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Sunday, 3 November, 2024
होमएजुकेशनबच्चों के मेंटल हेल्थ का ध्यान रखना सिर्फ माता-पिता की नहीं बल्कि स्कूल-कॉलेज की भी जिम्मेदारी

बच्चों के मेंटल हेल्थ का ध्यान रखना सिर्फ माता-पिता की नहीं बल्कि स्कूल-कॉलेज की भी जिम्मेदारी

राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2015-16 के अनुसार, भारत की 18 वर्ष से अधिक 10.6 प्रतिशत आबादी यानी करीब 15 करोड़ लोग किसी न किसी मानसिक रूप से अस्वस्थ हैं.

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प्रथम सुख निरोगी काया. प्रायः हम सभी स्वास्थ्य का सामान्य अर्थ शारीरिक स्वास्थ्य से समझते हैं किन्तु एक स्वस्थ व्यक्ति वही है जो शारीरिक और मानसिक दोनों प्रकार से स्वस्थ है. यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति ही अपने वातावरण एवं अपने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में समायोजन करने में सफल रहता है. अन्य शब्दों में यदि यूं कहें कि दैनिक जीवन में अपनी भावनाओं, इच्छाओं, महत्वाकांक्षाओं एवं आदर्शों में संतुलन रखने की योग्यता ही मानसिक रूप से स्वस्थ व्यक्ति की पहचान है.

राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2015-16 के अनुसार, भारत की 18 वर्ष से अधिक 10.6 प्रतिशत आबादी यानी करीब 15 करोड़ लोग किसी न किसी मानसिक रूप से अस्वस्थ हैं. हर छठे भारतीय को मानसिक स्वास्थ्य के लिए सहायता की आवश्यकता है. आज यह एक ऐसा प्रश्न बन गया है कि इसे लेकर मन में सवाल उठना स्वाभाविक सा ही लगता है.  हर कोई जाननता चाहता है कि मानसिक अस्वस्थता के कारण क्या हैं? क्या 18 वर्ष से अधिक आयु के व्यक्ति ही मानसिक अवसाद से ग्रस्त होते हैं? मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक कौन से हैं?

आज की तनावपूर्ण जीवन शैली हमारे मानसिक असंतुलन का प्रमुख कारण है और यह असंतुलन छात्रावस्था से ही प्रारंभ हो जाता है. विद्यार्थियों के मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले कारकों में शारीरिक, स्वास्थ्य, पारिवारिक वातावरण, समाज एवं विद्यालय प्रमुख हैं. मानसिक अस्वस्थता विभिन्न रूपों में बच्चों के आचार, व्यवहार आदि में परिलक्षित होती है जैसे- चिंता, अवसाद , दुःख, क्रोध, निराशा, एकाग्रता में कमी, भोजन के प्रति अरुचि अथवा कभी-कभी अत्यधिक भोजन करने की इच्छा, असंतुलित व्यवहार आदि. इन सभी लक्षणों का कोई भी कारण हो सकता है. 

अतः शिक्षकों, अभिभावकों, और शिक्षा प्रणाली एवं  शैक्षिक व्यवस्था को निर्धारित करने के द्वारा ही बालकों के मानसिक स्वास्थ्य में सुधार के उपाय भी किये जा सकते हैं. बच्चे हमारा भविष्य हैं, राष्ट्र की नींव हैं. अतः इस समस्या को न तो हम नजरंदाज कर सकते हैं और न ही टाल सकते हैं. आज का विद्यार्थी-वर्ग जिस  तरह के असामान्य व्यवहारों, मारपीट, हिंसा और उद्दण्डता को प्रस्तुत कर रहा है वह चिंताजनक है. जिस तरह से उनके नैतिक मूल्यों और विचारों में परिवर्तन हो रहा है तथा इन व्यवहारों का जो प्रभाव आज के विद्यार्थी के व्यक्तित्व पर पड़ रहा है, वह हमें इस बात लिए बाध्य करता है कि अब हम अपनी  सम्पूर्ण  सामाजिक  व्यवस्था, पारिवारिक वातावरण और शिक्षा संस्थानों में व्याप्त कमियों पर पुनरावलोकन करें.

बच्चों को आत्मनिर्भर बनाएं, होमवर्क कम दें

इस दिशा में सबसे पहले हमें विद्यालयों की भूमिका पर विचार करना होगा क्योंकि परिवार और समाज को एक सूत्र में पिरोने वाली कड़ी विद्यालय ही है. विद्यालय का वातावरण छात्र के मानसिक विकास के लिए महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है. निम्नलिखित बिंदुओं के अंतर्गत हम विद्यालयों की सकारात्मक भूमिका को समझ सकते हैं.

स्कूलों को चाहिए कि बच्चों के प्रति प्रेमपूर्ण, नम्र एवं सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार रखें साथ ही छात्र केन्द्रित शिक्षा-व्यवस्था, रोचक शिक्षण की ओऱ बढ़ें.

स्कूलों में बच्चों को दंडात्मक अनुशासन की जगह स्वानुशासन एवं अनुकरणात्मक अनुशासन की सीख देने की कोशिश की जानी चाहिए. .

कक्षा के अलग-अलग मानसिक क्षमता के बालकों को दृष्टिगत रखते हुए उपयुक्त अनुकूलन शिक्षण सूत्रों, युक्तियों, प्रविधियों एवं विधियों का प्रयोग.

बच्चों को मानसिक वृद्धि, क्षमता, रुचि तथा ग्राह्यता को ध्यान में रखते हुए उपयुक्त मात्रा में ही उनकी रुचि एवं बोधगम्यता के अनुसार ही पाठ्यक्रम निर्धारण करना चाहिए.

बच्चों को होमवर्क कम ही देना चाहिए. होमवर्क को समय से पूरा न कर पाने के कारण मिलने वाली सजा के बारे में सोचकर ही उन्हें डर और चिंता सताने लग जाती है. इससे उनमें मानसिक तनाव होने लगता है.  इसलिए छात्रों  को सिर्फ उतना की होमवर्क दें जिसे वे सरलता से बिना किसी तनाव को पूरा कर सकें.

पढ़ाई के साथ-साथ उन्हें दूसरी क्रियाओं जैसे- खेलकूद, योग, एक्सरसाइज, क्विज, एक्टिंग, सिंगिंग, इंस्ट्रूमेंट प्लेयर, डांसिंग, कल्चरल एक्टिवीटीज, में उन्हें रूटीन के साथ आगे बढ़ने में मदद करनी चाहिए.

छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य को स्वस्थ रखने की जिम्मेदारी शिक्षकों पर भी होती है. यही नहीं क्लास टीचर हों या फिर गाइड उन्हें ये ध्यान रखना चाहिए कि छात्र का रुझान किस ओर है और उसके संपूर्ण विकास में वो किस तरह से योगदान दे सकते हैं.

छात्रों को रिस्पांसिबल बनाने के लिए उन्हें स्कूल के कुछ ऐसे काम भी सौंपे जाने चाहिए जिससे कि वो खुद को स्कूल के प्रति खुद को जिम्मेदार मानें और उसकी भागीदारी में अहम भूमिका निभाएं. ऐसा करने से छात्रों में लीडरशिप क्वालिटी, क्रिएटिविटी, मदद करने की भावना आदि गुणों का विकास होगा.


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बच्चों के मानसिक विकास में परिवार की भूमिका एवं दायित्व

  • अभिभावक परिवार में शांति एवं सामंजस्यपूर्ण वातावरण बनाये रखें.
  • बच्चों के प्रति उचित व्यवहार करें और उन्हें प्यार और आदर दें.
  • बच्चों की समस्याओं को सुनें तथा उनके समाधान के लिए न केवल मदद करें बल्कि उनका मार्गदर्शन करें.
  • यह भी बहुत जरूरी है कि माता-पिता अपने बच्चों के कोमल मन पर अपने सपनों को और अपनी आकांक्षाओं को पूरा करने का बोझ न डालें.
  • बच्चे की क्षमता एवं अभिरुचियों को ध्यान में रखकर ही उसका पालन -पोषण  करें.

कॉलेजों और यूनिवर्सिटीज की भी है अहम भूमिका 

हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि बच्चा जो कुछ भी अपने परिवेश से ग्रहण करेगा वही वह समाज को लौटाएगा. आज का छात्र ही कल समाज की मुख्यधारा का अंग बनेगा. अतः समाज के नियम, कायदे, कानून आदि ऐसे हों जो उसके विकास में सहायक हों. युवावर्ग के मानसिक स्वास्थ्य को विकसित करने के लिए विश्वविद्यालय स्तर पर निम्नलिखित प्रयास किये जाने चाहिए – 

  • युवाओं की भावी आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए पाठ्यक्रम का निर्माण.
  • शिक्षा के व्यावसायीकरण ने शिक्षा के स्तर को गिरा दिया है अतः इसमें व्यावसायिकता की अपेक्षा गुणवत्ता, समर्पण और प्रतिस्पर्धा को महत्व दिया जाना चाहिए.
  • ऑन लाइन शिक्षा को बढ़ावा
  • राष्ट्रीय लक्ष्यों पर आधारित पाठ्यक्रम का पुनर्गठन
  • ध्यान, योग, मूल्यपरक नैतिक मूल्यों पर आधारित पाठ्यक्रम
  • प्रत्येक समाज कुछ रहन-सहन और जीवन-यापन की पद्धतियां और परम्परायें स्थापित करता है, नियम, कानून बनाता है, मान्यताएं एवं मानक निश्चित करता है ताकि व्यक्ति और समाज सुसंस्कृत हो सके, व्यक्तियों में आपसी विरोध कम हो सके तथा व्यक्ति और समाज में संतुलन बना रहे.
  • इस प्रक्रिया में व्यक्ति की कुछ आवश्यकतायें, इच्छायें पूरी होती हैं तो कुछ को उसे बदलना पड़ता है. उसे अपने समाज में समन्वय और समायोजन करना पड़ता है और यदि व्यक्ति इस में असफल रहता है तो इसका प्रभाव उसके मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ता है तथा संतुलन एवं समायोजन के अभाव में उसमें चिन्ता, तनाव, संघर्ष आदि उत्पन्न हो जाते हैं.
  • यदि व्यक्ति संवेगात्मक रूप से परिपक्व होता है तो वह इन विपरीत परिस्थितियों में भी स्वयं को समाज में उचित रूप से समायोजित करने का प्रयास करता है. समायोजन के लिये व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास होना आवश्यक है.

कोरोना महामारी के बाद ऐसे छात्रों की संख्या में अधिक वृद्धि हुई है जो तनाव के कारण अवसादग्रस्त हैं. शिक्षण संस्थानों को भी इस बात की जानकारी है, यही कारण है कि केंद्र, विभिन्न राज्य व शिक्षण संस्थान छात्रों को मानसिक विकार से बचाने के लिए आगे आ रहे हैं. विशेषज्ञों के मुताबिक युवाओं एवं किशोरों में मानसिक स्वास्थ्य विकार के अनेक कारण हैं. इनमें परीक्षा का दबाव, पढ़ाई का तनाव, सहपाठियों से प्रतिस्पर्धा और पारिवारिक दबाव प्रमुख हैं.

इसके अलावा, जैसे-जैसे शिक्षण संस्थानों में दाखिले के लिए प्रतिस्पर्धा का स्तर बढ़ रहा है, वैसे वैसे छात्रों पर भी दबाव कई गुना बढ़ता जा रहा है. इसका दुष्परिणाम छात्रों में मानसिक विकार, नैराश्य और पलायन के रूप में प्रदर्शित हो रहा है. आज मानसिक रोगों के प्रति गंभीरता, संवेदनशीलता और भावनात्मक सहायता की महती आवश्यकता है. अतः युवा वर्ग के सर्वांगीण विकास को सकारात्मक दिशा देने के लिए न केवल अभिभावकों और अध्यापकों का समेकित प्रयास अपेक्षित है बल्कि सरकार द्वारा सक्रिय नीतिगत हस्तक्षेप भी बहुत जरूरी है.

(निराजना दुबे, सेठ आनंदराम जैपुरिया स्कूल, कानपुर में हिंदी विभाग की अध्यक्ष हैं. यहां व्यक्त विचार निजी हैं.)


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