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Friday, 19 April, 2024
होमफीचरखत्म होने की कगार पर मेघालय की 'खनेंग कढ़ाई' को फिर से जीवित करने की कोशिश- 3 से बढ़कर हुए 20 कारीगर

खत्म होने की कगार पर मेघालय की ‘खनेंग कढ़ाई’ को फिर से जीवित करने की कोशिश- 3 से बढ़कर हुए 20 कारीगर

मेघालय का गांव मुस्तोह लगभग 200 सालों से पेचीदा खनेंग पैटर्न की कढ़ाई कर रहा है.

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भारत-बांग्लादेश सीमा के पास बसा मुस्तोह गांव पूरे मेघालय में एकमात्र ऐसा गांव है जिसने पिछले 200 सालों से खनेंग नाम से जानी जाने वाली एक अनूठी, कई लाइनों वाली, कनखजूरा जैसी कढ़ाई की विरासत को जिंदा बनाए हुआ है. हालांकि गांव में अब इस हुनर को जानने वाले कम ही बचे हैं. काम की पेचीदगी और लोगों के बीच इसकी कम होती लोकप्रियता के चलते हर आने वाली नई पीढ़ी इससे दूर होती चली गई.

खासी बायोडायवर्सिटी कार्यकर्ता फ्रांग रॉय को उस समय धक्का लगा, जब उन्होंने 2014 में पाया कि इस शिल्प को जानने वाली सिर्फ तीन महिलाएं ही बची हैं. इनमें से दो तो अपनी उम्र के 40वें पड़ाव में थीं और एक महिला की उम्र लगभग 60 साल थी.

समय धीरे-धीरे बीतता जा रहा था.

रॉय और उनके संगठन ‘नॉर्थ ईस्ट स्लो फूड एंड एग्रो बायोडायवर्सिटी सोसाइटी (NESFAS), शिलांग’ ने खनेंग कढ़ाई तकनीक को फिर से जिंदा करने का एक मिशन बनाया.

खनेंग कढ़ाई के तीन जानकार कारीगरों’ के साथ लगातार वर्कशाप कर इसे आगे लोगों तक बढ़ाने का काम किया गया. मेहनत रंग लाई और कारीगरों की संख्या 2021 तक बढ़कर 20 हो गई. इस पहल के बारे में लोगों को पता चला तो कढ़ाई के इस रूप के बारे में जानने के लिए टेक्सटाइल रिसर्चर्स, डिजाइनर और बुटीक चला रही कई कंपनियां देशभर से उनके पास आने लगीं.

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इस साल की शुरुआत में मार्च में मेघालय की डिजाइनर इबा मल्लई ने लैक्मे फैशन वीक के लिए डिजाइन किए गए कोट और ड्रेस पर खनेंग बॉर्डर की कढ़ाई के लिए महिलाओं से संपर्क किया था.

मेघालय के कला और संस्कृति विभाग के आयुक्त और सचिव फ्रेडरिक रॉय खार्कोंगोर ने कहा, ‘यह विरासत को फिर से जिंदा करने के बारे में है. हमारे स्वभाव और संस्कृति में रची-बची खनेंग जैसी आदिवासी कढ़ाई बेहद अनोखी है. यह वही है जो मैक्सिको की माया सभ्यता के लोग किया करते थे.’


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200 साल पुराने शिल्प को फिर से जिंदा करना

आमतौर पर पारंपरिक खासी पोशाक के बॉर्डर पर सिंगल या डबल-लाइन में खनेंग कढ़ाई की जाती है. इसके पेचीदा पैटर्न में तरह-तरह की आकृतियां बनाना शामिल हैं. ज्यादातर काले धागे का इस्तेमाल करते हुए बॉर्डर को एक कटियार – आर्थ्रोपोड जैसा कानखजूरा, जो खासी संस्कृति में पूजनीय है- के समान बनाया जाता है.

मुस्तह गांव में खनेंग कढ़ाई करना लोगों ने कब सीखा या जाना इसके बारे में बहुत कम जानकारी है. ऐसा कहा जाता है कि यह लगभग 200 साल पुरानी बात है. खनेंग पैटर्न की कढ़ाई करना आसान नहीं. शायद यही वजह रही कि समय के साथ-साथ लोगों ने इसे सीखने की तरफ कम ध्यान देना शुरू कर दिया.

खनेंग में हथकरघा जैसे किसी भारी मशीनरी पर काम करना नहीं होता है. लेकिन कारीगरों को कपड़े के धागों को गिनना पड़ता है और उसी आधार पर पैटर्न की कढ़ाई करनी होती है ताकि बनाए गए चित्र को कपड़े पर समान रूप से बांटा जा सके. महिलाओं को हर टांके पर पैनी निगाह रखनी होती है, ऐरी रेशम के कपड़े, जिसे रिंडिया के नाम से जाना जाता है, पर घंटों बैठकर कढ़ाई करनी होती है. जो अपने आप में थकान भरा और मुश्किल काम है.

कढ़ाई को जानने वाली तीन आखिरी महिलाओं में से एक, 45 वर्षीय विक्ट्री सिनरेम ने कहा, ‘कढ़ाई की यह परंपरा सालों से मर रही थी. क्योंकि लोगों ने देखा कि यह बेहद थकाऊ और समय लेने वाला काम है. यह एक कारीगर की सेहत पर भी असर डाल रहा था. लगातार बैठकर काम करने से उनकी पीठ और आंखों की रोशनी पर असर पड़ने लगा.’

Victory Synrem, one of the three remaining women who know the Khneng craft, stitching embroidery pattern | Photo: NESFAS
विक्ट्री सिनरेम, तीन शेष महिलाओं में से एक, जो खनेंग शिल्प, सिलाई कढ़ाई पैटर्न को जानती हैं | फोटो: NESFAS

रॉय का पुश्तैनी घर मुस्तोह में है. उन्हें 2014 में अपने एक रिश्तेदार से खनेंग के बारे में पता चला था. उसी साल दिसंबर से उन्होंने इसके बारे में जानकारी पाने के लिए मुस्तोह जाना शुरू कर दिया. अपने इस सफर के दौरान जिन भी महिलाओं से उनकी मुलाकात हुई, उससे पता चला कि इस काम को जितना जल्द हो सके शुरू कर देना चाहिए और फिर इस पहल का जन्म हुआ. योजना के जरिए कढ़ाई जानने वाली आखिरी तीन बची महिलाओं- विक्ट्री सिनरेम (45), ब्लिव्टिबोन मावा (60) और असिबोन मावा (47) की मदद से इस हुनर को और लोगों तक पहुंचाने का काम किया गया. उन्होंने महिलाओं को इसके बारे में न सिर्फ बताया बल्कि उन्हें इस कढ़ाई करने का सलीका भी सिखाया. और फिर ये कला धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगी.

सिनरेम ने कहा, ‘इस कला रूप को फिर से जिंदा करने की एक संगठन की चाह को देखना, एक आंख खोलने वाला अहसास था. हम जान गए कि यह कला हमारे गांव और हमारी संस्कृति का गौरव और आनंद है.’

साल 2015 के जनवरी और फरवरी के महीनों में एनईएसएफएएस ने ट्रेनिंग के लिए आए 11 लोगों के लिए 10- दिवसीय वर्कशॉप आयोजित की गई. इसमें से सभी 20 से 60 उम्र की गांव की महिलाएं थीं.

NESFAS में बतौर फील्ड कोऑर्डिनेटर काम करने वाली औरिलिया तारियांग ने कहा, ‘अप्रैल 2016 में दूसरे चरण में इन 11 महिलाओं में से नौ ने हिस्सा लिया था. उन्हें वार जाति (खासी की उप-जनजाति) की पारंपरिक पोशाक पर, जिसमें जैन पीन (कमर के आस-पास पहने जाना वाला परिधान), जैन कुप (शॉल) और जैन आईआईटी (केप) भी शामिल थीं, पर एडवांस पैटर्न बनाना सिखाया गया था.’

आमतौर पर जैन पीन में खनेंग की एक खड़ी मोटी पट्टी होती है, जबकि जैन कुप में क्षैतिज रूप से चलने वाली पैटर्न की दो लाइन होती हैं. महिलाओं को खनेंग कढ़ाई के तीन पैटर्न भी सिखाए गए थे – कटियार, ट्रेंग और खनेंग.

कार्यशाला में भाग लेने वाली एक 30 साल की लारिहुन मायरथोंग ने कहा, ‘मुझे खनेंग कढ़ाई ने अपनी ओर खींचा, क्योंकि मुझे इसके जटिल काम ने हैरान कर दिया था… मैं कला के काम में बस महारत हासिल करने ही वाली हूं.’


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एक धागे की शक्ति

खनेंग की जटिल दुनिया में जाने से पहले, कार्यशालाओं में भाग लेने वाली कई महिलाएं सिर्फ घर का काम करती थीं या फिर सुपारी बेचकर अपना गुजारा चला रहीं थी.

नवंबर 2015 में कार्यशाला के लगभग 7 महीने बाद, महिलाओं ने शिलांग में आयोजित स्वदेशी टेरा माद्रे इवेंट में पहली बार स्टॉल, क्लच और मफलर जैसे कपड़ों पर उकेरे गए अपने काम का प्रदर्शन किया था.

आखिरकार, NESFAS के सहयोग से 12 कारीगरों ने ‘मेई रमेव खनेंग एम्ब्रायडरी सोसाइटी, ‘मुस्तो’ का गठन किया. NESFAS की वेबसाइट के मुताबिक, ग्रुप का उद्देश्य ‘ लगभग खत्म होने जा रही कला को फिर से जिंदा करना, कौशल स्तर को बढ़ाना और उसके लिए मार्केट तैयार करना’ है.

तारियांग ने कहा , ‘हमने अपने मुख्यालय में किसान बाजार आयोजित करने जैसे कई माध्यमों के जरिए महिलाओं को उनके उत्पादों को बेचने में मदद की है.’ देशभर के टेक्सटाइल रिसर्चर, बुटीक मालिकों, डिजाइनरों और फैशन छात्रों ने महिलाओं तक पहुंचना शुरू कर दिया. जबकि पहले ऐसा नहीं था.

तारिआंग ने बताया, ‘खनेंग कढ़ाई तेजी से लोकप्रिय हो रही है. महिलाओं को दिए गए फैब्रिक पर कढ़ाई करने और फिर उन्हें वापस उन तक पहुंचाने के ऑर्डर मिल रहे हैं. उन्हें हाल ही में एक साड़ी पर पैटर्न की कढ़ाई करने का ऑर्डर भी मिला था.’

इस ग्रुप से जुड़े कारीगरों में से एक एरिलिन कोंगरी (35) ने कहा कि उन्हें फिलहाल एक महीने में दो से तीन ऑर्डर मिल गए हैं. ‘मैं अभी भी सीख ही रही हूं. इसलिए, मैं अपने कपड़ों पर प्रैक्टिस करती रहती हूं.’

इस साल मार्च में खनेंग फैशन की दुनिया के मानचित्र पर उभर कर आ गया. लैक्मे फैशन वीक में इबो मल्लई के ब्रांड किनिहो द्वारा डिजाइन किए गए कपड़ों पर इस कढ़ाई का पैटर्न दिखाया गया था. पैटर्न का इस्तेमाल सदियों पुरानी एक नर हिरण से जुड़ी खासी लोककथा – यू सीर लापलांग – के बारे में बताने के लिए किया गया था.

खनेंग को प्रमोट करने के लिए कला और संस्कृति विभाग मुस्तोह में और उसके आसपास एक हैंडलूम फैसिलिटी बनाने के NESFAS के प्रस्ताव पर विचार कर रहा है. फ्रेडरिक रॉय खरकोंगोर के अनुसार, सरकार मुस्तो को री-भोई जिले के उम्देन-दीवोन जैसे एरी रेशम गांव के रूप में विकसित करने की उम्मीद कर रही है.

सिनरेम ने कहा, ‘मैं जान गई हूं कि अब यह कला हमारे साथ खत्म नहीं होगी. बल्कि हमारे मरने के बाद भी जिंदा रहेगी.’


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चुनौतियां

खनेंग कला को पुनर्जीवित करने का प्रोजेक्ट आज भी चुनौतियों का सामना कर रहा है. 12 महिलाएं शुरू में उन ऑर्डरों को लेकर काफी खुश थीं, जो आने वाले थे. नतीजतन पिछले साल, एनईएसएफएएस ने 10 प्रशिक्षुओं के एक नए बैच को सिखाने के लिए एक और वर्कशॉप आयोजित की. इसमें से दो अपनी कमजोर नजर के चलते इससे बाहर हो गईं.

तारियांग ने कहा, ‘हमने आठ महिलाओं के साथ कार्यशाला के पहले चरण का संचालन किया था. लेकिन फंड की कमी के कारण हम दूसरे चरण को पूरा नहीं कर सके.’

कपड़ा विभाग के एक अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, ‘हमने उन्हें आगे आने और इस प्रोजेक्ट में शामिल होने के लिए मनाने की कोशिश की, लेकिन कई अभी भी इसके लिए अपनी इच्छा नहीं जता रहे हैं.’

खरकोंगोर के मुताबिक, ‘सरकार कार्यशालाओं के लिए कुछ संसाधन उपलब्ध कराने की इच्छुक है. इसे आगे आकर बढ़ाने की जरूरत है.’

(अनुवाद: संघप्रिया मौर्या)

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़नें के लिए यहां क्लिक करें)


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