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Tuesday, 30 December, 2025
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बुलंदशहर की महिला बनाम DM की पत्नी, IAS विशेषाधिकार के खिलाफ लड़ाई

डीएम की पत्नी का जिला महिला समिति की प्रमुख की कुर्सी पर अपने आप बैठ जाना बुलंदशहर की एक महिला को गलत लगा. सुप्रीम कोर्ट उनकी बात से सहमत है.

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बुलंदशहर: भारत के ज़िलों में ज़िलाधिकारी (डीएम) को आमतौर पर सबसे ताकतवर व्यक्ति माना जाता है. यह ताकत अक्सर अनौपचारिक रूप से जीवनसाथी तक भी फैल जाती है. “डीएम की पत्नी” महिलाओं के कल्याण से जुड़ी समितियों में बिना सवाल उठे औपचारिक पदों पर बैठ जाती हैं, लेकिन बुलंदशहर में 70- वर्षीय कल्पना गुप्ता ने इसे स्वीकार करने से इनकार कर दिया. ज़िला महिला समिति की अध्यक्ष के तौर पर डीएम की पत्नी की स्वतः नियुक्ति को चुनौती देते हुए, उन्होंने अपनी वर्षों लंबी लड़ाई सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचाई और व्यवस्था को झकझोर दिया.

यह बुलंदशहर का अपना “नेपो गैंग्स” के खिलाफ संघर्ष था. पहले बॉलीवुड, फिर राजनीति और न्यायपालिका. अब यह प्रतिष्ठित आईएएस सेवा तक पहुंच गया. हाशिये की महिलाओं के लिए बनी ज़िला महिला समिति की अध्यक्षता में डीएम की पत्नी का अपने-आप बैठ जाना—यह हर तरह से गलत था: भाई-भतीजावाद, विशेषाधिकार और स्त्री-द्वेष, सब एक साथ. ऐसे समय में जब खुद अधिक महिलाएं आईएएस अधिकारी और ज़िलाधिकारी बन रही हैं, इस नियम की उपयोगिता बहुत पहले ही खत्म हो चुकी थी.

गुप्ता ने समिति कार्यालय में अन्य सदस्यों के बीच बैठे हुए कहा, “डीएम की पत्नियां जिस तरह से कामकाज संभाल रही थीं, उससे हम बहुत परेशान थे. सारी गंदी राजनीति और एकतरफा फासले समिति को नुकसान पहुंचा रहे थे. हम सालों से यह झेल रहे थे. अब, डीएम की पत्नी के बिना अध्यक्ष बने, हम इसे सफलतापूर्वक चला रहे हैं.”

लंबे समय से सुलग रहा यह विवाद 2022 में तब तेज़ हुआ, जब समिति ने अपने उपविधियों में संशोधन कर ज़िलाधिकारी की पत्नी को पदेन अध्यक्ष पद से हटाकर ‘संरक्षक’ (पैट्रन) बनाने की कोशिश की. डिप्टी रजिस्ट्रार ने इस बदलाव को रद्द कर दिया. इसके बाद मामला इलाहाबाद हाई कोर्ट और फिर सुप्रीम कोर्ट पहुंचा.

बुलंदशहर में गुप्ता की यह लड़ाई अब सुप्रीम कोर्ट के सामने एक टेस्ट केस बन चुकी है. न्यायाधीशों ने बुलंदशहर ज़िला महिला समिति के उपविधियों में ‘डीएम की पत्नी’ वाले नियम को “अत्यंत आपत्तिजनक”, “अपमानजनक” और “औपनिवेशिक मानसिकता” करार दिया.

पिछले महीने, उत्तर प्रदेश सरकार ने मुख्य न्यायाधीश सूर्य कांत और न्यायमूर्ति जॉयमाल्या बागची की पीठ को बताया कि उसने सोसायटीज़ रजिस्ट्रेशन एक्ट, 1860 में बदलाव के लिए एक विधेयक अंतिम रूप दे दिया है, ताकि बुलंदशहर ज़िला महिला समिति जैसे उन उपविधियों को निरस्त किया जा सके जिनमें डीएम की पत्नी को पदेन अध्यक्ष बनाना अनिवार्य है.

हालाकि, सिविल सेवा के हलकों में इस प्रथा के समर्थक अब भी मौजूद हैं.

‘मिसेज़ डीएम’ अनिवार्यता के दो पक्ष

जो शुरुआत बुलंदशहर की ज़िला महिला समिति के पंजीकृत उपविधियों के एक प्रावधान को चुनौती देने से हुई थी, वह अब पूरे राज्य में उन संस्थाओं की सफ़ाई अभियान में बदल गई है जहां “मिसेज़ डीएम” या वरिष्ठ अधिकारियों की पत्नियों को अपने-आप अध्यक्ष या संरक्षक लिखा गया है.

बुलंदशहर अकेला स्थान नहीं है जहां डीएम की पत्नी महिलाओं के संगठन की अध्यक्ष होती हैं. पूरे उत्तर प्रदेश में वे ज़िला आकांक्षा समितियों की भी अध्यक्षता करती हैं—ये आईएएस ऑफिसर्स वाइव्स एसोसिएशन से जुड़ी समितियां हैं जो बालिका छात्रावासों का निरीक्षण करती हैं और चैरिटी परियोजनाएं चलाती हैं. हालांकि, कागज़ों में आकांक्षा एक स्वैच्छिक एनजीओ है, जिसे आईएएस परिवार खुद बनाते और चलाते हैं.

बुलंदशहर में ज़िला महिला समिति का ऑफिस. 1957 में सरकारी लीज़ पर ली गई ज़मीन पर बनी यह महिला कोऑपरेटिव मसाला पीसने और रोज़ी-रोटी के दूसरे काम चलाती है | फोटो: नूतन शर्मा/दिप्रिंट
बुलंदशहर में ज़िला महिला समिति का ऑफिस. 1957 में सरकारी लीज़ पर ली गई ज़मीन पर बनी यह महिला कोऑपरेटिव मसाला पीसने और रोज़ी-रोटी के दूसरे काम चलाती है | फोटो: नूतन शर्मा/दिप्रिंट

ज़िला महिला समिति अलग है. यह नज़ूल (सरकारी पट्टे की) ज़मीन पर बनी, सदस्य-आधारित और सरकारी सहायता प्राप्त सहकारी संस्था है, जिसका उद्देश्य विधवाओं, अनाथों और गरीब महिलाओं के लिए काम करना है. फिर भी, इसके उपविधियों में अध्यक्ष पद ज़िलाधिकारी की पत्नी के लिए आरक्षित था, जिससे सबसे गरीब महिलाओं के लिए बनी एक कल्याणकारी संस्था ज़िले के सबसे ताक़तवर घराने का विस्तार बनकर रह गई.

हालांकि, सिविल सेवा के भीतर इस व्यवस्था को अक्सर बाध्यकारी नियम के बजाय एक अनौपचारिक परंपरा के रूप में बताया जाता है.

सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी शैलजा चंद्रा ने कहा, “कोई ‘प्रावधान’ नहीं है. कुछ राज्यों में डीएम की पत्नी या एसपी की पत्नी को तरह-तरह की कल्याणकारी संस्थाओं का प्रमुख बनाया जाता है—कभी सदस्यों द्वारा, तो कभी महिला एवं बाल विकास जैसे सरकारी विभागों के विभागाध्यक्ष द्वारा नामित किया जाता है. ऐसे पद पूरी तरह मानद होते हैं और अधिकारी की पत्नी के पास कोई वित्तीय या प्रशासनिक अधिकार नहीं होता.”

उन्होंने यह भी कहा कि उन्होंने कभी ऐसा नहीं सुना कि किसी अधिकारी की पत्नी को बिना विधिवत प्रक्रिया अपनाए कोई वैधानिक दायित्व सौंपा गया हो: “इसमें चयन का औचित्य बताना और योग्य आवेदकों पर विचार करना शामिल है.”

कुछ सेवारत अधिकारी भी यही दृष्टिकोण रखते हैं. AGMUT कैडर के एक अतिरिक्त ज़िलाधिकारी, जिनका चयन 2018 में आईएएस में हुआ था, ने कहा कि गोवा, कश्मीर, अरुणाचल प्रदेश और दिल्ली में अपनी पोस्टिंग के दौरान उन्होंने अपनी पत्नी के लिए ऐसी कोई भूमिका नहीं देखी.

नाम न छापने की शर्त पर अधिकारी ने कहा, “कल्याण समितियां थीं, लेकिन यह कोई सहमति नहीं थी कि उन्हें ही अध्यक्ष बनना है या ऐसा कुछ. डीएम की पत्नी के तौर पर उनकी कई सामाजिक ज़िम्मेदारियां होती हैं—जैसे स्कूलों में सार्वजनिक कार्यक्रमों में जाना, दान शिविरों में भाग लेना और ज़िला स्तरीय आयोजनों में शामिल होना, लेकिन इस तरह की कोई भूमिका नहीं.”

उन्होंने कहा, “हां, प्रोटोकॉल से जुड़ी अपेक्षाएं होती हैं, लेकिन ऐसा कोई दबाव नहीं कि पत्नी को किसी समिति की अध्यक्षता करनी ही है या किसी संगठन को चलाना ही है.”

बुलंदशहर में ज़िला महिला समिति के ऑफिस में एक सदस्य. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद, कुछ सदस्य वापस आ गए हैं, जबकि पहले के आदेश से सहमत कुछ अन्य सदस्य दूर रहे हैं | फोटो: नूतन शर्मा/दिप्रिंट
बुलंदशहर में ज़िला महिला समिति के ऑफिस में एक सदस्य. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद, कुछ सदस्य वापस आ गए हैं, जबकि पहले के आदेश से सहमत कुछ अन्य सदस्य दूर रहे हैं | फोटो: नूतन शर्मा/दिप्रिंट

उन्होंने आगे कहा कि ये गतिविधियां आम तौर पर स्वैच्छिक होती हैं और जीवनसाथी के पेशे, उपलब्धता और रुचि पर निर्भर करती हैं.

उन्होंने कहा, “मेरी पत्नी पूर्णकालिक डॉक्टर हैं. उनका समय अतिरिक्त ज़िम्मेदारियां लेने की अनुमति नहीं देता, भले ही कोई पूछे, जहां-जहां मैंने सेवा दी, वहां जिन अधिकारियों के जीवनसाथी इच्छुक थे, वे कल्याणकारी गतिविधियों में शामिल हुए, लेकिन यह कभी अनिवार्य नहीं था और न ही किसी नियम में लिखा हुआ.”

हालांकि, दिप्रिंट द्वारा देखे गए समिति के उपविधियों की धारा 3(5)(b)(1) में यह बात स्पष्ट रूप से हिंदी में लिखी है: अध्यक्ष, बुलंदशहर के ज़िलाधिकारी की पत्नी होगी, जिसे ज़िलाधिकारी द्वारा नामित किया जाएगा.

इस मामले से जुड़े वकील वक़ास मोहम्मद ने कहा, “पूरी मुकदमेबाज़ी उसी उपविधि को लेकर थी, जिसमें कार्यरत डीएम की पत्नी को समिति की पदेन अध्यक्ष नियुक्त करना अनिवार्य किया गया था. 2022 में नियम में संशोधन किया गया—डीएम की पत्नी को पूरी तरह हटाया नहीं गया, बल्कि उन्हें ‘संरक्षक’ के रूप में पुनः नामित किया गया.”

अंदरूनी लड़ाई

विशेषाधिकार और भाई-भतीजावाद के सिद्धांतों से परे, यह बुलंदशहर ज़िला महिला समिति के केंद्र में चल रही एक तीखी सत्ता की लड़ाई भी थी.

35-वर्षीय निशा पिछले 10 साल से समिति में मसाला पीसने का काम कर रही हैं और उन्होंने कई आंतरिक टकराव देखे हैं, लेकिन 14 अगस्त 2024 तक इनमें से किसी का उन पर सीधा असर नहीं पड़ा था. उस दिन कुछ समिति सदस्यों ने उन्हें 14 दिन की मज़दूरी दी और काम पर न आने को कह दिया. निशा के मुताबिक, यह बंदी महीनों से चल रहे आपसी झगड़ों के बाद हुई, जिनकी वजह से समिति की परियोजनाएं अटक गईं और काम पूरी तरह ठप हो गया.

जब निशा और अन्य मज़दूरों ने ज़िलाधिकारी के आवास पर विरोध किया, तो कथित तौर पर उन्हें वहां से अपमानजनक तरीके से निकाल दिया गया. निशा सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले को, जिसमें कहा गया कि डीएम की पत्नी को समिति की अध्यक्ष बनने का कोई स्वतः अधिकार नहीं है, “कर्म” बताती हैं.

पिछले साल नौकरी से निकाले जाने के बाद डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट के घर पर प्रोटेस्ट करने वाले वर्कर्स ने कहा कि उन्हें बिना सही सुनवाई के निकाल दिया गया | फोटो: नूतन शर्मा/दिप्रिंट
पिछले साल नौकरी से निकाले जाने के बाद डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट के घर पर प्रोटेस्ट करने वाले वर्कर्स ने कहा कि उन्हें बिना सही सुनवाई के निकाल दिया गया | फोटो: नूतन शर्मा/दिप्रिंट

निशा ने समिति कार्यालय में कहा, जहां अन्य मज़दूर भी सहमति में सिर हिला रहे थे, “पहले उन्होंने हमें अपने आवास से घसीटकर बाहर निकाला और फिर सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें समिति से बाहर कर दिया. हम बेबस थे और इन सबके कारण हमारे पास कोई काम नहीं बचा.”

तत्कालीन डीएम चंद्र प्रकाश सिंह की पत्नी सरिता सिंह ने इस मामले पर विस्तार से बोलने से इनकार कर दिया.

उन्होंने फोन पर कहा, “मैं अब वहां नहीं हूं और इस बारे में कुछ नहीं कहना चाहती.”

आखिरकार 12 फरवरी 2025 को समिति के दरवाज़े फिर से खुले और मज़दूरों ने काम शुरू किया. आज वहां 10 से अधिक कर्मचारी मसाले पीसते हैं, जिन्हें स्थानीय स्तर पर और ज़िले के बाहर बेचा जाता है.

कल्पना गुप्ता ने कहा, “समिति को इस तरह सुचारू रूप से चलाने के लिए हमें दो अदालतों तक जाना पड़ा, बार-बार चक्कर लगाने पड़े और आख़िरकार अब हम प्रशासन के हस्तक्षेप के बिना इसे चला पा रहे हैं.”


यह भी पढ़ें: UPSC के 100 साल—विरोध, समितियों और घोटालों ने बदला एक ‘औपनिवेशिक औजार’


पुरानी व्यवस्था का बचाव

बुलंदशहर का मौजूदा प्रशासन इस विवाद में ज़्यादा दिलचस्पी नहीं दिखा रहा है. ज़िलाधिकारी श्रुति सिंह ने कहा कि उनके पास “कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण काम” हैं और उन्होंने कभी समिति का दौरा नहीं किया.

हालांकि, अपर ज़िलाधिकारी अभिषेक कुमार सिंह ने पहले की व्यवस्था का बचाव करते हुए तर्क दिया कि समिति सरकारी ज़मीन पर स्थित है, इसलिए डीएम की पत्नी को इसका प्रमुख होना चाहिए.

समिति ऑफिस में कल्पना गुप्ता, जहां पदाधिकारियों के चुनाव होने हैं. उन्होंने कहा,‘कमेटी में 50 महिलाएं हैं. सात को छोड़कर, सभी हमारे साथ हैं...हम लोकतंत्र में हैं’  | फोटो: नूतन शर्मा/दिप्रिंट
समिति ऑफिस में कल्पना गुप्ता, जहां पदाधिकारियों के चुनाव होने हैं. उन्होंने कहा,‘कमेटी में 50 महिलाएं हैं. सात को छोड़कर, सभी हमारे साथ हैं…हम लोकतंत्र में हैं’ | फोटो: नूतन शर्मा/दिप्रिंट

उन्होंने आरोप लगाया, “अगर प्रशासन से कोई वहां होगा, तो लोगों में डर रहेगा और कोई अतिक्रमण या दुरुपयोग करने की कोशिश नहीं करेगा. और प्रशासन सुप्रीम कोर्ट में भी अपना पक्ष रखेगा, जहां तक मुझे जानकारी है, जो लोग अदालत गए हैं, वे भ्रष्ट हैं और इसका दुरुपयोग करना चाहते हैं,”

प्रशासन अपने हस्तक्षेप को व्यवस्था बनाए रखने और समिति की संपत्ति के दुरुपयोग को रोकने के लिए ज़रूरी बताता है.

सुप्रीम कोर्ट द्वारा समिति के नियमों के पीछे की “औपनिवेशिक मानसिकता” पर की गई टिप्पणी भी विवाद का विषय रही है.

समिति वर्कस्पेस, जहां महिलाएं ‘बुलंद मसाले’ ब्रांड के तहत बिकने वाले मसाले पीसती हैं | फोटो: नूतन शर्मा/दिप्रिंट
समिति वर्कस्पेस, जहां महिलाएं ‘बुलंद मसाले’ ब्रांड के तहत बिकने वाले मसाले पीसती हैं | फोटो: नूतन शर्मा/दिप्रिंट

सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी और LBSNAA के पूर्व निदेशक संजीव चोपड़ा ने कहा, “लोग भूल जाते हैं कि इनमें से कई समितियां सिर्फ स्थानीय कल्याण निकाय थीं—रेड क्रॉस, सेंट जॉन एम्बुलेंस, छोटी ज़िला स्तरीय संस्थाएं. यह कोई औपचारिक औपनिवेशिक विरासत नहीं थी; यह इसलिए उभरा क्योंकि अधिकारियों की पत्नियां अक्सर इलाके की इकलौती शिक्षित महिलाएं होती थीं और समाज सेवा का काम संभालती थीं. उदाहरण के तौर पर बंगाल में, अगर डीएम की पत्नी इच्छुक होती थीं, तो वे स्वाभाविक रूप से जुड़ जाती थीं. इसके पीछे कभी कोई सरकारी आदेश नहीं था. यह पुरानी परंपरा उस समय की है जब आईएएस अधिकारियों की पत्नियां घर पर ही रहती थीं.”

बुलंदशहर के मुख्य बाज़ार में स्थित समिति में, लोहे के गेट पर एक पीला बोर्ड टंगा है, जिस पर लाल अक्षरों में “ज़िला महिला समिति” लिखा है. यह समूह अपने ‘शुद्ध मसालों’ के लिए जाना जाता है, जो ‘बुलंद मसाले’ ब्रांड के तहत कोलकाता तक में बिकते हैं. समिति सुबह 10 बजे खुलती है और शाम 5 बजे बंद होती है. चुनाव होने वाले हैं और नए पद तय किए जाएंगे, इसलिए फिलहाल कल्पना गुप्ता और ममता गुप्ता सदस्य के रूप में काम कर रही हैं. वे नियमित रूप से आती हैं, हालांकि सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियों के बाद कुछ सदस्य दूर हो गए हैं.

कल्पना गुप्ता ने कहा, “समिति में 50 महिलाएं हैं. सात को छोड़कर बाकी सभी हमारे साथ हैं. वे सात लोग समिति को डीएम की पत्नी के साथ चलाना चाहते थे. हम इसके ख़िलाफ़ हैं. हम एक लोकतंत्र में रहते हैं.”

‘हम डीएम की पत्नी को हटाना नहीं चाहते थे’

बुलंदशहर की ज़िला महिला समिति की स्थापना 1957 में हुई थी. दशकों तक डीएम की पत्नियां बिना किसी टकराव के इसकी अध्यक्ष रहीं. इसकी एक वजह यह भी थी कि हर डीएम की पत्नी सक्रिय रूप से दखल नहीं देती थीं और रोज़मर्रा का काम चुने हुए सदस्यों पर छोड़ देती थीं, लेकिन करीब एक दशक पहले तनाव उभरने लगा. कई लंबे समय से पद पर बने पदाधिकारियों—कुछ तो दस साल से भी ज़्यादा समय से, ने नए चुनाव कराने की मांग उठाई.

2016 में कल्पना गुप्ता सचिव चुनी गईं. अगले ही साल समिति दो गुटों में बंट गई—एक तत्कालीन डीएम अंजनेय कुमार सिंह की पत्नी गरिमा सिंह के साथ और दूसरा गुप्ता के साथ. जैसे-जैसे मतभेद बढ़े, डीएम ने हस्तक्षेप किया और अपनी पत्नी के करीबी गुट से पदाधिकारियों की नियुक्ति कर दी, जिससे नाराज़गी और गहरी हो गई.

बुलंदशहर ज़िला महिला समिति ने गुटबाज़ी और कोर्ट केस की वजह से महीनों तक बंद रहने के बाद फरवरी में काम फिर से शुरू किया | फोटो: नूतन शर्मा/दिप्रिंट
बुलंदशहर ज़िला महिला समिति ने गुटबाज़ी और कोर्ट केस की वजह से महीनों तक बंद रहने के बाद फरवरी में काम फिर से शुरू किया | फोटो: नूतन शर्मा/दिप्रिंट

गुप्ता ने कहा, “2017 में चुनाव समिति परिसर में नहीं, बल्कि कैंप कार्यालय में कराए गए और डीएम समर्थित गुट से एक कार्यवाहक सचिव चुना गया, जबकि बहुमत हमारे साथ था.”

अगले ढाई साल तक, सदस्यों का आरोप है कि न तो ढंग से चुनाव होने दिए गए और न ही सामूहिक फैसले लिए गए. “प्रशासन के समर्थन” से एकतरफा फैसले होते रहे. 2019 में गुप्ता ने अदालत की निगरानी में चुनाव कराने की मांग करते हुए इलाहाबाद हाई कोर्ट का रुख किया.

2019 में हुए जीर्णोद्धार के दौरान समिति में तत्कालीन जिला मजिस्ट्रेट की पत्नी को अध्यक्ष के रूप में नामित करने वाली एक पट्टिका | फोटो: नूतन शर्मा/दिप्रिंट
2019 में हुए जीर्णोद्धार के दौरान समिति में तत्कालीन जिला मजिस्ट्रेट की पत्नी को अध्यक्ष के रूप में नामित करने वाली एक पट्टिका | फोटो: नूतन शर्मा/दिप्रिंट

हालांकि, उनकी पहली याचिका खारिज हो गई, लेकिन दूसरी याचिका स्वीकार कर ली गई. अदालत ने सत्यापित सदस्य सूची के साथ चुनाव कराने का निर्देश दिया. इस प्रक्रिया के दौरान निर्वाचन आयोग का एक प्रतिनिधि भी मौजूद था, जिसमें गुप्ता उपाध्यक्ष चुनी गईं.

हालांकि, नया डीएम और उनकी पत्नी आने के बाद भी विवाद खत्म नहीं हुआ.

गुप्ता ने कहा, “उन्होंने समिति को सुचारू रूप से चलने नहीं दिया. कुछ सदस्य मेरे चुने जाने से नाराज़ थे और फिर से डीएम की पत्नी सरिता सिंह के पास चले गए. हमने रजिस्ट्रार कार्यालय में एक नया संविधान दर्ज कराया, जिसमें यह लिखा गया कि डीएम की पत्नी हमारा मार्गदर्शन और सलाह देंगी, लेकिन स्वतः अध्यक्ष पद पर नहीं होंगी.”

संशोधित उपविधियों में औपचारिक रूप से डीएम की पत्नी को ‘संरक्षक’ (पैट्रन) नामित किया गया. एक गुट का कहना था कि यह व्यवस्था “उनसे मार्गदर्शन लेने के लिए” की गई थी, जबकि दूसरे गुट के अनुसार इस बदलाव ने स्वायत्तता और नियंत्रण को लेकर नए विवाद खड़े कर दिए.

समिति की पूर्व संयुक्त सचिव ममता गुप्ता ने आरोप लगाया, “हम कभी उन्हें पद से हटाना नहीं चाहते थे. हमें उनके मार्गदर्शन की ज़रूरत थी, लेकिन लगातार पक्षपात और दखलअंदाज़ी से समिति का काम प्रभावित हो रहा था. दूसरे सदस्य भ्रष्ट थे और भ्रष्टाचार जारी रखना चाहते थे. यही वजह है कि जब किसी और को नए चुनाव के ज़रिये चुना गया, तो उन्हें यह बुरा लगा.”

(इस ग्राउंड रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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