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Monday, 23 December, 2024
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‘अडाणी को कटघरे में क्यों नहीं लाया गया?’ उर्दू प्रेस ने की अमेरिकी आरोपों की निष्पक्ष जांच की मांग

पेश है दिप्रिंट का राउंड-अप कि कैसे उर्दू मीडिया ने पिछले हफ्ते के दौरान विभिन्न समाचार संबंधी घटनाओं को कवर किया और उनमें से कुछ ने इसके बारे में किस तरह का संपादकीय रुख अपनाया.

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नई दिल्ली: उर्दू अखबारों ने इस हफ्ते भारत सरकार से अडाणी ग्रुप के खिलाफ अमेरिकी अभियोजकों द्वारा लगाए गए रिश्वतखोरी के आरोपों की पारदर्शी जांच करने का आग्रह किया. अखबारों ने जांच में निष्पक्षता की ज़रूरत पर जोर दिया और चेतावनी दी कि आरोप एक बढ़ती अर्थव्यवस्था के रूप में भारत की छवि को नुकसान पहुंचा सकते हैं.

संपादकीय में सियासत, रोज़नामा ​​राष्ट्रीय सहारा और इंकलाब ने झारखंड और महाराष्ट्र में विधानसभा चुनावों और उत्तर प्रदेश में उपचुनावों पर भी चर्चा की. सियासत ने बुधवार को मतदान के दौरान कथित हेराफेरी और अनियमितताओं के लिए यूपी प्रशासन की आलोचना की.

इंकलाब ने चेतावनी दी कि सैन्य और राजनीतिक चुनौतियों के बावजूद गाज़ा की ज़मीन की मांग करने में इज़रायल की ज़िद्द पूरी होने की संभावना नहीं है.

दिप्रिंट आपके लिए इस हफ्ते उर्दू प्रेस में पहले पन्ने पर सुर्खियां बटोरने और संपादकीय में शामिल सभी खबरों का एक राउंड-अप लेकर आया है.


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‘भारत की छवि दांव पर’

शुक्रवार को सियासत ने एक संपादकीय में अडाणी ग्रुप के खिलाफ रिश्वतखोरी और धोखाधड़ी से संबंधित अमेरिकी न्याय विभाग द्वारा लगाए गए आरोपों पर प्रकाश डाला. हालांकि, ये आरोप अभी तक साबित नहीं हुए हैं, लेकिन कई महाद्वीपों में फैले भारत के सबसे बड़े व्यापारिक समूहों में से एक अडाणी ग्रुप की हैसियत को देखते हुए ये आरोप महत्वपूर्ण हैं.

आरोपों में राजनीतिक नेताओं को समर्थन के लिए भुगतान करने के दावे शामिल हैं, जो गंभीर चिंता पैदा करते हैं और निष्पक्ष जांच की मांग करते हैं. अख़बार ने कहा कि अडाणी समूह के खिलाफ आरोप नए नहीं हैं, लेकिन विदेशी संस्था की ओर से इस तरह के आरोपों का यह पहला मामला है, जो संभावित रूप से एक बढ़ती अर्थव्यवस्था के रूप में भारत की वैश्विक छवि को प्रभावित कर सकता है.

इसमें कहा गया है कि इस मामले पर गंभीरता से ध्यान देने की ज़रूरत है. अगर, यह निराधार हैं, तो आरोप लगाने वाले विभाग को स्पष्टीकरण देना चाहिए. अखबार ने सलाह दी कि अगर आरोप साबित हो जाते हैं, तो सख्त कार्रवाई ज़रूरी है. राजनीतिक संबद्धता के संदेह को जांच में बाधा नहीं डालनी चाहिए, जो भारत की प्रतिष्ठा और सार्वजनिक विश्वास दोनों की रक्षा के लिए पारदर्शी होनी चाहिए.

अखबार ने अपने संपादकीय में लिखा, “किसी भी पक्षपात या संबद्धता के बावजूद, जांच पूरी पारदर्शिता और निष्पक्षता के साथ की जानी चाहिए, जिससे सभी तथ्य न केवल भारतीय जनता के सामने बल्कि वैश्विक मंचों पर भी सामने आ सकें. चूंकि, ये आरोप अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उठाए गए हैं, इसलिए वैश्विक समुदाय को भी निष्कर्षों के बारे में सूचित किया जाना चाहिए.”

शुक्रवार को, रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा ने भी इसी तरह की चिंता जताई, जिसमें व्यवसायी गौतम अडाणी और उनके समूह पर अमेरिकी निवेशकों को गुमराह करने और सौर ऊर्जा परियोजनाओं के लिए भारतीय अधिकारियों को रिश्वत देने का आरोप लगाया गया.

अखबार ने पूछा, हालांकि, अडाणी ने आरोपों से इनकार किया है, लेकिन अगर यह सच हैं, तो वह समूह की कॉर्पोरेट नैतिकता और वैश्विक व्यापार पारदर्शिता पर सवाल उठाएंगे. मुख्य मुद्दा यह है कि अगर आरोप वैध हैं तो अडाणी के खिलाफ कोई कार्रवाई क्यों नहीं की गई. क्या समूह का प्रभाव इसे कानूनी परिणामों से बचा रहा है.

रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा ने लिखा, स्थिति समूह के सरकारी संबंधों के बारे में भी सवाल उठाती है, क्योंकि कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने अडाणी की सफलता को पीएम नरेंद्र मोदी और भाजपा के समर्थन से जोड़ा है, आरोप लगाया है कि जांच को रोक दिया गया है. इससे भारतीय संस्थाओं की ईमानदारी पर संदेह पैदा होता है, खासकर तब जब अमेरिकी एजेंसियां ​​इसमें शामिल हैं, लेकिन देश में समूह के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई है.

इसने लिखा, “अगर अडाणी वाकई दोषी हैं, तो उन्हें न्याय के कटघरे में क्यों नहीं लाया जा रहा है? क्या सरकार का कारोबारी समुदाय के साथ ऐसा रिश्ता है जो कानून के शासन को कमजोर करता है?”

‘लोकतंत्र का मज़ाक न उड़ाया जाए’

गुरुवार को सियासत ने अपने संपादकीय में झारखंड और महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव तथा उत्तर प्रदेश में हुए उपचुनावों पर चर्चा की.

हाल ही में हुए चुनाव प्रचार के दौरान मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए कई तरह के हथकंडे अपनाए गए और चुनाव आचार संहिता का उल्लंघन सामने आया. उत्तर प्रदेश पुलिस पर मतदाताओं को मतदान करने से रोकने का आरोप लगाया गया, खास तौर पर उन इलाकों में जहां मुस्लिम आबादी अधिक है.

सियासत ने लिखा कि पूरे भारत में मतदान प्रतिशत बढ़ाने के प्रयास किए जा रहे हैं, लेकिन मतदान रोकने के लिए पुलिस बल का इस्तेमाल करना अस्वीकार्य है. पुलिस को मतदान प्रक्रिया में हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है, जबकि यह निर्वाचन आयोग (ईसी) के अधिकारियों की जिम्मेदारी है. मतदान प्रक्रिया को बाधित करने के लिए पुलिस द्वारा सत्ता के दुरुपयोग पर विचार किया जाना चाहिए और इसमें शामिल लोगों के खिलाफ कार्रवाई की जानी चाहिए. राजनीतिक लाभ के लिए लोकतंत्र का मज़ाक नहीं उड़ाया जाना चाहिए और चुनाव आयोग को प्रक्रिया की अखंडता की रक्षा के लिए हस्तक्षेप करना चाहिए.

बुधवार को सियासत ने महाराष्ट्र और झारखंड में तीव्र और आक्रामक प्रचार अभियान पर चर्चा की, जहां इसने कहा कि राजनीतिक दलों ने प्रमुख मुद्दों को संबोधित करने की बजाय नकारात्मक रणनीति पर अधिक ध्यान केंद्रित किया और लोगों की समस्याओं के समाधान पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय विभिन्न समूहों को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा किया.

इसमें कहा गया, “पूरा अभियान एक नकारात्मक मानसिकता से प्रेरित था, जिसमें किसी ने भी सकारात्मक और रचनात्मक तरीके से मुद्दों को उठाने पर ध्यान केंद्रित नहीं किया. लोगों को यह समझना चाहिए कि जो लोग समाज में पाखंड और नफरत फैलाते हैं, वह विकास के मुद्दों पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पाएंगे.”

मंगलवार को सियासत ने कहा कि कांग्रेस ने सार्वजनिक मुद्दों को संबोधित करने और विकास में विभिन्न जातियों और जनजातियों को शामिल करने पर ध्यान केंद्रित किया है. इसके अलावा, भाजपा ने राजनीतिक लाभ के लिए पिछड़े वर्गों को बरगलाने के लिए भय की रणनीति और विभाजनकारी बयानबाजी का इस्तेमाल किया.

मोदी, (अमित) शाह और (यूपी के मुख्यमंत्री योगी) आदित्यनाथ जैसे नेताओं ने सार्वजनिक मुद्दों पर सकारात्मक चर्चा से बचते हुए विभाजन को बढ़ावा दिया है.

सोमवार को इंकलाब ने एक संपादकीय में महाराष्ट्र में पार्टी के विखंडन पर नाराजगी पर चर्चा की, जिसने मतदाताओं को नाराज़ कर दिया है. किसानों सहित मतदाताओं ने कई पार्टियों और उम्मीदवारों द्वारा फैलाए गए भ्रम के कारण निराशा व्यक्त की है. समाज को विभाजित करने के प्रयासों के बावजूद, जनता अधिक जागरूक हो रही है और हेरफेर के प्रति प्रतिरोधी हो रही है, इसने राजनीतिक दलों से इन संकेतों पर ध्यान देने और मतदाताओं के बीच बढ़ती राजनीतिक जागरूकता को पहचानने का आह्वान किया.

‘इज़राइल की विफलता’

मंगलवार को इंकलाब ने अपने संपादकीय में गाजा के खिलाफ इज़रायल के चल रहे विनाशकारी युद्ध पर चर्चा की, जिसमें 43,000 से ज़्यादा फिलिस्तीनी लोगों की मौत और व्यापक विनाश की भारी मानवीय कीमत पर प्रकाश डाला गया. इसके बावजूद, फिलिस्तीनी प्रतिरोध अटूट बना हुआ है.

संपादकीय ने फिलिस्तीनी भावना को कुचलने में इज़रायल की विफलता पर ज़ोर दिया और फिलिस्तीन के लिए वैश्विक समर्थन में वृद्धि का उल्लेख किया, जिसमें अमेरिकी विश्वविद्यालयों में विरोध प्रदर्शन और जोसेफ बोरेल जैसे यूरोपीय नेताओं की आलोचना शामिल है. असफलताओं के बावजूद, इज़रायल गाज़ा की ज़मीन पर कब्ज़ा करने के अपने लक्ष्य पर कायम है. हालांकि, सेना की कमी और विदेशी नागरिकों की संभावित भर्ती जैसी चुनौतियां (बेंजामिन) नेतन्याहू की सरकार को नहीं बचा सकती हैं.

इंकलाब ने लिखा, “इतने सारे मोर्चों पर विफलता के बावजूद, अगर इज़रायल हठधर्मिता पर कायम रहता है, सिर्फ इसलिए कि वह गाज़ा की आबादी को एक कोने में सीमित करके गाजा की ज़मीन पर कब्ज़ा करना चाहता है, तो वह इस साजिश में सफल नहीं हो सकता क्योंकि इज़रायली सेना अपने राजनीतिक आकाओं के आदेशों का पालन करती है. इसके कई सैनिक युद्ध में सेवा दे चुके हैं और सैनिकों की कमी एक समस्या बन रही है.”

अखबार ने पूछा, “ऐसी खबरें सामने आई हैं कि इज़रायली सेना विदेशी नागरिकों को सेना में शामिल होने के लिए आमंत्रित करने की योजना बना रही है, जिन्हें नौकरी के साथ-साथ नागरिकता भी दी जाएगी, लेकिन क्या ऐसे उपाय नेतन्याहू के जहाज़ को डूबने से बचा पाएंगे?”

(उर्दूस्कोप को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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