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Thursday, 26 December, 2024
होमएजुकेशनदेश में कैसे प्राइवेट यूनिवर्सिटीज बनीं दुकानें, न शिक्षा, न प्लेसमेंट जो वादे किए वो भी हुए नाकाम

देश में कैसे प्राइवेट यूनिवर्सिटीज बनीं दुकानें, न शिक्षा, न प्लेसमेंट जो वादे किए वो भी हुए नाकाम

पिछले सात सालों में भारत में प्राइवेट संस्थानों की संख्या लगभग दोगुनी हो गई है. लेकिन छात्रों का कहना है कि भारी फीस लेने के बावजूद, वे अव्वल दर्जे की शिक्षा, प्लेसमेंट और सुविधाएं देने में विफल रहे हैं.

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नई दिल्ली: चमकदार नई इमारतें, सजा संवरा लॉन, हंसते-खिलखिलाते छात्रों के चेहरे, प्लेसमेंट के लिए बड़ी-बड़ी कंपनियों के नाम- ये भारत के निजी विश्वविद्यालयों का वो चेहरा है जो उनके ब्रोशर और विज्ञापनों में चमकता नजर आता है. ऐसी यूनिवर्सिटीज की संख्या पिछले सात सालों में लगभग दोगुनी हो गई है.

लेकिन इन परिसरों का दौरा करने और चमकदार इमारतों के पीछे की जब गहराई से जांच की गई तब इसकी असल तस्वीर सामने आई. कई छात्रों की शिकायत है कि अच्छी खासी महंगी फीस देने के बाद भी उन्हें वह नहीं दिया जा रहा है जिसका उनसे वादा किया गया था.

उदाहरण के लिए आप मोहाली जिले के घरुआन गांव में स्थित चंडीगढ़ विश्वविद्यालय को ही लें. 105 एकड़ में फैला ग्राउंड, कैफेटेरिया, सर्विलांस कैमरे, कई सुरक्षा गार्ड और भव्य इमारतों वाले इस संस्थान में इंजीनियरिंग और मीडिया से लेकर मैनेजमेंट तक की पढ़ाई कराई जाती है. यह पंजाब की सबसे अच्छी यूनिवर्सिटी होने का दावा करती है.

लेकिन सितंबर में इस संस्थान का नाम उस समय सुर्खियों में आ गया जब कुछ छात्राओं ने अपनी कुछ सहपाठियों पर हॉस्टल के शौचालय में गुप्त रूप से उनकी फिल्म बनाने का आरोप लगाया था. इसके बाद से कैंपस सुरक्षा पर सवाल उठाए जाने लगे. पिछले महीने जब दिप्रिंट ने कैंपस का दौरा किया, तो कई छात्रों ने बुनियादी ढांचे और शिक्षकों को लेकर अपनी चिंता व्यक्त की थी, यह इंगित करते हुए कि वो इसके लिए मोटी फीस दे रहे हैं लेकिन उन्हें किसी भी मामले में बेहतर सुविधाएं नहीं मिल रही हैं.

देशभर में, बेंगलुरू में सर्वश्रेष्ठ मानी जाने वाली रेवा यूनिवर्सिटी कैंपस और कोलकाता के ब्रेनवेयर विश्वविद्यालय की आलोचनाओं के केंद्र में उनका खराब प्लेसमेंट रहा, जो छात्रों को डिग्री पाने के लिए किए गए ‘निवेश’ के अनुरूप नहीं है. कोटा के करियर पॉइंट यूनिवर्सिटी (सीपीयू) में भी छात्रों की यही नाराजगी थी. यहां छात्राओं ने छात्रावास की सुविधा नहीं होने की भी शिकायत की थी.

इन शिकायतों पर प्रतिक्रिया लेने के लिए दिप्रिंट ने इन विश्वविद्यालयों से फोन और ईमेल के जरिए पहुंचने की कोशिश की थी, लेकिन इस रिपोर्ट को प्रकाशित होने तक उनकी तरफ से कोई जवाब नहीं आया.

दिप्रिंट से बात करते हुए छात्रों ने जिन मुद्दों को उठाया, वे सिर्फ इन्हीं विश्वविद्यालयों तक सीमित नहीं हैं.

निजी विश्वविद्यालयों के तेजी से फलने-फूलने और छात्रों की बढ़ती संख्या के बावजूद विशेषज्ञों का मानना है कि मोटी फीस वसूलने वाले इन संस्थानों में ‘गुणवत्ता’ अक्सर एक मुद्दा बना रहता है, न जाने कितने विश्वविद्यालय तो ऐसे हैं जिन्हें मान्यता तक नहीं मिली हुई है और प्रमुख शैक्षिक रैंकिंग सिस्टम के आस-पास कहीं ठहरते भी नजर नहीं आते हैं.


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सप्लाई और डिमांड दोनों में तेजी

विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के आंकड़ों के मुताबिक, राज्य विधानसभाओं के अधिनियमों द्वारा स्थापित निजी या सेल्फ-फाइनेंस यूनिवर्सिटीज की संख्या में पिछले कुछ सालों में जबरदस्त उछाल देखने को मिला है. 2015 में इनकी संख्या 225 थीं, जो अगस्त 2022 में लगभग दोगुनी होकर 431 हो गईं.

यूजीसी के आंकड़े बताते हैं कि पिछले साल ही अकेले 68 नए विश्वविद्यालय खोले गए हैं.

जर्नल ऑफ हायर एजुकेशन पॉलिसी एंड लीडरशिप स्टडीज में प्रकाशित 2021 के एक अध्ययन के अनुसार, निजी विश्वविद्यालय की भारत के कुल उच्च शिक्षा संस्थानों में हिस्सेदारी 30 फीसदी से ज्यादा है.

इस रिपोर्ट को जामिया मिलिया इस्लामिया के प्रोफेसर फुरकान कमर ने तैयार किया था और इसके लिए केंद्र सरकार के ऑल इंडिया सर्वे ऑन हायर एजुकेशन (एआईएसएचई) के 2007-2020 एडिशन के आंकड़ों का भी इस्तेमाल किया गया. रिपोर्ट बताती है कि विश्वविद्यालयों की संख्या – सरकारी और निजी – में 2.57 गुना वृद्धि हुई है. अकेले निजी विश्वविद्यालयों की संख्या की ओर देखें तो इनके प्रतिशत में 20.44 गुना वृद्धि दर्ज की गई थी.

आपूर्ति के साथ मांग भी जोर पकड़ रही है.

हलांकि प्राइवेट यूनिवर्सिटीज में नामांकित छात्रों की हिस्सेदारी, उच्च शिक्षा संस्थानों (सरकार द्वारा संचालित राज्य और केंद्रीय विश्वविद्यालयों) में लगभग 3.85 करोड़ छात्रों के कुल नामांकन का लगभग 3.3 प्रतिशत है. लेकिन हाल-फिलहाल इनकी संख्या में काफी वृद्धि हुई है.

एआईएसएचई के आंकड़े बताते हैं कि 2011-12 में सिर्फ 2.7 लाख छात्रों ने प्राइवेट कॉलेजों में दाखिला लिया था, जो 2019-20 में बढ़कर 12.76 लाख हो गया. यह 372 प्रतिशत की भारी वृद्धि है.

इसके विपरीत, राज्य के सरकारी यूनिवर्सिटीज में 2011-12 में नामांकित छात्रों की संख्या 24.47 थी. सिर्फ 5.35 के मामूली से उछाल के साथ यह संख्या 2019-20 में बढ़कर 25.78 लाख हो गई. सेंट्रल यूनिवर्सिटीज में दाखिला पाना हमेशा से एक मुश्किल भरा काम रहा है. लेकिन इस अवधि में इसके छात्रों की संख्या में भी 29 फीसदी का उछाल आया, जो 5.55 लाख से बढ़कर 7.20 लाख हो गई.

पंजाब में मोहाली के पास एक निजी विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ विश्वविद्यालय के परिसर का एक दृश्य | ट्विटर / @Chandigarh_uni

विशेषज्ञों का मानना है कि छात्र कई कारणों से निजी विश्वविद्यालयों की तरफ जाना पसंद कर रहे हैं. इसकी सबसे बड़ी वजहों में सरकारी संस्थानों में एडमिशन के लिए छात्रों के बीच कड़ा मुकाबला और ऊंची कट-ऑफ शामिल है. वहीं दूसरी तरफ अगर आपके पास पैसा है, तो आसानी से आप प्राइवेट संस्थानों में प्रवेश पा लेते हैं. यहां नबंरों की दौड़ कम ही होती है.

दिप्रिंट से बात करते हुए एसोसिएशन ऑफ इंडियन यूनिवर्सिटीज (एआईयू) के पूर्व महासचिव और जामिया के प्रोफेसर फुरकान क़मर ने भी कई सरकारी संस्थानों में खराब बुनियादी ढांचे की ओर इशारा किया.

कमर ने कहा, ‘लोग प्राइवेट कॉलेजों की तरफ क्यों जा रहे हैं? सबसे पहली बात, अच्छे संस्थान (सरकारी यूनिवर्सिटीज) मांग के अनुसार उतनी सीटें नहीं दे पा रहे हैं. उसके अलावा, दूसरे दर्जे के संस्थान, जिन्हें सरकार से आर्थिक सहायता मिलती है, उनका पूरा इंफ्रास्ट्रक्चर ही काफी खराब है. क्लासरूम तक कि हालत इतनी खस्ता है कि छात्र उस तरफ जाना पसंद नहीं करते.’

हालांकि ज्यादातर निजी संस्थान खुद को ‘सर्वश्रेष्ठ’ बताते हैं, लेकिन जितनी मोटी फीस वो चार्ज करते हैं, छात्रों को उनके अनुरूप सुविधाएं नहीं दी जा रहीं हैं.


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‘वास्तविकता काफी अलग ‘

बेंगलुरु की रेवा यूनिवर्सिटी का चमकदार ब्रोशर पहली नज़र में कल्पना की दुनिया को साकार करता हुआ लगता है. इसका विशाल परिसर, चारों तरफ हरियाली और बहुत सारे छात्र- सब कुछ परफेक्ट. इसके लगभग 17,000 छात्रों में से ज्यादातर साइंस और इंजीनियरिंग पाठ्यक्रमों में नामांकित हैं.

लेकिन कई वर्तमान और पूर्व छात्रों ने दिप्रिंट के साथ हुई बातचीत में

बताया कि ‘सांस्कृतिक गतिविधियों के लिए बहुत कम एक्सपोजर’ है. और सबसे बड़ी बात, प्लेसमेंट बहुत कम रहा.

कॉलेज के एक पूर्व छात्र ने नाम न बताने की शर्त पर कहा, ‘वे सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालय होने का दावा करते हैं और कहते हैं कि उनके 95 फीसदी छात्रों को प्लेसमेंट मिली है. लेकिन वास्तविकता इससे काफी अलग है. मेरे बैच के ज्यादातर छात्रों को खुद से नौकरी तलाश करनी पड़ी थी.’

उनके मुताबिक, जितनी फीस इंजीनियरिंग कोर्स के लिए – हर साल 1.4 लाख रुपये –दी जाती है, कम से कम उसके हिसाब से तो प्लेसमेंट दिया जाना चाहिए.

कोलकाता के ब्रेनवेयर विश्वविद्यालय की कहानी भी कुछ ऐसी ही थी. यह खुद को कोलकाता की सबसे ‘सर्वश्रेष्ठ’ प्राइवेट यूनिवर्सिटी के रूप में पेश करता है. लेकिन दिप्रिंट से बात करने वाले छात्रों ने कहा कि पिछले साल प्लेसमेंट कुछ खास नहीं थे और वे इस बार स्थिति में बदलाव की उम्मीद कर रहे हैं.

दिप्रिंट ने ईमेल के जरिए रेवा यूनिवर्सिटी और ब्रेनवेयर यूनिवर्सिटी के रजिस्ट्रार से इस बारे में बात करने की कोशिश की थी लेकिन इस रिपोर्ट को प्रकाशित करने के समय तक वहां से कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली.

राजस्थान के कोटा के बाहरी इलाके में स्थित करियर पॉइंट यूनिवर्सिटी (सीपीयू) का हाल भी कुछ ऐसा ही है. कोटा में इसी नाम के कोचिंग सेंटर के लिए जाने जाने वाले करियर प्वाइंट ग्रुप ने इसे 2012 में शुरू किया था. विश्वविद्यालय अपनी वेबसाइट पर कई तरह के कोर्स और प्लेसमेंट के अवसरों को मुहैया कराने का विज्ञापन करता है.

कोटा, राजस्थान में कैरियर प्वाइंट विश्वविद्यालय | क्रेडिट: सोनिया अग्रवाल | दिप्रिंट

लेकिन जब दिप्रिंट ने कैंपस का दौरा किया तो यह साफ हो गया कि यह यूनिवर्सिटी अनिवार्य रूप से कोचिंग सेंटर की एक शाखा भर है और उन बहुत से छात्रों के लिए एक प्लेसहोल्डर के तौर पर काम कर रही है, जो प्रतिष्ठित भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों (IIT) में दाखिले के लिए संयुक्त प्रवेश परीक्षा (JEE) या मेडिकल कॉलेजों के लिए राष्ट्रीय पात्रता सह प्रवेश परीक्षा (NEET) को क्रैक नहीं कर सके.

कोटा में कई छात्र सीपीयू के बीटेक या बीएससी डिग्री प्रोग्राम के लिए नामांकन करते हैं क्योंकि उन्हें यहां पूरे शैक्षणिक वर्ष के लिए कक्षाओं में शामिल नहीं होने का विकल्प होता है. उन्हें परीक्षा से सिर्फ एक महीने पहले कॉलेज में अपनी उपस्थिति दर्ज करानी होती है. इस वजह से उन्हे जेईई या नीट में एक और मौके की तैयारी के लिए अच्छा-खासा समय मिल जाता है.

बीटेक डिग्री में लगभग एक साल में 1.30 लाख रुपये का खर्च आता है और बीएससी के लिए इसकी फीस प्रत्येक साल लगभग 50,000 रुपये है.

दिप्रिंट से बात करने वाले छात्रों ने कहा कि यह एक अपने लक्ष्य की तरफ वापस आने का एक आरामदायक विकल्प है, लेकिन उन्होंने शिकायत की कि प्लेसमेंट निराशाजनक है. एवरेज इंजीनियरिंग प्लेसमेंट लगभग 3 लाख रुपये पैकेज तक ही सीमित है.

छात्राओं ने कहा कि सुविधाएं भी कुछ खास नहीं हैं. लड़कियों के लिए कोई होस्टल नहीं है. उन्हें कहीं और पेइंग गेस्ट के रूप में रहना पड़ता है.

दिप्रिंट ने सीपीयू से ईमेल और उसके स्टूडेंट काउंसलर से फोन पर संपर्क किया था, लेकिन वहां से कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली.

2012 में स्थापित चंडीगढ़ विश्वविद्यालय उन कुछ निजी विश्वविद्यालयों में से एक है, जिन्होंने शिक्षा अनुसंधान फर्म क्वाक्यूरेली साइमंड्स की ओर से प्रकाशित इस साल की क्यूएस एशिया यूनिवर्सिटी रैंकिंग में शीर्ष 200 में जगह बनाई है. यह कथित तौर पर एशिया के विश्वविद्यालयों में 90 स्थान की छलांग लगाकर 185 वें स्थान पर पहुंच गया था.

हालांकि यहां भी छात्र शिक्षकों के साथ-साथ इंफ्रास्ट्रक्चर उम्मीद के मुताबिक न होने की शिकायत कर रहे थे.

कैंपस में इंजीनियरिंग सेकेंड ईयर के एक छात्र ने कहा, ‘फैक्लटी मेंबर बहुत बार बदलते रहते हैं… जब तक हम एक टीचर के साथ तालमेल बिठाते हैं, तब तक एक नया टीचर आ जाता है.’ एक अन्य शिकायत यह थी कि छात्रों को फर्स्ट ईयर के बाद पर्याप्त एकेडमिक गाइडेंस नहीं दिया जाता है.

तो वहीं कुछ छात्रों को शिकायत थी कि इसके बड़े से कैंपस में आने के लिए कोई ट्रांसपोर्ट सुविधा उपलब्ध नहीं है. बायोटेक्नोलॉजी के एक छात्र ने कहा, ‘ मोटी फीस वसूलने के बावजूद संस्थान परिसर के भीतर छात्रों को शटल सेवा और कक्षाओं में बेसिक फैसिलिटी नहीं दे रहा है. शटल सर्विस सिर्फ मेहमानों और माता-पिता के लिए सीमित है.’

एक अन्य छात्र ने कहा, ‘हम सभी परेशानियों को झेल रहे हैं क्योंकि हमें उम्मीद है कि प्लेसमेंट अच्छा रहेगा.’

दिप्रिंट ने इन आरोपों पर टिप्पणी लेने के लिए यूनिवर्सिटी के कुलपति और रजिस्ट्रार से बात की थी लेकिन उन्होंने कुछ भी कहने से इनकार कर दिया और ईमेल का भी कोई जवाब नहीं दिया.

छात्र ही नहीं बल्कि डेटा भी भारत के निजी उच्च शिक्षा संस्थानों की एक नापसंद आने वाली तस्वीर पेश कर रहा है.


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निजी विश्वविद्यालयों की रैंकिंग?

भारत में 400 से ज्यादा प्राइवेट कॉलेजों में से सिर्फ 23 ही 2016 में अपनी स्थापना के बाद से सरकार के राष्ट्रीय संस्थागत रैंकिंग फ्रेमवर्क (एनआईआरएफ) में जगह बना पाए थे.

प्रोफेसर कमर का शोध इस मुद्दे पर ज्यादा रोशनी डालता है. जर्नल ऑफ एजुकेशनल प्लानिंग एंड एडमिनिस्ट्रेशन में 2021 में प्रकाशित रीम कमर के साथ सह-लेखक वाला एक पेपर बताता है कि रैंकिंग के मामले में निजी संस्थान राज्य के सरकारी विश्वविद्यालयों से भी पीछे हैं. रैंकिंग तैयार करने में टीचिंग, लर्निंग, रिसोर्स, छात्रों की संख्या, पीर पर्सेप्शन, ग्रेजुएट आउटकम और अनुसंधान आउटपुट जैसे मापदंडों का इस्तेमाल किया जाता है.

पिछले साल की एनआईआरएफ सूची के मुताबिक, 11,475 सरकारी संस्थानों में से 70 – 0.61 फीसदी- को टॉप 100 में जगह दी गई थी. जबकि 32,903 स्व-वित्तपोषित संस्थानों में से 26 (जिसमें कॉलेज, स्टैंड-अलोन इंस्टीट्यूशन और यूनिवर्सिटी शामिल हैं) ने इस सूची में जगह बनाई थी. यह कुल हिस्सेदारी का सिर्फ 0.08 प्रतिशत है.

इसी पेपर से पता चलता है कि एनआईआरएफ के शीर्ष 100 में सबसे बड़ा हिस्सा – 23.7 प्रतिशत – आईआईटी और भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईआईटी) का रहा. इसके बाद केंद्रीय यूनिवर्सिटी (20.83 प्रतिशत) और सरकारी स्टेट यूनिवर्सिटी (4.21 प्रतिशत) का नंबर आता है.

जर्नल ऑफ एजुकेशनल प्लानिंग एंड एडमिनिस्ट्रेशन में पब्लिश 2019 के एक अन्य पेपर में फुरकान कमर ने अंतरराष्ट्रीय रैंकिंग ढांचे में सरकारी और निजी विश्वविद्यालयों की स्थिति की तुलना की है.

उनके शोध के अनुसार, 1.75 फीसदी प्राइवेट संस्थानों (342 में से 6) ने साल 2019 में ‘2019 क्यूएस विश्व रैंकिंग’ में जगह बनाई थी, जबकि सरकारी संस्थानों की हिस्सेदारी 3.21 प्रतिशत (562 में से 18) रही. टाइम्स हायर एजुकेशन रैंकिंग में निजी संस्थानों का प्रतिशत 3.80 (342 में से 132) था, जबकि सरकारी संस्थानों ने इसके 7.68 फीसदी (560 में से 43) में अपनी जगह बनाई.

एसआरएम यूनिवर्सिटी ऑफ साइंस एंड टेक्नोलॉजी, ओपी जिंदल यूनिवर्सिटी, एमिटी यूनिवर्सिटी, शूलिनी यूनिवर्सिटी ऑफ बायोटेक्नोलॉजी एंड मैनेजमेंट साइंसेज कुछ ऐसे प्राइवेट संस्थान हैं, जिन्होंने 2020 से 2023 तक की क्यूएस वर्ल्ड रैंकिंग में जगह अपनी बनाई है.

इसके अलावा नेशनल असेसमेंट एंड एक्रिडिएशन काउंसिल (NAAC) एक महत्वपूर्ण डेटा प्रदान करता है. यह एक सरकारी निकाय है जो उच्च शिक्षा संस्थानों का उनकी शिक्षा, अनुसंधान और संकाय की गुणवत्ता के आधार पर मूल्यांकन करता है और उन्हें A++ से C तक ग्रेड देता है. केवल 25 निजी विश्वविद्यालयों के पास NAAC मान्यता है.

हालांकि सभी संस्थानों के लिए NAAC मान्यता प्राप्त करना अनिवार्य नहीं है, लेकिन जिन संस्थानों को इसका स्टाम्प मिल जाता है, उन्हें हर मामले में बेहतर संस्थान माना जाता है. केंद्र सरकार भी ज्यादा से ज्यादा संस्थानों को मान्यता दिलाने पर जोर दे रही है.


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‘कमाई का रास्ता’

पिछले कुछ महीनों में सुप्रीम कोर्ट ने प्राइवेट संस्थानों से जुड़े दो फैसलों में इस बात पर जोर दिया कि ‘मुनाफाखोरी’ शिक्षा के लिए नुकसानदायक है.

इस फैसले का समर्थन करते हुए AIU के महासचिव पंकज मित्तल ने कहा कि प्राइवेट यूनिवर्सिटीज का ध्यान फायदे की तरफ ज्यादा होता है. ‘शिक्षा की गुणवत्ता की अनदेखी’ की जाती है.

हालांकि उन्होंने साथ ही ये भी कहा कि इसका मतलब यह कतई नहीं है कि सरकारी संस्थान शिक्षा की गुणवत्ता के मामले में सबसे आगे हैं.

उन्होंने बताया, ‘न सिर्फ प्राइवेट संस्थानों को बल्कि सरकारी कॉलेजों को भी सुधार के मामले में लंबा रास्ता तय करना है. निजी संस्थानों को सरकार की ओर से सहायता भी नहीं दी जाती है, लेकिन फिर भी वे मैनेज करते हैं.’

सोनिया अग्रवाल, संध्या रमेश और श्रेयशी डे के इनपुट्स के साथ.

(अनुवाद: संघप्रिया)

(खबर को अंग्रेज़ी में पढ़नें के लिए यहां क्लिक करें)


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