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Thursday, 16 October, 2025
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भारत में सिविल इंजीनियरिंग का संकट — मुंबई से बिहार तक पुलों और सड़कों की हालत ने बढ़ाई चिंता

इंडियन रोड कांग्रेस के अध्यक्ष मनोरंजन परिडा ने कहा कि विकास की रफ्तार बहुत तेज़ है, शायद इसी वजह से हमारे मटेरियल की क्वालिटी- क्वांटिटी, विशेषज्ञता और क्षमता ज़रूरत के हिसाब से मेल नहीं खा पा रही.

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मुंबई: पलावा फ्लाईओवर को उद्घाटन के सिर्फ सात दिन बाद ही ट्रैफिक के लिए बंद करना पड़ा. मुंबई के कल्याण में बने इस अहम सड़क ढांचे को तैयार होने में सात साल लगे थे. सड़क किनारे गिट्टी के ब्लॉक, बुलडोज़र और जेसीबी अब दोबारा काम में जुट गए हैं — नई बनी सड़क को तोड़कर फिर से डामर बिछाया जा रहा है. यह पुल अब भारत के अधूरे या गलत तरीके से बने इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स की लंबी सूची में एक और नाम जोड़ चुका है.

देश में पुलों को अजीब तीखे मोड़ों के साथ बनाया जा रहा है, कई गिर रहे हैं, हाइवे लोगों की बालकनी को काट कर निकाले जा रहे हैं. फ्लाईओवर मुड़ रहे हैं. भारत सिविल इंजीनियरिंग के संकट से जूझ रहा है, अपनी इंफ्रास्ट्रक्चर महत्वाकांक्षाओं के साथ तालमेल नहीं बिठा पा रहा है.

देश की वित्तीय राजधानी मुंबई, जो अरबों डॉलर इंफ्रास्ट्रक्चर सुधार पर खर्च कर रही है, इस क्षेत्र की कमियों की सबसे बड़ी मिसाल बन गई है. मुंबई मानो बिखर रही हो और इसके केंद्र में है कमज़ोर सिविल इंजीनियरिंग. अंधेरी का गोखले ब्रिज लंबे वक्त बाद खुला, लेकिन उसका एलाइनमेंट गलत निकला. अटल सेतु — जिसे 100 साल तक टिकने वाला बताया गया था पर पैचवर्क पहले ही शुरू हो चुका है. वहीं, नेशनल हाइवे 66 का निर्माण 2008 से ही जारी है, जिससे आसपास के कस्बों और गांवों में लोगों ने विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिए हैं.

भारत ज़मीनी स्तर से खुद को फिर से बना रहा है. शानदार एक्सप्रेसवे, हाइवे और फ्लाईओवर पूरे देश में बन रहे हैं. सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय इंफ्रास्ट्रक्चर में हज़ारों करोड़ रुपये झोंक रहा है. 2024-25 में अकेले मंत्रालय का पूंजीगत खर्च 3.1 लाख करोड़ रुपये था — जो 2013-14 में हाइवे और पुलों पर हुए 53,000 करोड़ रुपये के खर्च से करीब 5.7 गुना ज़्यादा है, लेकिन इस तेज़ निर्माण के साथ गुणवत्ता में वैसा सुधार नहीं हुआ.

फिलहाल करीब 580 हाइवे प्रोजेक्ट्स, जिनकी कीमत 4 लाख करोड़ रुपये है, देरी का सामना कर रहे हैं — ज़्यादातर ज़मीन अधिग्रहण की वजह से और जब भी सवाल उठते हैं, तो निगाहें भारत के सिविल इंजीनियरों पर टिक जाती हैं. इनकी योग्यता पर सवाल उठते हैं. जो इंजीनियर खुद को “नेशन बिल्डर्स” कहते हैं, वे एक ऐसे क्षेत्र में काम कर रहे हैं जहां भ्रष्टाचार गहराया है, काम के घंटे बेहद लंबे हैं, तनख्वाह कम है और करियर में आगे बढ़ने के मौके बेहद सीमित. कई सिविल इंजीनियरों ने दिप्रिंट से बात करते हुए कहा कि सिविल इंजीनियरिंग इसकी सबसे शोषणकारी शाखा बन चुकी है.

सरकारी एजेंसियों द्वारा दिए जाने वाले एल-1 कॉन्ट्रैक्ट्स (लोवेस्ट बिडर को काम देना) भी भारत के इंफ्रास्ट्रक्चर की गुणवत्ता को और नुकसान पहुंचाते हैं. एल1 कॉन्ट्रैक्ट का मतलब है — तकनीकी योग्यता तय होने के बाद सरकार काम सबसे कम बोली लगाने वाले को दे देती है.

सिविल इंजीनियरिंग की स्टूडेंट्स में लोकप्रियता भी घट रही है.

ऑल इंडिया सर्वे ऑफ हायर एजुकेशन के आंकड़ों के मुताबिक, 2016-17 में 6.3 लाख छात्र सिविल इंजीनियरिंग और संबंधित कोर्स में नामांकित थे. 2021 तक यह संख्या घटकर 4.89 लाख रह गई — जो अन्य इंजीनियरिंग शाखाओं की तुलना में सबसे बड़ी गिरावट है.

सीआरआरआई के डायरेक्टर और इंडियन रोड कांग्रेस के अध्यक्ष मनोरंजन परिडा ने कहा, “अचानक से हाइवे को बहुत अहमियत मिल गई है. देखिए, हम 2 लाख किलोमीटर हाइवे बनाने जा रहे हैं — यह बहुत बड़ा आंकड़ा है. विकास की रफ्तार बहुत तेज़ है, शायद इसी वजह से हमारे मटेरियल की क्वालिटी और क्वांटिटी, हमारी विशेषज्ञता और क्षमता ज़रूरत के हिसाब से मेल नहीं खा पा रही. डिमांड और सप्लाई में बड़ा गैप है.”

उद्घाटन के पहले ही हफ्ते में नए बने पलावा ब्रिज को खोदना पड़ा और सड़क को फिर से बिछाना पड़ा | फोटो: शुभांगी मिश्रा/दिप्रिंट
उद्घाटन के पहले ही हफ्ते में नए बने पलावा ब्रिज को खोदना पड़ा और सड़क को फिर से बिछाना पड़ा | फोटो: शुभांगी मिश्रा/दिप्रिंट

सब-टेंडर पर सब-टेंडर

डोंबिवली में रहने वाले इंजीनियर अमित सात साल से शिलफाटा–कल्याण फ्लाईओवर के बनने का इंतज़ार कर रहे थे. अगर यह वक्त पर बन जाता, तो काकीनाका (कल्याण) से नवी मुंबई के बीच की यात्रा दो घंटे से घटकर सिर्फ 45 मिनट में पूरी हो जाती.

अमित ने कहा, “हर दिन नवी मुंबई से लौटते वक्त घंटों ट्रैफिक में फंसा रहता हूं. ये पुल तो शुरू से ही फेल होना तय था. पहले दिन से इसमें दिक्कतें थीं.”

पलावा ब्रिज का उद्घाटन दरअसल इस बात का प्रतीक बन गया कि भारत के सिविल इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स में क्या-क्या गड़बड़ियां हैं — देरी, ठेकेदारों के बार-बार बदलने और घटिया काम की एक लंबी कहानी.

सात साल की देरी, विरोध और राजनीतिक दबावों के बाद जब पुल आखिरकार खोला गया, तो कुछ ही घंटों में उस पर गड्ढों से भरी, ऊबड़-खाबड़ और फिसलन भरी सड़क सामने थी.

लोगों के बढ़ते दबाव के चलते पुल को बिना ज़्यादा कार्यक्रम के और बिना कॉन्ट्रैक्टर से ‘कम्प्लीशन सर्टिफिकेट’ लिए ही खोल दिया गया. सड़क की खराब सतह की वजह से गाड़ियां फिसलने लगीं. उद्घाटन के दिन मुंबई की एक बारिश ही पुल की असली हालत दिखाने के लिए काफी थी.

एमएसआरडीसी (MSRDC) के एक अधिकारी ने नाम न बताने की शर्त पर कहा, “हमें राजनीतिक दबाव में आकर पुल को समय से पहले खोलना पड़ा.”

एमएसआरडीसी का मुंबई बांद्रा रिक्लेमेशन में दफ्तर| फोटो: शुभांगी मिश्रा/दिप्रिंट
एमएसआरडीसी का मुंबई बांद्रा रिक्लेमेशन में दफ्तर| फोटो: शुभांगी मिश्रा/दिप्रिंट

एमएसआरडीसी राज्य में एक्सप्रेसवे पर एक्सेस कंट्रोल का काम देखता है. इसके पास मुंबई में 55 फ्लाईओवर प्रोजेक्ट्स हैं और हाल ही में इसने नागपुर से मुंबई को जोड़ने वाला समृद्धि एक्सप्रेसवे भी बनाया है.

पुल पर ऊपर की परत में मस्टिक डामर (mastic asphalt) डालने की योजना थी, लेकिन ठेकेदारों और स्थानीय लोगों ने आरोप लगाया कि एमएसआरडीसी ने बस ‘लीपा-पोती’ का काम किया.

कई साल का अनुभव रखने वाले कॉन्ट्रैक्टर राहुल बगार ने दिप्रिंट से ब्रिज पर खड़े होकर बताया, “बेस कोट और प्राइम कोट के बाद एमएसआरडीसी ने सड़क पर बिटुमेन छिड़क दिया, जिससे दोपहिया वाहन फिसलने लगे. पुल को तुरंत बंद करना पड़ा. इसके बाद उन्होंने उस पर रेत की परत डाल दी, जिससे हालात और बिगड़ गए. उद्घाटन के एक हफ्ते के भीतर ही पुल बंद करना पड़ा.”

मैन प्लान दो एक जैसे फ्लाईओवर बनाने की थी — एक शिलफाटा से कल्याण और दूसरा उल्टी दिशा में, लेकिन अभी सिर्फ एक फ्लाईओवर बना है. कल्याण से शिलफाटा की दिशा वाला पुल अभी भी निर्माणाधीन है — जंग लगे खंभे रास्ते में पड़े दिखते हैं. सात साल बीत गए, लेकिन ज़मीन अधिग्रहण आज तक पूरा नहीं हुआ.

इस पुल का वर्क ऑर्डर 2018 में दिया गया और 2020 में संशोधित हुआ. काम राम किरपाल कंस्ट्रक्शंस को मिला था, जिसने सबसे कम बोली लगाई थी. टेंडर की राशि 197 करोड़ रुपये थी.

स्थानीय नेताओं ने आरोप लगाया, लेकिन आने वाले वर्षों में टेंडर कई ठेकेदारों के बीच घूमता रहा. मौके पर मौजूद इंजीनियर ने दिप्रिंट से कहा, इस समय ईगल कंस्ट्रक्शंस कंपनी सड़क को दोबारा बिछा रही है.

शिवसेना (यूबीटी) के नेता और पूर्व नगरसेवक दीपेश म्हात्रे ने पुल के पास अपने ऑफिस में बैठकर तंज कसते हुए कहा, “दुनिया-भर में मशहूर पलावा ब्रिज ने सच में अपना नाम कमा लिया.”

अब पुल राजनीतिक अंक बटोरने का मंच बन गया है. शिवसेना (यूबीटी) ने पुल पर पोस्टर लगाए हैं, जिनमें दावा किया गया है कि पार्टी ने “एमएसआरडीसी को दोबारा काम करने के लिए मजबूर किया.”

एक पोस्टर पर लिखा था — “पावरफुल ब्लो कास्ट, सारे गड्ढे गायब!”

दिप्रिंट ने चीफ इंजीनियर एस. के. सुरवांसे से इस प्रोजेक्ट पर बात करने की कोशिश की, लेकिन उन्होंने मिलने से इनकार कर दिया. ओएसडी हेमंत जगताप ने भी पुल पर कोई टिप्पणी नहीं की.

शिवसेना (यूबीटी) का पलावा ब्रिज पर लगा पोस्टर | फोटो: शुभांगी मिश्रा/दिप्रिंट
शिवसेना (यूबीटी) का पलावा ब्रिज पर लगा पोस्टर | फोटो: शुभांगी मिश्रा/दिप्रिंट

मुंबई की समस्या पूरे शहर में फैली

अंधेरी के गोखले ब्रिज की कहानी — जो अंधेरी ईस्ट और वेस्ट को जोड़ने वाला अहम रेलवे ओवरब्रिज है — साफ दिखाती है कि भारत के इंफ्रास्ट्रक्चर सिस्टम में लापरवाही किस गहराई तक घुस चुकी है. न मौतें कुछ बदलती हैं, न देरी से कोई सीख ली जाती है.

2018 में गोखले ब्रिज गिर गया था, जिसमें दो लोगों की मौत हो गई थी. सात साल बाद जब इसे दोबारा बनाया गया और खोला गया, तो अंधेरी के लोग खुशी से झूम उठे, लेकिन यह खुशी ज़्यादा देर नहीं टिक पाई. नया पुल अपने जुड़ने वाले बरफीवाला फ्लाईओवर से 6.6 फीट गलत एलाइनमेंट में था, जिससे वह बेकार साबित हुआ. सोशल मीडिया पर इस पर मीम्स की बाढ़ आ गई. अमूल ने भी ‘Pull ko push nahi kiya?’ लिखकर मज़ेदार विज्ञापन बनाया (Pull यानी पुल पर शब्दों का खेल).

गोखले ब्रिज का मामला यह भी दिखाता है कि एजेंसियों के आपसी तालमेल की कमी और ‘साइलो में काम करने की संस्कृति’ किस तरह बड़े प्रोजेक्ट्स को प्रभावित करती है.

अंधेरी के निवासियों के लिए लंबे इंतज़ार के बाद गोखले ब्रिज दोबारा खुला, लेकिन गलत एलाइनमेंट ने सब निराश कर दिया | फोटो: शुभांगी मिश्रा/दिप्रिंट
अंधेरी के निवासियों के लिए लंबे इंतज़ार के बाद गोखले ब्रिज दोबारा खुला, लेकिन गलत एलाइनमेंट ने सब निराश कर दिया | फोटो: शुभांगी मिश्रा/दिप्रिंट

बीएमसी कमिश्नर (प्रोजेक्ट्स) अभिजीत बंगर ने दिप्रिंट को बताया, “यह प्रोजेक्ट हमें (बीएमसी को) एमएसआरडीसी से मिला था, वहीं से शुरुआती ड्रॉइंग और डिज़ाइन आए, लेकिन शुरुआती काम पीडब्ल्यूडी ने किया, जिनके पास वो डिज़ाइन थे ही नहीं.”

मुंबई में सिर्फ गोखले और पालावा ब्रिज ही नहीं, बल्कि कई इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स क्वालिटी पर सवाल खड़े कर रहे हैं — अधूरी मेट्रो लाइनें, नई खुली कोस्टल रोड, मुंबई और नवी मुंबई को जोड़ने वाला अटल सेतु, और शहरभर में बनते कई फ्लाईओवर. सड़कों को फिर से सीमेंट से बिछाया जा रहा है, पुरानी इमारतों का पुनर्विकास हो रहा है.

वॉचडॉग फाउंडेशन के संस्थापक और वकील गॉडफ्री पिमेंटा द्वारा दायर आरटीआई में खुलासा हुआ कि मुंबई का चेहरा बदलने की कोशिश में अगले पांच साल में 25 अरब डॉलर खर्च होने का अनुमान है. इस इंफ्रास्ट्रक्चर बूम के बीच, बिना चुने हुए जनप्रतिनिधियों के, बीएमसी की फिक्स्ड डिपॉज़िट्स चार साल में 12,000 करोड़ रुपये घट गई हैं.

महाराष्ट्र में कुछ गिने-चुने 5-10 ठेकेदारों का सिंडिकेट है, जो अलग-अलग नामों से काम लेते हैं. इसी वजह से सड़क इंफ्रास्ट्रक्चर की हालत खराब है. नुकसान सिर्फ आम जनता को नहीं, बल्कि महाराष्ट्र को आर्थिक रूप से भी झेलना पड़ता है

— दीपेश म्हात्रे, पूर्व नगरसेवक, शिवसेना (यूबीटी)

बीएमसी से लेकर एमएसआरडीसी और एनएचएआई तक, कई एजेंसियों के अधीन आने वाले अहम प्रोजेक्ट्स में बड़ी गड़बड़ियां सामने आई हैं.

विक्रोली फ्लाईओवर पर बीएमसी नालियां लगाना ही भूल गई, और अप्रोच रोड जाम से भरे पड़े हैं. अटल सेतु के फ्लैगशिप प्रोजेक्ट पर पहले ही गड्ढों वाला हिस्सा बन गया है. ठेकेदार पर 1 करोड़ रुपये का जुर्माना लगा है.

अटल सेतु का साइनबोर्ड | फोटो: शुभांगी मिश्रा/दिप्रिंट
अटल सेतु का साइनबोर्ड | फोटो: शुभांगी मिश्रा/दिप्रिंट
अटल सेतु पर पैचवर्क का काम जारी | फोटो: शुभांगी मिश्रा/दिप्रिंट
अटल सेतु पर पैचवर्क का काम जारी | फोटो: शुभांगी मिश्रा/दिप्रिंट

मुनाफे के लिए क्वालिटी की बलि

पलावा ब्रिज जैसे स्थानीय प्रोजेक्ट से लेकर अटल ब्रिज जैसे विशाल इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट तक — क्वालिटी की समस्या मानो स्थायी बन गई है. इन मामलों ने सरकारी बिल्डरों पर से जनता का भरोसा हिला दिया है. बिहार से बॉम्बे तक पुलों के ढहने की घटनाओं में एक ही धागा जुड़ा हुआ दिखता है — भ्रष्टाचार, कमीशनखोरी और अव्यवस्था.

पुणे के एक इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट इंजीनियर ने बताया कि ठेकेदार सबसे कम बोली लगाकर टेंडर जीतने की कोशिश करते हैं. इस प्रक्रिया में प्राइसिंग प्रेशर बढ़ता जाता है और हर स्तर पर कट लगने से क्वालिटी में समझौता करना ही एकमात्र रास्ता बचता है.

उन्होंने कहा, “महाराष्ट्र में ठेका जीतने की दर जूनियर इंजीनियर के लिए 1% और सीनियर इंजीनियर के लिए 1.7% है. मुनाफा आमतौर पर 15-20% होता है, लेकिन इतनी बड़ी रकम इधर-उधर होती है कि ठेकेदार को मटेरियल खरीद और मज़दूरों की हायरिंग में कटौती करनी पड़ती है.”

ठेकेदार और स्थानीय नेता टेंडर प्रक्रिया पर भी सवाल उठा रहे हैं.

सात साल की देरी और 200 करोड़ रुपये खर्च होने के बावजूद पालावा फ्लाईओवर ने लोगों को ट्रैफिक जाम से राहत नहीं दी. रास्ते में कहीं शौचालय तक नहीं हैं.

बिड अलॉटमेंट में पक्षपात के आरोप भी लगे हैं. 2025 की शुरुआत में एलएंडटी ने सुप्रीम कोर्ट में एमएमआरडीए के खिलाफ याचिका दायर की थी क्योंकि कोस्टल रोड प्रोजेक्ट का एक हिस्सा बनाने का कॉन्ट्रैक्ट मेघा इंजीनियरिंग को दे दिया गया था, जबकि उसकी बोली एलएंडटी से 3,100 करोड़ रुपये ज़्यादा थी. आखिरकार मई में एमएमआरडीए ने यह टेंडर रद्द कर दिया. चुनाव आयोग द्वारा जारी आंकड़ों के मुताबिक, मेघा इंजीनियरिंग चुनावी बॉन्ड खरीदने वाली दूसरी सबसे बड़ी कंपनी थी.

एमएसआरडीसी के ओएसडी हेमंत जगताप ने बताया कि कैसे अथॉरिटी में बिड्स को अप्रूव किया जाता है — महाराष्ट्र में इंफ्रास्ट्रक्चर पर काम करने वाली कई संस्थाओं में से एक यह भी है.

उन्होंने कहा कि एमएसआरडीसी या अन्य सरकारी निकायों के इंजीनियरों की मुख्य भूमिका कोऑर्डिनेशन की होती है. उन्होंने पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप (पीपीपी) मॉडल को भी रेखांकित किया.

जगताप ने कहा, “अथॉरिटी सुपरविजन कंसल्टेंट्स, प्रोजेक्ट मैनेजमेंट कंसल्टेंट्स और फिर अथॉरिटी इंजीनियर्स की नियुक्ति करती है.”

पुलों का ढहना

ऋषिकेश शेल्लर को अब अपने काम तक पहुंचने के लिए भारी ट्रैफिक में बाइक पर डेढ़ घंटे में 25 किलोमीटर का सफर करना पड़ता है और लंबा रास्ता लेना पड़ता है. पहले वह सिर्फ पैदल पुल के जरिए इंद्रायणी नदी पार कर होटल पहुंच जाते थे, जहां वे काम करते थे. लगभग दो साल पहले पंचायत राज विभाग ने इसे ‘असुरक्षित’ बताया था. जून में भीड़ की वजह से यह पुल ढह गया और चार पर्यटकों की मौत हो गई.

पुल का मलबा अभी भी नदी में दिखाई देता है, जो तीन महीने पहले हुई त्रासदी की भयावह याद दिलाता है.

टूटा हुआ इंद्रायणी नदी पुल, जून में ढहने के कारण चार पर्यटक मरे | फोटो: शुभांगी मिश्रा/दिप्रिंट
टूटा हुआ इंद्रायणी नदी पुल, जून में ढहने के कारण चार पर्यटक मरे | फोटो: शुभांगी मिश्रा/दिप्रिंट

बिहार से गुजरात और महाराष्ट्र तक, पुल ऐसे ढह रहे हैं जैसे वे लेगो के बने हों. सरकारें नीतियां बनाने और पुलों की जांच कराने की तैयारी कर रही हैं, लेकिन यह तब होता है जब कई जानें जा चुकी हों.

ऋषिकेश ने उस दिन की याद करते हुए कहा, “शनिवार होने की वजह से 100-150 लोग पुल पर धंस गए थे. भीड़ इतनी थी कि यहां तैनात पुलिस उन्हें नियंत्रित नहीं कर सकती थी. पुल वैसे भी असुरक्षित था.”

30 साल पुराने इस पुल के स्थान पर नया समानांतर पुल बनाने के लिए 8 करोड़ रुपये मंजूर किए गए थे, लेकिन काम कभी शुरू नहीं हुआ.

शेल्लर ने बताया, “इंजीनियर साल भर पहले सर्वे करने आए थे.”

पुणे शहर से 40 किलोमीटर दूर यह पुल पर्यटन स्थल था और शेल्लर समुदाय के दो गांवों को जोड़ता था. बीच में एक मंदिर और किनारे पर रिज़ॉर्ट के साथ यह एक लोकप्रिय जगह बन गई थी.

पुल ढहने के बाद महाराष्ट्र में राज्यव्यापी पुलों की जांच का आदेश दिया गया, लेकिन ऐसा आदेश पहले भी जारी किया जा चुका है.

दो साल पहले पैदल पुल के पास चेतावनी बोर्ड लगाया गया था कि पुल का इस्तेमाल न करें | फोटो: शुभांगी मिश्रा/दिप्रिंट
दो साल पहले पैदल पुल के पास चेतावनी बोर्ड लगाया गया था कि पुल का इस्तेमाल न करें | फोटो: शुभांगी मिश्रा/दिप्रिंट

सड़क परिवहन मंत्रालय ने 2019 से 2024 के बीच 42 पुलों के ढहने की जानकारी दी.

2016 में, महाड नदी पर पुल ढहने से 42 लोगों की मौत हुई. सरकार ने 1988 के बाद पहली बार 2016 में पुलों की नियमित जांच और रखरखाव के दिशा-निर्देश संशोधित किए. आदेश दिया गया कि पुलों का निरीक्षण एक महीने के भीतर किया जाए, हर मानसून के बाद ऑडिट अनिवार्य हो और उम्र पूरी कर चुके पुलों की संरचनात्मक जांच की जाए.

सीएजी की 2020 की रिपोर्ट के अनुसार, सितंबर 2016 तक महाराष्ट्र में 16,085 पुल थे, जिनमें से 657 की उम्र पूरी हो चुकी थी. इनमें से 100 से अधिक पुलों का संरचनात्मक ऑडिट नहीं हुआ.

सीएजी ने नोट किया, “पुल निर्माण और रखरखाव के लिए कोई रणनीतिक योजना नहीं थी. निर्माण प्रस्तावों के अनुसार ही किया गया.”

बिहार अब पुल ढहने की समस्या का केंद्र बन गया है. 2025 में 20 दिनों में 12 पुल ढहने की घटनाएं हुईं. ‘ब्रिज हेल्थ इंडेक्स’ भी पेश किया गया. सितंबर में नालंदा में रेलवे ओवरब्रिज का हिस्सा भी ढह गया, जो मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के गृह जिले में था.

दिप्रिंट से बात करने वाले इंजीनियरों ने कहा कि बिहार में ढहे अधिकांश पुल पुराने थे. 2025 तक बिहार में पुल रखरखाव की नीति नहीं थी. 18 पुलों के ढहने के बाद नई नीति बनाई गई, जिसके तहत विभिन्न विभाग पुलों के लिए हेल्थ कार्ड जारी करेंगे. राज्य ने 2025 का सबसे फैशनेबल बज़वर्ड—आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस—भी पुलों की देखभाल में शामिल किया.

अकादमिकों का कहना है कि दोष डिज़ाइन में नहीं, बल्कि निष्पादन में है.

डॉ. इरफान अंसारी, हेड ऑफ डिपार्टमेंट ऑफ सिविल इंजीनियरिंग, गवर्नमेंट कॉलेज, खगड़िया ने दिप्रिंट को बताया, “पुलों को सबसे अच्छे सिविल इंजीनियरों के साथ डिज़ाइन किया गया है, लेकिन जहां यह फेल होता है वह निष्पादन और सामग्री की गुणवत्ता में होता है.”

लेकिन कुछ पुलों के डिज़ाइन भी बेहूदा हैं. जैसे भोपाल का रेलवे ओवरब्रिज, जिसने 2025 में राष्ट्रीय ध्यान खींचा. गंभीर डिज़ाइन दोष 2024 में ही फ्लैग किए गए थे.

रेलवे के चीफ प्रोजेक्ट मैनेजर के पत्र के अनुसार, जिसे दिप्रिंट ने देखा, पीडब्ल्यूडी चीफ इंजीनियर को 2024 में सूचित किया गया कि 4 अप्रैल 2024 को निरीक्षण किया गया. निरीक्षण के दौरान इंजीनियर ने पाया कि बर्खेड़ी की ओर पुल का निर्माण ‘सही नहीं लग रहा था’.

पत्र में लिखा था: “रेलवे हिस्से का पुल लगभग सीधे कोण पर मिल रहा है, जो न तो कार्यात्मक आवश्यकताओं को पूरा करता है और न ही सड़क उपयोगकर्ताओं के लिए सुरक्षित है. इससे उपयोगकर्ताओं और जनता की आलोचना होगी और इंजीनियरों की छवि खराब होगी.”

पीडब्ल्यूडी और रेलवे दोनों ने पुल की विफलता के लिए एक-दूसरे को दोषी ठहराया.

नाम न बताने की शर्त पर पीडब्ल्यूडी के एक अधिकारी ने कहा, डिज़ाइन दोष की वजह जगह की कमी थी, जिसे अब सुधारा जा रहा है. जमीन अधिग्रहण और मेट्रो स्टेशन के पास होने की वजह से काम कठिन था.

उन्होंने दिप्रिंट को बताया, “हम अब मोड़ को आसान और सुरक्षित बनाने के लिए 3 फीट और कैरिजवे जोड़ रहे हैं.”

सिविल इंजीनियर: निर्माता और उनका करियर

बिहार में बड़े होने वाले शाहबाज़ इमाम से कहा गया कि उनके पास सिर्फ दो ऑप्शन हैं: या तो सिविल सेवा में जाएं या सिविल इंजीनियर बनें. उन्होंने दूसरा चुना और बाद में इसका पछतावा किया.

उन्होंने कहा, “मुझसे कहा गया कि सिविल इंजीनियरिंग चुनो क्योंकि यहां नौकरी के अवसर हैं, या फिर कोई विदेश में भी काम कर सकता है.” और यह मान्यता गलत नहीं है. भारत ने दुनिया भर में, खासकर खाड़ी देशों में, सिविल इंजीनियरों की एक बड़ी फौज भेजी है, जहां तेल की अरबों डॉलर की कमाई से इन्फ्रास्ट्रक्चर का निर्माण हुआ.

2019 में IES कॉलेज ऑफ मैनेजमेंट एंड टेक्नोलॉजी, भोपाल से ग्रेजुएट होने के बाद उन्होंने भारत में पांच साल काम किया, लेकिन अच्छी तनख्वाह वाली नौकरी नहीं मिल पाई. पटना की एक निर्माण कंपनी में सैलरी बार-बार देर से मिलती थी और काम के घंटे अनियंत्रित थे. मानसून के दौरान उन्हें वेतन नहीं मिलता था क्योंकि इस दौरान भारत में खुले सिविल काम सामान्यतः स्थगित रहते हैं.

भोपाल में साइट पर इंजीनियर के रूप में 5,000 रुपये मासिक सैलरी कमाने के बाद, इमाम बेहतर वेतन के लिए दिल्ली चले गए, जहां उनकी आय 2022 तक 25,000 रुपये मासिक थी.

उन्होंने दिप्रिंट से कहा, “मैंने बहुत कोशिश की, लेकिन करियर में विकास नहीं हुआ, इसलिए मैंने 2022 में सऊदी अरब जाना तय किया. यहां मेरे काम के घंटे तय हैं, मुझे डीए मिलता है और मैं महीने में 1.2 लाख रुपये कमाता हूं.” उनके अनुसार, भारत में सात साल के अनुभव वाला इंजीनियर 40-45 हजार रुपये ही कमाता है.

प्रारंभिक और मध्य-स्तर के सिविल इंजीनियरों के करियर के अवसर सामान्यतः निराशाजनक हैं, पुणे के आठ साल के अनुभव वाले एक इंजीनियर ने बताया, जो सालाना 10 लाख रुपये से कम कमाते हैं.

इंजीनियर ने कहा, “शुरुआती सैलरी लगभग 15,000 रुपये है, आप तभी पैसा कमाना शुरू करते हैं जब अपनी कंपनी खोलते हैं, लेकिन अगर आप सिस्टम का हिस्सा नहीं बन पाते और यह नहीं समझते कि रिश्वत आपकी रोजमर्रा की ज़िंदगी का हिस्सा है, तो आप इनके बिना काम नहीं कर पाएंगे.”

सिविल इंजीनियर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष विजय सनाप ने कहा कि शुरुआत में वेतन अच्छा नहीं होता, लेकिन 10 साल का अनुभव होने के बाद यह किसी भी क्षेत्र से बेहतर हो सकता है.

सनाप ने ज़ूम पर कहा, “सैलरी कॉन्क्रिट की ताकत के उल्ट है. कॉन्क्रिट जल्दी मजबूत होता है और फिर समय के साथ ताकत खो देता है. हमारी सैलरी धीरे-धीरे बढ़ती है, लेकिन बाद में…”

सनाप का भारतीय सिविल इंजीनियरों के लिए रोजगार बाजार के प्रति आशावादी दृष्टिकोण है. उन्होंने कहा कि इन्फ्रास्ट्रक्चर के बढ़ते काम के कारण, उद्योग के पास इतने अवसर हैं कि किसी भी कुशल सिविल इंजीनियर को आसानी से काम मिल सकता है.

उनके अनुसार, ज्यादातर इंजीनियर 10-20 हजार रुपये सैलरी में भर्ती हो रहे हैं, जबकि कंप्यूटर साइंस क्षेत्र के उनके सहकर्मी कभी-कभी इसका तीन गुना कमाते हैं. उन्होंने कहा, “लेकिन 10 साल के बाद, सिविल इंजीनियर अपने सहकर्मियों की तुलना में कई गुना अधिक कमाई करने लगते हैं.”

यह नौकरी अन्य मुख्य शाखाओं की तुलना में अधिक मांग वाली है, जिसमें इंजीनियर को धूप में, रात में, या तूफान और ओले में काम करना पड़ता है. दिप्रिंट से बात करने वाले इंजीनियरों ने कहा कि कई लोग सिविल इंजीनियरिंग पढ़ते हुए कंप्यूटर साइंस या मैनेजमेंट की ओर शिफ्ट हो जाते हैं.

IIT दिल्ली के सिविल इंजीनियरिंग प्रोफेसर मनबेंद्र सहारिया ने कहा, “अच्छा हिस्सा सिविल इंजीनियरिंग में रहता है: लगभग 25-40 प्रतिशत लोग निर्माण डिजाइन, इन्फ्रास्ट्रक्चर और सरकारी नौकरी करते हैं. इसका एक छोटा हिस्सा शिक्षा क्षेत्र में जाता है.”

हालांकि, कई सिविल इंजीनियर ग्रेजुएट जानबूझकर नॉन-कोर क्षेत्र और मैनेजमेंट जैसे आईटी, सॉफ्टवेयर डेवलपमेंट, डेटा साइंस और कंसल्टिंग में जाते हैं, क्योंकि वहां प्रवेश सैलरी अधिक और कोर अवसर सीमित होते हैं.

उन्होंने कहा, “सिविल इंजीनियरिंग कई क्षेत्रों जैसे एआई एप्लिकेशन, रिमोट सेंसिंग आदि की अग्रिम पंक्ति है, जो हमारे ग्रेजुएट्स को अन्य कंपनियों में ले जाने की अनुमति देती है, जिन्हें लोग तुरंत सिविल इंजीनियरिंग से जोड़ नहीं पाते.”

मौरेश्वर गोवर्धन अपनी मां को एनएच-66 के किनारे बाजार से स्कूटर पर घर ले जा रहे थे. नई बनी कॉन्क्रिट सड़क पर पहले ही दरारें आ चुकी थीं. एक गड्ढे से बचने के लिए उन्होंने स्कूटर घुमाया, लेकिन स्कूटर किसी और गड्ढे में गिर गया, जिससे वह और उनकी मां सड़क पर गिर गए. उनकी मां को सिर में चोटें आईं और उनकी मौत हो गई.

मौरेश्वर गोवर्धन अपनी मां चंदा की फोटो के साथ, जिन्हें एनएच-66 पर हादसे में खो दिया | फोटो: शुभांगी मिश्रा/दिप्रिंट
मौरेश्वर गोवर्धन अपनी मां चंदा की फोटो के साथ, जिन्हें एनएच-66 पर हादसे में खो दिया | फोटो: शुभांगी मिश्रा/दिप्रिंट

परिवार अब बैठकर 77-वर्षीय खुशमिजाज चंदा के वीडियो दिखाता है, जो सामुदायिक कार्यक्रमों में नाचती थीं.

गोवर्धन ने कहा, “वह इतनी स्वस्थ थीं कि कभी डॉक्टर के पास जाने की ज़रूरत नहीं पड़ी.”

(इस ग्राउंड रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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