scorecardresearch
Tuesday, 17 September, 2024
होमफीचर‘विंटेज वाइब’ वाला अक्षरा थिएटर दिल्ली का एक खज़ाना है, यह छोटे कलाकारों की लाइफलाइन है

‘विंटेज वाइब’ वाला अक्षरा थिएटर दिल्ली का एक खज़ाना है, यह छोटे कलाकारों की लाइफलाइन है

रंगमंच के सितारे गोपाल शरमन और जलाबाला वैद्य ने अक्षरा थिएटर को अपने हाथों से बनाया है — सचमुच. आज यह जिस संघर्ष का सामना कर रहा है, वह दिल्ली के रंगमंच परिदृश्य में बड़े अस्तित्वगत संकट का एक छोटा-सा रूप है.

Text Size:

नई दिल्ली: अक्षरा थिएटर के आरामदायक लकड़ी के हॉल में निर्देशक अनसूया वैद्य ने मंच पर एक बिस्तर, कुर्सियां और टेलीफोन को सावधानीपूर्वक व्यवस्थित किया है, ताकि अगाथा क्रिस्टी के ‘द पेशेंट’ के मंचन की तैयारी की जा सके. हाथ से बने लकड़ी के लौवर एसी यूनिट की ओर इशारा करते हुए, वह गर्व से घोषणा करती हैं कि कनॉट प्लेस थिएटर का हर इंच लकड़ी से हाथ से बनाया गया है.

अक्षरा थिएटर दिल्ली के मंचन परिदृश्य में दूसरी दुनिया का एक छोटा-सा खजाना है. शहर के बीचो-बीच सोवियत काल के कुछ सांस्कृतिक स्थल जैसे कमानी ऑडिटोरियम, श्री राम सेंटर और लिटिल थिएटर ग्रुप (एलटीजी) आज भी जस के तस हैं, लेकिन अक्षरा एक व्यावसायिक स्थान से ज़्यादा प्रेम का श्रम है.

यह ऑडिटोरियम, एक छोटा, 96-सीटर लकड़ी के पैनल वाला स्थान है, जो थिएटर समुदाय के बीच एक बहुत ही पसंदीदा स्थान है, भले ही कई प्रोडक्शन हाउस बड़े और अधिक आधुनिक स्थानों पर चले गए हों. सस्ते टिकटों और सीमित दर्शकों के साथ, यह शहर के कई छोटे थिएटर समूहों के लिए पसंदीदा है.

अक्षरा थिएटर की दूसरी पीढ़ी की सह-संस्थापक और निदेशक 65-वर्षीय अनुसूया वैद्य इसे अपने दिवंगत माता-पिता — नाटककार गोपाल शरमन और थिसपियन जलाबाला वैद्य — के अनुसार चला रही हैं : शास्त्रीय भारतीय संस्कृति और आधुनिक नाट्य अभिव्यक्ति का मिश्रण. उनके लिए थिएटर एक स्थान से कहीं ज़्यादा है; यह उनके माता-पिता की ज़िंदगी है.

अक्षरा थिएटर के बाहर रामायण और अन्य नाटकों में जलाबाला वैद्य के पोस्टर | फोटो: हिना फ़ातिमा/दिप्रिंट
अक्षरा थिएटर के बाहर रामायण और अन्य नाटकों में जलाबाला वैद्य के पोस्टर | फोटो: हिना फ़ातिमा/दिप्रिंट

वैद्य की काजल से भरी आंखों में भविष्य की झलक थी, जब वे रिहर्सल से कुछ वक्त पहले मंद रोशनी वाले थिएटर में एक चमचमाती लकड़ी की कुर्सी पर बैठी थीं, उन्होंने कहा, “मेरे पिता ने अपने हाथों से इस जगह को बनाया है. मैं बढ़ा-चढ़ाकर नहीं बता रही हूं, उनका प्यार, पसीना और आंसू इस थिएटर में समाए हुए हैं.”

1972 में स्थापित और बाद में एक गैर-लाभकारी संस्था के रूप में पंजीकृत अक्षरा थिएटर कई बड़े नामों के लिए लॉन्चपैड रहा है. कॉमेडियन ज़ाकिर खान और पंकज त्रिपाठी, संदीप महाजन और वरुण ग्रोवर जैसे अभिनेताओं ने यहीं से शुरुआत की.

छोटे थिएटर समूहों के लिए अक्षरा उनके अस्तित्व के लिए एक महत्वपूर्ण स्थान है. हमें अक्षरा जैसे कम से कम 10 थिएटर चाहिए

— कुलजीत सिंह, एटलियर थिएटर में क्रिएटिव डायरेक्टर

शरमन के नाटक — जैसे लेट्स लाफ अगेन, फुल सर्कल, दिस एंड दैट, जीवन गीत और जलाबाला के रामायण के अविस्मरणीय एकल ने भारत और उसके बाहर के मंच पर अपनी छाप छोड़ी है.

लेकिन आज, अक्षरा संघर्ष कर रहा है. फंड खत्म हो रहे हैं और सेंसरशिप बढ़ रही है. इसके 250 सीटों वाले एम्फीथिएटर और 40 सीटों वाले कविता स्थल का अब शायद ही कभी उपयोग किया जाता है.

Plays by Gopal Sharman
ग्राफिक: वासिफ खान/दिप्रिंट

वैद्य और उनका परिवार थिएटर को ज़िंदा रखने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, जबकि प्रतिष्ठित इमारत और इसकी सांस्कृतिक विरासत दोनों को बचाने के लिए सरकार की मदद अभी भी मायावी बनी हुई है. ऑनलाइन याचिकाओं ने समर्थकों को आकर्षित किया है, लेकिन ठोस सहायता के रूप में बहुत कुछ नहीं मिला है.

कई मायनों में अक्षरा थिएटर दिल्ली के थिएटर परिदृश्य में व्याप्त बड़े अस्तित्व के संकट का एक छोटा-सा रूप है.

वैद्य ने कहा, “अक्षरा थिएटर के सामने ऐसी समस्याएं हैं जो पूरे भारतीय थिएटर के सामने आने वाली समस्याओं के समान हैं.”

अक्षरा थिएटर के निदेशक वैद्य के अनुसार, किसी भी कलाकार के लिए दो सबसे बड़ी चुनौतियां, वैश्विक स्तर पर, सरकारी हस्तक्षेप और फंडिंग हैं.


यह भी पढ़ें: लर्निंग हुई और मज़ेदार — गाजियाबाद की आंगनवाड़ी को मिला डिजिटल बोर्ड


अपने हाथों से सपने को साकार करना

1970 में भारतीय रंगमंच के पावर कपल के रूप में अपनी प्रसिद्धि के चरम पर, गोपाल शरमन और जलाबाला वैद्य ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के डिप्टी मोरारजी देसाई से अपने सपनों के थिएटर के लिए जगह मांगी. ऐसी परियोजनाओं के लिए भूमि आवंटन के प्रभारी देसाई सहमत हो गए और मंच तैयार हो गया.

“यह परिवार के लिए एक खुशी का मौका था”, अनसूया वैद्य याद करती हैं जब वे महज़ 11 साल की थीं, लेकिन पहले से ही अपने माता-पिता की रंगमंच की दुनिया का हिस्सा थीं. जब वे 14 साल की हुईं, तो वो उनके साथ मंचन कर रही थीं, रंगमंच को लोकप्रिय बनाने और युवा प्रतिभाओं को एक मंच प्रदान करने के लिए उनकी भारत यात्रा के हिस्से में भारत भ्रमण कर रही थीं. जब उन्होंने थिएटर बनाने का फैसला किया, तो उनके माता-पिता ने ध्यान रखा कि वे शुरू से ही इसमें शामिल हों — यहां तक ​​कि उन्हें जगह तलाश करने के लिए भी ले जाया गया.

Anasuya Vaidya in Akshara Theatre
अनसूया वैद्य ने छोटी उम्र में ही अपने माता-पिता के साथ मंचन करना शुरू कर दिया था और किशोरावस्था में ब्रॉडवे सहित बैकस्टेज लाइटिंग में मदद की थी | फोटो: इंस्टादग्राम/@aksharatheatredelhi

खोज के दौरान उन्हें दिल्ली की कई इमारतें मिलीं, लेकिन कोई भी सही नहीं लगी — जब तक कि उन्हें कनॉट प्लेस में एक खाली औपनिवेशिक बंगला नहीं मिल गया. यह हरे-भरे, पुराने पेड़ों से घिरा हुआ था और इसमें ऊंचे खंभे, चौड़े बरामदे और एक विशाल, हवादार लेआउट था. खिलते हुए गुलमोहर के पेड़ के नीचे बैठे हुए, परिवार को तुरंत पता चल गया: यही वो जगह है.

लेकिन पर्दे उठाना आसान नहीं था. कई वास्तुकारों ने जटिल डिजाइन को देखते हुए शरमन को मना कर दिया. सरकार और टाटा जैसी कंपनियों के योगदान के बावजूद फंड एक और समस्या थी. 1970 के दशक की शुरुआत में शरमन ने थिएटर शुरू करने के लिए होमी भाभा फेलोशिप और टूर की कमाई से लगभग 3 लाख रुपये खर्च किए. बाद में 1983 और 2003 के बीच हुए सुधारों में फंड, धन उगाहने वालों और यहां तक ​​कि टीवी डॉक्यूमेंट्री सीरीज़ से शरमन की कमाई के ज़रिए भी लाखों रुपये खर्च हुए.

Inside Akshara Theatre
96-सीटों वाले लकड़ी के थिएटर हॉल में आवाज़ को आकर्षित करने के लिए कुर्सियों पर घुमावदार शीर्ष रेलिंग है, जिसमें शीशम की लकड़ी की भुजाएं हैं. अंदरूनी हिस्से का पूरा डिज़ाइन वीणा से प्रेरित है | फोटो: दानिशमंद खान/दिप्रिंट

हालांकि, वास्तविक लागत समय और प्रयास में थी. प्रोजेक्ट के पांच महीने बाद, शरमन ने इसे खुद बनाने का फैसला किया. तीन बढ़ई, दो राजमिस्त्री और दो मजदूरों की एक छोटी टीम के साथ, वे काम पर लग गए. एक मुश्किल यह थी कि मूल बंगले की संरचना बरकरार रहनी थी, इसलिए उन्होंने इसे खोखला कर दिया और इसके अंदर एक लाइटिंग रूम, ड्रेसिंग रूम, एक ऑफिस, मल्टी पर्पस हॉल, बेसमेंट थिएटर और स्टूडियो बनाया. लगभग सब कुछ शीशम, सागौन या देवदार की लकड़ी से बना था.

वैद्य ने पॉलिश की हुई कुर्सियों पर हाथ फेरते हुए कहा, “उन्होंने थिएटर को भारतीय संगीत वाद्ययंत्र वीणा जैसा दिखने के लिए डिज़ाइन किया. उन्होंने दो तरह की लकड़ी का इस्तेमाल किया: साउंड इफेक्ट के लिए मजबूत लकड़ी और इसे अवशोषित करने के लिए मुलायम लकड़ी. यहां तक कि कुर्सियों की रेलिंग में वक्र भी साउंड को बढ़ाने के लिए डिज़ाइन किया गया था.”

गोपाल शरमन ड्राफ्टिंग टेबल पर, अक्षरा थिएटर के मुखौटे पर मौजूद मोर को डिजाइन करते हुए | फोटो: इंस्टाग्राम/@aksharatheatredelhi

यह इमारत यूरोपीय, ग्रीक और रोमन स्थापत्य शैली का मिश्रण है, जिसमें गुलाबी रंग का मुखौटा है, जिस पर मोर और मंडाला की नक्काशी की गई है, जिसे शरमन ने खुद अपने हाथों से बनाया है.

वैद्य ने कहा, “उन्होंने और उनकी टीम ने खुद इन जटिल तकनीकों में महारत हासिल की है.”

अक्षरा थिएटर का विशिष्ट मुखौटा | फोटो: इंस्टाग्राम/@aksharatheatredelhi
अक्षरा थिएटर का विशिष्ट मुखौटा | फोटो: इंस्टाग्राम/@aksharatheatredelhi

थिएटर के केयरटेकर, जिन्होंने तीन दशकों से अधिक समय तक यहां काम किया है, ने कहा कि इमारत में कीलों की तुलना में अधिक पेंचों का इस्तेमाल किया गया है.

उन्होंने नाम न बताने की शर्त पर कहा, “गोपाल साहब ने ऐसा इसलिए किया ताकि किसी आपात स्थिति में, आसानी से निकासी के लिए पेंचों को जल्दी से हटाया जा सके.”

उन्होंने शरमन की प्रक्रिया से मंत्रमुग्ध होने की भी याद की, जिसमें डिजाइन बनाने से लेकर उसे पत्थर पर उकेरना शामिल है.

उन्होंने कहा, “मैंने गोपाल साहब को अपने हाथों से पत्थर तोड़ते देखा. इमारत का हर कोना बहुत सावधानी से बनाया गया है. यहां इस्तेमाल की गई शीशम की लकड़ी न केवल सुंदर है बल्कि मजबूत और टिकाऊ भी है.”

अक्षरा में मंडी हाउस के समकक्षों की चमक और पैमाने की कमी है, लेकिन इसमें कुछ खास है — इसका हस्तनिर्मित, हैरिटेज आकर्षण और ​​यह कलाकारों और थिएटर समूहों के लिए एक जीवन रेखा है जो कम बजट में एक किफायती स्थान की तलाश कर रहे हैं.

मंडी हाउस बनाम अक्षरा

दिल्ली का थिएटर जिला मंडी हाउस, शो-स्टीलर है. यह वो जगह है जहां नसीरुद्दीन शाह, नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी और पीयूष मिश्रा जैसे दिग्गज कलाकारों ने अपने हुनर ​​का लोहा मनवाया है और कमानी ऑडिटोरियम, श्री राम सेंटर, नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा (एनएसडी) और LTG जैसी प्रतिष्ठित जगहों के साथ, यह शहर के हर बुद्धिजीवी, अभिनेता और ‘रचनात्मक प्रकार’ के लिए एक चुंबक की तरह है. यह लुटियंस दिल्ली, शहर के पावर कॉरिडोर के ठीक बीच में एक कला गणराज्य की तरह है.

यहां, पूरा दिन चाय की चुस्कियों के साथ कला, राजनीति और क्रांति पर चर्चा करते हुए बिताया जाता है. इस क्षेत्र का अपना पारिस्थितिकी तंत्र है — जैसे ‘एसआरसी आंटी’ संजना तिवारी और उनकी कविताएं, ब्रेड पकौड़े परोसने वाला बीएम स्नैक कॉर्नर, पास में बंगाली मार्केट, एक हाल ही में बना पार्क और अंतहीन अड्डे के लिए ढेरों चाय की दुकानें.

दिल्ली के प्रमुख थिएटर स्थलों में से एक, मंडी हाउस में श्री राम सेंटर ऑफ परफॉर्मिंग आर्ट्स का एक दृश्य | फोटो: इंस्टाग्राम/shriramcentre

इसके अलावा, अक्षरा थिएटर राम मनोहर लोहिया (आरएमएल) अस्पताल के पास शांत है. इसमें मंडी हाउस की चहल-पहल या इसके पुराने साथियों कमानी और एसआरसी की तरह नया रूप और तामझाम नहीं है. आरएमएल के मरीजों को परेशान करने से बचने के लिए इसके एम्फीथिएटर में ओपन-एयर प्रदर्शन सीमित हैं. बाहर चायवाला अपने अगले बड़े रोल पर चर्चा करने वाले अभिनेताओं की तुलना में चिंतित रिश्तेदारों को चाय परोस रहा होगा.

लेकिन अक्षरा में कुछ खास है — इसका हस्तनिर्मित, हैरिटेज आकर्षण और ​​यह कलाकारों और थिएटर समूहों के लिए एक किफायती जगह की तलाश में एक लाइफलाइन है.

अक्षरा थिएटर के अंदर एक आरामदायक, लकड़ी के पैनल वाला गलियारा, कलाकृतियों से भरा हुआ, इतिहास और गर्मजोशी का एहसास कराता है | फोटो: दानिशमंद खान/दिप्रिंट

ऐसा ही एक ग्रुप है एटेलियर थिएटर, जो अपने संस्थापक कुलजीत सिंह के अनुसार अपने अस्तित्व का श्रेय अक्षरा को देता है. वह एक दशक से यहां अपने नाटकों का मंचन कर रहे हैं.

कमानी जहां एक शो के लिए एक लाख रुपये और एसआरसीपीए करीब 50,000 रुपये लेता है, वहीं अक्षरा की दर 20,000 रुपये है, या छूट के साथ और भी कम है. कमानी और एसआरसीपीए में इंतज़ार की लिस्ट भी लंबी है, जिसमें छह महीने पहले बुकिंग की ज़रूरत पड़ती और पूरा पैसे पहले ही देने होते है.

सिंह ने कहा, “अक्षरा थिएटर में मंचन से सिर्फ एक हफ्ते पहले जगह बुक करना बहुत आसान है और कर्मचारियों के मिलनसार स्वभाव के कारण पैसे कभी भी कोई समस्या नहीं रही है.”

सुविधाओं के मामले में सिंह ने कहा कि कमानी की 632-सीटें बड़े प्रोडक्शन के लिए आदर्श हैं, जबकि एसआरसीपीए अपनी ऊंची फीस के बावजूद केवल बुनियादी सुविधाएं प्रदान करता है. ऐसी दरों के साथ, खर्च निकालना भी मुश्किल है.

कलाकार अक्षरा को इसकी समृद्ध विरासत, ऐतिहासिक महत्व और कर्मचारियों के साथ उनके गहरे संबंधों के कारण चुनते हैं. इसमें विंटेज वाइब है

— बिलीवर आर्ट्स के संस्थापक तुषार चमोला

उन्होंने कहा, “थिएटर समूहों को कमानी जैसी बड़ी जगहों पर मंचन करने से कोई लाभ नहीं हो सकता. अक्षरा में लागत प्रबंधन और लाभ प्राप्त करना आसान है.”

बिलीवर आर्ट्स के संस्थापक तुषार चमोला इस बात से सहमत हैं. उनके लिए अक्षरा में “भावनात्मक मूल्य” और “शेड्यूल लचीलापन” जैसे व्यावहारिक लाभ दोनों हैं और उचित किराए के साथ, थिएटर कंपनियों के लिए टिकट की कीमतें सस्ती रखना आसान है. यहां टिकट आमतौर पर 100-500 रुपये के बीच होते हैं.

18 अगस्त को बिलीवर आर्ट्स ने अक्षरा में थिएटर की दुनिया के बारे में एक व्यंग्यात्मक नाटक द ग्रेट ड्रामा कंपनी का प्रदर्शन किया, जिसकी टिकटों की कीमत 299 रुपये थी.

लेकिन कुछ कमियां यहां भी हैं.

‘विंटेज वाइब्स’, आधुनिक दुख

कुछ प्रकार के प्रोडक्शन अक्षरा के अंतरंग सेट-अप के लिए बेहतर हैं.

हाल ही में, तलत महमूद, सुपरस्टार सिंगर, अनिच्छुक अभिनेता नामक एक छोटे बजट के नाटक का मंचन यहां आरामदायक दर्शकों और न्यूनतम प्रॉप्स के साथ किया गया था. टिकट की कीमत थी 350 रुपये. दर्शकों में से कुछ ने कहा कि हॉल के छोटे होने से यह हुआ कि नाटक, अभिनेता और मंच एक-दूसरे के करीब और व्यक्तिगत महसूस हुए, लेकिन एक थिएटर निर्देशक ने कहा कि अक्षरा बड़े, विस्तृत प्रोडक्शन के बजाय बैठकों, कहानी सुनाने और संगीत प्रदर्शनों के लिए आदर्श है.

अक्षरा थिएटर की सेटिंग ऐसे नाटकों के मंचन के लिए उपयुक्त है जो दर्शकों के साथ अंतरंगता की भावना पैदा करना चाहते हैं, लेकिन यह बड़े प्रोडक्शन के लिए कम उपयुक्त है.

Akshara Theatre stage
कुछ थिएटर निर्देशकों के अनुसार सुविधाओं को भी अपग्रेड करने की ज़रूरत है | फोटो: इंस्टाग्राम/@aksharatheatredelhi

जबकि अनसूया वैद्य को इस बात पर गर्व है कि थिएटर को बड़ी मरम्मत की ज़रूरत नहीं है — टिकाऊ लकड़ी को केवल नियमित सफाई और दीमक हटाने की दवाई की ज़रूरत है — अक्षरा का अनोखा आकर्षण हाल ही में कुछ हद तक नुकसानदेह हो गया है.

बेला थिएटर कारवां के थिएटर समीक्षक और निर्देशक अमर शाह, अक्षरा के मंच को किराए पर लेते थे, लेकिन हाल के वर्षों में उन्होंने ऐसा करना बंद कर दिया है. उन्हें लगता है कि यह जगह बड़े नाटकों के मंचन के लिए बहुत छोटी है और शरमन द्वारा खुद डिज़ाइन की गई मूल लाइटें आधुनिक प्रयोगों को सीमित करती हैं.

शाह जिन्होंने शुरुआती दिनों में मोहन राकेश के आधे-अधूरे नाटक का मंचन अक्षरा में किया था, ने कहा, “दर्शकों के लिए, यह जगह असुविधाजनक है. निर्देशकों को उचित जगह नहीं मिलती. उन्हें अपनी कला को तलाशने की आज़ादी नहीं मिलती. उनकी सीमाएं हैं.” हालांकि, उन्होंने बाद में नाटक को एलटीजी ऑडिटोरियम में स्थानांतरित कर दिया.

अक्षरा थिएटर के एम्फीथिएटर में एक संगीत प्रोग्राम. आरएमएल अस्पताल के नज़दीक होने के कारण इस जगह का इस्तेमाल शायद ही कभी किया जाता है | फोटो: इंस्टाग्राम/@aksharatheatredelhi

जगह एक और मुद्दा है. निकटतम मेट्रो स्टेशन से अक्षरा की दूरी यहां आने वालों के लिए सुविधाजनक नहीं है और कम प्रसिद्ध थिएटर समूहों के लिए दर्शकों को आकर्षित करना कठिन है.

बजट थिएटर स्पेस में भी प्रतिस्पर्धा बढ़ रही है. सिंह बताते हैं कि स्टूडियो सफदर ट्रस्ट मध्य दिल्ली के बाहरी इलाके में एक बहुत ही किफायती थिएटर चलाता है, जो अक्षरा की तुलना में बेहतर लाइटिंग सिस्टम के साथ प्रति शो केवल 5,000 रुपये चार्ज करता है.

फिर भी, अमूर्त चीज़ें कुछ कलाकारों को वापस लाती हैं।

चमोला ने कहा, “कलाकार अक्षरा को इसकी समृद्ध विरासत, ऐतिहासिक महत्व और कर्मचारियों के साथ उनके गहरे संबंधों के कारण चुनते हैं. इसमें एक विंटेज वाइब है.”

1976 में जब शरमन और जलाबाला ब्रॉडवे पर मंचन कर रहे थे, तो परिवार को एक चौंकाने वाली खबर मिली — बिना किसी चेतावनी के अक्षरा थिएटर पर बुलडोजर आ गए थे. संजय गांधी ने कथित तौर पर इसे ध्वस्त करने का आदेश दिया था

बंगाली मार्केट से ब्रॉडवे तक

अनसुया वैद्य के लिए अक्षरा थिएटर चलाना सिर्फ एक जगह को बनाए रखने से कहीं ज़्यादा है — यह उनके माता-पिता और उनके मशहूर नाटकों की विरासत को संरक्षित करने के बारे में है.

वैद्य ने कहा कि उनकी मां, जलाबाला, लिंक मैगज़ीन में उप-संपादक थीं, जब उनकी मुलाक़ात गोपाल शरमन से हुई, जो एक स्वतंत्र पत्रकार थे. वे अपना लंबित कला कॉलम टाइप कर रहे थे. दोनों एक-दूसरे को पसंद करने लगे — और यह पहली नज़र का प्यार था.

पिछले साल मर चुकीं जलाबाला ने उस पल के बारे में लिखा, “मुझे नहीं पता कि यह कैसे, क्यों और क्या था, लेकिन हम ऐसे ही मिले और तब से साथ हैं. हम बंगाली मार्केट के एक गैरेज में साथ रहने लगे और बाद में हमने शादी कर ली.”

Gopal Sharman and Jalabala Vaidya
लंदन में सैडलर वेल्स थिएटर के बाहर गोपाल शरमन और जलाबाला वैद्य | फोटो: इंस्टाग्राम/@aksharatheatredelhi

कई सालों तक, शरमन ने छद्म नाम ‘नचिकेता’ के तहत एक लोकप्रिय कॉलम लिखा, जिसमें उन्होंने उपनिषदों, जीवन, मृत्यु और दर्शन से जुड़े विषयों पर चर्चा की. उनके समर्पित पाठकों में से एक तत्कालीन राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन थे. जब राधाकृष्णन ने 1966 में मोतियाबिंद की सर्जरी करवाई और खुद कॉलम नहीं पढ़ पा रहे थे, तो उन्होंने शरमन से अनुरोध किया कि वे उन्हें पढ़कर सुनाएं. अपने कौशल को लेकर घबराए शरमन ने जलाबाला से कहा — जिन्हें कॉलेज में अभिनय का अनुभव था — कि वे राष्ट्रपति को पढ़कर सुनाएं.

मुझे व्यक्तिगत रूप से लगता है कि सत्ता भ्रष्ट करती है…बिल्कुल. जो भी सत्ता में आता है, कोई न कोई हमेशा उसके खिलाफ ही होता है

— गोपाल शरमन ने 2014 में एक इंटरव्यू में कहा

यह पल दंपति के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ बन गया. एक हफ्ते के रिहर्सल के बाद, वे राष्ट्रपति के निवास पर गए. वैद्य ने बताया कि कैसे उनके पिता और भाई बाहर इंतज़ार कर रहे थे, जबकि उनकी मां ने 45 मिनट तक बुद्धिजीवियों और विद्वानों के एक कमरे में बैठकर पढ़ा. राधाकृष्णन इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने जलबाला को जनता के लिए मंचन करने का सुझाव दिया, यहां तक ​​कि अपने सहायक को एक कार्यक्रम आयोजित करने का निर्देश भी दिया.

वे पहला सार्वजनिक प्रदर्शन, फुल सर्कल — शर्मन की कहानियों का एक नाटकीय वाचन — आज़ाद भवन में हुआ और हिट रहा. इसके तुरंत बाद, इतालवी और यूगोस्लावियाई राजदूतों ने दंपति को अपने देशों में मंचन करने के लिए आमंत्रित किया.

वैद्य ने कहा, “सब कुछ बहुत आराम से और खुद-ब-खुद हो रहा था.”

जलबाला वैद्य और गोपाल शर्मन लंदन में भारतीय दूतावास में 1968 में फुल सर्कल के अपने प्रदर्शन के बाद मेहमानों के साथ पोज देते हुए | फोटो: इंस्टाग्राम/@aksharatheatredelhi

यूरोपीय दौरा एक शानदार सफलता थी. फुल सर्कल ने दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया. इटली के टेट्रो गोल्डोनी में, जो दुनिया का सबसे पुराना ऑपरेशनल थिएटर है, जलबाला के प्रदर्शन ने खड़े होकर तालियां बटोरीं और उनके शो की सारी टिकटें बिक गईं. यहां तक ​​कि पोप भी उनके एक प्रदर्शन में शामिल हुए. युगल ने लंदन का दौरा भी किया, आर्ट्स लेबोरेटरी और मर्करी थिएटर में फुल सर्कल का मंचन किया.

लंदन में बिताए गए दो साल गहन रचनात्मक सहयोग का दौर बन गए. वैद्य ने बताया कि उनके पिता देर रात अंधेरे कमरे में फर्श पर लेटे रहते थे, विचारों में खोए रहते थे, अपने विचारों को जोर से सुनाते थे. जलाबाला उन्हें लिखती थीं, अपने विचारों को शुरुआती ड्राफ्ट में बदल देते थे.

और फिर, ब्रॉडवे ने फोन किया.

jalabala vaidya and gopal sharman working
जलानाला वैद्य और गोपाल शरमन ने कई दशकों तक एक-दूसरे की रचनात्मकता को बढ़ावा दिया | फोटो: इंस्टाग्राम/@aksharatheatredelhi

NYC में ‘रामायण’

अक्षरा थिएटर के वेटिंग रूम में वैद्य के बचपन और महत्वपूर्ण थिएटर प्रस्तुतियों की बड़ी फ्रेम वाली तस्वीरें दीवारों पर सजी हुई हैं. एक नाटक सबसे अलग है — द रामायण, जो गोपाल शरमन और जलाबाला दोनों के लिए एक परिभाषित प्रस्तुति है.

लंदन में रहते हुए शरमन ने महाकाव्य की पुनर्व्याख्या शुरू की. राम और सीता को भगवान के रूप में चित्रित करने के बजाय, उन्होंने उन्हें मानवीय रूप दिया, लेकिन नाटक की असली खासियत कुछ और थी — यह एक महिला शो था, जिसमें जलाबाला ने सभी 22 किरदार निभाए.

1960 के दशक के सबसे प्रतिष्ठित मंचों में से एक, रॉयल शेक्सपियर सोसाइटी के वर्ल्ड थिएटर सीज़न के लिए बनाया गया, यह नाटक अंततः 1975 में न्यूयॉर्क के ब्रॉडवे में पहुंचा. जलाबाला वहां मंचन करने वालीं पहली भारतीय महिला बनीं, जिसने प्रशंसात्मक समीक्षा अर्जित की.

अक्षरा थिएटर में राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय अखबारों की समीक्षाओं का फ्रेममयुक्त संग्रह. हरेक में गोपाल शरमन की ‘द रामायण’ में जलाबाला वैद्य के अभूतपूर्व बहु-भूमिका प्रदर्शन की प्रशंसा है। फोटो: दानिशमंद खान/दिप्रिंट
अक्षरा थिएटर में राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय अखबारों की समीक्षाओं का फ्रेममयुक्त संग्रह. हरेक में गोपाल शरमन की ‘द रामायण’ में जलाबाला वैद्य के अभूतपूर्व बहु-भूमिका प्रदर्शन की प्रशंसा है। फोटो: दानिशमंद खान/दिप्रिंट

न्यू यॉर्क टाइम्स की समीक्षा में कहा गया है, “वैद्य… इस सिंगल — वुमेन शो में हमें कला की एक जबरदस्त सीरीज़ प्रस्तुत करती हैं. लेखिका ने रामायण को वीरतापूर्ण, लेकिन पुरातन भाषा में नहीं, बल्कि अपनी 20 भूमिकाओं में मिस वैद्य ने उन्हें उपयुक्त वीरतापूर्ण तरीके से प्रस्तुत किया है.”

इस बीच, भारत में अक्षरा थिएटर अपने कठोर राजनीतिक नाटकों के साथ सीमाओं को लांघ रहा था.

अक्षरा की अवज्ञा की परंपरा आज भी जारी है. लोकप्रिय राजनीतिक स्टैंड-अप कॉमेडी ऐसी तैसी डेमोक्रेसी का प्रीमियर नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के दो महीने बाद 2014 में यहां हुआ था.

बुलडोजर से टकराना

आपातकाल के दौरान, अक्षरा थिएटर ने गोपाल शरमन द्वारा एक तीखा राजनीतिक व्यंग्य, लेट्स लाफ अगेन का मंचन किया, जो छह महीने तक खचाखच भरे घरों में थिएटरों में चला, 1977 तक जब आपातकाल समाप्त हुआ, लेकिन इस नाटक ने न केवल हलचल मचाई, बल्कि इससे उन्हें अपना थिएटर भी खोना पड़ा.

1976 में जब शरमन और जलाबाला ब्रॉडवे पर मंचन कर रहे थे, तो परिवार को एक चौंकाने वाली खबर मिली — बिना किसी चेतावनी के अक्षरा थिएटर में बुलडोजर आ गए थे. संजय गांधी ने कथित तौर पर नाटक के राजनीतिक निहितार्थों के प्रतिशोध में इसे ध्वस्त करने का आदेश दिया था.

वैद्य ने अनुमान लगाया कि लेट्स लाफ अगेन के एक विशेष दृश्य ने उन्हें उकसाया होगा

उन्होंने कहा, “हमारे पास एक ऐसा किरदार था जो खिलौनों की कारों से खेलता था और जब वे टूट जाती थीं, तो मम्मी के लिए रोता था.”

जब उन्होंने बुलडोजर के बारे में सुना, तो शरमन और जलाबाला ने न्यूयॉर्क से इंदिरा गांधी से संपर्क किया. उन्होंने उनकी बात सुनी और उनके लौटने पर उन्हें चाय पर आमंत्रित किया.

Let's laugh again akshara theatre
2015 में राजनीतिक व्यंग्य ‘लेट्स लाफ अगेन’ के मंचन में गोपाल शर्मा | फोटो: फेसबुक/अक्षरा थिएटर

वैद्य ने कहा कि जब आखिरकार मुलाकात हुई, तो गांधी ने दंपति से पूछा कि क्या उन्हें लगता है कि वे तानाशाह हैं. गोपाल ने दूरदर्शन पर व्यंग्य प्रसारित करने का सुझाव दिया ताकि गांधी के बिना सेंसरशिप के मुक्त मीडिया के प्रति समर्थन को दिखाया जा सके. इंदिरा सहमत हो गईं, लेकिन पहले शो देखना चाहती थीं. जब दंपति ने मना कर दिया, तो उन्होंने फिर भी अपनी स्वीकृति दे दी.

हालांकि, प्रस्तावित व्यंग्य को फिल्माते समय, प्रधानमंत्री कार्यालय से एक पत्र आया, जिसमें शो के पांच मिनट का पूर्वावलोकन करने की मांग की गई थी, साथ ही वादा किया गया था कि इसमें कोई बदलाव नहीं किया जाएगा, लेकिन एक अधिकारी ने आपत्ति जताते हुए कहा कि शो नौकरशाही को “मनोबल” दे सकता है. इस पर, इंदिरा की बहू मेनका गांधी ने मज़ाक में कहा कि यह शो शायद वही हो जिसकी देश को ज़रूरत है. हालांकि, शो कभी प्रसारित नहीं हुआ.

gopal sharman and jalabala vaidya
लोकेश चंद्र, तत्कालीन सांसद, 1984 में गोपाल शरमन और जलाबाला वैद्य को दिल्ली नाट्य संघ पुरस्कार प्रदान करते हुए | फोटो: इंस्टाग्राम/aksharatheatredelhi

लेट्स लाफ अगेन की बात करें तो इसका मंचन जारी है, हर बार अपडेट और सामयिक चुटकुलों के साथ. जो चीज़ लगातार बनी हुई है, वो है इसका सत्ता-विरोधी स्वर, चाहे सरकार किसी की भी हो.

अक्षरा में प्रस्तुत किए जाने वाले अन्य सुप्रसिद्ध राजनीतिक व्यंग्यों में शरमन का इंडिया अलाइव, ला ला लैंड, कर्मा और लारफ्लारफ्लारफ शामिल हैं. अवज्ञा की वह परंपरा आज भी जारी है. लोकप्रिय राजनीतिक स्टैंड-अप कॉमेडी ऐसी तैसी डेमोक्रेसी का प्रीमियर 2014 में नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के दो महीने बाद यहां हुआ था.

शरमन ने अपनी मृत्यु से दो साल पहले 2014 में एक इंटरव्यू में कहा था, “मुझे व्यक्तिगत रूप से लगता है कि सत्ता भ्रष्ट करती है…बिल्कुल. जो भी सत्ता में आता है, कोई न कोई हमेशा उसके खिलाफ ही होता है.”

सीमाएं और सेंसरशिप

वैद्य के अनुसार, किसी भी कलाकार के लिए दो सबसे बड़ी चुनौतियां, वैश्विक स्तर पर, सरकारी हस्तक्षेप और फंडिंग हैं.

उन्होंने कहा, “स्वतंत्र कलाकार जो किसी भी राजनीतिक दल से जुड़े नहीं हैं, उन्हें समस्याओं का सामना करना पड़ता है और थिएटर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का एक माध्यम है, यह मौलिक है. अगर हम कुछ व्यक्त करना चाहते हैं, तो हमें ऐसा करने की आज़ादी होनी चाहिए.”

वैद्य ने कहा कि फंडिंग और सरकार के मुद्दे कला में गहराई से जुड़े हुए हैं क्योंकि सरकार अक्सर प्राथमिक लाभार्थी होती है. ज्यादातर कलाकारों के पास सीमित संसाधन होते हैं और निजी क्षेत्र का संरक्षण दुर्लभ होता है.

अक्षरा थिएटर को या तो सुधार या पुनरुद्धार की ज़रूरत है, क्योंकि यह अब केवल एक व्यावसायिक स्थान बन गया है

— दिल्ली स्थित थिएटर निर्देशक

उन्होंने कहा, “भारत में कला के लिए कॉर्पोरेट फंडिंग दयनीय है और कॉर्पोरेट कंपनियां कला और कलाकारों के प्रति कोई ज़िम्मेदारी महसूस नहीं करती हैं.”

इन बाधाओं के बावजूद, अक्षरा थिएटर ने रामायण से लेकर कर्मा तक, एक शर्मन क्लासिक तक, अभिनव प्रस्तुतियों का एक संग्रह बनाया है, जो मृत्यु के देवता यम, एलियंस और एक डायस्टोपियन समाज को गीत और नृत्य के साथ एक कॉमेडी में मिलाने में कामयाब रहा है.

वैद्य ने कहा, “आधुनिक और शास्त्रीय का एक मिश्रण था. हमने यहां छोटे से थिएटर में बहुत सारे मौलिक काम किए हैं.”

. Gopal Sharman and Jalabala Vaidya during a rehearsal at Akshara Theatre
अक्षरा थिएटर में रिहर्सल के दौरान गोपाल शर्मन और जलाबाला वैद्य | फोटो: फेसबुक/अक्षरा थिएटर

हाल के वर्षों में उन्होंने भी बच्चों के लिए कई मौलिक नाटक लिखे हैं — ट्रेन टू दार्जिलिंग, ऑल अलोन एट होम, द जंगल एडवेंचर और ऑल यू नीड इज़ लव — नई पीढ़ी को अक्षरा की समृद्ध विरासत से जोड़ने की उम्मीद में.

वैद्य वर्तमान में अपने पिता की रामायण को फिर से बनाने पर काम कर रही हैं, इस बार इसमें कई कलाकार काम कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें यकीन है कि कोई भी जलाबाला की कला को दोहरा नहीं सकता.

हालांकि, दूसरों के लिए थिएटर खुद वापसी के बिंदु से आगे निकल चुका है. 52-वर्षीय एक थिएटर आर्टिस्ट ने नाम न बताने की शर्त पर कहा कि सालों से इसमें कोई बड़ा नया नाटक या टैलेंट नहीं आए हैं.

उन्होंने कहा, “अक्षरा थिएटर को या तो सुधार या पुनरुद्धार की ज़रूरत है क्योंकि यह अब केवल एक व्यावसायिक स्थान बन गया है.”

थिएटर बंद होने की कगार पर

2016 में तीन लाख रुपये के बिजली के बिल को नहीं भरने के कारण अक्षरा थिएटर लगभग बंद होने की कगार पर पहुंच गया था. इसने कलाकारों द्वारा क्राउडफंडिंग और दान के माध्यम से धन जुटाने के लिए अभियान चलाया. जबकि कई लोगों ने योगदान दिया, कॉमेडियन पापा सीजे ने कथित तौर पर अपने स्नेह के संकेत के रूप में पूरी राशि का भुगतान किया. एकत्र किए गए अतिरिक्त धन का उपयोग भविष्य के खर्चों और बिलों को कवर करने के लिए किया गया.

थिएटर निर्देशक अमर शाह के अनुसार, जिन्होंने खुद वहां कई नाटक किए हैं, पहले हॉल को अन्य थिएटर समूहों को 6,000 रुपये प्रति शो के हिसाब से किराए पर दिया जाता था. हालांकि, बिजली बिल संकट और कोविड-19 महामारी के बाद, अक्षरा ने किराया बढ़ा दिया. शाह ने यह फैसला लेते हुए कि अब सुविधाएं कीमत के हिसाब से उचित नहीं हैं, इस आयोजन स्थल की बुकिंग बंद कर दी.

अक्षरा थिएटर ने हाल ही में कुछ मुश्किल समय देखा है, जिसमें एक परोपकारी के हस्तक्षेप के तहत तीन लाख रुपये का बिजली बिल चुकाने में असमर्थ होना भी शामिल है | फोटो: इंस्टाग्राम/@aksharatheatredelhi

उन्होंने कहा, “यह भी उनकी मजबूरी है.”

शाह ने कहा, “उनके पास मदद करने के लिए बहुत कम लोग हैं और वे केवल अपने नाटकों के ज़रिए ही कमा सकते हैं.”

हालांकि, वैद्य ने ज़ोर देकर कहा कि वे अभी भी कई कलाकारों को मुफ्त में जगह देती हैं. तुषार चमोला ने पुष्टि की कि उन्होंने मुफ्त रिहर्सल के लिए इसका इस्तेमाल किया है.


यह भी पढ़ें: डगमगाते संस्थान, सिकुड़ती आलोचना, जोखिम न लेना: कैसे बदल रही है हिंदी साहित्य की दुनिया


नई पीढ़ी, गुरुकुल और घराना

अक्षरा थिएटर में एक नई, तीसरी पीढ़ी उभर रही है. अनसूया वैद्य के वयस्क बच्चे — निसा, ध्रुव और यशना शेट्टी — अंततः बागडोर संभालने की तैयारी कर रहे हैं.

लकड़ी के मंच पर, भाई-बहनों सहित कलाकार वैद्य द्वारा निर्देशित सस्पेंस थ्रिलर द पेशेंट की रिहर्सल कर रहे हैं. सीन में एक डॉक्टर और एक पुलिस अधिकारी पांच हत्या के संदिग्धों से पूछताछ कर रहे हैं.

वैद्य बाज़ की निगाह रखती हैं, जब भी कोई गलती होती है तो चुपचाप कलाकारों का मार्गदर्शन करती हैं.

निसा, ध्रुव और यशना सभी अपने नाना-नानी से थिएटर, गायन और नृत्य के बारे में सीखते हुए बड़े हुए हैं. निसा ने एक गायिका के रूप में अपना नाम बनाया है, यहां तक कि एआर रहमान के साथ भी परफॉर्म किया है. अभिनय के अलावा ध्रुव और यशना थिएटर के प्रबंधन में भी शामिल हैं.

ध्रुव सुनिश्चित करना चाहते हैं कि थिएटर “हर तरह की परफॉर्मेंस” के लिए एक मंच के रूप में अपनी पहचान बनाए रखे. वे इस दावे को खारिज करते हैं कि थिएटर ने अपनी धार खो दी है.

उन्होंने कहा, “मुझे नहीं लगता कि बहुत ज़्यादा बदलाव हुए हैं. पारंपरिक थिएटर अभी भी वही है और जो नाटक आ रहे हैं, वो भी वही हैं.”

उन्होंने आगे कहा कि अक्षरा अभी भी कॉमेडी से लेकर राजनीतिक व्यंग्य तक सब कुछ मंचित करती है.

अक्षरा थिएटर परिवार की तीन पीढ़ियां: जलाबाला वैद्य, अनसूया वैद्य और निसा शेट्टी | फोटो: इंस्टाग्राम/@aksharatheatredelhi

निसा ने भी यही कहा और कहा कि थिएटर ने अपनी धार को नहीं खोया है.

जबकि शाह और 52-वर्षीय निर्देशक जैसे कुछ आलोचकों ने परिवार के भीतर भाई-भतीजावाद के बारे में चिंता जताई है, वैद्य घरानों और गुरुकुलों की भारतीय प्रदर्शन कला परंपराओं का हवाला देती हैं. वे गुरुओं या उस्तादों की पारिवारिक वंशावली के आधार पर इन मॉडलों के लिए आधिकारिक मान्यता और समर्थन चाहती हैं.

वैद्य ने कहा कि वर्षों की वकालत के बावजूद, सरकार ने अभी तक इनमें से अधिकांश संस्थानों को प्रमुख ट्रेनिंग सेंटर्स के रूप में मान्यता नहीं दी है.

उन्होंने पूछा, “आपके पास कलाक्षेत्र है, लेकिन, वो एक साल में कितने छात्र तैयार करते हैं — 20-30?”

वैद्य ने कहा कि पहचान की कमी से अक्षरा के दैनिक कामकाज पर कोई असर नहीं पड़ता, लेकिन अस्तित्व का खतरा हमेशा मंडराता रहता है.

उन्होंने कहा, “सिर्फ ज़िंदा रहने के लिए एक कलाकार की प्रतिभा और बुद्धिमत्ता की ज़रूरत होती है.”

(इस ग्राउंड रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: दिल्ली के उर्दू बाज़ार की रौनक हुई फीकी; यहां मंटो और ग़ालिब नहीं, बल्कि मुगलई बिकता है


 

share & View comments