मेहसाणा: मेहसाणा की एक बड़ी प्रोसेसिंग फैक्ट्री में, साफ-सुथरे आलू कन्वेयर बेल्ट पर ऐसे रखे गए हैं जैसे किसी ब्यूटी कॉम्पिटिशन हो. चारों ओर स्टार्च और स्टील की गंध फैली हुई है.
“हर टुकड़े की जांच होती है, दोबारा जांच होती है. अब यह कोई आम फसल नहीं रही,” फैक्ट्री लाइन की देखरेख कर रहे फूड इंजीनियर मिथिलेश राय कहते हैं. ये आलू कई स्टेप्स से गुजरते हैं—साफ-सफाई, काटना, भाप देना—और फिर कई तरह की जांच होती है, तब जाकर इन्हें डीप फ्रीज के लिए तैयार माना जाता है. गुजरात से ये भारत के अलग-अलग हिस्सों और नेपाल, बांग्लादेश, जापान, ऑस्ट्रेलिया, यूएई, मॉरीशस तक जाते हैं.
हाईफन फूड्स की प्रोसेसिंग यूनिट में काम करने वाले राय इस प्रक्रिया को “आलू का पुनर्जन्म” कहते हैं.
वे कहते हैं, “शुगर लेवल से लेकर शेप तक, हर चीज़ का ध्यान रखा जाता है. सब कुछ परफेक्ट होना चाहिए,”
भारत सालाना लगभग 60 मिलियन मीट्रिक टन आलू पैदा करता है और इस मामले में चीन के बाद दूसरे नंबर पर है. लेकिन लंबे समय तक प्रोसेस्ड या जमे हुए आलू के मामले में देश पीछे था. 2010-11 में भारत को फास्ट फूड इंडस्ट्री की मांग पूरी करने के लिए 7,800 टन फ्रोजन आलू उत्पाद आयात करने पड़ते थे, लेकिन अब तस्वीर बदल गई है. 2023 में यह आंकड़ा घटकर सिर्फ 55 टन रह गया, क्योंकि घरेलू प्रोसेसिंग क्षमता में जबरदस्त बढ़ोतरी हुई.
फास्ट फूड इंडस्ट्री के बढ़ने और लोगों की फ्राइज़, हैश ब्राउन और रेडी-टू-कुक फ्रोजन प्रोडक्ट्स के प्रति बढ़ती रुचि ने इस बदलाव को जन्म दिया. देशी कंपनियां जैसे हाईफन, फाल्कन एग्रीफ्रिज, इस्कॉन बालाजी और मैकेन ने प्रोसेसिंग टेक्नोलॉजी में निवेश किया और हाई-एंड कोल्ड चेन नेटवर्क का निर्माण हुआ.
वैज्ञानिकों ने भी इसमें अहम योगदान दिया है. इंडियन काउंसिल ऑफ एग्रीकल्चरल रिसर्च (ICAR) के तहत आने वाले सेंट्रल पोटैटो रिसर्च इंस्टीट्यूट (CPRI) ने ऐसी किस्में विकसित कीं जिनमें शुगर कम और ड्राई मैटर ज़्यादा हो—ये खासियतें ऐसे फ्राइज़ बनाती हैं जो ज्यादा क्रिस्पी होते हैं और कम तेल सोखते हैं. अब भारत न सिर्फ अपनी मांग पूरी कर रहा है, बल्कि दुनिया भर में फ्रोजन आलू भी भेज रहा है.

“और गुजरात इस बदलाव का केंद्र है, जहां भारत के लगभग 80 फीसदी प्रोसेस्ड आलू का उत्पादन होता है,” CPRI, मेरठ के प्रमुख डॉ आरके सिंह ने कहा. उन्होंने बताया कि गुजरात की ठंडी सर्दियां, कम नमी, रेतीली दोमट मिट्टी और मध्यम वर्षा प्रोसेसिंग-ग्रेड आलू के लिए आदर्श हैं.
कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग से किसानों को भी फायदा हुआ है.
“पहले हम आलू मंडी में बेचते थे जहां दाम में बहुत उतार-चढ़ाव होता था और मुनाफा कभी तय नहीं होता था,” बनासकांठा के किसान पटेल सुरेशभाई ने कहा. “अब हमें बायबैक की गारंटी है और बीज व फसल से जुड़ी सलाह भी मिलती है.”
एक ऐसा देश जहां ताजे आलू ज़्यादातर रसोइयों की ज़रूरत हैं, वहां अब फ्रोजन आलू की मांग भी बढ़ रही है. एक दशक पहले प्रोसेस्ड आलू का इस्तेमाल सिर्फ 6-7 प्रतिशत था, सिंह के मुताबिक. अब यह करीब 15 प्रतिशत तक पहुंच गया है.
“आलू कभी गरीब की फसल माना जाता था. फिर यह नकदी फसल बना—जिससे थोड़ी आमदनी होती थी. अब यह एक इंडस्ट्री क्रॉप बन रहा है, जिस पर बड़ी कंपनियां अपना बिजनेस खड़ा कर रही हैं,” सिंह ने कहा. “आलू अब ग्लोबल हो रहा है, और इस इंडस्ट्री का भविष्य बेहद उज्ज्वल है.”
फ्रीज, फ्राई, फॉर्च्यून
हर वीकेंड, अहमदाबाद के कृष्ण पटेल लोकल मैकडॉनल्ड्स जरूर जाते हैं—फ्राइज़ और आलू टिक्की बर्गर खाने. 22 साल के कृष्ण अपने परिवार में पहले हैं जिन्होंने फास्ट‑फूड ट्राय किया, लेकिन अब उनके पिता और दादा भी इनके साथ शामिल होते हैं. यह अब उनका पारिवारिक रिवाज़ बन गया है.
“मेरी दादी भी फ्राइज़ पसंद करती हैं,” उन्होंने बताया. “चूंकि वह प्याज़ और लहसुन नहीं खातीं, इसलिए यह एकमात्र चीज़ है जो वह रेस्टोरेंट में खा सकती हैं. हमने सिर्फ 12‑15 साल पहले ही ऐसा खाना शुरू किया था. अब यह हमारी ज़िंदगी का हिस्सा बन गया है.” फ्रोजन स्नैक्स भी अब उनके किराने की सूची में नियमित हैं.
हाईफन फूड्स के सीईओ और एमडी हरेश करमचंदानी ने इस मौके को दस साल पहले ही समझ लिया था. लेकिन जब उन्होंने 2015 में प्रोडक्शन शुरू किया, तब प्रोसेस्ड आलू आज जितने ताकतवर नहीं थे.
करमचंदानी ने दिप्रिंट को बताया, “तब हमें खरीदारों को विश्वास दिलाना पड़ता था कि भारत अंतरराष्ट्रीय मानकों को पूरा कर सकता है. अब, भारतीय फ्राइज़ दुनिया भर की शेल्फ़ और मेन्यू का हिस्सा हैं.”

जैसे ही फ्रोजन फ्राइज़, टिक्की और बर्गर की मांग बढ़ी, करमचंदानी, जो आलू व्यापारी परिवार से हैं, ने 2010 से तैयारी शुरू कर दी थी. अगले पांच सालों में उन्होंने अंतरराष्ट्रीय मांग की स्टडी की, यूरोपीय मशीनरी की खोज की, और बड़े पैमाने पर उत्पादन की तैयारी की. हाईफन का पहला बड़ा ऑर्डर बर्गर किंग इंडिया से आया. इसके बाद केएफसी भी जुड़ा.
“पहले किसी ने नहीं माना कि भारत फ्रोजन फ्रेंच फ्राइज़ सप्लाई कर सकता है. आज, हम खुद को वैश्विक गुणवत्ता वाले सप्लायर के रूप में स्थापित कर चुके हैं,” उन्होंने कहा.
हाईफन ही अकेली कंपनी नहीं थी जिसने छोटे‑छोटे आलू में अवसर देखा. इस्कॉन बालाजी जैसी कंपनियों ने भी शुरुआत में ही निवेश किया. इस्कॉन बालाजी ने 2012 में अपना पहला प्लांट खोला, अब इसके पास गुजरात में चार यूनिट्स हैं, 1,000 कर्मचारियों को रोजगार मिला है, और 8,000 कॉन्ट्रैक्ट किसानों के साथ साझेदारी है.
“जब हमने यह बिजनेस 13 साल पहले शुरू किया, तब हमारा मुनाफा लगभग 4 करोड़ था,” इस्कॉन बालाजी के मालिक चंदुभाई विरानी ने बताया. “आज यह बढ़कर 1,500 करोड़ हो गया है. यह बिजनेस बेहद संभावनाशील है क्योंकि फ्रोजन आलू उत्पादों की मांग लगातार बढ़ रही है.”

इस्कॉन बालाजी ने खेती समुदाय के लिए छोटे‑छोटे आलुओं का लाभकारी उपयोग भी खोजा, जिन्हें खरीदारों की कमी के कारण अक्सर फेंक दिया जाता था. कंपनी ने आलू फ्लेक्स प्लांट स्थापित किया, जिससे सबसे छोटे ट्यूबर भी उपयोगी हो गए.
“अब हर आलू की कीमत है,” विरानी ने कहा. “हमारे फ्लेक्स प्लांट ने उन आलुओं से किसानों के लिए आय का रास्ता बना दिया जो कभी खराब समझे जाते थे.”
एक बड़ा योगदान सेंट्रल पोटैटो रिसर्च इंस्टीट्यूट (CPRI) ने भी दिया, जिसने भारतीय परिस्थितियों और प्रोसेसिंग आवश्यकताओं के लिए विशेष किस्में विकसित कीं.
“CPRI का नया वेरायटी, क्षेत्र‑विशिष्ट मार्गदर्शन, और एग्रोनामी काम इस इंडस्ट्री की रीढ़ है,” करमचंदानी ने कहा. “हर साल, हमारे कॉन्ट्रैक्ट किसान पहले से जानते हैं कि वे कितनी कमाई करेंगे. उनकी आमदनी उत्पादन लागत से कम से कम 40–50 प्रतिशत अधिक होती है.”
आलू का विज्ञान
मेरठ के बाहरी इलाके मोदिपुरम में ICAR-CPRI कैंपस में मार्च की फसल के बाद बचे हुए आलुओं के ढेर नजर आते हैं. ये बीज वाले आलू हैं, जिन्हें किसान हर साल इकट्ठा करते हैं. 1990 के दशक से ही यह संस्थान भारत में प्रोसेस्ड आलू क्रांति के बीज बोने में बड़ी भूमिका निभा रहा है.
1998 में, आठ साल की मेहनत के बाद, संस्थान ने भारत की पहली दो प्रोसेसिंग किस्में घोषित कीं—कुफ़्री चिपसोना-1 और कुफ़्री चिपसोना-2. इसके बाद भी यह संस्थान हाई-ड्राई मैटर और कम शुगर वाली किस्मों पर लगातार शोध करता रहा. इसकी मदद से किसानों की एक नई पीढ़ी तैयार हुई, जो सीधे ग्लोबल फूड चेन से जुड़ी है.

“हमारे संस्थान ने चिपसोना-1, चिपसोना-3, चिपसोना-5, फ्रायसोना और फ्रायऑन जैसी किस्में विकसित की हैं, जो प्रोसेसिंग के लिए बेहद उपयुक्त हैं. इनसे चिप्स और फ्राई का रंग और गुणवत्ता बेहतर होती है,” स्टेशन प्रमुख डॉ. आर.के. सिंह ने कहा.
एक दशक पहले भारत में लगभग 40-42 मिलियन टन आलू पैदा होता था और थोड़ी सी अतिरिक्त पैदावार भी बाजार में कीमतें गिरा देती थी. अब, जब 12-14 प्रतिशत उत्पादन प्रोसेसिंग में जा रहा है, तो कीमतें स्थिर हो गई हैं और किसानों की आय भी सुरक्षित हुई है.
‘60 लाख रुपये का पूरा फायदा’
अपने पिता को गेहूं, बाजरा और मूंगफली उगाते देखना—और फिर भी मुश्किल से लागत निकाल पाना—धवल पटेल के लिए खेती से दूरी बनाने की वजह बन गया था. 2000 के दशक के मध्य में, बनासकांठा की उनकी सात बीघा ज़मीन से हर फसल में मुश्किल से 30,000 रुपये की आमदनी होती थी। उन्हें ये संघर्ष बेकार लगता था.
लेकिन 2017 से धवल का नज़रिया बदल गया. अब, कांट्रैक्ट फार्मिंग मॉडल में आलू उगाते हुए आठ साल हो चुके हैं और उनकी कमाई कई गुना बढ़ गई है. सिर्फ इस साल ही उन्होंने करीब 50 लाख रुपये कमाए हैं.
“हमारे पड़ोसी ने सबसे पहले कांट्रैक्ट फार्मिंग शुरू की थी, और एक साल में ही उसने नया ट्रैक्टर खरीद लिया. तभी मैंने उससे संपर्क किया और पूछा कि क्या मैं भी इसमें जुड़ सकता हूं,” धवल ने कहा, जो अब हाईफन फूड्स को सप्लाई करते हैं.
शुरुआत के दो साल में ही उन्होंने बीज बोने के सही तरीके, पानी का प्रबंधन, मिट्टी की सेहत बनाए रखना जैसे नए तकनीक सीख लिए और मुनाफा बढ़ने लगा.
उन्होंने कहा, “पहले हम मंडी में आलू 5-6 रुपये किलो बेचते थे. अब ये कंपनियां हमें 14 रुपये किलो देती हैं, जो बहुत अच्छा है.”

हाईफन फूड्स से 7,000 से ज़्यादा किसान जुड़े हैं, और इस्कॉन बालाजी के साथ 8,000 से ज़्यादा किसानों के कांट्रैक्ट हैं.
हालांकि कांट्रैक्ट फार्मिंग से दाम तय रहते हैं, लेकिन यह पूरी तरह से जोखिममुक्त नहीं है. मौसम की मार और कंपनियों के गुणवत्ता मापदंडों पर खरे न उतरने पर किसान का माल रिजेक्ट हो सकता है. फिर भी, गुजरात के किसान कहते हैं कि यह व्यवस्था उनके लिए फायदेमंद साबित हो रही है.
धवल को हर बीघा में करीब 40,000 रुपये का मुनाफा होता है. पिछले आठ सालों में उन्होंने 80 बीघा ज़मीन और खरीद ली है और एक नया घर भी बनवाया है. उनके बच्चे प्राइवेट स्कूल में पढ़ते हैं. वे कहते हैं कि अगर वे पारंपरिक खेती में ही बने रहते, तो यह सब मुमकिन नहीं होता.
उन्होंने बताया, “सबसे अच्छा ये है कि हमें कटाई से पहले ही पता होता है कि कितना मुनाफा होगा. हम कंपनियों को पहले ही बता देते हैं कि हम किस किस्म का कितना आलू देंगे. जैसे कि अभी फ़्रायसोना आलू का रेट 13.50 रुपये प्रति किलो है.”
बनासकांठा के ही एक और किसान सुरेशभाई पटेल ने 2011 में कांट्रैक्ट फार्मिंग शुरू की थी. उन्होंने शुरुआत में 20 एकड़ ज़मीन पर काम किया, पहले किसी और कंपनी के साथ, फिर बाद में हाईफन से जुड़ गए. मुनाफा बढ़ने पर उन्होंने 25 एकड़ और ज़मीन किराये पर ली.
सुरेशभाई ने कहा, “इस साल मैंने करीब 1 करोड़ रुपये कमाए, जिसमें 60 लाख रुपये का पूरा मुनाफा रहा. पहले मुझे ज्यादा जानकारी नहीं थी, लेकिन हाईफन की टीम ने बीज चयन और बेहतर खेती के तरीके सिखाए.”
नीतिगत स्तर पर, मॉडल कांट्रैक्ट फार्मिंग अधिनियम, 2018 एक ऐसा ढांचा है जो राज्यों को किसानों और कंपनियों के बीच पारदर्शी समझौते करने के लिए प्रोत्साहित करता है. इसके अलावा, पीएम-किसान संपदा योजना के तहत फूड प्रोसेसिंग यूनिट्स को ग्रामीण सप्लाई चेन सुधारने और किसानों की आमदनी बढ़ाने के लिए वित्तीय सहायता दी जाती है.
आलू 2.0
काम ज़ोरों पर चल रहा है, लेकिन रोशनी से जगमगाते हाईफन प्रोसेसिंग प्लांट में मुश्किल से ही कोई इंसान दिखता है, क्योंकि मशीनें फ्रेंच फ्राइज़, वेजेज और फ्लेक्स बना रही हैं.
“इनमें से ज़्यादातर मशीनें ऑटोमैटिक हैं, इसलिए हमें ज़्यादा लोगों की ज़रूरत नहीं होती. आलू की गुणवत्ता स्कैन करने से लेकर उन्हें गर्म करने और पैकिंग तक का सारा काम मशीनें ही करती हैं,” इंजीनियर राय ने कहा.
गुजरात इस हाई-टेक आलू क्रांति का केंद्र है. लेकिन पंजाब, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और मध्य प्रदेश में भी नए प्रोसेसिंग हब उभर रहे हैं, जो किसानों को घरेलू और निर्यात बाज़ारों से जोड़ रहे हैं.

इस सफलता की कहानी के कुछ अनदेखे हीरो में से एक है कोल्ड स्टोरेज. 2024 तक भारत में लगभग 8,600 कोल्ड स्टोरेज सुविधाएं हैं, जिनकी कुल क्षमता 39.42 मिलियन मीट्रिक टन है. इस क्षमता का करीब 75 प्रतिशत हिस्सा बागवानी उत्पादों, खासतौर पर आलू, को स्टोर करने में इस्तेमाल होता है. 2013 में ऐसे सिर्फ 6,300 स्टोरेज थे.
पहले ये स्टोरेज सिर्फ फसल को कटाई के बाद सुरक्षित रखने के काम आते थे. लेकिन पिछले दस सालों में इनमें काफी सुधार हुआ है—अब ये कई फसलों और प्रोसेस्ड सामान को संभाल सकते हैं, बेहतर तापमान नियंत्रण और सफाई के साथ. सिर्फ गुजरात में ही 1,500 से ज़्यादा ऐसी सुविधाएं हैं, जिनमें ज़्यादातर बनासकांठा और मेहसाणा ज़िलों में हैं.
यहां से निकला एक आलू टोक्यो के किसी रेस्तरां में फ्राई बन सकता है, दुबई के सुपरमार्केट में फ्रोज़न पैक के तौर पर बिक सकता है, या किसी इंडस्ट्रियल इस्तेमाल के लिए भेजा जा सकता है. अब तो कुछ आलू बायोएथेनॉल—नवीकरणीय ईंधन—बनाने के लिए भी प्रोसेस किए जा रहे हैं.
“आने वाले समय में आलू को एक औद्योगिक फसल के रूप में विकसित किया जाएगा. इसे एथेनॉल उत्पादन और एनर्जी क्रॉप के तौर पर इस्तेमाल करने की बात चल रही है,” सिंह ने कहा. “यह उद्योगों को ईंधन देगा, किसानों को सशक्त बनाएगा और भारत को दुनिया के खाद्य और ऊर्जा भविष्य के केंद्र में रखेगा.”
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