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Thursday, 25 April, 2024
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मोदी सरकार ने किया माइनॉरिटी स्कॉलरशिप में बदलाव? UP मदरसों में निराशा, भ्रम और उदासीनता की स्थिति

आरटीई के तहत आठवीं कक्षा तक सभी बच्चों को अनिवार्य और फ्री शिक्षा दी जाती है. इसलिए प्री-मैट्रिक स्कीम अब सिर्फ नौंवी और दसवीं के छात्रों के लिए है.

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लखनऊ: अल्पसंख्यक समुदायों के छात्रों के लिए प्री-मैट्रिक छात्रवृत्ति योजना के प्रमुख प्रावधानों में बदलाव लाने के मोदी सरकार के फैसले से उत्तर प्रदेश में आलोचना, भ्रम और उदासीनता की स्थिति बन गई है. हालांकि यूपी मदरसा शिक्षा परिषद् (UPMSP) ने साफ किया है कि यह कदम सभी अल्पसंख्यक समुदायों के छात्रों पर लागू होता है, न कि सिर्फ मदरसों में पढ़ने वाले मुसलमानों पर.

आधिकारिक रिकॉर्ड के अनुसार, राज्य में 16,513 मान्यता प्राप्त मदरसों में लगभग 20 लाख छात्र पढ़ते हैं.

स्कॉलरशिप की यह योजना 2006 में लाई गई थी, जिसमें पहली से पांचवी कक्षा में पढ़ने वाले बच्चे को हर साल छात्रवृत्ति के रूप में एक हजार रुपये दिए जाते थे. जबकि कक्षा पांचवी से दसवीं तक के बच्चों को – या तो डे स्कॉलर्स या हॉस्टल में रहने वाले– हर साल 4,700 रुपये मिलते थे. हॉस्टल में रहने वालों और डे स्कॉलर्स को 600 रुपये और 100 रुपये हर महीने अतिरिक्त रखरखाव भत्ता दिया जाता था.

अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय की ओर से जारी और दिप्रिंट द्वारा एक्सेस किए गए प्रावधानों में बदलाव की घोषणा करने वाले नोटिस में कहा गया है कि कक्षा 1 से 8 वीं में पढ़ने वाले छात्रों को पहले से ही शिक्षा के अधिकार अधिनियम (RTE), 2009 के तहत कवर किया जाता है. RTE यानी ‘छह से चौदह साल की उम्र के सभी बच्चों की फ्री और अनिवार्य शिक्षा’.

इसलिए अब सिर्फ नौवीं और दसवीं कक्षा में पढ़ने वालों को स्कॉलरशिप दी जाएगी.

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नोटिस में कहा गया है, ‘संस्थान नोडल अधिकारी/जिला नोडल अधिकारी/राज्य नोडल अधिकारी तदनुसार अल्पसंख्यक मामलों के मंत्रालय की प्री-मैट्रिक स्कॉलरशिप योजना के तहत कक्षा 9 और 10 के लिए आवेदनों का सत्यापन करेंगे.’

यह योजना राज्य सरकार और केंद्र शासित प्रदेशों के प्रशासन के जरिए लागू की जाती है.

प्री-मैट्रिक स्कॉलरशिप स्कीम में बदलाव को लेकर सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी पर विपक्षी नेताओं का हमला तेज हो गया है. उन्होंने इस मुद्दे पर तीखी प्रतिक्रिया दी है.

कांग्रेस नेता रणदीप सुरजेवाला ने ‘कक्षा 1 से कक्षा 8 तक के लाखों एससी-एसटी-ओबीसी-अल्पसंख्यक बच्चों के लिए प्री-मैट्रिक छात्रवृत्ति योजना को बंद करने’ की आलोचना की और कहा कि वह इसे ‘गरीबों और शिक्षा पर भाजपा के हमले’ के रूप में देखते हैं. उनकी पार्टी के सहयोगी और कर्नाटक विधान परिषद में विपक्ष के नेता बी.के. हरिप्रसाद ने कहा, पीएम नरेंद्र मोदी को ‘इस कठोर नियम को तुरंत वापस ले लेना चाहिए.’

मदुरै के सांसद और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी-मार्क्सवादी (सीपीआई-एम) के नेता एस वेंकटेशन ने मोदी सरकार से प्राथमिक और प्राथमिक स्तर पर सभी छात्रों को प्री-मैट्रिक छात्रवृत्ति बहाल करने का अनुरोध किया है.

लेकिन उत्तर प्रदेश में इस कदम के असर को लेकर राय बंटी हुई है. कुछ मदरसों के प्रमुखों ने दावा किया कि स्कीम के बारे में जागरूकता की कमी के चलते शायद ही छात्रों को कभी सहायता प्राप्त हुई हो. इसका फायदा अक्सर बिचौलिये ही उठाते रहे हैं. तो वहीं कुछ ने इस कदम को ‘मदरसा विरोधी’ बताया.

यूपीएमएसपी के अध्यक्ष इफ्तिखार अहमद जावेद ने मंत्रालय की अधिसूचना की व्याख्या करते हुए कहा, ‘आरटीई अधिनियम के तहत पहली से आठवीं तक के छात्रों को पहले से ही मुफ्त शिक्षा दी जा रही है. इसलिए उनके लिए स्कॉलरशिप को समाप्त कर दिया गया. यहां मदरसों को लेकर तो कोई सवाल ही नहीं है. मदरसे तो इसका एक हिस्सा भर हैं. यह स्कूलों, मिशनरी स्कूल, विभिन्न धर्मों के लोगों, सभी अल्पसंख्यक संस्थान और उसमें पढ़ने वाले बच्चों के लिए है.

दिप्रिंट से बात करते हुए जावेद ने कहा कि शुक्रवार को मिले आदेश में ‘मदरसा शब्द’ नहीं है. उन्होंने कहा, ‘आपको पता होना चाहिए कि पहली से लेकर आठवीं कक्षा तक के सभी छात्रों के लिए स्कॉलरशिप स्कीम को इसलिए बंद किया गया है. क्योंकि वे पहले से ही आरटीई अधिनियम के तहत मुफ्त शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं.’

जावेद के मुताबिक, राज्य में अब तक लगभग 8.43 लाख छात्र छात्रवृत्ति के दायरे में आ चुके हैं. उन्होंने कहा, ‘अगर उनमें से नौवीं और दसवीं कक्षा के छात्रों को बाहर कर दिया जाता है, तो लगभग 7 लाख अल्पसंख्यक संस्थानों में पढ़ रहे हैं. इनमें से आधे मदरसों में हैं, जिनकी संख्या लगभग 3.5-4 लाख होगी.’

उधर यूपी अल्पसंख्यक पैनल के सदस्य परविंदर सिंह ने आरोप लगाया कि छात्रवृत्ति और अन्य सहायता राशि अब तक सिर्फ मुसलमानों के बीच ही बांटी जाती रही है. उन्होंने कहा, ‘यूपी में पांच प्रमुख अल्पसंख्यक समुदायों – मुस्लिम, ईसाई, सिख, जैन और बौद्ध के बीच इसे समान रूप से वितरित किया जाना चाहिए.’


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गरीब छात्रों की मदद या फिर उन्हें इसका कभी लाभ नहीं मिल पाया

जावेद के इस स्पष्टीकरण के बावजूद कि केंद्र का फैसला सिर्फ मदरसों में पढ़ने वाले छात्रों तक सीमित नहीं है, इस कदम से इन संस्थानों से जुड़े कई लोग नाखुश हैं.

इरम ग्रुप ऑफ इंस्टीट्यूशंस के अध्यक्ष ख्वाजा फैजी यूनुस ने कहा, ‘यह कदम आर्थिक रूप से कमजोर पृष्ठभूमि से आने वाले छात्रों को प्रभावित करेगा. परिवार की आय के संबंध में शर्तें हैं और आय प्रमाण पत्र और अन्य दस्तावेज जमा करने के बाद ही छात्रों को स्कॉलरशिप मिल पाएगी. यह उन छात्रों पर असर डालेगा जिनकी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है.’

उन्होंने कहा कि रिक्शा चलाने वाले, सब्जी बेचने वालों के बच्चों की मदद करने वाली यह एक अच्छी योजना थी. ज्यादातर यही लोग छात्रवृत्ति के लिए आवेदन करते थे.

कुछ अन्य हितधारकों को डर है कि छात्रवृत्ति के प्रावधानों में बदलाव से कई छात्र स्कूल छोड़ सकते हैं.

शिया मरकजी चांद कमेटी के अध्यक्ष मौलाना सैफ अब्बास नकवी ने कहा, ‘यह सरकार के हाथ में है कि वह छात्रवृत्ति दे या वापस ले. यह छात्रों को मिलने वाली एक मामूली सी रकम थी. कई बच्चे तो सिर्फ स्कॉलरशिप पाने के लिए पढ़ रहे होते हैं. वह उस पैसे को अपने खाने की चीजों पर इस्तेमाल करते रहे हैं. तो कई इस पैसे से अपने लिए किताबों आदि खरीदते थे. इससे बच्चों का मनोबल गिरेगा.’

उन्होंने आगे कहा, ‘ हो सकता है कि कुछ लोग इसका इस्तेमाल अपने मोबाइल फोन को रिचार्ज करने और पान मसाला (खरीदने) के लिए भी करते हो, लेकिन अगर हम इसे सकारात्मक रूप से देखें, तो इस कदम से अल्पसंख्यक शिक्षा संस्थानों में छात्र नामांकन में गिरावट आएगी.’

नकवी, जो स्कूलों की हौजा इल्मिया अबुतालिब श्रृंखला के प्रबंध निदेशक भी हैं, ने कहा, ‘मैं सरकार से अनुरोध करना चाहता हूं कि वह इस (योजना) को बंद न करे क्योंकि यह कोई राजनीतिक मुद्दा नहीं है, बल्कि बच्चों के भविष्य का सवाल है.’

कुछ आवाजें यह भी दावा कर रही थीं कि योजना का लाभ छात्रों तक नहीं पहुंच पाता है.

लखनऊ के तंजीमुल मकातिब मदरसा के सचिव मौलाना शफी हैदर ने आरोप लगाते हुए कहा, ‘हमें नहीं पता कि ये किसकी गलती है. चाहे इसे हमारी ओर से चूक माना जाए या सरकार की तरफ से. काम करने वालों तक योजना नहीं पहुंच पाती है. इनका फायदा सिर्फ उन्हीं लोगों को मिलता है जो इसे गैर-कानूनी तरीके से एक्सेस करते हैं. करीब पांच साल पहले हमने मौलाना आजाद एजुकेशन फाउंडेशन से लाइब्रेरी वगैरह के लिए फंड के लिए अप्लाई किया था, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. यह सुनिश्चित करना सरकार की जिम्मेदारी है कि सूचना मदरसों तक पहुंचे. आमतौर पर जानकारी कम जाने-पहचाने अखबारों में प्रकाशित की जाती है.’

उन्होंने कुछ मदरसों और सरकारी अधिकारियों के बीच मिलीभगत का संकेत दिया. वह कहते हैं, ‘कुछ मदरसों में कई स्कीम लागू की जाती हैं क्योंकि सरकार के लिए काम करने वाले (अधिकारी) बदलते नहीं हैं. यहां तक कि अगर सरकार यह सुनिश्चित करना चाहती है कि योजनाओं का फायदा (सभी मदरसों तक) पहुंचे, तो यह बिचौलियों के कारण संभव नहीं हो पाता है.’

लखनऊ के कार्यकर्ता ज़मीर नकवी ने यूपी के मदरसों में कथित कदाचार के खिलाफ इलाहाबाद उच्च न्यायालय में कई याचिकाएं दायर की हैं. उन्होंने दिप्रिंट को बताया कि इस कदम से छात्रों पर शायद ही कोई प्रभाव पड़ेगा क्योंकि मदरसों के लोगों को शायद ही कभी इस योजना का कोई लाभ मिलता हो.

उन्होंने आरोप लगाया, ‘आमतौर पर छात्र नहीं, बल्कि संस्थान स्कॉलरशिप का फायदा उठाते हैं.’ उन्होंने आरोप लगाया कि अधिकांश मदरसे समुदाय से मिलने वाले दान से आत्मनिर्भर बने हुए हैं.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(अनुवादः संघप्रिया मौर्य)


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