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Wednesday, 13 August, 2025
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‘सफाईकर्मी के बिना कोई पोस्टमार्टम नहीं’ लेकिन दलित वह काम कर रहे हैं जिसे डॉक्टर ठुकरा देते हैं

भारत भर में हज़ारों दलित सफाईकर्मियों को डॉक्टरों की जगह शव-परीक्षण करने के लिए मजबूर किया जाता है. ‘यह प्रथा मैनुअल स्कैवेंजिंग से भी बदतर है.’

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दिल्ली/नरहरपुर/धारवाड़: छत्तीसगढ़ के नरहरपुर के घने जंगलों के बीच एक छोटा-सा सीमेंट का ढांचा खड़ा है. दीवार पर काले अक्षरों में लिखा है — नवीन शव गृह…यानी, मृतकों का घर. पिछले दो दशकों में यहां 1,200 से ज़्यादा पोस्टमार्टम हो चुके हैं. यहां शवों को चीरने और सिलने का काम करती हैं संतोषी दुर्गा — जो पेशे से सफाईकर्मी हैं. उनके हाथ में चाकू और कैंची थमाने के पीछे वजह कोई मेडिकल डिग्री नहीं, बल्कि उनकी जाति है.

इस जर्जर कमरे में न पानी की सुविधा है, न बिजली. बस एक घिसा-पिटा सीमेंट का स्लैब और चाकुओं का छोटा-सा साधारण संग्रह. कस्बे के लोग कहते हैं कि यह मुरदा घर भूतिया और अभिशप्त है. इसी वजह से वे 42-वर्षीय दुर्गा को शक की निगाहों से देखते हैं और उनसे दूरी बनाकर चलते हैं, लेकिन उनके लिए यह लगभग स्वाभाविक है कि मृतकों से जुड़ा यह घृणित और अप्रिय काम किसी दलित को ही सौंपा जाए.

नरहरपुर सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में दुर्गा ने कहा, “कस्बे के लोग कहते हैं कि मुरदा घर शुभ नहीं है, वह डरावना है. इसलिए उन्होंने अस्पताल पर दबाव डाला कि मुरदा घर कस्बे के बाहर बनाया जाए.” इस केंद्र में संतोषी दुर्गा एक बदली (स्थानापन्न) कर्मचारी के रूप में काम करती हैं.

बदली कर्मचारी वे होते हैं जो सरकारी सफाई कर्मचारियों के लिए काम करते हैं जो “खुद गंदे काम” करना पसंद नहीं करते. कभी-कभी बदली कर्मचारी सड़कें साफ करते हैं या नालियों की सफाई करते हैं और कई बार जैसे दुर्गा, वे डॉक्टरों की जगह मुश्किल या अप्रिय कामों को पूरा करते हैं. बदली कर्मचारियों को स्थायी सफाई कर्मचारी के समान वेतन या सुविधाएं भी नहीं मिलतीं.

भारत भर में — चाहे वह नरहरपुर हो या गुरुग्राम, धारवाड़ हो या दिल्ली — हज़ारों दलित सफाईकर्मियों को ज़बरदस्ती पोस्टमार्टम करने पर मजबूर किया जाता है. मेडिकल जगत में इन्हें “कटर” कहा जाता है. उन्हें न तो कोई औपचारिक ट्रेनिंग मिलती है, न सुरक्षा उपकरण, न मान्यता, और न ही अतिरिक्त पारिश्रमिक.

कांकेर के कोमल देव जिला अस्पताल के पोस्टमार्टम रूम में ठेका कर्मचारी राकेश रजक. वे लगभग 15 साल से शव परीक्षण कर रहे हैं | फोटो: शुभांगी मिश्रा/दिप्रिंट
कांकेर के कोमल देव जिला अस्पताल के पोस्टमार्टम रूम में ठेका कर्मचारी राकेश रजक. वे लगभग 15 साल से शव परीक्षण कर रहे हैं | फोटो: शुभांगी मिश्रा/दिप्रिंट

हालांकि, सरकारी नियमों के अनुसार पोस्टमार्टम करने के लिए एमबीबीएस डिग्री न्यूनतम योग्यता है, लेकिन अधिकतर डॉक्टर सड़े-गले शवों या उनके अंगों के पास तक नहीं जाना चाहते. वे दूर से निगरानी तो कर सकते हैं, लेकिन असल में चीरफाड़ का काम दलित सफाईकर्मियों को सौंप दिया जाता है.

यह भूमिका पीढ़ी दर पीढ़ी सौंपी जाती है, जिससे यह खतरनाक चिकित्सीय श्रम एक जाति-आधारित विरासत में बदल जाता है. यह व्यवस्था आज के भारत में भी पवित्र और अपवित्र की पुरानी, कठोर धारणाओं को मज़बूत करती है और कुछ कामों के साथ अब भी सामाजिक कलंक और गरिमा की कमी जुड़ी रहती है.

सफाई कर्मचारी आंदोलन के संयोजक बेजवाड़ा विल्सन ने इस शोषण की गंभीरता को रेखांकित करते हुए कहा, “यह प्रथा मैनुअल स्कैवेंजिंग से भी बदतर है.”

सफाईकर्मी न केवल बिना पूर्व सहमति के एक खतरनाक और मानसिक रूप से आघात पहुंचाने वाला काम कर रहे हैं, बल्कि वे अस्थिर ठेकेदारी पर आधारित नौकरी में फंसे हुए हैं, जिसमें उन्हें हफ्ते के सातों दिन काम करना पड़ता है. अपनी बुनियादी ज़रूरतें पूरी करने के लिए वे मृतकों के परिजनों से मिलने वाले टिप्स पर निर्भर रहते हैं.

दुर्गा के लिए मुरदा घर कोई नया स्थान नहीं है. उन्होंने शव चीरने का काम अपने पिता से सीखा, जो इस काम के दबाव से निपटने के लिए शराब पीते-पीते अपनी जान गंवा बैठे. उन्होंने कहा, “मेरे पिताजी पहले यहां पोस्टमार्टम करते थे, लेकिन वह शराब पीकर करते थे. मैं उन्हें साबित करना चाहती थी कि यह काम बिना शराब के भी किया जा सकता है. मैंने उनके साथ काम करते-करते यह हुनर सीखा.”

फिर भी, भले ही यह प्रथा सरकारी अस्पतालों में व्यापक हो, यह काम या तो अदृश्य रहता है या बदनामी लेकर आता है — या दोनों.

असम के सफाई कर्मचारी आयोग के सदस्य और खुद एक पोस्टमार्टम कर्मी के बेटे भीम बसफोर ने कहा, “इस देश में कोई भी पोस्टमार्टम सफाईकर्मी के बिना नहीं होता.”

उन्होंने कहा, “कोई यह काम करना नहीं चाहता, इसलिए इसे सफाईकर्मियों को सौंप दिया जाता है. सफाईकर्मी तीन तरह के काम करते हैं — सड़क पर काम, मैला ढोना, और शव चीरना. तीसरे काम के बारे में लोगों में जागरूकता की कमी है.”


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ठेकेदारी के नाम पर छिपा जातिगत भेदभाव

दुर्गा के पास पोस्टमार्टम के लिए केवल एक हथौड़ा और कुछ ब्लेड हैं, जिन्हें एप्रन, मास्क और दस्ताने के साथ एक काले बैग में साफ-सुथरे तरीके से रखा गया है. यही उनके पास उपलब्ध एकमात्र टूल हैं. उन्हें यह तक नहीं पता कि बोन सॉ (हड्डी काटने वाली आरी), रिब शीयर (पसलियां काटने के औज़ार) या विशेष पोस्टमार्टम चाकू क्या होते हैं.

उनका यह सामान नरहरपुर सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र के एक कोने में रखा रहता है, जिस पर “खतरा” (Hazardous) की चेतावनियां लगी होती हैं. अगर शव के अंगों की आगे जांच की ज़रूरत पड़े, तो वे इन्हें एक साधारण प्लास्टिक के डिब्बे में डालकर अस्पताल ले जाती हैं.

नरहरपुर सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र का वह कोना जहां संतोषी दुर्गा के पोस्टमार्टम के उपकरण रखे हैं. इस जगह पर खोपड़ी और क्रॉसबोन की चेतावनी लिखी है | फोटो: शुभांगी मिश्रा/दिप्रिंट
नरहरपुर सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र का वह कोना जहां संतोषी दुर्गा के पोस्टमार्टम के उपकरण रखे हैं. इस जगह पर खोपड़ी और क्रॉसबोन की चेतावनी लिखी है | फोटो: शुभांगी मिश्रा/दिप्रिंट

उन्होंने एक नीले ढक्कन वाला पर्लपेट डिब्बा दिखाते हुए कहा, “यही वह डिब्बा है जिसमें मैं अंग रखती हूं” वह इसे धोकर बार-बार इस्तेमाल करती हैं.

जब भी कोई सड़ा-गला शव मिलता है, हत्या या आत्महत्या के शिकार व्यक्ति का पास्टमार्टम करना होता है, डॉक्टर और यहां तक कि पुलिस भी दुर्गा को बुलाते हैं. उन्हें जिस भी हालत में शव मिले, उसी के साथ काम करना पड़ता है. शव अक्सर कीड़ों से भरे होते हैं, फूल चुके होते हैं, या इतने क्षत-विक्षत होते हैं कि पहचानना मुश्किल हो जाता है. यह दृश्य और दुर्गंध असहनीय हो सकती है.

वे बताती हैं कि राज्य सरकार उन्हें हर तीन महीने में हेपेटाइटिस के टीके लगाती है. आमतौर पर शवों को वैन में लाकर शवगृह पहुंचाया जाता है, और डॉक्टर व दुर्गा साथ में वहां जाकर काम करते हैं.

उन्होंने कहा, “डॉक्टर कभी शव को हाथ नहीं लगाते, वे सिर्फ नोट्स बनाते रहते हैं. अब मेरे पास पूरा अनुभव है. मुझे पता है कि शरीर को कैसे चीरना है और खोपड़ी कैसे खोलनी है. मैं शरीर को श्वासनली (ट्रेकिआ) से लेकर नाभि तक खोलती हूं. मैं डॉक्टर को दिखाती हूं कि हड्डियां कहां टूटी हैं, चोटें कहां लगी हैं.”

जिन लोगों को मैं चीरता हूं, वे मेरे सपनों में आते हैं. पहले मैं उनसे डरता था. अब मैं इससे उबर गया हूं, लेकिन रातों को सोना अभी भी मुश्किल है

— गुरुग्राम में सफाई कर्मचारी

नरहरपुर ब्लॉक मेडिकल ऑफिसर भूपेंद्र कुमार के अनुसार, रायपुर समेत अन्य जगहों पर भी सफाई कर्मियों को शवगृह में काम के लिए बुलाना सामान्य होता है. वे स्पष्ट करते हैं कि पोस्टमार्टम हमेशा डॉक्टरों की निगरानी में होते हैं और वे खुद भी मौजूद रहते हैं.

गुजरात के एक वरिष्ठ फॉरेंसिक पैथोलॉजिस्ट ने पोस्टमार्टम (जिसमें मृत्यु के कारण की पहचान होती है) और शरीर की शारीरिक चीरफाड़ (Dissection) के बीच अंतर बताया. उनके अनुसार, चीरफाड़ का काम एक व्यक्ति अकेले नहीं कर सकता, उसे मदद की ज़रूरत होती है.

इससे यह स्पष्ट होता है कि, जबकि डॉक्टर प्रक्रिया की निगरानी करते हैं और मेडिकल फैसले लेते हैं, सफाई कर्मी या “कटर्स” को शारीरिक चीरफाड़ में सहायता के लिए रखा जाता है. यह भी एक कारण है कि सफाईकर्मियों को जोखिम भरे और खराब हालत के शवों से निपटने के लिए मजबूर किया जाता है, जो डॉक्टर स्वयं नहीं करना चाहते.

यह व्यवस्था जाति आधारित भेदभाव और काम के अनुचित विभाजन की झलक दिखाती है, जिसमें दलित सफाईकर्मी सबसे कठिन, घृणित परन्तु आवश्यक कार्यों को करते हैं जबकि डॉक्टर मुख्य भूमिका निभाते हैं.

सीमेंट की वह स्लैब जहां संतोषी दुर्गा शव-परीक्षण करती हैं. कमरे में न बिजली है, न पानी और उन्हें सिर्फ 8,000 रुपये प्रति माह मिलते हैं | फोटो: शुभांगी मिश्रा/दिप्रिंट
सीमेंट की वह स्लैब जहां संतोषी दुर्गा शव-परीक्षण करती हैं. कमरे में न बिजली है, न पानी और उन्हें सिर्फ 8,000 रुपये प्रति माह मिलते हैं | फोटो: शुभांगी मिश्रा/दिप्रिंट

डॉक्टर ने माना कि ग्रेड-डी कर्मचारियों द्वारा पोस्टमार्टम किया जाना सिस्टम की एक “बड़ी कमी” है, लेकिन साथ ही यह भी जोड़ा कि भारत में कोई “योग्य” शवगृह सहायक (Mortuary Attendant) नहीं है. कुछ विश्वविद्यालय — जैसे कर्नाटक में मणिपाल विश्वविद्यालय और पुदुचेरी का जेआईपीएमईआर — शवगृह तकनीशियन (Mortuary Technician) के सर्टिफिकेट कोर्स शुरू कर चुके हैं, लेकिन ये बहुत कम हैं. नतीजतन, प्रशिक्षित कर्मचारी लगभग न के बराबर हैं.

भारतीय अकादमी ऑफ फॉरेंसिक मेडिसिन के महासचिव डॉ. राजेश डेरे ने कहा, “भारत में पोस्टमार्टम अटेंडेंट के लिए कोई प्रमाणन नहीं है. क्लास-4 कर्मचारी पोस्टमार्टम करते हैं. हम उन्हें अंग निकालने, शव को मेज पर रखने और रासायनिक विश्लेषण में मदद करने के लिए ट्रेनिंग देते हैं.” उन्होंने यह भी माना कि यह आदर्श स्थिति नहीं है, “आदर्श रूप से, चीरफाड़ भी केवल डॉक्टर को ही करनी चाहिए, क्योंकि यह एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है और इसमें मानकीकृत तकनीकों का उपयोग होता है.”

पर्लपेट बॉक्स, जिसका इस्तेमाल संतोषी दुर्गा पोस्टमार्टम के बाद अंगों को रखने के लिए करती हैं. हर केस के लिए इसे धोकर दोबारा इस्तेमाल करती हैं | फोटो: शुभांगी मिश्रा/दिप्रिंट
पर्लपेट बॉक्स, जिसका इस्तेमाल संतोषी दुर्गा पोस्टमार्टम के बाद अंगों को रखने के लिए करती हैं. हर केस के लिए इसे धोकर दोबारा इस्तेमाल करती हैं | फोटो: शुभांगी मिश्रा/दिप्रिंट

भले ही डॉक्टर ग्रेड-डी सफाईकर्मी कर्मचारियों को चीरफाड़ का काम सौंपते समय जाति को कम करके आंकते हैं, लेकिन कुछ डॉक्टर्स और कार्यकर्ता बताते हैं कि यह काम ज़्यादातर उन्हीं को सौंपा जाता है जिन्हें “अछूत” कहा जाता है. इन कर्मचारियों को अस्पताल व्यवस्था के भीतर और अपनी ही समुदाय में भी कलंक झेलना पड़ता है. यह जातिगत भेदभाव है, जो “ज़रूरत” या “संयोग” के नाम पर छिपा हुआ है.

टीस, गुवाहाटी के प्रोफेसर प्रदीप रामवथ, जिन्होंने शवगृह कर्मियों के साथ व्यापक रूप से काम किया है, उन्होंने बताया कि औपचारिक पदों या प्रशिक्षण की कमी इस काम से जुड़े गहरे जमे कलंक से उत्पन्न होती है. बड़े जातिगत ढांचे में दलितों को हमेशा से मरे हुए जानवरों को ठिकाने लगाने या शवदाह करने का काम सौंपा गया है. यही कारण है कि उन्हें पोस्टमार्टम के लिए भी लगा दिया जाता है.

उन्होंने कहा, “शवगृह में क्या जाता है? वहां लाशें सड़ी-गली, जली हुई, टुकड़ों में बिखरी होती हैं. 10 दिन से सड़ रही लाश, हादसों के शिकार, आत्महत्या के मामले. कोई पढ़ा-लिखा इंसान इस तरह का काम नहीं करना चाहता. दुर्गंध भयानक होती है. तो आप इन लोगों को क्यों लगा रहे हैं?” उन्होंने यह भी कहा कि ऐसे कर्मियों का तुरंत पुनर्वास किया जाना चाहिए.

दिप्रिंट से बात करने वाले कई फॉरेंसिक डॉक्टरों ने भी स्वीकार किया कि बहुत से डॉक्टर और मेडिकल अधिकारी लाशों के पास जाने से कतराते हैं. दलित कार्यकर्ताओं का कहना है कि नतीजा होता है जातिवादी आउटसोर्सिंग.

असम के उभरते दलित युवा नेता और सफाईकर्मी अनुसूचित जाति छात्र संघ के संस्थापक भीम बसफोर जिनका दावा है कि उनके संगठन के 10 लाख सदस्य देशभर में हैं, उन्होंने कहा, “यह डॉक्टरों के इशारे पर होता है.”

नरहरपुर सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र का वह कमरा जहां जंगल में स्थित मुर्दाघर में पोस्टमार्टम के लिए भेजे जाने से पहले शवों को रखा जाता है | फोटो: शुभांगी मिश्रा/दिप्रिंट
नरहरपुर सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र का वह कमरा जहां जंगल में स्थित मुर्दाघर में पोस्टमार्टम के लिए भेजे जाने से पहले शवों को रखा जाता है | फोटो: शुभांगी मिश्रा/दिप्रिंट

सफाई कर्मचारी आंदोलन के संयोजक बेजवाड़ा विल्सन इस तरह के जाति-आधारित शोषण को विशेष रूप से घोर मानते हैं.

उन्होंने कहा, “हर कोई शवों को छूने, काटने और चीरने से डरता है, इसलिए वे यह काम सफाईकर्मियों से करवाते हैं. उन्हें इस काम में लगाया जाता है या करने के लिए मजबूर किया जाता है, लेकिन उन्हें न तो विशेषज्ञ माना जाता है और न ही अतिरिक्त काम का कोई उचित मुआवज़ा दिया जाता है.”


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खून, बुरे सपने और भेदभाव

गुरुग्राम के 40 साल के शवगृह कर्मचारी के लिए हर दिन दिमागी तौर पर थकाने वाला होता है. कभी शव चीरते समय खून उनकी आंखों में छिटक जाता है, कभी सड़ चुके शवों के अंदरूनी हिस्सों को निकालते-निकालते वे शारीरिक रूप से थककर चूर हो जाते हैं. कुछ मौतें उन्हें भीतर तक दुखी कर देती हैं. इन सबको समझने या मानसिक रूप से संभालने का उनके पास समय नहीं होता, लेकिन मृतक उनके अवचेतन में ज़िंदा रहते हैं.

उन्होंने थकान भरी आवाज़ में कहा — “जिन लोगों को मैं चीरता हूं, वे मेरे ख़्वाबों में आते हैं. पहले मैं उनसे डरता था. अब मैंने उनसे समझौता कर लिया है, लेकिन फिर भी रात में नींद आना मुश्किल होता है.”

पिछले 22 साल से वे पुलिस मामलों में मदद करते आए हैं, कभी-कभी हत्या और बलात्कार के पीड़ितों का पोस्टमार्टम भी किया है. सुरक्षात्मक उपकरण, यदि उपलब्ध हों, तो भी नाकाफी होते हैं.

बसफोर ने कहा, “वे केवल हमें मास्क देते हैं, लेकिन क्या मास्क ही पर्याप्त है? वे हमें सही उपकरण नहीं देते. जो रासायनिक पदार्थ हम इस्तेमाल करते हैं, उससे मेरे हाथ जलने लगते हैं और सड़े-गले शवों की बदबू से मुझे उल्टी आने लगती है.”

यह काम मानसिक और शारीरिक दोनों तरह से बहुत कष्टदायक होता है. बाहर की दुनिया भी इस पर कोई राहत नहीं देती. उनके पड़ोसी उन्हें ‘जल्लाद’ कहते हैं और उनके बारे में डरावनी कहानियां बनाते हैं. उनके बच्चे अक्सर उनसे नौकरी बदलने के लिए कहते हैं. उनके लिए एक दिन भी बिना शराब के गुज़ार करना मुश्किल होता है क्योंकि शराब उन्हें रोजाना सहन करनी पड़ने वाली चोट, गंध, और दृश्य से थोड़े देर के लिए राहत देती है.

शराब की लत इस पेशे में आम है. दुर्गा ने पिता को इसी लत के कारण खोया है. भीम बसफोर के अनुसार, उनके पिता भी कम उम्र में इसी कारण से चल बसे.

संतोषी दुर्गा के पास पोस्टमार्टम के लिए एक छोटा सा टूलकिट है. दिप्रिंट ने जिन सफाई कर्मचारियों से बात की, उनमें से किसी के पास ब्रेन नाइफ या ऑटोप्सी आरी जैसे उचित उपकरण नहीं थे | फोटो: शुभांगी मिश्रा/दिप्रिंट
संतोषी दुर्गा के पास पोस्टमार्टम के लिए एक छोटा सा टूलकिट है. दिप्रिंट ने जिन सफाई कर्मचारियों से बात की, उनमें से किसी के पास ब्रेन नाइफ या ऑटोप्सी आरी जैसे उचित उपकरण नहीं थे | फोटो: शुभांगी मिश्रा/दिप्रिंट

यह स्थिति दर्शाती है कि न केवल इस काम के लिए उचित सुरक्षा साधन और समर्थन नहीं मिलता, बल्कि काम के तनाव और सामाजिक कलंक के कारण इस क्षेत्र में शराब और अन्य प्रकार की निर्भरता सामान्य बात हो गई है. मानसिक स्वास्थ्य के लिए कोई काउंसलिंग उपलब्ध नहीं है और इस पेशे से जुड़े लोग अक्सर सामाजिक रूप से अलगाव और अत्यधिक तनाव का सामना करते हैं.

छत्तीसगढ़ के टीस, गुवाहाटी के प्रोफेसर रामवथ ने कहा है कि “मॉरचरी में काम करने वाले सफाईकर्मी चुपचाप मर रहे हैं. कई मामलों में 35 साल की उम्र तक वे खून उगलने लगते हैं, तपेदिक हो जाता है, या जिगर फेल हो जाता है.”

असम के भीम बसफोर के अनुसार, कभी-कभी काम के दौरान शराब पीना भी प्रोत्साहित किया जाता है. उन्होंने बताया, “यहां तक कि डॉक्टर भी मॉरचरी कर्मियों को पोस्टमार्टम करने से पहले शराब पीने को कहते हैं. मैन्युअल स्कैवेंजर्स भी टैंकों में जाने से पहले ऐसा करते हैं क्योंकि वहां की बदबू असहनीय होती है.”

कार्यस्थल पर व्यावसायिक आघात, शराब की लत और मानसिक स्वास्थ्य सहायता की अनुपस्थिति के कारण, भावनात्मक और व्यवहार संबंधी समस्याएं आम हो गई हैं. भीम बताते हैं, “इन हालात में काम करने वालों के लिए कोई काउंसलिंग उपलब्ध नहीं है. बहुत से लोग अपना नियंत्रण खो देते हैं और हिंसक हो जाते हैं.” उन्होंने एक उदाहरण देते हुए कहा, “मेरा एक दोस्त था, जो जबर्दस्ती मॉरचरी के काम में जुटा दिया गया था, वह पहले सबसे शांत लड़का था, लेकिन कुछ बदल गया, उसमें हिंसक स्वभाव उभर आया.”

सभी लोग शवों को छूने, काटने और चीरने से डरते हैं, इसलिए वे सफाई कर्मचारियों से यह काम करवाते हैं. उन्हें या तो यह काम सौंपा जाता है या मजबूर किया जाता है, लेकिन उन्हें विशेषज्ञ नहीं माना जाता, या इस अतिरिक्त काम के लिए उन्हें कोई पारिश्रमिक नहीं दिया जाता.

—बेजवाड़ा विल्सन, सफाई कर्मचारी आंदोलन के संयोजक

यह स्थिति साफ दर्शाती है कि दलित सफाईकर्मियों को न केवल अत्यंत जोखिम भरे और मानसिक तनाव वाले कामों में लगाया जाता है, बल्कि उन्हें पर्याप्त स्वास्थ्य सुरक्षा, मानसिक समर्थन और सम्मान भी नहीं मिलता, जिससे उनकी जीवन गुणवत्ता और सुरक्षा दोनों खतरें में पड़ जाती है.

क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं को और भी अधिक अलगाव का सामना करना पड़ता है. उनकी कहानियां बड़े पैमाने पर दस्तावेजीकृत नहीं हैं और अकादमिक साहित्य में भी उनका अभाव है.

प्रोफेसर प्रदीप रामवथ ने बताया कि, “उन्हें अक्सर ‘डायन’ होने के संदेह में निशाना बनाया जाता है. वे अपने ही समुदाय के भीतर कलंकित होती हैं, लेकिन इन महिलाओं पर कोई अध्ययन नहीं है, न ही उन्हें मदद करने वाली कोई नीतियां हैं. बस किसी की रुचि ही नहीं है.” उन्होंने यह भी कहा कि उनके बारे में इतना कम पता है कि वे एक तरह से “ब्लैक बॉक्स” की तरह हैं.

संतोषी दुर्गा कहती हैं कि वह अपनी मेहनत की अदृश्यता से थक चुकी हैं. उनका प्रयास रिकॉर्ड नहीं होता और दूरस्थ शवगृह में उनका श्रम छुपा रहता है.

कांकेर के कोमल देव जिला अस्पताल के एक जर्जर कोने में बना मुर्दाघर. दलित कार्यकर्ताओं का कहना है कि डॉक्टरों द्वारा शवों के पास जाने में आनाकानी के कारण इस काम की जातिवादी आउटसोर्सिंग हो गई है | फोटो: शुभांगी मिश्रा/दिप्रिंट
कांकेर के कोमल देव जिला अस्पताल के एक जर्जर कोने में बना मुर्दाघर. दलित कार्यकर्ताओं का कहना है कि डॉक्टरों द्वारा शवों के पास जाने में आनाकानी के कारण इस काम की जातिवादी आउटसोर्सिंग हो गई है | फोटो: शुभांगी मिश्रा/दिप्रिंट

उन्होंने कहा, “इस क्षेत्र में बहुत जातिवाद है. मैं एक दलित परिवार से हूं…लोग इसे सेलिब्रेट करें कि उनके गांव की एक महिला इतना बहादुर और महत्वपूर्ण काम कर रही है, उन्हें इस पर गर्व करना चाहिए, लेकिन मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि लोग क्या कहते हैं, मैं केवल अपने काम पर ध्यान देती हूं.”

कई दशकों से जारी रहने के बावजूद, दलित सफाईकर्मियों द्वारा किया जाने वाला पोस्टमार्टम कार्य परछाइयों में ही रहा है. मैनुअल स्कैवेंजिंग के विपरीत, इसके खिलाफ न तो कोई जनहित याचिका दायर हुई है और न ही कोई विरोध प्रदर्शन किया गया है.

भीम बसफोर इसे बदलना चाहते हैं. इस काम को अपने पिता को करते हुए देखकर बड़े हुए बसफोर कहते हैं कि शवगृहों में होने वाले ‘कटर’ काम को खत्म करना उनका मिशन है. फिलहाल वह सफाईकर्मियों को मौखिक तौर पर इस काम से दूर रहने के लिए समझा रहे हैं, लेकिन उन्होंने अभी तक कोई विरोध प्रदर्शन आयोजित करने की योजना नहीं बनाई है.


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‘कर्नाटक 100 साल आगे है’

कर्नाटक के धारवाड़ के नागरिक अस्पताल में, ग्रुप-डी श्रेणी का एक युवा शवगृह सहायक शव-विश्लेषण टेबल के पास खड़ा होकर ड्यूटी पर मौजूद डॉक्टर को विवरण सुना रहा था — “गर्दन पर लिगेचर का निशान 27 सेंटीमीटर है, शव में मृतक कठोरता (रिगर मॉर्टिस) आ चुकी है और शरीर में लिविडिटी (रक्त जमने के कारण रंग बदलना) विकसित हो गई है. गर्दन के पीछे रस्सी के कोई निशान नहीं हैं.”

डॉक्टर नोट्स ले रहे थे, इसी दौरान एक और सहायक वहां आ गया. शव 47 साल के एक व्यक्ति का था. दोपहर का खाना खाने के बाद उसने अपनी गर्दन में दुपट्टा डालकर पंखे से लटककर आत्महत्या कर ली थी. टीम का काम यह पता लगाना था कि यह आत्महत्या थी या इसमें कोई संदिग्ध पहलू था. शव फूल चुका था और नीला पड़ने लगा था.

सहायक ने ट्रैकिआ (श्वासनी) से चीरा लगाते हुए कहा, “मेरे पास बीएससी की डिग्री है. मुझे एक महीने की ट्रेनिंग मिली थी और इस काम को करने में मुझे कोई परेशानी नहीं है. मैंने इस काम में महारत हासिल कर ली है.”

धारवाड़ ज़िला अस्पताल का शवगृह. अंदर, ग्रुप डी के दो अटेंडेंट एक आत्महत्या मामले का पोस्टमॉर्टम कर रहे थे, जबकि एक डॉक्टर नोट्स ले रहा था; यहां के अटेंडेंट स्थायी कर्मचारी हैं | फोटो: शुभांगी मिश्रा/दिप्रिंट
धारवाड़ ज़िला अस्पताल का शवगृह. अंदर, ग्रुप डी के दो अटेंडेंट एक आत्महत्या मामले का पोस्टमॉर्टम कर रहे थे, जबकि एक डॉक्टर नोट्स ले रहा था; यहां के अटेंडेंट स्थायी कर्मचारी हैं | फोटो: शुभांगी मिश्रा/दिप्रिंट

कर्नाटक की धार्मिक और समाजिक पृष्ठभूमि में, लिंगायत समुदाय के अंदर भी जाति आधारित वर्गीकरण मौजूद है. दो शवगृह कर्मचारियों ने बताया कि वे लिंगायत समुदाय के सदस्य हैं, जो कर्नाटक में विभिन्न जातियों को शामिल करता है.

टीआईएसएस गुवाहाटी के प्रोफेसर प्रदीप रामवथ के अनुसार, भले ही लिंगायत लोग कहते हों कि वे जाति में विश्वास नहीं करते, उनके पास पंचपीठ (पांच मतों) होते हैं, जिनमें पांच उपसम्प्रदाय (दानाएं) शामिल हैं. इनमें दलित लिंगायत भी शामिल हैं, जो जातिगत विविधता को दर्शाता है.

शव का वर्णन लगभग रबड़ की गुड़िया जैसा था. जब सहायक ने गहराई से चीराई की, तो खून के साथ पीला वसा भी बाहर निकला. उन्होंने मृतक के फेफड़ों की जांच की, जिनपर काले धब्बे थे. उन्होंने कहा, “यह व्यक्ति धूम्रपान करता था.” पेट के अंदर झांकते हुए उन्होंने कहा, “इसने खाना खाने के बाद थोड़ी देर में ही मौत पाई.” फिर उन्होंने सूजे हुए जिगर को दिखाते हुए कहा, “उसका जिगर सिर्रोसोसिस का था; शायद उसे कैंसर हो गया था.”

यह विवरण लिंगायत समुदाय की जातिगत जटिलताओं के साथ-साथ शवगृह में काम करने वाले व्यक्तियों के अनुभव को दर्शाता है, जहां धार्मिक पहचान के साथ जातिगत विविधताओं का भी प्रभाव है.

भारत के कर्नाटक में धारवाड़ के एक युवा ग्रेड डी समूह 2 शवगृह सहायक के बारे में बताया गया है कि पोस्टमार्टम के दौरान जब रक्त का स्राव होता है और कोई कपड़ा उपलब्ध नहीं होता, तो वह मृतक के कपड़ों का इस्तेमाल रक्त को सोखने के लिए करता है. उस कमरे में, जहां रासायनिक पदार्थों और मृत शरीर की बदबू फैली होती है, डॉक्टर टेबल के पास खड़े होकर उस युवा कर्मचारी द्वारा बताए गए तथ्यों के आधार पर नोट्स बनाते हैं. अंत में, कर्मचारी हथौड़े से खोपड़ी तोड़ता है, जिसमें से एक टुकड़ा ज़मीन पर गिर जाता है. मस्तिष्क की जांच करते हुए वह कहता है कि “कोई रक्तस्राव के निशान नहीं हैं.”

यह युवक स्थायी रूप से ग्रेड डी समूह 2 के कर्मचारी के रूप में काम करता है और उसका सहकर्मी भी स्थायी है जो वार्ड बॉय की भूमिका निभाता है. फिर भी वे कहते हैं कि उनके पास अभी भी उचित उपकरण नहीं हैं, जैसे मस्तिष्क काटने वाला चाकू और पोस्टमार्टम सॉ (आरी). उनका काम पूरी तरह से सातों दिन चलता है, जिसमें छुट्टियां नहीं हैं और अक्सर दुर्घटनाओं या आपातकालीन हालातों में उनकी ड्यूटी डबल हो जाती है. उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा, “हमारा काम 24×7 चलता है. कोई ब्रेक नहीं है.”

टीआईएसएस गुवाहाटी के प्रोफेसर प्रदीप रामवथ के अनुसार, हालांकि, अभी भी कई कमियां और जातिगत दूरियां मौजूद हैं, कर्नाटक सफाईकर्मियों के अधिकारों के मामले में “सौ साल आगे” है. उदाहरण स्वरूप, पिछले साल कर्नाटक सरकार ने बेंगलुरु के 24,005 पउरकर्मिकाओं (सफाईकर्मियों) को स्थायी कर्मचारी घोषित करने की घोषणा की और न्यायालय के आदेशों के तहत उनके वेतन में पीछे से बकाया और ब्याज का भुगतान भी अनिवार्य किया गया.

वहीं अधिकांश राज्यों में सफाईकर्मी ठेका कर्मचारियों की श्रेणी में फंसे हुए हैं. जैसा कि दिप्रिंट ने पहले रिपोर्ट की थी कि बताया गया है, सरकारी पदों की संख्या 2004 में 1.26 लाख से घटकर 2021 में केवल 44,000 रह गई है. इसका मतलब है कि अधिकांश सफाईकर्मी अभी भी अस्थायी व अनुबंध आधारित नौकरी पर काम कर रहे हैं, जो उनकी सुरक्षा, सामाजिक सम्मान और अधिकारों के लिए एक बड़ी चुनौती है.

‘सुविधाएं’ और अनिश्चितता

इस पूरे परिप्रेक्ष्य में यह स्पष्ट है कि उच्च जोखिम वाले इस काम को करने वाले सफाईकर्मियों के लिए स्थायी पद, पर्याप्त उपकरण और कार्य-संबंधी सुविधाएं प्रदान करना ज़रूरी है ताकि उन्हें गरिमामय और सुरक्षित वातावरण मिल सके. कर्नाटक जैसे राज्यों की पहलें इस दिशा में सकारात्मक संकेत हैं, जबकि अन्य राज्यों में अभी भी व्यापक सुधार की दरकार है.

दलित सफाईकर्मियों को शवगृहों में काम करने का जो सिस्टम निर्धारित किया गया है, उसमें कई असुविधाएं और विषमताएं हैं, लेकिन कुछ अनौपचारिक लाभ या ‘पर्क्स’ भी उन्हें मिलते हैं, जो नैतिक रूप से विवादास्पद क्षेत्र में आते हैं.

भीम बसफोर के अनुसार, मृतकों के परिजन अक्सर पोस्टमार्टम कराने के लिए सफाईकर्मियों या डॉक्टरों को 2,000 से 5,000 रुपये तक का पैसा देते हैं. कई बार सफाईकर्मी मृतकों से गहने या नगदी भी निकाल लेते हैं. मगर ये ‘पर्क्स’ भी उनके लिए किसी असली नौकरी की सुरक्षा या स्थिरता की भरपाई नहीं कर पाते.

जैसे दिल्ली के बर्फखाना में 29 साल के एक सफाईकर्मी ने बताया कि उनका काम अनुबंध पर है और वे सप्ताह में सात दिन काम करते हैं. उन्होंने बताया कि उनके पिता भी यह काम करते थे और उनके मरने के बाद यह नौकरी उन्हें मिली. महामारी के दौरान उन्होंने रोज़ाना शवों के संपर्क में आकर अपने और परिवार के लिए जोखिम उठाया, लेकिन उन्हें कोविड योद्धाओं जैसा सम्मान कभी नहीं मिला. अब उनकी प्राथमिक मांग एक स्थायी नौकरी और उसके साथ कुछ गरिमा पाने की है.

ठेका मज़दूर राकेश रजक पोस्टमार्टम की तैयारी कर रहे हैं. नियमित होना उनका सपना है | फोटो: शुभांगी मिश्रा/दिप्रिंट
ठेका मज़दूर राकेश रजक पोस्टमार्टम की तैयारी कर रहे हैं. नियमित होना उनका सपना है | फोटो: शुभांगी मिश्रा/दिप्रिंट

यहां तक कि जहां स्थायी पद होते भी हैं, वे बहुत कम हैं. अधिकांश सफाईकर्मी अनुबंध या अस्थायी पदों पर फंसे हुए हैं, बिना नौकरी की सुरक्षा, प्रमोशन, या आवश्यक सुविधाओं के. सरकारी पदों की संख्या साल 2004 में 1.26 लाख से घटकर 2021 में मात्र 44,000 रह गई है.

इस प्रकार, यह स्पष्ट है कि दलित सफाईकर्मियों की स्थिति अत्यंत असुरक्षित है. वे जोखिम भरे और अपमानजनक काम के लिए मजबूर हैं, जहां उन्हें औपचारिक सुरक्षा, उचित वेतन, और स्थायी रोजगार नहीं मिलता, जबकि कुछ असामान्य रूप से मिलने वाले ‘पर्क्स’ नैतिक और कानूनी तौर पर भी संदिग्ध हैं. स्थानीय स्तर पर जैसे कर्नाटक में कुछ सकारात्मक पहलें हो रही हैं, लेकिन देशभर में व्यापक सुधार और समाज में इन श्रमिकों के लिए सम्मान और सुरक्षा की भारी कमी है.

राकेश राजक, जो छत्तीसगढ़ के कांकेर में कोमल देव जिला अस्पताल के पोस्टमार्टम कक्ष में 2010 से लगातार बिना किसी साप्ताहिक अवकाश के काम कर रहे हैं, महीने में मात्र 10,000 रुपये कमाते हैं. अब उनकी उम्र 47 साल हो चुकी है, जो छत्तीसगढ़ में नौकरी नियमित कराने की अधिकतम आयु सीमा (45 वर्ष) से ऊपर है. उन्होंने कहा, “भले ही मैं उम्र की सीमा से ऊपर हूं, इसका क्या फायदा? मैं इस काम को 15 साल से कर रहा हूं”

इस स्थिति से स्पष्ट होता है कि छत्तीसगढ़ में भी ऐसी श्रमिकों की नियोजित करने में उम्र संबंधी कठोर नियमों के चलते व्यवस्था में कई खामियां हैं, जो इन सफाईकर्मियों के काम को लेकर अनदेखी और असमानता को बढ़ावा देती हैं. राकेश राजक जैसे कर्मचारी वर्षों तक बेहद कठिन, जोखिम भरे और अनिश्चित रोज़गार में बने रहते हैं, लेकिन उनके काम और अनुभव को स्थायी नौकरी के रूप में मान्यता नहीं मिल पाती.

ऐसे मामलों में अक्सर नौकरी नियमितीकरण की उम्र सीमा जैसे नियम सामाजिक व आर्थिक न्याय के दृष्टिकोण से गंभीर बाधा बन जाते हैं, खासकर उन लोगों के लिए जो जातिगत और पेशागत भेदभाव के कारण अनेक तरह की चुनौतियों का सामना कर रहे हों. इस संदर्भ में रोज़गार सुरक्षा, वेतन तथा काम के उचित अधिकारों की मांग बनती है, जिससे इन श्रमिकों को वह सम्मान और सुरक्षा मिल सके जिसकी वे हकदार हैं.

दुर्गा अपने कम साज-सज्जा वाले घर में, जो जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है. उन्हें अपने काम पर गर्व है, जबकि दूसरे गांल वाले उनसे दूरी बनाकर रखते हैं | फोटो: शुभांगी मिश्रा/दिप्रिंट
दुर्गा अपने कम साज-सज्जा वाले घर में, जो जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है. उन्हें अपने काम पर गर्व है, जबकि दूसरे गांल वाले उनसे दूरी बनाकर रखते हैं | फोटो: शुभांगी मिश्रा/दिप्रिंट

अस्पताल से लगभग 50 किलोमीटर दूर, दुर्गा का घर पूरी तरह खाली है. वहां पंखे नहीं हैं, फर्नीचर में सिर्फ एक स्टूल है. रसोई में कुछ पैन और प्लेटों के अलावा कुछ भी नहीं है. उनका घर अस्पताल से सिर्फ पांच मिनट की पैदल दूरी पर है, जहां उनके अनुबंध के तहत उन्हें केवल 8,000 रुपये महीने का वेतन मिलता है.

वह अपनी दो बेटियों के लिए बेहतर ज़िंदगी चाहती हैं. उनके पति रोज़ाना मज़दूरी करते हैं. उन्होंने कहा, “मेरे बच्चे कभी मेरा काम नहीं करेंगे, मैं उन्हें पढ़ाना चाहती हूं. इसके लिए मुझे बस एक स्थायी नौकरी चाहिए.”

उन्हें इस व्यवस्था में मौजूद जातिगत भेदभाव पर सवाल उठाने की सुविधा नहीं है, जिसने उन्हें इस काम में धकेल दिया, लेकिन अगर उनके काम के लिए बेहतर सुविधाएं मिल जाएं, तो बहुत मदद होगी. हाल ही में शवगृह में एक फ्रीज़र लगाया गया है, लेकिन वह अब भी सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में बंद पड़ा है.

योग्यता का सवाल

सालों के अनुभव से, सफाईकर्मी पोस्टमार्टम का काम करना सीख जाते हैं, लेकिन सिर्फ अनुभव चिकित्सा की डिग्री का मुकाबला नहीं कर सकता. भारतीय अदालतें बार-बार चेतावनी देती रही हैं कि गलत और लापरवाही से किए गए पोस्टमार्टम देश की आपराधिक न्याय व्यवस्था की नींव को ही खतरे में डाल देते हैं. इसके लिए वे डॉक्टरों की लापरवाही को जिम्मेदार ठहराती हैं.

साल 2020 में मद्रास हाई कोर्ट ने चेतावनी दी थी कि मेडिको-लीगल मामलों के लिए अहम पोस्टमार्टम “लापरवाह और अवैज्ञानिक तरीके” से किए जा रहे हैं, जिससे “आपराधिक न्याय प्रणाली के पूरी तरह धराशायी होने” का खतरा है.

अदालत ने यह भी कहा था, “डॉक्टर शवों के पास नहीं जा रहे हैं, बल्कि चोटों का विवरण अपने सहायकों को बोलकर लिखवा रहे हैं और चोटों व निष्कर्षों की रिकॉर्डिंग भी निर्धारित प्रारूप के अनुसार नहीं हो रही है.”

कांकेर के मुर्दाघर में पोस्टमार्टम टेबल, एक साधारण कूलर और चमकीले भित्तिचित्रों से घिरा हुआ | फोटो: शुभांगी मिश्रा/दिप्रिंट
कांकेर के मुर्दाघर में पोस्टमार्टम टेबल, एक साधारण कूलर और चमकीले भित्तिचित्रों से घिरा हुआ | फोटो: शुभांगी मिश्रा/दिप्रिंट

अहमदाबाद के एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने कहा कि उनके अनुभव में अधिकांश पोस्टमार्टम “अविश्वसनीय” होते हैं. उन्होंने बताया, “जटिल मामलों में, कभी-कभी लैब या डॉक्टर रिपोर्ट में ‘संदिग्ध’ घातकता लिख देते हैं, जिसका असल में कोई अर्थ नहीं होता. जब शरीर 4-5 दिन पुराना सड़ा-गला होता है, तो मृत्यु के कारण का पता लगाना बहुत मुश्किल हो जाता है.”

भारतीय अकादमी ऑफ फॉरेंसिक मेडिसिन के डॉ. राजेश डेरे के अनुसार, एमबीबीएस डॉक्टर भी विशेषज्ञ प्रशिक्षण की कमी के कारण इस काम के लिए पूरी तरह सक्षम नहीं होते. उन्होंने बताया, “भारत में विशेषज्ञ फॉरेंसिक डॉक्टरों की भारी कमी है. भारत में लगभग 90-95 प्रतिशत पोस्टमार्टम एमबीबीएस डॉक्टर करते हैं, जो इस क्षेत्र में विशेषज्ञ नहीं हैं, हालांकि वे पोस्टमार्टम करने के योग्य होते हैं.”

उन्होंने यह तुलना करते हुए बताया कि यह ऐसा ही है जैसे एक एमएस सर्जन तीव्र पेट के मामले को देख रहा हो और एक एमबीबीएस डॉक्टर वही काम कर रहा हो—“दोनों के बीच बहुत बड़ा अंतर होता है.”

इससे स्पष्ट होता है कि पोस्टमार्टम की विश्वसनीयता और गुणवत्ता में कमी का एक बड़ा कारण इस क्षेत्र में विशेषज्ञता की कमी और अपर्याप्त प्रशिक्षण है, जो न केवल न्याय व्यवस्था के लिए खतरा है, बल्कि मृतकों के परिवारों के लिए भी नतीजों की विश्वसनीयता पर सवाल खड़ा करता है.

2024 में पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट ने मेडिकल ऑफिसरों को पोस्टमार्टम की गुणवत्ता को लेकर बरी केर निराशा और नाखुशी जताई . न्यायमूर्ति एनएस शेखावत ने एक पुनरीक्षण याचिका की सुनवाई के दौरान इस बात पर आश्चर्य व्यक्त किया कि पोस्टमार्टम इतनी लापरवाही और “कैज़ुअल” तरीके से किया गया कि मृत्यु का सही कारण पहचानना संभव नहीं हो पाया. अदालत ने यह भी कहा कि शव की चीरफाड़ बहुत अवैज्ञानिक ढंग से हुई, जिससे जांच में भ्रम पैदा हुआ.

फैसले में कहा गया कि “यह अदालत आपराधिक ट्रायल में चिकित्सा साक्ष्य के महत्व से वाकिफ है, लेकिन अफसोस की बात है कि आजकल देखा गया है कि शरीर की चीरफाड़ डॉक्टरों या फॉरेंसिक विशेषज्ञों के बजाय अन्य व्यक्तियों द्वारा की जा रही है, जिसके कारण पोस्टमार्टम रिपोर्ट शरीर पर पाए गए निष्कर्षों को सही ढंग से प्रतिबिंबित नहीं करतीं.”

नरहरपुर का वीरान मुर्दाघर इस बात का प्रतीक है कि समाज में पोस्टमार्टम को कितनी "अपवित्र" माना जाता है.  संतोषी दुर्गा ने बताया कि शहरवासियों ने अस्पताल पर दबाव डाला कि वह मुर्दाघर शहर से बाहर बनाए | फोटो: शुभांगी मिश्रा/दिप्रिंट
नरहरपुर का वीरान मुर्दाघर इस बात का प्रतीक है कि समाज में पोस्टमार्टम को कितनी “अपवित्र” माना जाता है. संतोषी दुर्गा ने बताया कि शहरवासियों ने अस्पताल पर दबाव डाला कि वह मुर्दाघर शहर से बाहर बनाए | फोटो: शुभांगी मिश्रा/दिप्रिंट

अदालत ने यह भी ध्यान दिलाया कि कई मेडिकल कॉलेजों में पोस्टमार्टम छात्र कम अनुभव के साथ करते हैं और वैज्ञानिक पद्धतियों का पालन किए बिना अधूरी या गलत कटाई करते हैं. कई बार वरिष्ठ डॉक्टर या फॉरेंसिक विशेषज्ञ पोस्टमार्टम की प्रक्रिया में भाग नहीं लेते और रिपोर्ट केवल औपचारिकता के लिए तैयार की जाती है. इस वजह से मेडिकल साक्ष्य की विश्वसनीयता कमजोर होती है, जिससे न्यायिक प्रक्रिया प्रभावित होती है.

इस फैसले के तहत पंजाब, हरियाणा और चंडीगढ़ प्रशासन को निर्देश दिया गया है कि वे पोस्टमार्टम के संचालन के लिए स्पष्ट प्रक्रियाएं तय करें, जिनका पालन डॉक्टरों और फॉरेंसिक विशेषज्ञों द्वारा किया जाएगा. अदालत ने संबंधित विभागों से जवाब मांगा है और सुनवाई आगे की तारीख पर स्थगित कर दी है.

इस मामले से स्पष्ट होता है कि मेडिकल अधिकारियों की लापरवाही और पोस्टमार्टम की गुणवत्ता में कमी न केवल चिकित्सा के मानकों के उल्लंघन का मामला है, बल्कि यह आपराधिक न्याय प्रणाली की निष्पक्षता और सटीकता को भी खतरे में डालती है.

अदालत ने राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों के स्वास्थ्य विभागों को यह निर्देश भी दिया कि वे पोस्टमार्टम प्रक्रिया किस तरह से की जाती है, इस पर विस्तृत मेमोरेंडम जमा करें.

संतोषी दुर्गा के औज़ारों के कैबिनेट में सिर्फ बुनियादी चीज़ें ही हैं | फोटो: शुभांगी मिश्रा/दिप्रिंट
संतोषी दुर्गा के औज़ारों के कैबिनेट में सिर्फ बुनियादी चीज़ें ही हैं | फोटो: शुभांगी मिश्रा/दिप्रिंट

गलत तरीके से किए गए पोस्टमार्टम के परिणामस्वरूप अंग गायब हो सकते हैं और कई बार आपराधिक इरादे को पूरी तरह नकारा नहीं जा सकता. पिछले साल उत्तर प्रदेश में दो डॉक्टरों को निलंबित कर दिया गया था, जब यह आरोप लगा कि एक मृत महिला की आंखें पोस्टमार्टम के दौरान निकाल ली गईं. बाद में फॉरेंसिक विशेषज्ञों ने पाया कि यह क्षति शायद प्रक्रिया के दौरान ही हुई थी और आंखें “गैर-कानूनी बिक्री” के लिए नहीं निकाली गई थीं.

पोस्टमार्टम को अधिक भरोसेमंद बनाने के लिए, बेजवाड़ा विल्सन के अनुसार, जिन लोगों ने सालों के अनुभव से यह कौशल सीखा है, उन्हें औपचारिक ट्रेनिंग देकर तुरंत नियमित किया जाना चाहिए और पोस्टमार्टम कर्मी के पद सृजित किए जाने चाहिए. विल्सन ने कहा, “इन लोगों को पदोन्नत करें, जो पहले से विशेषज्ञ हैं. उन्हें उचित उपकरण दें ताकि वे बीमारियों से न ग्रस्त हों.”

दिल्ली के एम्स में पोस्टमार्टम अटेंडेंट के लिए ग्रुप-सी श्रेणी में अलग से पद होते हैं, लेकिन सामान्यतः यह व्यवस्था देश भर में नहीं है. दिप्रिंट ने एम्स के फॉरेंसिक विभाग से संपर्क करने की कोशिश की, लेकिन कोई जवाब नहीं मिला.

वहीं छत्तीसगढ़ में दुर्गा अब भी ठेका नौकरी की एक क्रूर विडंबना झेल रही हैं — उन्हें मुर्दा घर में डॉक्टर का काम करने लायक कुशल माना जाता है, मगर स्थायी कर्मचारी बनने के लिए ‘योग्य’ नहीं.

उन्होंने कहा, “मैंने अस्पताल में स्थायी नौकरी के लिए कई बार कहा है, लेकिन वो कहते हैं कि इसके लिए 10वीं और 12वीं में डिस्टिंक्शन चाहिए. अब मेरी उम्र 42 है और समय निकलता जा रहा है.”

(इस ग्राउंड रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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