नई दिल्ली: एक समय था जब आइवी लीग यूनिवर्सिटीज और दिल्ली यूनिवर्सिटी के कॉलेजों में पढ़ाने वाले कई शिक्षक अपनी नौकरी छोड़कर सेंटर फॉर दि स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसायटीज़ (CSDS) आ जाते थे. वे राजपुर रोड, नई दिल्ली पहुंचते थे और सोचने-समझने को ही अपना पूरा समय देते थे. यहां उन्हें बौद्धिक आज़ादी और गहरी रिसर्च का माहौल मिलता था.
लेकिन पिछले कुछ महीनों से यह रिसर्च इंस्टिट्यूट, जिसके छत के नीचे कभी भारत के सबसे बड़े बुद्धिमान बैठे थे, चुप्पी भरे उथल-पुथल से गुजर रहा है. एक तरफ सब सामान्य दिखता है—लाइब्रेरी में स्कॉलर, दफ्तरों में प्रोफेसर, और सेमिनार चलते रहते हैं. काम जारी है. लेकिन कभी भारत के सबसे प्रभावशाली रिसर्च इंस्टिट्यूट के रूप में जाना जाने वाला CSDS, जो रजनी कोठारी, आशीस नंदी और धीरुभाई शेख जैसे बड़े विचारकों के कारण चमका, आज अपने इतिहास और उपलब्धियों के बोझ तले दबा हुआ एक और अहम स्थान बन गया है—ठीक वैसे ही जैसे देश भी अब बदल चुका है.
यह सब एक ट्वीट से शुरू हुआ. लोकनीति के डायरेक्टर संजय कुमार ने CSDS के चुनावी डेटा में हुई गलतियों के लिए “ईमानदारी से माफी मांगी”. इसके बाद राजनीतिक तूफान खड़ा हो गया. भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद (ICSSR), जो कई रिसर्च संस्थानों को फंड देती है, जिनमें CSDS भी शामिल है, ने संस्थान को शो-कॉज़ नोटिस भेजा. CSDS ने जवाब दिया और ICSSR ने उस जवाब की समीक्षा के लिए एक कमेटी बनाई. इसी बीच फंड रोक दिया गया—वही फंड जिससे CSDS चलता है.
“हमें उम्मीद है कि हमारे मसले हल हो जाएंगे. सबसे ज़रूरी है कि हमारे स्कॉलर अपना काम कर सकें,” CSDS के डायरेक्टर और पर्यावरण इतिहासकार अवधेंद्र शरण ने कहा. “संस्थाओं के जीवन में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं.”
लेकिन CSDS आज जिस स्तर की जांच का सामना कर रहा है, वैसा उसे कभी नहीं करना पड़ा, यहां तक कि इमरजेंसी के समय भी नहीं, जब यह संस्थान पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का कड़ा आलोचक था. CSDS की उम्र भी ICSSR से पुरानी है और इसके संस्थापक राजनी कोठारी ही ICSSR के चेयरमैन थे.
“हाल ही में हम कई चुनौतियों से गुजर रहे हैं—सीनियर सहयोगियों के रिटायर होने से, वैश्विक स्तर पर मानविकी और सामाजिक विज्ञान में फंडिंग की कमी से, और मौजूदा राजनीतिक माहौल में अपनी स्वायत्तता बचाए रखने की मुश्किल से,” CSDS की प्रोफेसर अनन्या वाजपेयी ने कहा, जो पहले कोलंबिया यूनिवर्सिटी और यूनिवर्सिटी ऑफ मैसाचुसेट्स में पढ़ाती थीं.
वाजपेयी शुरू में CSDS में सिर्फ एक साल रहने आई थीं. लेकिन एक साल चौदह साल में बदल गया. उन्होंने यूनिवर्सिटी ऑफ मैसाचुसेट्स की स्थायी नौकरी छोड़ दी और यहां की बिल्कुल अलग लय को अपनाया.
यह संस्थान बाकी अकैडमिक ढांचे और दिनचर्या से एकदम अलग समझा जाता है. CSDS में चाय दिन को बांटती है—12 बजे, 2 बजे और 4 बजे. डेडलाइन कम होती हैं. शोध करने वालों के लिए यह “स्वर्ग” जैसा है, एक पूर्व स्टाफर के अनुसार. द हिंदू में समाज वैज्ञानिक शिव विश्वनाथन ने यहां होने वाली लगातार बहसों का ज़िक्र किया. CSDS में “लोकतंत्र एक ऐसा विचार था जिसे हर दिन आत्मसात करना पड़ता था.”
भले ही CSDS ने कई रूप लिए, कुछ बुनियादी बातें हमेशा समान रहीं. यह हमेशा “नेटवर्क” के जरिए चलता रहा, एक खुला और मुक्त विचार वाला स्थान बना रहा. इसके प्रश्न हमेशा तात्कालिक रहे. अभी के शोध के विषय—बदलती जलवायु, विज्ञान, तकनीक और लोकतंत्र का रिश्ता, और भारतीय भाषाओं पर काम, जिसमें एक आर्काइव बनाना भी शामिल है. राजनीति इसका “पब्लिक फेस” है—सबसे आसानी से समझ आने वाला. लेकिन भीतर बहुत कुछ और भी चलता है.
2014 में स्थापित पारेख इंस्टिट्यूट ऑफ इंडियन थॉट वेद और महाभारत जैसे ग्रंथों के ज़रिए समकालीन सामाजिक न्याय और समानता के मुद्दों को समझता है. इसके लिए गहरी पढ़ाई की ज़रूरत होती है और केंद्र हर साल इन ग्रंथों का अध्ययन करने के लिए एक समूह बनाता है.
वाजपेयी ने सेमिनार पत्रिका में लिखा कि इस केंद्र को “वास्तव में अनोखा” बनाती है इसकी “मानवीय और भौतिक संरचना”.
CSDS ने कई पहचानें संभालीं. यह भारतीय स्कॉलरशिप की एक नई शैली विकसित करने के लिए जाना गया, जिसमें ऐसे आर्काइव हैं जो देश में कहीं और नहीं हैं, और साथ ही यह एक सहज, अनौपचारिक स्थान भी बना रहा, जो एकेडमिक दिखावे और औपचारिकता से मुक्त था. CSDS से निकलने वाला शोध जाति और लोकतंत्र, मनोविज्ञान और राजनीति जैसे विषयों को जोड़ता था. इसके व्याख्यान और लेख किसी ख़ांचे में फिट नहीं होते थे—पश्चिम द्वारा बनाए गए एकेडमिक नियमों को चुनौती देते थे. बातचीत लगातार चलती रहती थी, और गहरी एकेडमिक कठोरता के साथ. भारत के सामाजिक विज्ञान पाठ्यपुस्तकों से निकलकर एक नई रूपरेखा में ढल रहे थे.
CSDS इन्हीं सिद्धांतों पर बना था—‘हाथीदांत के टॉवर’ से बाहर निकलने और “विचारों के सार्वजनिक जीवन” को अपनाने के विचार पर.
“यह समाज के बौद्धिक जीवन की बात थी. हर किसी का इसमें हिस्सा था,” सराय मीडिया कलेक्टिव के सह-संस्थापक जीवेश बागची ने कहा. “यह बहु-विषयक नहीं था, बल्कि अलग-अलग शोधकर्ताओं द्वारा एक-दूसरे के काम का सम्मान करने का स्थान था.”
लोकतंत्र और राजनीतिक इस्लाम की स्टडी
साइकोलॉजिस्ट और पॉलिटिकल थ्योरिस्ट आशीस नंदी, जो CSDS की पहचान जैसे माने जाते हैं, अक्सर जीवेश बागची और उनके जूनियर साथियों से कहते थे कि अगर वे विभागों, विषयों और एरिया स्टडीज़ पर ज़्यादा ध्यान देंगे, तो “खुद को पत्थर बना लेंगे.” यानी वे खुद को दूसरे संस्थानों से तुलना करके समझने लगेंगे.
इन्हीं मूल्यों पर CSDS टिका रहा. यह एक वैकल्पिक स्थान था और अपनी अलग राह चलने में फला-फूला.
CSDS में सिर्फ एकेडमिक नहीं, बल्कि रचनात्मक और आविष्कारशील विचारक भी रहे—जो इसे विश्वविद्यालयों से अलग बनाता है. केंद्र की पेरोल पर कभी एक भी अर्थशास्त्री नहीं रहा. CSDS का शोध नीति को प्रभावित कर सकता था, लेकिन यह कभी नीति बनाने वाली सक्रिय संस्था नहीं बना.
पूर्व निदेशक राजीव भार्गव ने कहा, “यह संस्थान अर्थशास्त्र के अलावा अन्य क्षेत्रों में उच्च गुणवत्ता वाला शोध करने के लिए बना था. यही मुझे आकर्षित करता था. यहां राजनी कोठारी और धीरुभाई शेख जैसे लोग थे. आशीस नंदी मनोविज्ञान और राजनीति के मेल पर नवीन काम कर रहे थे. कुछ समय के लिए सुधीर कक्कड़ भी थे.”

CSDS में आने से पहले भार्गव ने लगभग 25 वर्ष डीयू और जेएनयू जैसे शीर्ष संस्थानों में पढ़ाया. जेएनयू में वे पॉलिटिकल थ्योरी के प्रोफेसर और डीयू में पॉलिटिकल साइंस विभागाध्यक्ष थे. CSDS उनके लिए आकर्षक था क्योंकि यहाँ वे विश्वविद्यालय की सीमाओं से मुक्त थे.
“मैं लगभग 25 साल पढ़ा चुका था. मैं अपना समय उन मुद्दों पर लगाना चाहता था जिनसे मैं गहराई से जुड़ा था,” उन्होंने कहा. “विश्वविद्यालय में पढ़ाते समय समय सीमित होता है.”
भार्गव ने अपने कार्यकाल में ‘द प्रॉमिस ऑफ इंडिया’स सेक्युलर डेमोक्रेसी’ और ‘व्हाट इज़ पॉलिटिकल थ्योरी एंड व्हाई डू वी नीड इट’ जैसी किताबें लिखीं और कई संपादित संस्करण निकाले.
वह यहां स्वतंत्र थे. वे जहां चाहें व्याख्यान दे सकते थे, भारत और विदेश में. उनके सेमिनार बिना किसी बाधा के चल सकते थे.
उन्होंने यह भी कहा कि CSDS और थिंक टैंक में बड़ा फर्क है. CSDS को अक्सर सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च जैसा माना जाता है, लेकिन फर्क साफ है.
“थिंक टैंक की नीति को लेकर भारी झुकाव होता है और अक्सर उसमें एक तरह की वैचारिक पक्षधरता होती है. CSDS में हम खुद को किसी वैचारिक दृष्टिकोण तक सीमित नहीं रखते थे,” उन्होंने कहा.
CSDS की बुनियाद—खुला, अनियंत्रित विचार का स्थान, जहाँ अलग-अलग दिमाग मिलते हैं—इसके काम और इसके गलियारों में आने-जाने वाले लोगों में दिखती थी.
“यह एक सहज मिलन स्थल था,” बागची ने राजपुर रोड के अपने दिनों को याद करते हुए कहा. “शामें शाहिद अमीन के साथ आर्काइव में मिले नए दस्तावेज़ों पर बातचीत में बीतती थीं. बेला भाटिया से छत्तीसगढ़ पर बातें होती थीं. चाय पीना—सरल चीजें.”
इतिहासकार शाहिद अमीन डीयू से रिटायर हुए और चौरी चौरा घटना की “रिकंस्ट्रक्शन” के लिए जाने जाते हैं. लेखिका और कार्यकर्ता बेला भाटिया दशकों तक बस्तर में रहीं, जहां उन्होंने राज्य की ताकत और खनन के मुद्दों पर काम किया. 2017 में उन्हें “माओवादी समर्थक” कहा गया और उन्हें वहां से जाना पड़ा.
CSDS के वर्तमान और पूर्व सदस्यों ने इस संस्थान में मौजूद स्कॉलरशिप की गहराई के बारे में बात की—जो शिक्षकों, फेलोज और प्रोफेसरों की गुणवत्ता से भी आती है.
एक अन्य CSDS प्रोफेसर ने अपने शोध के विषयों की लंबी सूची गिनाई—भारतीय राजनीति और लोकतंत्र का अध्ययन, राजनीतिक इस्लाम, कविता और फिल्म. CSDS उन कुछ जगहों में से है जहां ऐसे अलग-अलग विषयों का मेल न सिर्फ स्वीकार किया जाता है बल्कि प्रोत्साहित किया जाता है. यह स्टाफर इन सभी क्षेत्रों में सहज रूप से काम करता है.
उपनिवेशित और उपनिवेशवादी
1985 के एक मैगज़ीन लेख में, पत्रकार अमृता शाह दिल्ली-स्थित एकेडमिक के एक “सर्कल” के बारे में लिखती हैं, जो “घर-घर में पहचाने जाने वाले नाम” बन गए थे. विचारक रजनी कोठारी, आशीस नंदी, प्रण चोपड़ा और गिरी देशिंगकर शोध को नई दिशा दे रहे थे. वे अख़बारों और मैगज़ीनों में नियमित रूप से लिख रहे थे. इलस्ट्रेटेड वीकली उनका एक पसंदीदा मंच था. वे जनता पार्टी और कांग्रेस—दोनों से नाराज़ थे.
“केवल बूढ़े और कमजोर लोग ही राज्य के आसपास मक्खियों की तरह मंडरा रहे थे.” आशीस नंदी ने उस समय यह बात कही थी. वह इंदिरा गांधी द्वारा इमरजेंसी के बाद विचारकों को सरकारी पद देने की कोशिश का ज़िक्र कर रहे थे.
कोठारी, नंदी और सेमिनार मैगज़ीन के रमेश ठाकर भारतीय राजनीतिक सोच को नया रूप दे रहे थे. उनके शोध को सहारा दे रहा था उनका सार्वजनिक हस्तक्षेप. वे अख़बारों में लगातार लिखते थे. उनके विचारों की प्रासंगिकता तेज़ थी. वे एक नए तरह के शोधकर्ता बन रहे थे—जिन्हें किसी दायरे में रखना मुश्किल था. वे विश्वविद्यालयों में पढ़ाते नहीं थे. न नीतियां बना रहे थे. और न ही सरकार का हिस्सा बनना चाहते थे. इमरजेंसी के दौरान, CSDS इंदिरा गांधी के “सबसे तेज़ आलोचकों” का केंद्र था.
संस्थापक कोठारी वाम और दक्षिण—दोनों से और राज्य की मान्यता पाने की उनकी इच्छा से प्रभावित नहीं थे. इतिहास की किताबों के विवाद के दौरान, विश्वनाथन लिखते हैं, “जब विचारधारावादी उग्र हो गए, रजनी ने चुपचाप कहा: ‘दोनों पक्ष चाहते थे कि राज्य उनकी इतिहास की समझ को मंजूरी दे.’”
इन ‘रॉकस्टार’ रिसर्चर्स का मूल्यांकन करना मुश्किल था. उनकी सोच और आदर्शों ने CSDS के कामकाज को लंबे समय तक प्रभावित किया. इससे संस्थान एक सीमांत जगह पर मौजूद रह सका.
नंदी ने कहा था, “मुझे अल्पकालिक राजनीतिक प्रक्रियाओं से अधिक दीर्घकालिक प्रक्रियाओं में दिलचस्पी है.” वहीं कोठारी—जो भारतीय राजनीति और लोकतंत्र के अध्ययन में एक पौराणिक नाम थे—ने केंद्र का लक्ष्य बताया था. उद्देश्य था “पूर्वानुमान लगाना नहीं, समझना.”
शायद इसी गहराई की तलाश ने कोठारी को 1980 के दशक में लोकायण स्थापित करने के लिए प्रेरित किया. यह पत्रकारों, कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों का नेटवर्क था, जो पार्टी राजनीति के बाहर राजनीतिक भावना बनाता था. यह मंच राजनीतिक कार्रवाई और जमीनी आंदोलनों को प्रेरित करने के लिए बनाया गया था.
दि इंडियन एक्सप्रेस में लेखक और पर्यावरणविद क्लॉड अल्वारेज़ ने लिखा: “कोठारी बहुत पहले ही एकेडमिक दुनिया से बाहर निकलकर सड़कों पर आ गए थे.” विचारों में डूबे रहने के बावजूद, वे “परिवर्तन लाने के लिए कार्रवाई-उन्मुख तरीकों” में विश्वास रखते थे.
CSDS का लक्ष्य, कोठारी के अनुसार, “पूर्वानुमान लगाना नहीं, समझना” था. 80 के दशक में कोठारी ने लोकायण बनाया—पत्रकारों, कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों का नेटवर्क, जो पार्टी राजनीति के बाहर राजनीतिक ऊर्जा पैदा करता था. मंच का उद्देश्य राजनीतिक कार्रवाई को प्रेरित करना था.
फिर 1983 में एक महत्वपूर्ण किताब आई. आशीस नंदी की दि इंटिमेट एनिमी. यह उपनिवेशित और उपनिवेशकर्ता के बीच संबंध का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण थी. लेकिन जैसा कि नंदी ने 2013 में सेमिनार को दिए इंटरव्यू में कहा, “हम इतिहास नहीं बना रहे थे. हम अपना काम कर रहे थे.”
सेमिनार का यह अंक, CSDS के 50 साल पूरे होने पर, इंटरव्यू, विचारों और उसकी विरासत को समझने का एक मौका था. इसमें रजनी कोठारी, आशीस नंदी और धीरुभाई शेख के इंटरव्यू थे. योगेंद्र यादव और अनन्या वाजपेयी ने केंद्र में अपने अनुभवों पर लिखा. लोकायण के छोटे इतिहास थे. और कई किस्से थे जो इस समूह को जोड़ते थे. CSDS में नियुक्तियां “टैलेंट-हंटिंग” से होती थीं—किसी की अत्यधिक पढ़ाई और अचानक मिली एक चिट्ठी.
1993 में जब योगेंद्र यादव जुड़े, तब नंदी का निदेशक पद लगभग औपचारिक हो गया था. केंद्र “अंकलों” के हाथ में था: गिरी देशिंगकर, आशीस नंदी और डी.एल. शेख. इस माहौल में यादव और उनके साथी “बच्चे” थे.
“आंतरिक लोकतंत्र की औपचारिक व्यवस्थाएं लगभग नहीं थीं. फैकल्टी मीटिंगें कुछ महीनों में एक बार होने वाला एक औपचारिक अभ्यास थीं. कोई फैकल्टी कमिटी नहीं थी.” यादव ने लिखा.
नंदी का इंटरव्यू एक आत्ममंथन था—एक बदले हुए शरीर की झलक. बदलते सुर और बदलती मेहनत की याद.
उन्होंने कहा, “पहले का केंद्र बहुत अलग था. एक समुदाय की भावना थी. और हम उल्लेखनीय तीव्रता से काम करते थे. हमें बाहर किसी बड़े विद्वान की ओर देखने की ज़रूरत नहीं पड़ती थी. हमें शैक्षणिक मान्यता और वैधता की चिंता नहीं सताती थी.”
लोकनीति की सुर्खियां
केंद्र एक पुराने सरकारी भवन में है, जिसे कभी शांत इलाका कहा जाता था. आज यह अनोखा है. दिल्ली के सिविल लाइंस में भव्य हवेलीनुमा इमारतों के बीच यह छोटी-सी इमारत किसी और समय की लगती है. यही आलोचना CSDS के आलोचक भी करते हैं. लेकिन प्रमुख विद्वान आज भी यहां आते हैं. पिछले महीने एक सेमिनार में, जब पूर्व सदस्य पीटर डी’सूज़ा ने अपनी इमरजेंसी पर लिखी किताब को पुराने सहयोगियों के सामने रखा, तो किसी ने धीरे से कहा, “लगभग पुराने दिनों जैसा है.”
एक समय, सराय और एनजीओ अंकुर की एमसीडी के साथ बात हुई थी, लेकिन परियोजना आगे नहीं बढ़ सकी.
एक कविता की पंक्तियों में लिखा था, “हम वहां थे. हर पत्थर को दर्ज करते हुए.” यह शहर के कॉमनवेल्थ गेम्स के लिए बदले जाने की कहानी थी.
यह परियोजना अब बंद हो चुकी है. लेकिन इसका बनाया गया सामग्री आज भी शोधकर्ताओं द्वारा उपयोग किया जाता है.
यह परियोजना एकेडमिक दुनिया से बहुत अलग थी. अधूरी, बदलती और पूरी तरह संदर्भ में डूबी हुई. लेकिन यही तो CSDS का सार था.
बागची ने कहा, “इस तरह का आपसी आदान-प्रदान और सम्मान बेहद रोमांचक था. और यही वह माहौल था जिसमें CSDS सहज था. हम एक-दूसरे से ऐसे तरीकों से सीखते हैं जिन्हें हम पूरी तरह नहीं समझते.”
उन्होंने 1990 के दशक को याद करते हुए कहा कि उन्हें लगता था कि वे किसी बड़े परिवर्तन के कगार पर हैं.
“हम इसे महसूस करते थे.” उन्होंने कहा. “जब सराय शुरू हुआ था. हमारे पास स्वतंत्र फेलो थे. परियोजनाएं तेज़ी से बढ़ रही थीं. इतने लोग आवेदन करते थे कि लगता था एक बड़ा बदलाव हो रहा है.”
वे 2001 में “डिजिटल डिवाइड,” 2003 में इंटरनेट की सीमाओं, मीडिया की अनिश्चितता और साइबरस्पेस की विशालता पर बात कर रहे थे.
सराय मीडिया लैब का “अनियमित जीवन” था. एक न्यूज़लेटर था, जिसका सर्कुलेशन लगभग 12,000 था.
यह एक महत्वपूर्ण संस्थान है. कभी गहरी असर वाला. फिर भी यह फैला नहीं.
“CSDS सामाजिक विज्ञान का एकमात्र पोस्ट-यूनिवर्सिटी शोध संस्थान है जिसकी अंतरराष्ट्रीय उपस्थिति है. इतने बड़े देश में ऐसे 50 संस्थान होने चाहिए थे.” उन्होंने कहा.
जैसे-जैसे केंद्र अपने नए मोड़ से गुजर रहा है, प्रोफेसरों ने इसकी खामोशी के बारे में भी बात की—अपने प्रचार से इनकार और संस्थागत इतिहास लिखने की प्रवृत्ति को अस्वीकार करना.
लेकिन यह भी मान्यता है कि केंद्र के बेहतरीन दिन अब पीछे हैं. और उस गौरव में डूबे रहना संभव नहीं.
भार्गव ने कहा, “आप अपने अतीत में नहीं जी सकते. चाहे वह कितना भी अच्छा रहा हो.” “हर 10 साल में आपको पुनर्मूल्यांकन करना होता है.”
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