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Wednesday, 17 September, 2025
होमफीचरअग्रवाल समाज का संकट: सब कुछ है लेकिन शादी के लिए अच्छे जीवनसाथी नहीं मिल रहे

अग्रवाल समाज का संकट: सब कुछ है लेकिन शादी के लिए अच्छे जीवनसाथी नहीं मिल रहे

अग्रवालों ने बिज़नेस में तो बड़े साम्राज्य खड़े किए हैं, लेकिन शादी का बाज़ार उनके लिए मुश्किल साबित हो रहा है. देर से हो रही शादियों का हल वे बड़े पैमाने पर होने वाले मैचमेकिंग सम्मेलनों, बायोडाटा बुकलेट्स और मंच पर परिचयों से ढूंढ रहे हैं.

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जिंद: निर्मला चुपचाप खड़ी थीं, आंसू उनके चेहरे पर बह रहे थे. उनके पास खड़ा था उनका बेटा हिमांशु और पति, दोनों खामोश, दोनों मज़बूत बने रहने की कोशिश कर रहे थे. परिवार हरियाणा के नारनौल से जिंद आया था, एक आख़िरी उम्मीद लिए कि अग्रवाल सम्मेलन में हिमांशु के लिए दुल्हन मिल जाएगी.

उनके हाथ में 50 साल की निर्मला एक पुरानी किताब पकड़े थीं — जिसमें नाम, चेहरे और बायोडाटा भरे थे. लेकिन एक बार फिर, वे घर लौट रहे थे, सिर्फ तीन लोग, भारी दिल के साथ, और बिना दुल्हन के.

“हमारे पास सबकुछ है,” निर्मला ने सिसकते हुए कहा. “उसके पापा 20,000 रुपये महीना कमाते हैं. मेरा बेटा 40,000 कमाता है. हम आराम से रहते हैं. फिर भी, समझ नहीं आता कोई उससे शादी क्यों नहीं करना चाहता. वह पहले ही 30 का हो चुका है. हम थक चुके हैं। यहां आना हमारी आख़िरी उम्मीद थी.”

निर्मला अकेली नहीं थीं इस दर्द में. सैकड़ों परिवार — मां-बाप, बेटे-बेटियां — 7 सितंबर को जिंद के श्री श्याम गार्डन में जुटे थे, उत्तर भारत स्तर के परिचय सम्मेलन (परिचय सम्मेलन), जिसका आयोजन अखिल भारतीय अग्रवाल समाज, हरियाणा ने किया था. सुबह 10 बजे से शाम 5 बजे तक, सभी प्रतिभागी एक ही ख्वाब लेकर भीड़ को देख रहे थे: परफेक्ट बहू, दामाद या जीवनसाथी.

17 राज्यों से और विदेशों से भी, 1,500 से ज्यादा योग्य उम्मीदवार ‘द वन’ की तलाश में आए थे.

यह आयोजन, जो हर पांच साल में एक बार होता है, राज कुमार गोयल, अध्यक्ष अखिल भारतीय अग्रवाल समाज-हरियाणा, की अगुवाई में हुआ. हरियाणा के कैबिनेट मंत्री विजय गोयल और पंजाब के कैबिनेट मंत्री बरिंदर गोयल मुख्य अतिथि थे, साथ ही अखिल भारतीय अग्रवाल संगठन के राष्ट्रीय अध्यक्ष प्रदीप मित्तल भी शामिल हुए.

जहां देश में डेटिंग ऐप्स धीरे-धीरे पारिवारिक नेटवर्क की जगह ले रहे हैं, वहीं यह समुदाय सुनिश्चित कर रहा है कि रिश्ते अब भी पारंपरिक तरीकों से बने, लेकिन थोड़े आधुनिक अंदाज़ में.

अग्रवाल, भारत के सबसे सम्पन्न और प्रभावशाली समुदायों में से एक, लंबे समय से व्यापार और उद्योग में सफलता की मिसाल रहे हैं. अनुमानित 56 लाख की जनसंख्या वाले इस समुदाय ने कारोबार का साम्राज्य खड़ा किया है. हुरुन इंडिया रिच लिस्ट 2025 के अनुसार, अग्रवाल और गुप्ता उपनामों के 12-12 परिवार देश के सबसे मूल्यवान फैमिली बिजनेस की सूची में शामिल हैं.

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जींद में सड़क किनारे लगे एक पोस्टर में 7 सितंबर को अग्रवाल परिचय सम्मेलन की घोषणा की गई है. समुदाय के नेताओं का कहना है कि उन्हें उम्मीद है कि इससे ‘समय पर’ शादियां सुनिश्चित होंगी | फोटो: साक्षी मेहरा, दिप्रिंट

लेकिन जहां व्यापार उनकी ताकत है, शादी-बाज़ार उनकी कमजोरी बनता जा रहा है. देर से शादी का चलन तेज़ी से बढ़ रहा है. दौलत, शिक्षा और आधुनिक सोच ने रिश्ते ढूंढना आसान नहीं किया है.

इसीलिए, बैंक्वेट लॉन से लेकर बायोडाटा बुकलेट और मंच पर रोशनी में परिचय तक, यह समुदाय हर सम्मेलन के जरिए रिश्तों को नए तरीके से जोड़ने की कोशिश कर रहा है. इसके पीछे एक बढ़ती हुई मुहिम है, जिसे राज कुमार गोयल और प्रदीप मित्तल आगे बढ़ा रहे हैं — न सिर्फ अग्रवालों को शादी में जोड़ने के लिए, बल्कि पूरे भारत में अरेंज मैरिज की कला को फिर से ज़िंदा करने के लिए.

भले ही इसका पैमाना बड़ा हो, लेकिन परिचय सम्मेलन का सिद्धांत आसान है: ‘सेल्फ-सर्विस मैरिज हंटिंग’. 500 रुपये की रजिस्ट्रेशन फीस पर हर उम्मीदवार को संभावित रिश्तों की बुकलेट मिलती है. अगर दो परिवारों को पसंद आ जाए, तो वे खुद बात आगे बढ़ाते हैं. कोई बीचवाला नहीं होता. ‘लड़का’ और ‘लड़की’ को प्रोत्साहित किया जाता है कि वे बैठकर चाय या पूड़ी-हलवा खाते हुए बात करें. महिलाएं साड़ी या सूट में आती हैं, पुरुष टी-शर्ट या कुर्ते में. भारी गहने और शादी वाला ठाठ कम ही दिखाई देता है.

सोनीपत में ओपी जिंदल यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर शिव विश्वनाथन ने कहा, “यह मिश्रण ही इन अग्रवाल सम्मेलनों की अहमियत है. वे एक साथ आधुनिक भी लगते हैं और पारंपरिक भी, जितना हो सके पितृसत्तात्मक, लेकिन उसी ढांचे में वे व्यक्तिगत चुनाव और बदलाव की गुंजाइश देते हैं. जब हम भारत में बदलाव की बात करते हैं, तो यह जरूरी है कि उसे परंपरा और आधुनिकता के बीच की गति के रूप में देखें, जो एक मिश्रण बनाती है.”

उन्होंने बताया कि ये सम्मेलन लोकप्रिय हो रहे हैं क्योंकि ये कम से कम चुनाव का आभास तो देते हैं, जबकि पुराने सिस्टम में परिवार का सबसे बुजुर्ग मुखिया बिना किसी सवाल के मैच तय कर देता था.

उन्होंने आगे कहा, “रोज़गार बदल रहे हैं, पलायन बढ़ रहा है, और परिवार बिखर रहे हैं. ‘मेरे दादा-दादी ने यह रिश्ता मंजूर किया’ अब वज़न नहीं रखता, खासकर आज की हाई मोबिलिटी वाली दुनिया में.”

“रिश्तों का धर्म”

परिवार भीड़ में उद्देश्य के साथ आगे बढ़ रहे थे — कोई नंबर बदल रहा था, तो कोई उम्मीद भरी नज़रों और धीमी फुसफुसाहटों का आदान-प्रदान कर रहा था.

“कोई अच्छा लड़का-लड़की मिला? कोई बात आगे बढ़ी?”

मंच पर, एक-एक करके उम्मीदवार अपना परिचय दे रहे थे, हर कोई अपने लिए आदर्श जीवनसाथी का ज़िक्र कर रहा था.

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जींद में अग्रवाल परिचय सम्मेलन में अखिल भारतीय अग्रवाल संगठन के राष्ट्रीय अध्यक्ष प्रदीप मित्तल के साथ मंच पर प्रिया बंसल | स्क्रीन ग्रैब

“मैं एक संस्कारी लड़की चाहता हूं,” एक युवा ने कहा. “वह काम करे या न करे, फर्क नहीं पड़ता, लेकिन उसके संस्कार ऊंचे होने चाहिए.”

उसके बगल में खड़ी थीं प्रिया बंसल, 25 साल की, हिसार की एक प्राइवेट स्कूल टीचर. विनम्र मुस्कान के साथ उन्होंने अपनी उम्मीदें बताईं: “ना स्मोकिंग, ना ड्रिंकिंग, और वह आर्थिक रूप से स्वतंत्र होना चाहिए. बस यही चाहिए.”

भीड़ में धीमी आवाज़ें शुरू हो चुकी थीं.

“यह लड़का और यह लड़की, बुरा मैच नहीं है.” या, “दोनों एक अच्छी जोड़ी बन सकते हैं.”

प्रिया बंसल अपनी मर्ज़ी से यहां नहीं आई थीं. उन्हें परिवार लेकर आया था. उनकी मां और भाई ने उन्हें मंच पर धकेला और अब वे बगल में खड़े तारीफ और हिम्मत बंधा रहे थे.

“बहुत अच्छा बोला तुमने. खूब सुंदर लगीं.”

वह भी खेल में शामिल हो गईं — यहां एजेंसी और परंपरा के बीच का संतुलन उन्हें सहज लग रहा था.

उन्होंने कहा, “मुझे लगता है, सभी लड़कियों को ऐसे ही सामने आना चाहिए और खुलकर बताना चाहिए कि वे अपने जीवनसाथी में क्या चाहती हैं.”

हालांकि उन्होंने यह भी साफ़ कहा कि उन्हें अपनी टीचिंग की नौकरी बहुत पसंद है, लेकिन अगर जिस परिवार में शादी होगी, वे उन्हें नौकरी छोड़ने को कहें, तो वे बिना सवाल मान लेंगी.

“मैं खुशी-खुशी वही करूंगी, जो मेरे पति और उनका परिवार चाहेगा,” उन्होंने आगे कहा.

उधर, 30 साल के मनीष बंसल, चंडीगढ़ की एक इंश्योरेंस कंपनी में मैनेजर, ज़्यादा अनुभवी थे.

“यह मेरा पहला बार नहीं है,” उन्होंने हंसते हुए कहा. “लेकिन ये इवेंट्स असली लगते हैं. ज़्यादा मुमकिन लगते हैं.”

मनीष के लिए अग्रवाल सम्मेलन आधुनिक मैचमेकिंग की जटिलताओं का व्यावहारिक हल था.

यहां वही लोग आते हैं जो वाकई शादी को लेकर गंभीर होते हैं. खुले तौर पर बातचीत करने, संदेह दूर करने और रिश्ते बनाने का एक मंच मिलता है.

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परिचय सम्मेलन में बायोडाटा पुस्तिका के साथ मनीष बंसल | फोटो: साक्षी मेहरा | दिप्रिंट

और उन्हें भी अपनी कम्युनिटी के भीतर ही प्यार ढूंढने की चाह है.

उन्होंने एक महीने पहले रजिस्ट्रेशन कराया था और संभावित रिश्तों की बुकलेट पर ध्यान से नज़र दौड़ा रहे थे.

“हम घर जाकर और शॉर्टलिस्ट करेंगे, फिर संपर्क करना शुरू करेंगे. यहां जो लिखा है, क्या मैं सब मानता हूं? नहीं. इसलिए कहते हैं — खुद तय करो, खुद जांचो. लेकिन कम से कम अपनी कम्युनिटी में थोड़ा समझ है. थोड़ा भरोसा है,” उन्होंने बुकलेट पलटते हुए कहा और उन नंबरों की ओर इशारा किया जिन्हें वह पहले ही सेव कर चुके थे.

उनके आसपास परिवार अपने बेटों और बेटियों के पास मंडरा रहे थे, भीड़ को गहरी नज़रों से देख रहे थे। कुछ छपे हुए बायोडाटा बांट रहे थे, तो कुछ नंबर बदल रहे थे.

शादी को लेकर यह बेचैनी — खासकर जब समय पर न हो — पूरे देश के घरों में गूंजती है.

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परिचय सम्मेलन में बायोडाटा पुस्तिका में भावी दूल्हों की सूची | फोटो: साक्षी मेहरा | दिप्रिंट

गुरुग्राम में शांति गुप्ता अपने दो बेटों के साथ नए फ्लैट में रहती हैं. एक की शादी हो चुकी है, लेकिन प्रेम विवाह से. दूसरा बेटा, धीरज, साफ़ कह चुका है कि वह “सिर्फ इसलिए शादी नहीं करेगा क्योंकि वक्त हो गया है.”
फिर भी शांति अब भी सपने देखती हैं कि वे अपनी बहू को साड़ियां देंगी, उसके लिए पसंदीदा खाना बनाएंगी, परिवार की पार्टियां प्लान करेंगी.

लेकिन एक अच्छी बनिया लड़की ढूंढना धीरज की प्राथमिकता में नहीं है.

“मैं प्यार के लिए शादी करना चाहता हूं,” धीरज ने कहा. “हां, मैं सेटल हूं. मैं आर्किटेक्ट हूं. अच्छी कमाई है. लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि मैं सिर्फ इसलिए शादी कर लूं क्योंकि मेरी मां को लगता है कि मैं बूढ़ा हो रहा हूं.. यह मेरा फैसला है.”

हाल ही में शांति गुप्ता की ‘परफेक्ट बहू’ की ख्वाहिश मां-बेटे के टकराव में बदल गई.

धीरज ने झुंझलाहट में कह दिया, “मैं तुम्हारे मरने के बाद शादी करूंगा.”

फिर भी, उनकी उम्मीदें टूटी नहीं हैं.

“अगर वह जाति से बाहर शादी करना चाहता है, तो भी ठीक है,” उन्होंने आह भरी. “मुझे तो बस उसे बसा हुआ देखना है.”

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जींद में परिचय सम्मेलन में पंजीकरण के लिए कतार में खड़े परिवार. 500 रुपये में प्रत्येक उम्मीदवार को संभावित जोड़ों की जानकारी वाली एक पुस्तिका मिलती है। फोटो: स्क्रीनशॉट

लेकिन धीरज अडिग है. उसे प्यार या कमिटमेंट से डर नहीं है, बल्कि जिम्मेदारी से है.

“किसी रिश्ते में आने से पहले मैं पक्का करना चाहता हूं कि मैं सचमुच किसी और को भावनात्मक सहारा दे सकता हूं कि मैं वादे निभाने के लिए तैयार हूं.”

गोयल, जो सम्मेलन के आयोजकों में से एक हैं, के लिए यह कहानियां बहुत आम और बेहद चिंताजनक हैं.

उनका कहना है कि अब माता-पिता की उम्मीदें अनगिनत हो चुकी हैं. पहले वे चाहते हैं बेटा नौकरी पाएं. फिर इंजीनियर बने. फिर IAS निकाले. तब तक बेटा शादी के लिए बूढ़ा हो जाता है.

उनके अनुसार, ये सम्मेलन इन आधुनिक मुश्किलों का जरूरी इलाज हैं.

“ये बैठकें समय पर शादी को बढ़ावा देने का इकलौता भरोसेमंद तरीका हैं,” उन्होंने कहा. “इसी से हम सामाजिक अलगाव से लड़ते हैं. बढ़ते अपराध से बचते हैं. और अपनी सांस्कृतिक बुनावट को सुरक्षित रखते हैं.”

उनके लिए हर सफल रिश्ता एक आध्यात्मिक काम है.

“एक शादी कराना भी धर्म का काम है. और यहां हम सैकड़ों ऐसे रिश्ते बनवाते हैं.”

शादी का मिशन

एक ऐसे देश में जहां 30 साल की उम्र के बाद होने वाली शादियां “चिंताजनक” ट्रेंड बन रही हैं, गोयल इसे रोकने के लिए खोई हुई परंपराओं को आधुनिक, गरिमामय और बड़े स्तर पर वापस लाने की कोशिश कर रहे हैं.

पिछले दो दशकों से, वे “परिचय सम्मेलनों” का आयोजन करते आ रहे हैं — बड़े कार्यक्रम जहां योग्य लड़के-लड़कियां (और उनके परिवार) एक छत के नीचे आते हैं. यह ऐसे मंच हैं, जहां नए रिश्तों की संभावना पैदा हो सकती है, खासकर जब व्यक्तिगत नेटवर्क कमज़ोर हो गए हैं और पारंपरिक बिचौलिए अब पहले जितने सक्रिय नहीं रहे.

गोयल ने कहा, “हमारे बेटे-बेटियां 30-35 साल की उम्र तक पहुंच रहे हैं बिना शादी किए. माता-पिता परेशान हैं. पहले बुज़ुर्ग या बिचौलिए शादी तय करते थे. आज मदद करने वाला कोई नहीं है.”

यह सब 2001 में शुरू हुआ, जब गोयल और उनकी टीम इंदौर गए और वहां एक सामुदायिक विवाह आयोजन देखा. प्रेरित होकर उन्होंने सोचा — क्यों न अपनी ही जगह पर कुछ ऐसा किया जाए, जहां योग्य रिश्तों की कमी एक खामोश बीमारी बन चुकी है?

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जींद में परिचय सम्मेलन स्थल पर अखिल भारतीय अग्रवाल समाज-हरियाणा के अध्यक्ष राजकुमार गोयल। वह घटनाओं को “गरिमापूर्ण और पारदर्शी” कहते हैं | फोटो: साक्षी मेहरा | दिप्रिंट

पहला आयोजन हालांकि शंका के साथ मिला.

उन्होंने कहा, “लोगों ने कहा कि हम लड़के-लड़कियों का अपमान कर रहे हैं, उन्हें मंच पर बुलाकर. इसे गैर-गरिमामय कहा गया. लेकिन हमें पता था कि अगर अब कदम नहीं उठाया तो सामाजिक ढांचा टूट जाएगा.”

गोयल ने हार नहीं मानी और आज परिचय सम्मेलन एक आंदोलन बन चुका है, जिसकी बदौलत सैकड़ों शादियां हो चुकी हैं. आज, वे और उनके 450 से ज़्यादा स्वयंसेवक हरियाणा और आस-पास के राज्यों में हर 2-3 साल पर ज़िला स्तर पर कार्यक्रम करते हैं. हर पांच साल में एक भव्य उत्तर भारत सम्मेलन होता है.

ड्रॉइंग रूम में होने वाली फुसफुसाहट भरी बातचीत की बजाय, ये सम्मेलन सबकुछ खुलकर सामने रखते हैं. हर किसी को एक किताब (बुकलेट) दी जाती है, उम्मीदवार मंच पर जाकर अपना परिचय देते हैं और दर्शकों में बैठे माता-पिता नाम नोट कर लेते हैं.

“यह गरिमामय, व्यवस्थित और पारदर्शी है,” गोयल ने कहा. “परिवार वो बुकलेट घर ले जाते हैं. अगले 10-20 दिनों में वे जिन नामों को चुनते हैं, उनसे संपर्क करते हैं. असली बातचीत तब शुरू होती है.”

वे कई सफलता की कहानियां बताते हैं — जैसे हाल ही में करनाल में एक लड़की, जिसे सालों से एक भी प्रस्ताव नहीं मिला था, उसे 200-300 प्रस्ताव मिले.

हालांकि, ये सम्मेलन हर वर्ग तक नहीं पहुंचते. कुछ बिचौलियों का कहना है कि अमीर परिवार अब भी चीज़ों को ज़्यादा निजी रखना पसंद करते हैं.

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मंच पर परिचय के दौरान परिवार के सदस्य बायोडेटा पुस्तिकाओं को पलटते हैं, नोट्स बनाते हैं, और शांत चर्चा करते हैं | स्क्रीनशॉट

“अमीर और उच्च वर्ग के लोग अब भी हमारे पास आते हैं, लेकिन उनकी शर्त होती है कि परिवार अच्छा होना चाहिए. कारोबारी परिवार अपने ही घेरे में शादी करना पसंद करते हैं. अगर आर्थिक स्थिति मेल खाती है, तो शादी तय हो जाती है. इसमें माता-पिता और बच्चे दोनों ही सहमत होते हैं,” विकाश गुप्ता ने कहा, जो पिछले 25 साल से अग्रवाल मैरिज ब्यूरो चला रहे हैं.

प्रधानमंत्री को प्रस्ताव

गोयल के लिए मिलने-जुलने के ये आयोजन बस शुरुआत हैं. वे सरकार से अपील कर रहे हैं कि विवाह और समय पर शादियों को राष्ट्रीय मुद्दा माना जाए.

“हमने सरकार को, प्रधानमंत्री को प्रस्ताव भेजे हैं. हम चाहते हैं कि हर राज्य विवाह का डेटा इकट्ठा करे और आधिकारिक विवाह सम्मेलन करवाए. तभी माता-पिता समझेंगे कि यह समस्या कितनी गंभीर हो चुकी है.”

वे शादी में देरी और अपराध बढ़ने के बीच सीधा संबंध बताते हैं, यह तर्क देते हुए कि अविवाहित पुरुषों (खासकर 45 से ऊपर) की अकेलापन और निराशा सामाजिक अशांति बढ़ा रही है.

“अगर शादियां समय पर होंगी, तो अपराध कम होगा. बस इतना ही सरल है.”

उनकी टीम का एक और बड़ा प्रस्ताव है कि शादी के बाद महिलाओं का सरनेम बदलना बंद होना चाहिए. लंबे समय से उठते इस नारीवादी मुद्दे पर वे कहते हैं कि नाम बदलने से महिलाओं को कानूनी और प्रशासनिक दिक्कतें होती हैं, खासकर अगर वे बाद में दोबारा शादी करना चाहें.

“एक लड़की 25-30 साल अपने नाम और पहचान के साथ जीती है. फिर एक रात में उसका सरनेम, पिता का नाम — सब बदल जाता है. यह ज़बरदस्ती क्यों होनी चाहिए?” गोयल ने कहा. “हम चाहते हैं कि यह एक राष्ट्रीय अभियान बने. शादी का मतलब पहचान मिटाना नहीं होना चाहिए.”

‘थाली पर गुड़िया’ से ‘नो थैंक यू’ तक

हालांकि गोयल ने इसे आगे बढ़ाया है, लेकिन भारत के पहले परिचय सम्मेलन का श्रेय जाता है प्रदीप मित्तल को, जो अखिल भारतीय अग्रवाल संगठन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं. वे पांच दशकों से इस संगठन के स्तंभ रहे हैं और उन्होंने ही रिश्तों को सार्वजनिक आयोजन का रूप दिया.

“यह 1978 में शुरू हुआ. उससे पहले, हमारी बेटियों को थालियों पर गुड़ियों की तरह पेश किया जाता था. दूल्हे का परिवार आता, मंदिरों, होटलों या धर्मशालाओं में लड़कियों को देखता और अधूरी बातें करके चला जाता. यह अपमानजनक था. मैं इसे खत्म करना चाहता था.”

मित्तल ने मंच पर स्वैच्छिक परिचय और बायोडाटा कार्ड्स शुरू किए, जिससे परिवार सम्मानपूर्वक और जानकारी के साथ फैसले ले सकें — यह पुराने वस्तुकरण वाले तरीकों से बिल्कुल अलग था.

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प्रदीप मित्तल का कहना है कि समय के साथ, महिलाओं की तुलना में पुरुषों की संख्या परिचय सम्मेलनों में बढ़ रही है | फोटो: साक्षी मेहरा | दिप्रिंट

“हमें भीड़ नहीं चाहिए. हमें लड़का, लड़की और उनकी भावनाएं चाहिए. अगर किसी को प्रोफ़ाइल पसंद आती है, तो वे उसे मार्क करते हैं. फिर घर जाकर उसे जांचते-परखते हैं और आगे बढ़ते हैं.”

मित्तल ने इस फॉर्मेट को भारत के कई शहरों तक पहुंचाया, यहां तक कि अंतरराष्ट्रीय आयोजन भी किए. समय के साथ उन्होंने भागीदारी में बड़ा बदलाव देखा. अब लड़कियां पहले जितनी सक्रिय नहीं रहीं.

उन्होंने कहा, “70 और 80 के दशक में, 80% प्रतिभागी लड़कियां थीं. 2000 तक यह 50-50 हो गया. आज, 80-85% प्रतिभागी लड़के हैं. सिर्फ 15-20% पंजीकरण लड़कियों के हैं.”

उनका मानना है कि महिलाएं शिक्षा, समाज और करियर में आगे बढ़ी हैं, जबकि पुरुष वहीं रुके रह गए. आज लड़कियां ऐसे पार्टनर चाहती हैं जो उनसे अधिक योग्य या ज़्यादा कमाते हों. इससे उन समुदायों में अंतर पैदा हो गया है जहां लड़के आधुनिक करियर आकांक्षाओं तक नहीं पहुंच पाए.

“अब लड़कियां ज़्यादा पढ़ाई करती हैं. बड़ी डिग्रियां लेती हैं, अच्छी नौकरियां करती हैं और शादी टालती हैं. लेकिन लड़के? कई अब भी पारिवारिक दुकानों या साधारण बिज़नेस तक सीमित हैं. महत्वाकांक्षा और उम्मीदों का मेल नहीं बैठता,” मित्तल ने कहा.

समय से लड़ाई — और प्री-वेडिंग शूट्स

अपनी प्रगतिशील सोच के बावजूद, मित्तल का मानना है कि शादी की आदर्श उम्र 25 साल है. इसके आगे जाना, वे कहते हैं, मुसीबत को बुलाना है. यह धीरे-धीरे फैलती सामाजिक और मेडिकल आपात स्थिति जैसी है.

“हमने हाल ही में दो मुख्य प्रस्ताव पास किए हैं: पहला, लड़के-लड़कियों को आदर्श रूप से 25 साल तक शादी कर लेनी चाहिए. डॉक्टर कहते हैं कि 30-35-40 पर शादी करना प्रजनन क्षमता और भावनात्मक जुड़ाव पर असर डालता है.”

और फिर एक नया ट्रेंड है, जिसे वे बेहद चिंताजनक मानते हैं: प्री-वेडिंग शूट्स.

उन्होंने कहा, “ये शूट खतरनाक हैं. कपल एक हफ्ते के लिए साथ जाते हैं, साथ रहते हैं, भावनात्मक रूप से जुड़ जाते हैं. फिर लौटकर सब कुछ परिवार को बताते हैं — और शादी से पहले रिश्ता टूट जाता है. मैंने ऐसे सैकड़ों मामले देखे हैं.”

इसके जवाब में, मित्तल ने प्री-वेडिंग शूट्स पर राष्ट्रीय प्रतिबंध लगाने का प्रस्ताव रखा है, यह तर्क देते हुए कि ऐसी प्रथाएं शादी की पवित्रता और भरोसे को नुकसान पहुंचाती हैं. उनके शब्दों में, रिश्ते जितने कैज़ुअल होते हैं, उतने ही नाज़ुक हो जाते हैं.

यह बनिया बेसिक्स सीरिज का पहला आर्टिकल है. यह तीन हिस्सों की सीरीज भारत के व्यापारी समुदाय के बदलते चेहरे पर केंद्रित है.

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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