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Thursday, 11 December, 2025
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दिल्ली से भी भयावह है भिवाड़ी का प्रदूषण संकट लेकिन इस पर कोई बात नहीं करना चाहता

राजस्थान का भिवाड़ी एक इंडस्ट्रियल और रियल-एस्टेट हब बन गया है, लेकिन हवा की क्वालिटी और रहने लायक माहौल खराब होता जा रहा है. भारत के इंडस्ट्रियल शहरों में यही पैटर्न दोहराया जा रहा है.

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भिवाड़ी: बाहर होने वाली स्कूल असेंबलियां अब बीते जमाने की बात हो गई हैं और AQI बहुत ज़्यादा होने के कारण खेल-कूद भी नामुमकिन है. इसलिए बच्चे अपने प्राइवेट स्कूल में अंदर ही बैठकर शतरंज या कराटे से काम चलाते हैं. “प्रदूषण ने बच्चों की रोज की दिनचर्या छीन ली है,” उनकी गणित की टीचर उमा खंडेलवाल कहती हैं. यह दिल्ली नहीं है, जिसका सर्दियों का स्मॉग बदनाम है. यह राजस्थान का भिवाड़ी है, एक औद्योगिक टाउनशिप, जो पिछले कुछ वर्षों में रियल एस्टेट हॉटस्पॉट और अपमार्केट रिटायरमेंट हब बन गया है.

अरावली और दिल्ली-एनसीआर के बीच अस्थिर ढंग से स्थित, इसे दो दुनिया का सबसे अच्छा मेल बताया गया था. लेकिन यहां की रोजमर्रा की ज़िंदगी का मतलब है धूल की चादरें सांस में लेना, फैक्टरी की चिमनियों से उठता तेज़ धुआं और AQI जो अक्सर दिल्ली के 300-400 के स्तर से मेल खाता है. फिर भी कोई भी भिवाड़ी या ऐसे दूसरे शहरों के बारे में बात नहीं करना चाहता.

“सबसे प्रदूषित शहर” का टैग 2022 में आया, जब IQAir के ग्लोबल डेटा ने भिवाड़ी को दुनिया के सबसे खराब PM2.5 वाले शहरों में रखा, हालांकि केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड यह बात 2017 में ही कह चुका था. यह पैटर्न भारत के कई औद्योगिक कस्बों में दोहराता है, चाहे असम-मेघालय बॉर्डर का बर्नीहाट हो या हरियाणा का धरूहेड़ा. हर जगह विस्तार तो होता है, लेकिन ज़रूरी इन्फ्रास्ट्रक्चर, नागरिक क्षमता, बफर ज़ोन और प्रभावी प्रदूषण-नियंत्रण मशीनरी का अभाव रहता है. यह ऐसा ग्राफ है जिसमें एक लाइन विकास के लिए ऊपर जाती है और दूसरी रहने योग्य होने के लिए नीचे गिरती है.

इस नवंबर, सेंटर फॉर रिसर्च ऑन एनर्जी एंड क्लीन एयर (CREA) के एक स्टडी में पाया गया कि देश का लगभग हर क्षेत्र अब साल भर प्रदूषित हवा से जूझ रहा है. इसमें यह भी बताया गया कि मौजूदा डेटा औद्योगिक हब में संकट को कम दर्शाता है.

“मॉनिटरिंग स्टेशन अक्सर साफ इलाकों में लगाए जाते हैं, औद्योगिक ज़ोन या व्यस्त रास्तों से दूर, जिससे वास्तविक प्रदूषण स्तर कम दिखते हैं… एक औद्योगिक हब जो किसी अनुपालन वाले ज़िले के बाहरी हिस्से में स्थित है, वह साफ दिखाई दे सकता है क्योंकि उसका नजदीकी मॉनिटर कम प्रदूषण वाले उपनगरीय क्षेत्र में लगा है,” स्टडी में कहा गया. उसने तर्क दिया कि भारत को ऐसे डेटा की ज़रूरत है जो सिर्फ़ मेट्रो शहरों को ही नहीं, बल्कि छोटे शहरों और शहरी इलाकों के आस-पास के फैले हुए इलाकों को भी कवर करे.

भिवाड़ी का औद्योगिक हब बनना 1980 के दशक में शुरू हुआ, जब छोटी यूनिटों को प्रोत्साहन, सस्ती जमीन और दिल्ली-एनसीआर की नज़दीकी ने कंपनियों को आकर्षित किया. प्लास्टिक रीसाइक्लर, मेटल फर्नेस, केमिकल मैन्युफैक्चरर और होंडा, जैक्वार, टाटा ब्लूस्कोप स्टील जैसी ग्लोबल कंपनियाँ यहां आईं. आज यहां लगभग 2,500 फैक्ट्रियाँ हैं, जिनमें ज्यादातर MSME हैं. राज्य इसे औद्योगिक विकास और रोजगार के रूप में पेश करता है. लेकिन निवासी उपेक्षा की एक अलग कहानी बताते हैं.

राजस्थान स्टेट पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड (RSPCB) निरीक्षण करता है, लेकिन जमीन पर हकीकत लागू करने की नाकामी का साफ सबूत दिखाती है. नवंबर में हवा की गुणवत्ता “गंभीर” होने पर GRAP-3 लागू हुआ, जिसमें निर्माण, तोड़-फोड़ और प्रदूषण फैलाने वाले वाहनों पर रोक थी. लेकिन भिवाड़ी में काम चलता रहा. औद्योगिक क्षेत्र में सड़क का काम चल रहा है. नए पुलिस कंट्रोल रूम का निर्माण जारी है. एजेंसियां एक-दूसरे को या ‘सिस्टम’ को दोष देती हैं.

“राजस्थान में सबसे ज्यादा GST देने वालों में होने के बावजूद भिवाड़ी के पास रोजमर्रा के नागरिक रखरखाव के लिए भी धन नहीं है,” भिवाड़ी के कॉमन एफ्लुएंट ट्रीटमेंट प्लांट के चेयरमैन सतिंदर सिंह चौहान ने कहा.

यहां तीन दशक से रह रहे दीपक दुआ जैसे निवासियों के लिए, अधिकार और कार्रवाई के बीच यह अंतर बेहद निराशाजनक है. वह पूछते हैं कि अगर प्रदूषण बोर्ड के पास कार्रवाई करने का अधिकार है, तो पर्यावरण रिपोर्टें मृत्युलेख जैसी क्यों पढ़ी जाती हैं. उनके दो बेटे, जो चार साल से छोटे हैं, क्रॉनिक सांस की समस्याओं से जूझते हैं. वह आदुसंस मेडिकेयर चलाते हैं, एक आयुर्वेदिक हेल्थकेयर MSME, जिसे राज्य औद्योगिक विकास की मिसाल के रूप में दिखाता है. फिर भी वह कहते हैं कि एक गैस चेंबर में बैठकर वेलनेस बेचने का विरोधाभास घुटन पैदा करता है.

Bhiwadi air pollution
भिवाड़ी के रहने वाले दीपक दुआ के घर से देर शाम का नज़ारा, जिसमें अंधेरे होते आसमान के सामने काला धुआँ उठ रहा है | फोटो: वनिता भटनागर

अपने अपार्टमेंट की बालकनी से दुआ चिमनियों और गोदामों को आसमान निगलते देखते हैं. वह खुले मैदानों में क्रिकेट खेलकर बड़े हुए, लेकिन उनके बच्चों ने कभी वह आज़ादी नहीं देखी.

“मेरे घर के पास एक भी पार्क नहीं है,” उन्होंने कहा. “पीछे एक बड़ा प्लांट है और उससे लगातार धुआं उठता रहता है. मेरा छोटा बेटा ज्यादा देर बालकनी में खड़ा रहता है तो मुझे डर लगता है. मुझे अपने बच्चे की सिर्फ हवा लेने की चिंता नहीं होनी चाहिए.”

यह शहर प्रवासी मजदूरों और मध्यवर्गीय पेशेवरों के दम पर बढ़ा, लेकिन इसकी बुनियादी सुविधाएं बहुत पहले ही दबाव के नीचे टूट गईं. यह देश के हर कोने से लोगों को आकर्षित करता रहा, लेकिन नागरिक ढांचा बनाना भूल गया. दूआ पूछते हैं कि यहां ई-रिक्शा क्यों नहीं हैं, चलने लायक फुटपाथ क्यों नहीं हैं, बच्चों के साइकिल चलाने के लिए सुरक्षित रास्ता क्यों नहीं है.

“ये चीजें विलासिता नहीं हैं,” उन्होंने कहा. “ये बुनियादी शहरी ढांचा हैं. ये ट्रैफिक कम करते हैं. ये प्रदूषण कम करते हैं. ये बच्चों को आज़ादी देते हैं.”

कागज़ी काम बनाम प्रदूषण नियंत्रण

ज्यादातर सुबह में, भिवाड़ी स्थित राजस्थान स्टेट पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड का क्षेत्रीय कार्यालय पर्यावरण प्रहरी से अधिक एक थका हुआ चौकी जैसा लगता है. यह व्यवस्था थामे रखने वाले लोग काम के बोझ से दबे हुए हैं.

“हमें 50 प्रतिशत और स्टाफ की जरूरत है. जो हमारे पास है, उससे काम संभालना मुश्किल है,” वरिष्ठ पर्यावरण इंजीनियर और क्षेत्रीय अधिकारी अमित जुयाल ने कहा, जो जनवरी से भिवाड़ी में तैनात हैं.

उनकी 15 लोगों की टीम में छह तकनीकी अधिकारी, छह लैब स्टाफ, एक अकाउंट्स कर्मचारी और दो सपोर्ट स्टाफ हैं. यही टीम हजारों प्रदूषण फैलाने वाली यूनिटों के खिलाफ अकेली सुरक्षा है, वह भी कई तरह के पर्यावरणीय नियमों की जांच के साथ. सभी निरीक्षण, शिकायतें और लागू करना लगभग नामुमकिन है.

“निरीक्षण पर जाने से पहले ही हम आधा दिन कंसेंट और डेस्क जॉब में निकाल देते हैं, जैसे RTI का जवाब देना, शिकायतें देखना, मुख्यालय, CPCB, CAQM और मंत्रालय की जरूरतों के अनुसार डेटा तैयार करना,” पर्यावरण इंजीनियर अंकुर पाठक ने कहा.

“किसी क्षेत्रीय कार्यालय का आकार कितना होना चाहिए, इसके लिए कोई नियम नहीं है,” जुयाल ने कहा, जिनके ऑफिस में कई पौधे हैं और वह लगातार स्टाफ से उन्हें पानी देने को कहते रहते थे.

कई वर्षों तक RSPCB दो मोर्चों पर संघर्ष करता रहा. वह अपनी स्वीकृत स्टाफ संख्या भी पूरा नहीं कर पाता था और यह संख्या राजस्थान के बढ़ते औद्योगिक भार के मुकाबले बहुत कम थी. अक्टूबर 2023 में राज्य ने स्वीकृत पद 600 से बढ़ाकर 808 किए, लेकिन भिवाड़ी के अधिकारी कहते हैं कि ज़मीनी स्तर पर यह संख्या अब भी बेहद कम है.

यहां का एक आम दिन धुएं का पीछा करने में नहीं, बल्कि कागज़ का पीछा करने में निकल जाता है. दिन की शुरुआत कंसेंट एप्लिकेशन से होती है — वे जरूरी परमिट जिनकी उद्योगों को संचालन के लिए जरूरत होती है. भिवाड़ी कार्यालय हर दिन तीन से चार कंसेंट आवेदन प्राप्त करता है, जो राजस्थान में सबसे ज्यादा में से एक है. हर फाइल में तकनीकी ड्रॉइंग, ट्रीटमेंट प्लांट डिज़ाइन, उत्सर्जन के अनुमान और अनुपालन का इतिहास होता है, जिन्हें ध्यान से जांचना पड़ता है. अधिकारियों के पास हर आवेदन को मंजूर करने के लिए 120 दिन होते हैं, लेकिन सिर्फ छह तकनीकी स्टाफ के साथ यह समय सीमा औपचारिकता भर रह जाती है. पूरे राजस्थान में इस समय 793 कंसेंट आवेदन लंबित हैं. भिवाड़ी के लिए यह संख्या 90 है.

Bhiwadi pollution
भिवाड़ी के रीजनल पॉल्यूशन ऑफिसर अमित जुयाल ने कहा, ‘हमें 50% और स्टाफ चाहिए, काम संभालना मुश्किल हो रहा है’ | फोटो: वनिता भटनागर

कंसेंट फाइलों की जांच के बाद अधिकारियों को फील्ड वेरिफिकेशन की योजना बनानी होती है और उद्योगों की पूछताछ के जवाब देने होते हैं. कागज़ी काम खत्म ही नहीं होता. नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल को जवाब तैयार करने, शो-कॉज़ नोटिस ड्राफ्ट करने और दिशा-निर्देश जारी करने तक कई काम हैं. फिर पर्यावरण शिक्षा सत्र, वर्ल्ड एनवायरनमेंट डे जैसे कार्यक्रम और जयपुर से आने वाली प्रशासनिक समीक्षा भी संभालनी होती है.

सालों में लागू होने वाले पर्यावरण कानूनों की संख्या कुछ से बढ़कर 11 मुख्य अधिनियम हो चुकी है, लेकिन स्टाफ नहीं बढ़ा है.

फील्ड विज़िट के लिए भी समय नहीं बचता. भिवाड़ी कार्यालय से हर तिमाही लगभग 460 निरीक्षण अपेक्षित हैं, लेकिन वह केवल 40-50 प्रतिशत ही कर पाता है. गाड़ियां, ड्राइवर और सैंपलिंग के लिए तकनीशियन भी पर्याप्त नहीं हैं. अधिकारियों के पास सिर्फ एक ड्राइवर और एक सैंपलिंग वैन है.

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धुंधले आसमान के नीचे भिवाड़ी की एक फैक्ट्री. शहर में प्रदूषण की खराब हालत का बहुत कुछ लेना-देना अलग-अलग एजेंसियों में बिखरे हुए और सुस्त गवर्नेंस से है | फोटो: वनिता भटनागर | दिप्रिंट

प्रशिक्षण कार्यक्रम भी अक्सर कानून और प्रक्रियाओं की “बुनियादी” बातें ही दोहराते हैं. पाठक कहते हैं कि क्षेत्र-विशेष प्रशिक्षण की जरूरत है, जिससे स्थानीय समस्याओं को समझकर उनका हल निकाला जा सके.

बॉटलनेक के भीतर

लैब से लेकर मॉनिटरिंग सिस्टम तक पूरी व्यवस्था दबाव में कराह रही है. लैब के चार कर्मचारी भारी धातुओं या खतरनाक प्रदूषकों की जांच नहीं कर सकते क्योंकि जरूरी उपकरण नहीं हैं, जबकि औद्योगिक क्षेत्र के लिए यह बेहद जरूरी है.

“मेटल टेस्टिंग के लिए सब कुछ अलवर भेजना पड़ता है,” वरिष्ठ वैज्ञानिक अधिकारी और लैब इंचार्ज रोहित मीणा ने कहा. “हमारी लैब को अपग्रेड होना चाहिए. माइक्रोबायोलॉजी लैब भी प्रस्तावित है, लेकिन उसमें समय लगेगा.”

लगातार मॉनिटरिंग भी बड़ी समस्या है. 360 से ज्यादा फैक्टरी यूनिटों को कंटीन्यूअस एमिशन मॉनिटरिंग सिस्टम (CEMS) लगाना अनिवार्य है, लेकिन अधिकारियों का अनुमान है कि 40 से भी कम ने इसे लगाया है. अंतिम तारीख 31 दिसंबर है.

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भिवाड़ी पॉल्यूशन बोर्ड की वॉटर लैब के अंदर. ऑफिस में हेवी मेटल्स या खतरनाक प्रदूषकों की जांच के लिए सुविधाएं नहीं हैं | तस्वीरें: वनिता भटनागर

“हम 24×7 मॉनिटर नहीं कर सकते. यह संभव नहीं है,” मीणा ने कहा.

इस बीच, अवैध यूनिट्स काम करना जारी रखे हुए हैं और ज़हरीला कीचड़ सड़कों के बड़े हिस्से पर फैला हुआ है.

1 मई 2025 को NGT को भेजी गई रिपोर्ट में RSPCB ने माना कि राजस्थान-हरियाणा बॉर्डर के पास कई अवैध भट्टे चल रहे हैं, जिनमें कई भिवाड़ी की सीमा में आते हैं. ये यूनिटें बिना कंसेंट के चल रही हैं, जो स्पष्ट रूप से जल अधिनियम, वायु अधिनियम और पर्यावरण संरक्षण अधिनियम का उल्लंघन है. यह वही बात है जो निवासी सालों से कहते आ रहे हैं.

“यह इलाका कभी औद्योगिक टाउनशिप के रूप में प्लान नहीं हुआ था. यह मूल रूप से कैचमेंट एरिया था जहां उद्योग आने लगे और लोग बसते चले गए. घनत्व बहुत ज्यादा है और भौगोलिक स्थिति हमारे खिलाफ जाती है,” जुयाल ने कहा.

एक और विफलता सड़कों पर जमा चमकदार, तेल मिला औद्योगिक कचरा है — जो औद्योगिक फैलाव के बीच ढांचे की कमजोरी दिखाता है. यह “गंदा नाला” दोपहिया वाहनों को रोक देता है, ट्रैफिक जाम बढ़ाता है और पैदल चलने वालों को रसायन मिले पानी में रास्ता ढूंढने पर मजबूर करता है. औद्योगिक गंदा पानी हरियाणा के धरूहेड़ा तक जाता है. दो साल पहले NGT ने इस वजह से राजस्थान सरकार पर 45 करोड़ रुपये का जुर्माना लगाया था.

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सीनियर साइंटिफिक ऑफिसर और लैब-इनचार्ज रोहित मीना का कहना है कि लैब को तुरंत अपग्रेड करने की ज़रूरत है | फोटो: वनिता भटनागर

अगस्त 2025 में, NGT ने फिर RSPCB को फटकार लगाई जब एक्टिविस्ट हैदर अली ने भिवाड़ी की चौपांकी और खैरानी जैसी जगहों में बिना ट्रीटमेंट फैला औद्योगिक अपशिष्ट मामले में शिकायत की. इसी समय केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने राजस्थान की 40 यूनिटों को अपशिष्ट मानकों का उल्लंघन करते पाया.

अधिकारी बताते हैं कि संरचनात्मक कमी गहरी है. कोई समर्पित R&D विंग नहीं है. औपचारिक प्रशिक्षण व्यवस्था नहीं है. और सबसे बड़ा मुद्दा है– बिना प्लानिंग वाला औद्योगिक विस्तार.

“यह इलाका कभी औद्योगिक टाउनशिप के तौर पर प्लान नहीं किया गया था,” जुयाल ने कहा. “यह एक कैचमेंट एरिया था जहाँ उद्योग आते गए और लोग बसते गए. यूनिटों की घनता बहुत ज्यादा है और भौगोलिक स्थिति भी हमारे खिलाफ है.”

प्रदूषण की मशीनरी

औद्योगिक इलाके के पास कई जगहों पर काली-नीली जमी हुई बदबूदार गंदा पानी सड़क पर फैल जाता है. उसकी बदबू पहले आती है, दृश्य बाद में दिखता है. पास में एक मंदिर है और लगभग 500 मीटर दूर एक प्राथमिक स्कूल है.

“यह कई सालों से ऐसा ही है,” एक फैक्ट्री मालिक ने कहा, जो एक मिड-साइज़ फेब्रिकेशन यूनिट चलाते हैं. “हर जगह केमिकल वाला ड्रेनेज है. बोर्ड आकर इसे ठीक क्यों नहीं करता.”

लेकिन RSPCB के अधिकारियों का कहना है कि यह उनके अधिकार क्षेत्र में नहीं आता. वे निर्देश तो जारी कर सकते हैं, लेकिन काम करवाना उनके हाथ में नहीं है. ड्रेनेज और स्टॉर्मवॉटर चैनल नगर परिषद और राजस्थान स्टेट इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट एंड इन्वेस्टमेंट कॉरपोरेशन (RIICO) की जिम्मेदारी है.

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सीनियर साइंटिफिक ऑफिसर और लैब-इनचार्ज रोहित मीणा का कहना है कि लैब को तुरंत अपग्रेड करने की ज़रूरत है | फोटो: वनिता भटनागर

सड़क पर बहता औद्योगिक कचरा एक तंग गली से होते हुए सीधे रिहायशी इलाके में पहुंच जाता है.

हवा प्रदूषण के मामले में भी यही हाल है. बोर्ड अधिकारियों का कहना है कि उनके निर्देश अक्सर फाइलों में ही गुम हो जाते हैं. बीवाड़ी में प्रदूषण नियंत्रण की यह मशीनरी जिम्मेदारी को आगे खिसकाते रहने की एक कड़ी बन गई है.

“रोड डस्ट मुख्य कारण है,” जियाल ने कहा, जो 2020 के IIT कानपुर स्टडी की बात दोहरा रहे थे, जिसे RSPCB को सौंपा गया था. “हम निर्देश जारी करते हैं, लेकिन कई बार कार्रवाई RIICO या नगर परिषद को करनी होती है.” उनके सहयोगी अंकुर पाठक ने इसे और साफ शब्दों में कहा. “सब लोग चाहते हैं कि हम लागू करवाएं, लेकिन होता नहीं है.”

RIICO अधिकारियों का कहना है कि धन की कमी एक बड़ा कारण है. टूटी सड़क को ठीक करने के RSPCB के हालिया निर्देश को वे केवल आंशिक रूप से ही पूरा कर पाए.

“हमारे पास सिर्फ एक हिस्से को ठीक करने के ही पैसे थे,” एक RIICO अधिकारी ने कहा.

लेकिन शायद संस्थागत सुस्ती की सबसे बड़ी मिसाल कॉमन एफ्लुएंट ट्रीटमेंट प्लांट (CETP) है, जिसका काम औद्योगिक गंदे पानी को ट्रीट करके वापस यूनिट्स को भेजना होता है.

एक 2017 की CAG रिपोर्ट में पाया गया कि ट्रीट किया हुआ पानी पाइपलाइन के जरिए साबी नदी में भेजा जा रहा था या औद्योगिक क्षेत्र में खुले में बह रहा था. कई जगहों पर ट्रीट किया हुआ पानी फैक्ट्रियों के बिना-ट्रीटमेंट वाले खतरनाक कचरे के साथ मिल जाता था, जिससे CETP का उद्देश्य ही खत्म हो जाता था.

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भिवाड़ी के कॉमन एफ्लुएंट ट्रीटमेंट प्लांट (CETP) के अंदर, जिसका इंडस्ट्रियल गंदे पानी के ट्रीटमेंट में एक लंबा और उतार-चढ़ाव भरा इतिहास रहा है | फोटो: वनिता भटनागर

यह प्लांट 2004 में RIICO और बीवाड़ी इंटीग्रेटेड डेवलपमेंट अथॉरिटी (BIDA) ने शुरू किया था. बाद में इसे स्थानीय उद्योग इकाइयों की एक कमेटी को सौंपा गया और अंत में यह सरकारी फंड से चलने वाले बीवाड़ी जल प्रदूषण निवारण ट्रस्ट के तौर पर औपचारिक हुआ.

यह प्लांट, जो औद्योगिक गंदे पानी और खर्च हो चुके एसिड का भारी मिश्रण संभालता है, एक व्यस्त रिहायशी इलाके के ठीक बगल में स्थित है. स्टार अस्पताल और लेमन ट्री होटल एक किलोमीटर से भी कम दूरी पर हैं और प्लांट के गेट से केवल 200 मीटर दूर एक औद्योगिक सीवेज प्लांट चलता है.

ट्रस्ट के चेयरमैन सतिंदर सिंह चौहान ने अपनी झुंझलाहट साफ जाहिर की.

“अगर निकलने का रास्ता होता, तो मैं कल ही छोड़ देता,” उन्होंने थकी हुई मुस्कान के साथ कहा. “इस पद के लिए कोई खुद नहीं आता. सब जानते हैं कि यह सिरदर्द है.”

एक तरफ उन्हें प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के नोटिसों का सामना करना पड़ता है, तो दूसरी तरफ वे उन उद्योगों से जूझते हैं जो नियम नहीं मानते. और फिर यह डर भी हमेशा बना रहता है कि बिना-ट्रीट किया हुआ गंदा पानी मोहल्ले की नालियों में न पहुंच जाए.

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ये पाइप गंदे पानी को ट्रीटमेंट प्लांट तक पहुंचाते हैं | फोटो: वनिता भारद्वाज

सदस्यता शुल्क और ट्रीटमेंट चार्ज — लगभग दो रुपये प्रति लीटर — जल्दी ही बड़ा खर्च बन जाता है और छोटे यूनिट्स के लिए पालन करना मुश्किल हो जाता है. मानसून में शिकायतें बढ़ जाती हैं कि फैक्ट्रियां रात में गंदा पानी बहा देती हैं.

“कौन करता है, यह ढूंढना लगभग असंभव है,” उन्होंने कहा.

सड़क के उस पार, एक फैक्ट्री मालिक ने इसी समस्या का दूसरा पहलू बताया.

“हम CETP के रखरखाव के लिए पैसे देते हैं, लेकिन यह ठीक से चलता ही नहीं. आधा समय टैंक ओवरफ्लो करते रहते हैं. अगर सिस्टम काम नहीं करेगा, तो उद्योग उस पर भरोसा कैसे करें.”

उनके मुताबिक पर्यावरण अनुमति एक “पेपरवर्क सर्कस” है. उन्होंने कहा कि स्पष्ट दिशा-निर्देश, सरल नियम और एजेंसियों के बीच बेहतर तालमेल “मददगार” होगा.

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भिवाड़ी में ट्रीटमेंट प्लांट पर गंदे पानी का तालाब। यह उस शहर में झील के नज़ारे जैसा सबसे करीब का नज़ारा है, जहां अपमार्केट कॉम्प्लेक्स के नाम कॉसमॉस ग्रीन्स और आशियाना ट्रीहाउस जैसे हैं | फोटो: वनिता भटनागर

एक पर्यावरण इंजीनियर के अनुसार, “कंसेंट प्रोसेस उद्योगों के लिए ही नहीं, हमारे लिए भी जटिल है. कई आवेदन अधूरे आते हैं या तकनीकी जानकारी गायब होती है. कंपनियां कंसल्टेंट रखती हैं, लेकिन कमी फिर भी रहती है. हम उनकी फाइलें ‘ठीक’ नहीं कर सकते, बस वापस भेज सकते हैं और बताना पड़ता है कि क्या कमी है. इससे उद्योगों को लगता है कि बोर्ड में कुछ होता नहीं है. वे कंसल्टेंट्स पर और पैसा खर्च करते हैं, जबकि हम अधूरी तकनीकी जानकारी पर अनुमति नहीं दे सकते.”

जब आसपास बहुत कम लोग नियमों का पालन करते हैं, तो नियम मानने की लागत भारी और बेकार लगने लगती है.

उसी फेब्रिकेशन यूनिट के मालिक ने बताया कि उन्होंने हाल ही में अपने डीजल जेनरेटर को नए उत्सर्जन मानकों के अनुसार अपग्रेड किया, लेकिन उन्हें इसका कोई खास फायदा नहीं दिखता.

“हमारा जेनसेट इतना पुराना भी नहीं था,” उन्होंने कहा. “फिर भी हमने एक लाख से ज्यादा खर्च कर दिया. और सच कहूं तो मुझे नहीं लगता इसका कोई असर हुआ. हमारे आसपास की इंडस्ट्री खुद नियम तोड़ती रहती है. अगर सब लोग बराबर कानून नहीं मानेंगे, तो एक जेनरेटर अपग्रेड करने से क्या फर्क पड़ेगा.”

ऐसे औद्योगिक क्लस्टर्स में जहां कई यूनिट्स बेहद कम मुनाफे पर काम करती हैं, नियम मानने वाले अक्सर उन लोगों से पिछड़ जाते हैं जो चुपचाप नियम तोड़ते हैं. फैक्ट्री मालिक ने स्टोन क्रशर्स का उदाहरण दिया. GRAP के तहत उन्हें उच्च प्रदूषण वाले दिनों में काम बंद रखना चाहिए, लेकिन ज्यादातर ऐसा नहीं करते.

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भिवाड़ी की इंडस्ट्रियल यूनिट्स के बगल में यह गंदे पानी का जमावड़ा सालों से यहीं है | वनिता भटनागर

“वे रात में काम करते हैं. अगर कानून बराबर लागू नहीं होगा, तो कोई भी इंडस्ट्री नहीं मानेगी क्योंकि कीमत पर असर पड़ता है.”

लाल ज़ोन में छोटे शहर

बीवाड़ी राष्ट्रीय संकट की स्थानीय तस्वीर है. छोटे औद्योगिक शहर बड़े प्रदूषणकारी बन गए हैं. CPCB निरीक्षण, CAG ऑडिट और संसदीय कमेटी की रिपोर्टें बार-बार बताती हैं कि देशभर में पर्यावरण इंजीनियरों, लैब तकनीशियनों और मॉनिटरिंग सिस्टम की भारी कमी है.

2021 की सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरनमेंट (CSE) रिपोर्ट में पाया गया कि 2009 में प्रदूषित घोषित किए गए 88 औद्योगिक क्लस्टरों में से कई में 2018 तक हवा, पानी और मिट्टी का प्रदूषण और बढ़ गया. 33 क्लस्टरों में वायु गुणवत्ता बिगड़ी, जिनमें मथुरा, बुलंदशहर-खुर्जा, मुरादाबाद और तारापुर शामिल हैं. पिछले साल मेघालय के औद्योगिक शहर बर्नीहाट को IQAir रिपोर्ट में दुनिया के सबसे प्रदूषित शहर के रूप में रैंक किया गया था. हरियाणा का धारूहेड़ा भी एक बड़ा दावेदार है.

कभी-कभी ‘सफलता की कहानियां’ भी आती हैं, लेकिन वे भी पूरी तरह साफ तस्वीर नहीं देतीं. गुजरात का वलसाड जिला स्थित वापी इसका उदाहरण है. 2000 के दशक की शुरुआत से यह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ‘टॉक्सिक हॉटस्पॉट’ माना जाता था, लेकिन 2010 के बाद बदलाव की खबरें आईं. गुजरात प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने कार्रवाई तेज की, कई बिना-पालन करने वाली फैक्ट्रियों को बंद करने के नोटिस दिए और CETP में 464 करोड़ रुपये का अपग्रेड हुआ. 2016 में केंद्र सरकार ने वहां नए उद्योग लगाने पर लगी रोक हटा दी.

CREA pollution map
CREA प्रदूषण मैप | ग्राफ़िक: मनाली घोष

लेकिन यह भी प्रदूषण-मुक्त जगह नहीं है. 2023 में डाउन टू अर्थ ने रिपोर्ट किया कि वापी CETP का ट्रीटेड पानी मानकों पर खरा नहीं उतर रहा था. यह भी पाया गया कि वहां की प्रदूषण सूचकांक रिपोर्ट पांच साल तक अपडेट नहीं हुई थी. इसी साल वापी ने गुजरात में सबसे खराब वायु गुणवत्ता दर्ज की.

वाराणसी, जो एक उभरता औद्योगिक केंद्र है, वहां भी डेटा को लेकर सवाल उठे हैं. पिछले साल दिप्रिंट ने रिपोर्ट किया कि शहर की वायु गुणवत्ता भले ही बेहतर दिखाई दी, लेकिन कई मॉनिटरिंग स्टेशनों के लंबे समय तक डेटा गायब था और बेसलाइन समान नहीं थीं.

CREA districts
CREA द्वारा प्रदूषित जिलों की गिनती | ग्राफिक मनाली घोष

बीवाड़ी में सिर्फ दो रियल-टाइम एयर क्वालिटी मॉनिटरिंग स्टेशन हैं, जो शहर के आकार, औद्योगिक भार और प्रदूषण स्तर के हिसाब से बेहद कम हैं. विशेषज्ञ कहते हैं कि कम से कम छह होने चाहिए.

वाहनों का प्रदूषण एक और परत जोड़ता है. पब्लिक ट्रांसपोर्ट लगभग न के बराबर है, इसलिए लोग कार और दोपहिया पर ही निर्भर हैं, जिससे हवा और खराब होती है.

CSE के अनुसार, वायु प्रदूषण जीवन प्रत्याशा को औसतन 2.6 वर्ष कम कर देता है और सभी समयपूर्व मौतों में 30 प्रतिशत योगदान देता है. दि लैंसेट में प्रकाशित शोध में पाया गया कि केवल 2017 में ही भारत में वायु प्रदूषण के कारण 12.4 लाख समयपूर्व मौतें हुईं. यानी हर तीन मिनट में एक बच्चे की मौत प्रदूषण से जुड़ी वजह से हुई.

समाधान क्या है?

भारत में कई मुद्दों की तरह, यहां भी दिक्कतें बिखरी हुई और सुस्त व्यवस्था की वजह से होती हैं.

एजेंसियों के बीच तालमेल कमजोर है. पीडब्ल्यूडी, रीको, नगर परिषद और भिवाड़ी इंटीग्रेटेड डेवलपमेंट अथॉरिटी (बिडा) एक-दूसरे से मिलते-जुलते काम करते हैं. इससे प्रोजेक्ट धीमे चलते हैं और लगातार गलतफहमियां पैदा होती हैं. चौहान के मुताबिक यही मुख्य समस्या है.

उन्होंने कहा कि “रीको की सीमाएं और परिषद की खराब वित्तीय स्थिति हालात को और बिगाड़ती है.”

क्षेत्रीय प्रदूषण दफ्तर भी सीमित अधिकारों के साथ काम करते हैं. वे निर्देश तो जारी करते हैं, लेकिन कार्रवाई अलग-अलग संस्थाओं के हाथ में होती है—इन्फ्रास्ट्रक्चर के लिए रीको और नाले तथा कचरे के लिए नगर परिषद. प्रदूषण जिम्मेदारी की तरह एक-दूसरे को पकड़ा दिया जाता है, और आखिर में कहीं खो जाता है.

सीआरईए के वरिष्ठ विश्लेषक और 2025 के अध्ययन के एक लेखक एन मनोज कुमार ने कहा, “इस चक्र को तोड़ने के लिए तीन बदलाव जरूरी हैं. रीको और स्थानीय संस्थाओं को तय समय सीमा में कार्रवाई करने के लिए मजबूर करना, संयुक्त प्रवर्तन शुरू करना, और खास परियोजनाओं की फंडिंग की निगरानी व जारी करने का काम राज्य प्रदूषण बोर्ड को देना.”

Bhiwadi pollution
भिवाड़ी प्रदूषण कार्यालय की प्रशासनिक और लैब बिल्डिंग | फोटो: वनिता भटनागर

उन्होंने कहा कि रीको, नगर परिषद, बिडा, आरएसपीसीबी और जिला प्रशासन के बीच एक साझा डैशबोर्ड होना चाहिए, जिसे हर महीने अपडेट किया जाए. “जब तक जिम्मेदारी तय नहीं होगी, जवाबदेही नहीं आएगी.”

औद्योगिक और आवासीय क्षेत्रों के ओवरलैप को देखते हुए उन्होंने कहा कि भिवाड़ी में हर तीन साल में एक अनिवार्य स्वास्थ्य प्रभाव आकलन होना चाहिए.

“उन्हें हवा, पानी, मिट्टी और स्वास्थ्य का हर साल ऑडिट करना चाहिए. टीम में डेटा विश्लेषक और रणनीतिकार भी होने चाहिए जो समस्या का हल खोज सकें,” उन्होंने कहा.

पाथक ने प्रदूषण बोर्ड का समय खराब करने वाली लंबित परमिट की समस्या पर पंजाब को एक उदाहरण बताया.

उन्होंने कहा, “पंजाब प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड चार्टर्ड इंजीनियर और प्रमाणित प्रोफेशनल नियुक्त करता है जो उद्योगों को तकनीकी रूप से सही आवेदन तैयार करने में मदद करते हैं. इससे बोर्ड का समय इधर-उधर की सुधार प्रक्रिया में नहीं जाता और मंजूरी जल्दी मिलती है.”

हालांकि, कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि भिवाड़ी में प्रदूषण से जुड़ी समस्याएं स्टाफ की कमी या तकनीकी क्षमता से नहीं, बल्कि नीयत और राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी से जुड़ी हैं. विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी के वरिष्ठ शोधकर्ता और जलवायु तथा पारिस्थितिकी टीम के प्रमुख देबादित्यो सिन्हा के मुताबिक यही असली समस्या है.

सिंहा ने कहा, “अगर राज्य सच में सख्त कार्रवाई चाहता तो स्टाफ बढ़ाता और अधिकारियों को अधिकार देता. वे ऐसा करना ही नहीं चाहते. उदाहरण के लिए, जीएसटी सिस्टम इसलिए चलता है क्योंकि उस पर राजनीतिक दबाव और प्रशासनिक सख्ती है. पर्यावरण नियमों पर न तो राजनीतिक दबाव है और न ही प्रशासनिक फोकस. अगर राज्य स्वच्छ हवा को उतनी ही अहमियत दे जितनी टैक्स राजस्व को देता है, तो पालन तुरंत सुधर जाएगा.”

समस्या का एक और पहलू प्रदूषण आंकड़ों की पारदर्शिता की कमी है. सिंगल विंडो क्लियरेंस और ऑनलाइन सिस्टम होने के बावजूद, उत्सर्जन और डिस्चार्ज डेटा आसानी से नहीं मिलते.

Bhiwadi
भिवाड़ी इंडस्ट्रियल एरिया में एक डंपसाइट। एक फैक्ट्री मालिक ने कहा कि नियमों का पालन करना बेकार लगता है: ‘हमारे आस-पास की इंडस्ट्रीज़ लगातार नियमों का उल्लंघन करती रहती हैं’ | वनिता भटनागर

सिंहा ने कहा, “डेटा मौजूद है, बस सरकार उसे सार्वजनिक नहीं करना चाहती. अगर मेरे घर के पास की फैक्ट्री तय सीमा से ज्यादा उत्सर्जन कर रही है, तो मुझे वह डेटा तुरंत देखने को मिलना चाहिए. उद्योगों की रियल टाइम निगरानी की तकनीक मौजूद है, लेकिन कार्रवाई अभी भी तभी होती है जब समस्या हो जाती है, पहले से नहीं.”

सीआरईए रिपोर्ट की मुख्य सिफारिशों में से एक सैटेलाइट से मिले डेटा को औद्योगिक इलाकों में बेहतर और घने मॉनिटरिंग नेटवर्क के साथ जोड़ना था. और यह जानकारी सार्वजनिक की जानी चाहिए.

रिपोर्ट में कहा गया, “सैटेलाइट आधारित अनुमान की जांच, समय-समय पर अपडेट और सार्वजनिक रूप से जारी करने का एक तय सिस्टम बनाने से पारदर्शिता बढ़ेगी और जिन इलाकों में ग्राउंड मॉनिटर नहीं हैं, वहां वास्तविक समय में निर्णय लेने में मदद मिलेगी.”

रोजमर्रा की चिंता

भिवाड़ी के पुराने औद्योगिक इलाके के पास एक छोटी क्लिनिक में एक डॉक्टर मरीजों की लिस्ट ऐसे गिनाते हैं जैसे कोई सामान गिन रहा हो.

उन्होंने कहा, “खांसी, जुकाम, सीओपीडी, अस्थमा, फैरिंजाइटिस, लोअर रेस्पिरेटरी इंफेक्शन. और स्कीन की समस्याएं: एक्जिमा, मुंहासे, स्केबीज. ये बढ़ोतरी असली है.”

उन्होंने बताया कि अप्रैल, मई, सितंबर और अक्टूबर के महीने उन्हें सबसे ज्यादा चिंता देते हैं, जब गर्मी, नमी और फंसे हुए प्रदूषक मिलकर दम घोंटने वाला माहौल बना देते हैं. औद्योगिक कामगार सबसे ज्यादा जोखिम में होते हैं.

उन्होंने कहा, “केमिकल, कीटनाशक, रबर, पेंट यूनिट… ये सब फेफड़ों में रुकते हैं. जमा होते रहते हैं.” कुछ मरीज वजह जानते हैं, कुछ बस महसूस करते हैं कि हवा उन्हें बीमार कर रही है.

उन्होंने बताया कि उनसे कभी किसी सरकारी एजेंसी ने डेटा, सर्वे या किसी अध्ययन के लिए संपर्क नहीं किया. उन्हें भिवाड़ी में किसी भी हेल्थ स्टडी की जानकारी नहीं है. प्रदूषण बोर्ड दफ्तर ने भी पुष्टि की कि ऐसा कोई स्टडी नहीं है.

सिंहा ने कहा, “स्वास्थ्य प्रभाव अध्ययनों को अहम नहीं माना जाता क्योंकि नुकसान का सबूत सरकार के खिलाफ जाता है. और जब सबूत नहीं होता तो सिस्टम मानता रहता है कि कोई असली नुकसान नहीं है.” लोगों में भी शिकायतें तो हैं लेकिन कोई संगठित विरोध नहीं है.

पंद्रह साल पहले 35 वर्षीय उमा खंडेलवाल दिल्ली से भिवाड़ी आई थीं, यह सोचकर कि यहां हवा साफ मिलेगी और जिंदगी थोड़ा आरामदेह होगी. लेकिन यहां आकर उन्हें एक ऐसा शहर मिला जो न उम्मीदों तक पहुंच पाया है और न पूरी तरह से छोड़ा गया है.

उनका रोज का सफर उन्हें याद दिलाता है कि हालात कितने खराब हैं. उनका स्कूल अलवर बाइपास रोड पर है, जहां लगभग कोई पब्लिक ट्रांसपोर्ट नहीं है. उन्हें खुद ही रोज गाड़ी चलानी पड़ती है. लेकिन असल झटका उन्हें क्लास में खड़े होने पर लगता है.

उन्होंने कहा, “मैं बच्चों को अच्छी शिक्षा देने की पूरी कोशिश करती हूं, पर इसका क्या मतलब जब वे साफ हवा में सांस ही नहीं ले पा रहे?”

उन्हें सबसे ज्यादा चिंता इस बात की है कि पहले से कमजोर प्रतिरोधक क्षमता वाले बच्चों में बीमारियां कितनी तेजी से फैलती हैं. बीमारियां सिर्फ आम सर्दी-खांसी तक सीमित नहीं हैं. उन्होंने कहा कि हैंड-फुट-माउथ बीमारी और मंप्स के भी ज्यादा मामले दिख रहे हैं. प्रदूषण शिक्षा पर भी असर डालता है.

खंडेलवाल ने कहा, “ये सिर्फ सेहत की बात नहीं है, यह सीखने की क्षमता को भी प्रभावित करता है. अगर बच्चा तीन-चार दिन बीमार होकर स्कूल नहीं आता, तो वह बेसिक कॉन्सेप्ट मिस कर देता है. फिर उसे पूरा चैप्टर समझ नहीं आता.”

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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