तिपूर्ण ढंग से बोलते हैं. उनकी घोषणाएं जितनी अधिक उत्तेजक होती हैं, भीड़ की जय-जयकार उतनी ही तेज़ होती है.
कुम्हार-प्रजापति महासभा के प्रदेश अध्यक्ष किशोर दूल्हेपुरा ने कहा, “हम सिर कटवा देंगे, लेकिन कुम्हार-प्रजापति समाज के स्वाभिमान के साथ कभी समझौता नहीं करेंगे.”
चुनाव के मद्देनजर उनकी मांगों में भी तेजी दिख रही है. वे जानते हैं कि एक बार वोट डालने के बाद, उन्हें फिर से अगले चुनाव तक नजरअंदाज कर दिया जाएगा.
दुल्हेपुरा ने कहा, “चुनाव के बाद कौन सुनेगा? इसलिए यह हमारी मांगों को उठाने का सबसे अच्छा समय है. हम एक दबाव समूह की तरह काम करते हैं. यह हमारी जिम्मेदारी है.”
लेकिन जाट महासभा के अध्यक्ष राजाराम मील इस बात से असहमत थे कि जातीय सभाएं दबाव समूह के रूप में काम करती हैं. उन्होंने कहा, “जब सचिन पायलट इतने वर्षों में दबाव नहीं बना सके, तो वे (जाति समूह) क्या करेंगे?”. 2018 विधानसभा चुनाव के नतीजे के बाद गहलोत और पायलट के बीच मतभेद बढ़ गए. इस साल अप्रैल में पायलट राजस्थान में बीजेपी सरकार के दौरान हुए कथित भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्रवाई की मांग को लेकर अपनी ही सरकार के खिलाफ एक दिन के धरने पर भी बैठे थे. रिश्ते इतने बिगड़ गए कि गहलोत और पायलट के बीच विवाद सुलझाने के लिए कांग्रेस आलाकमान को हस्तक्षेप करना पड़ा.
यह भी पढ़ें: अयोध्या राम मंदिर दर्शन के लिए लगभग तैयार लेकिन मस्जिद के पास फंड की कमी, नक्शा अटका
युवा नहीं वायु
5 मार्च को जयपुर में जाट महाकुंभ से सभाओं का मौसम शुरू हुआ, जिसका टैगलाइन था: एक दिन समाज के नाम. इसे बीते तीन महीने हो चुके हैं लेकिन भगत सिंह, चौधरी चरण सिंह और महाराजा सूरजमल के महासभा के पोस्टर बिजली के खंभों, तारों और छतों पर लटकते हुए अब भी शहर में दिख जाते हैं.
जाट महाकुंभ के अध्यक्ष राजाराम मील का कहना है कि हमारी महासभा राजनीतिक नहीं बल्कि सामाजिक थी. उन्होंने कहा, “हमने मृत्यु भोज, बाल विवाह और दहेज पर प्रतिबंध जैसे मुद्दे भी उठाए.”
राजस्थान के 50 जिलों में से 14 जिलों में जाट अपना प्रभाव रखते हैं. पिछले विधानसभा चुनाव में इस समुदाय से 37 विधायक चुने गये थे. गोविंद डोटासरा को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर कांग्रेस इस समुदाय का समर्थन हासिल करना चाहती है. हालांकि, बीजेपी ने जाट नेता सतीश पूनिया को प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाकर जाटों को नाराज कर दिया है.
जाट महाकुंभ से तीन दिन पहले, गहलोत कैबिनेट ने वीर तेजाजी कल्याण बोर्ड का गठन किया, जो रैली के आयोजकों के एजेंडे में शामिल था. ओबीसी और एससी/एसटी समुदाय को लुभाने के लिए गहलोत सरकार ने पिछले एक साल में आठ से ज्यादा बोर्ड बनाए हैं. गुरु नानक देव सिख कल्याण बोर्ड, वीर तेजाजी कल्याण बोर्ड, गड़िया लोहार कल्याण बोर्ड, चमड़ा शिल्प विकास बोर्ड, राज्य रजक कल्याण बोर्ड, राज्य महात्मा ज्योतिबा फुले बोर्ड, यादवों के लिए श्रीकृष्ण बोर्ड और लोक कला बोर्ड कुछ नए बोर्ड हैं जिनका गठन किया गया है. हालांकि, इनमें से कई बोर्डों में न तो कोई अध्यक्ष है और न ही सदस्य. अब प्रदेश के युवाओं की मांग है कि सीएम उनके लिए भी युवा बोर्ड बनाएं. एक रिपोर्ट के मुताबिक, सरकार ने चार साल में 15,000 राजनीतिक नियुक्तियां की हैं.
अधिकांश जाति समूहों के अपने धार्मिक प्रतीक हैं जो उन्हें एकजुट करते हैं. ब्राह्मण समाज भगवान परशुराम के नाम पर, जाट समाज वीर तेजाजी के नाम पर, कुम्हार समाज श्री श्री यादे माता के नाम पर और गुर्जर समाज देवनारायण जी के नाम पर एकजुट होते हैं.
कांग्रेस प्रवक्ता आरसी चौधरी ने कहा, “इन बोर्डों के माध्यम से जातियों का उत्थान होता है. केश कला बोर्ड का गठन भाजपा शासन काल में हुआ था लेकिन इसका क्रियान्वयन कांग्रेस सरकार के दौरान हुआ. इन बोर्डों के माध्यम से राज्य में एक पर्यटन केंद्र बनाने की भी योजना है.”
जाति जनगणना और राजनीतिक प्रतिनिधित्व की मांग के साथ ओबीसी महासभाएं विवाद का विषय बन गई हैं, क्योंकि सवर्ण जाति समूह ईडब्ल्यूएस आरक्षण को 10% से बढ़ाकर 14% करने की मांग कर रहे हैं. अप्रैल में हुई राजपूतों की केसरिया महापंचायत और मार्च में विप्र सेना द्वारा आयोजित ब्राह्मण महापंचायत में यह मांग उठाई गई थी.
विप्र सेना के अध्यक्ष सुनील तिवाड़ी ने कहा, “हमारे समुदाय से राज्य के चार सीएम रह चुके हैं लेकिन 1980 के बाद से स्थिति खराब होती चली गई. अब विधानसभा में भी भागीदारी कम होती जा रही है. कभी ब्राह्मण विधायकों की विधानसभा में संख्या 60 हुआ करती थी जो अब 16-17 पर आ गई है. हमारा लक्ष्य है कि इस बार के चुनाव में 30 विधायक हमारे समुदाय से चुनकर जाए.”
राज्य के वरिष्ठ जाट नेता ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, इनमें से ज्यादातर पंचायतों में सिर्फ हो-हल्ला होता है. “वे कोई सामाजिक परिवर्तन नहीं लाते.”
लेकिन महासभा के नेता बदलाव की बयार और युवाओं के उत्साहित समुदाय पर भरोसा कर रहे हैं.
राजस्थान बेरोजगार एकीकृत महासंघ के उपेन यादव ने कहा, “युवा का उलटा वायु होता है और जब वायु चलती है तो बहुत कुछ हो जाता है.”
(इस ग्राउंड रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ें: सूरत हीरा उद्योग में आत्महत्या की समस्या है, पुलिस से लेकर सेठ—कोई भी बिंदुओं को जोड़ना नहीं चाहता