scorecardresearch
Friday, 29 March, 2024
होमसमाज-संस्कृति'ठाकरे भाऊ'- उद्धव ठाकरे को 'मी मुंबईकर' अभियान को लेकर क्यों नरम होना पड़ा

‘ठाकरे भाऊ’- उद्धव ठाकरे को ‘मी मुंबईकर’ अभियान को लेकर क्यों नरम होना पड़ा

धवल कुलकर्णी की किताब ‘ठाकरे भाऊ’ में उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे के राजनीतिक जीवन और उनके राजनीतिक दलों की विकास-यात्रा का व्यापक सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक परिप्रेक्ष्य में विश्लेषण किया गया है.

Text Size:

उद्धव ने केवल ‘मराठी मानुस’ के मतदाताओं से पार जाकर शिवसेना के विस्तार का खतरा उठाया था. 2003 में कार्यकारी अध्यक्ष नियुक्त होने के कुछ समय बाद जब वे यूनिवर्सिटी ऑफ मुंबई के मराठी विभाग में अपने दादा की पोर्ट्रेट का अनावरण करने गए तो उन्होंने बौद्ध दलितों की तरफ हाथ बढ़ाया. उन्होंने शरद पवार के गढ़ बारामती में ‘शिव शक्ति-भीम शक्ति’ रैली का आयोजन किया जिसमें उन्होंने दलितों से यह आग्रह किया कि वे कांग्रेस के लिए मतदान करना छोड़ दें.

यह संकेत मायने रखता था क्योंकि अतीत में शिवसेना की तलवार बौद्ध दलितों के साथ खिंची रहती थी. वर्ली में 1974 के दंगों के दौरान सेना का संघर्ष आक्रामक दलित पैंथर समूह के साथ हुआ था और जब 1978-1994 के दौरान चले नामांतरण आंदोलन ने मराठवाड़ा विश्वविद्यालय का नाम बदलकर डॉक्टर भीमराव आंबेडकर विश्वविद्यालय रखने का सुझाव दिया था तब सेना ने इसका विरोध किया था. जब महाराष्ट्र सरकार ने आंबेडकर की किताब रिडल्स इन हिंदुइज़्म का प्रकाशन किया तब भी शिवसेना ने इसका विरोध किया. इस किताब में हिंदू देवी-देवताओं को लेकर विवादास्पद बातें लिखी गई थीं (1987).

हिंदू दलितों के बीच शिवसेना का अपना आधार था, जिसने व्यापक दलित आंदोलन में बौद्ध दलितों के वर्चस्व का विरोध किया. मराठों एवं अन्य मध्यवर्ती जातियों द्वारा भी विरोध किया जा रहा था जिनको समाज में उनका ऊपर उठना पच नहीं पा रहा था. बौद्ध दलितों में उनको यह दिखाई देता था वे शिवसेना के साथ सड़कों में उसी तरह ताकत के साथ मुक़ाबला कर सकते थे इसलिए वे उनको लेकर कटु थे.

दलित पैंथर के नेता नामदेव ढसाल उद्धव के अभियान से जुड़ गए. महाराष्ट्र के सबसे करिश्माई नेताओं में एक नामदेव ढसाल ने दलित पैंथर को अमेरिका के ब्लैक पैंथर के अनुरूप सांचे में ढालने का काम किया. 1972 में स्थापित दलित पैंथर का ज़ोर इस बात पर था कि सर्वहारा अनुभव के रूप में दलित की पहचान को सार्वभौम बनाया जाए, और विद्वान गेल ओमवेदट के अनुसार इसके बाद देश भर में इस तरह का प्रतिरोध उभरने लगा.

ढसाल को कविता के लिए साहित्य अकादेमी का पुरस्कार मिला था और अवां गार्द लेखक थे. किसी ज़माने में उन्होंने इस तरह की क्रोधित कविताएं लिखी थीं कि ‘दया का उनका प्राचीन भाव देह व्यापार से जुड़े दलाल के भाव से बड़ा नहीं था.’ अब वे अपने पुराने रूप की छायाएं भर रह गए थे.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

ठाकरे भाऊ किताब का कवर पेज

इन दोनों के बीच एकता की कोशिश पहले भी की गई थी जो असफल साबित हुई थी. 26 फ़रवरी 1978 को बाल ठाकरे ने मार्मिक के आमुख पर शिवसेना के शेर और ब्लैक पैंथर का रेखाचित्र बनाया था. वह चाहते थे कि आगामी विधानसभा चुनावों के लिए दोनों ताक़तें एक हो जाएं. हालांकि इमरजेंसी के बाद आई जनता लहर में सारा सामाजिक समर्थन धरा का धरा रह गया. पैंथर समूह के जे. पी. घाटगे बाद में सेना के साथ गठबंधन करके भांडुप से बीएमसी के लिए निर्वाचित हुए. अपनी पार्टी की आधिकारिक जीवनी में जोशी ने यह माना है कि अगर शिवशक्ति और भीमशक्ति ने हाथ मिला लिया होता तो महाराष्ट्र की फ़िज़ा बदल जाती.

उद्धव ने जो एक और प्रयास किया वह बहुत दुस्साहसी था. मुंबई और उसके आसपास हिंदी भाषी लोग बड़ी तादाद में आ गए थे और शिवसेना के स्वाभाविक समर्थकों मराठी लोगों से उनकी संख्या अधिक हो गई.

‘उद्धव हो सकता है करिश्माई नेता न हों और खराब वक्ता रहे हों लेकिन वे खुले दिमाग़ के, उदार और समावेशी राजनीति में यक़ीन रखने वाले थे’, संजय निरुपम ने बताया. मैं चाहता था कि बेरजेचे राजकरण (यह मुहावरा कांग्रेस के दिग्गज नेता स्वर्गीय यशवंतराव चव्हाण ने लोकप्रिय बनाया था, जिसका मतलब होता था समावेशी राजनीति) की दिशा में काम करूं. शिवसेना ने मुसलमानों, दलितों के एक वर्ग को और उत्तर भारतीयों को अलग-थलग कर रखा था. लेकिन अब इस बात की ज़रूरत महसूस की जा रही थी कि मतदाताओं के दायरे का विस्तार किया जाए क्योंकि मुंबई में मराठीभाषी लोगों से बाहरी लोगों की संख्या अधिक होती जा रही थी. ग़ैर मराठी लोगों के कारण जनसंख्या में भी वृद्धि हुई थी.

‘उत्तर भारतीय, गुजराती और जैन मुंबई में पीढ़ियों से रह रहे थे और इस बात की कोई संभावना नहीं थी कि वे लोग केवल इस कारण शहर से चले जाएं क्योंकि शिवसेना ने उनको अपनी राजनीति के कारण ख़ारिज कर दिया था’, निरुपम ने कहा.

जब 2004 के विधानसभा चुनाव में एक साल रह गया तो उद्धव ने ‘मी मुंबईकर’ अभियान की शुरुआत की ताकि भाषायी सीमाओं से आगे बढ़कर लोगों के साथ जुड़ा जाए. इसका मक़सद उत्तर भारतीय लोगों तक पहुंचना था, जो नौकरियों तथा संसाधनों के मामले में मराठीभाषी लोगों के सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी थे, इसलिए इस बात का भय था कि कहीं इसके कारण शिवसेना के जो मूल मतदाता थे, वे न छिटक जाएं.

‘मुंबई में जो भी आता है मुंबई उसको कुछ देता है…इसलिए धर्म और जाति के ऊपर आधारित संकीर्ण पहचानों के दायरे से बाहर निकल कर मुंबई के लिए काम किया जाए ताकि इसके अतीत के गौरव को फिर से हासिल किया जा सके’, उद्धव ने कहा. बाल ठाकरे ने भी आह्वान किया कि मुंबई को बचाने के संघर्ष में सभी मिलकर काम करें.

1980 के दशक के अंतिम वर्षों में जब शिवसेना ने कट्टर हिंदुत्व को अपना लिया तथा राम मंदिर आंदोलन के दौरान उग्र रुख अपनाया और मुंबई धमाकों के बाद उसका रुख जिस तरह से उग्र रहा, उसके कारण बाल ठाकरे को हिंदू हृदय सम्राट कहा जाने लगा था. जिसके कारण पार्टी के लिए यह ज़रूरी हो गया कि वह ग़ैर मराठी भाषी समुदाय के हिंदुओं में भी अपना आधार तैयार करे. शिवसेना ने 1993 में हिंदी में दोपहर का सामना नामक एक हिंदी सांध्य की शुरुआत की, जिसके कार्यकारी संपादक के रूप में एक्सप्रेस समूह के जनसत्ता से संजय निरुपम को लाया गया.

इसके लिए यह भी ज़रूरी था कि मराठी भाषी मतदाताओं तथा हिंदू और गुजराती भाषी मतदाताओं के हितों में संतुलन बनाया जाए.

हालांकि घनश्याम दुबे पहले उत्तर भारतीय थे जो 1990 के दशक में एमएलसी बने थे लेकिन बिहार और यूपी से आए उत्तर भारतीयों के बीच आधार बनाने की दिशा में हाथ बढ़ाने का काम उद्धव ठाकरे के कार्यकारी अध्यक्ष बनने के बाद हुआ.

सचिन परब इस काल में पत्रकार के रूप में शिवसेना को कवर करते थे. उनका कहना है कि उद्धव ‘शिव शक्ति-भीम शक्ति’ तथा ‘मी मुंबईकर’ अभियानों के माध्यम से अपनी उदारवादी छवि पेश कर रहे थे.

बांद्रा में जब ‘मी मुंबईकर’ की शुरुआत हुई तो बहुत अच्छी प्रतिक्रिया देखने में आई. मुंबई और ठाणे में शिवसेना की शाखाओं में कम से कम एक ग़ैर मराठी को उप शाखा प्रमुख बनाया गया. ‘आख़िरकार शिवसेना वह कर रही थी जिसकी दरकार लम्बे समय से थी’, परब ने कहा.

परब ने बताया कि किस तरह एक शिवसेना नेता ने उनको बताया था कि पार्टी के चुनाव प्रचार अभियान के ऊपर काफ़ी प्रभाव पड़ रहा था क्योंकि बड़ी संख्या में अल्पसंख्यक ‘यानी उत्तर भारतीय, मुसलमान और बौद्ध दलित योजनाबद्ध ढंग से उनको हराने के लिए मतदान करते थे.’ सेना नेता ने कहा कि उनको इस बात से समस्या नहीं थी कि ये लोग उनके लिए मतदान नहीं कर रहे थे. लेकिन इस तरह से सुनियोजित मतदान से उनको तकलीफ़ होती थी. ‘जबकि ‘मी मुंबईकर’ उद्धव की रणनीति थी भाषायी और धार्मिक अल्पसंख्यकों के विरोध को शांत करने के लिए’, उन्होंने बताया.

कमलेश राय शिवसेना के पहले उत्तर भारतीय शाखा प्रमुख थे और पश्चिमी उपनगर में अंधेरी से निगम पार्षद भी बने थे. उन्होंने याद करते हुए बताया कि किस तरह वे लोग गाड़ियों पर ‘मी मुंबईकर’ के स्टिकर चिपकाया करते थे. ‘इसके पीछे विचार यह था कि 1995 तक जो लोग मुंबई आ चुके थे उनको स्वाभाविक मुंबईकर मान लिया जाए. इस अभियान के प्रति उत्तर भारतीयों की प्रतिक्रिया धीरे-धीरे अच्छी होने लगी’, राय ने कहा, जो अंधेरी के एक वार्ड से पार्षद बने थे जो उत्तर भारतीय बहुल इलाक़ा था और कांग्रेस का गढ़ था.

हालांकि शिवसेना में कुछ कट्टरपंथी इस बात को हज़म नहीं कर पा रहे थे कि पार्टी अपने मूल मराठी मानुस एजेंडा से हट रही थी. संजय निरुपम ने यह माना कि उद्धव के सामने पार्टी की एक बैठक में ‘मी मुंबईकर’ अभियान की एक वरिष्ठ नेता ने निंदा की. उन्होंने कहा कि इस विचार का विरोध राज ने भी किया.

शिवसेना और बाद में मनसे का प्रमुख आरोप यह था कि भारत के सबसे बड़े रोज़गार प्रदाता रेलवे और केंद्र सरकार की अन्य इकाइयों में नौकरियां उत्तर भारतीयों को दे दी जाती थीं. उनका आरोप था कि रेलवे के अधिकारी स्थानीय मीडिया में विज्ञापन नहीं देते थे जिससे महाराष्ट्र के लोगों को अपने ही क्षेत्र में होने वाली बहाली के बारे में पता ही नहीं चल पाता था.
राज को पार्टी में बाज़ की तरह देखा जाता था. ऐसा लगता था वह इस अभियान के साथ सहज नहीं थे, और जब बांद्रा के रंगशारदा हॉल में अभियान की शुरुआत हुई तो लोगों का ध्यान उनकी अनुपस्थिति की तरफ़ गया.

18 नवम्बर 2003 को राज के बीवीएस के कार्यकर्ताओं ने रेलवे भर्ती बोर्ड के दफ़्तर पर हमला कर दिया. उनकी मांग थी कि भर्ती में स्थानीय लोगों को प्रधानता दी जाए. पुलिस ने उनके ऊपर लाठी चार्ज किया. उस भीड़ में शामिल हाजी अशरफ़ शेख़ का कहना था कि आंदोलनकारी इमारत की ऊपरी मंज़िलों से अलमारियां नीचे फेंक रहे थे.

उसी महीने बीवीएस ने सबको हैरान कर दिया. उन्होंने कल्याण में रेलवे भर्ती की परीक्षा में शामिल होने आए उत्तर भारतीयों के ऊपर हमला बोल दिया. राज ने चेतावनी दी कि वे किसी बाहरी की नियुक्ति की हर कोशिश का विरोध करेंगे. इस हमले से उत्तर भारतीय सदमे में आ गए. उन लोगों ने कल्याण रेलवे स्टेशन पर विरोध प्रदर्शन किया और शिवसेना के ख़िलाफ़ कार्रवाई की मांग करते हुए यह मांग भी की कि बाहर से आने वाले अभ्यर्थियों को सुरक्षा प्रदान की जाय. बदले में शिवसेना ने चेतावनी दी कि मुक़ाबले की किसी भी तरह की बात का जवाब दुगुनी ताकत से दिया जाएगा. वसई में बीवीएस के कार्यकर्ताओं ने रेलवे बोर्ड परीक्षाओं के कॉल लेटर फाड़ दिए.

राज ने बाद में यह दावा किया कि हमला इसलिए हुए क्योंकि रेलवे के अधिकारियों ने मराठी मानुस को गाली दी थी.
इस हिंसा के बाद राष्ट्रीय जनता दल के प्रमुख लालू प्रसाद यादव और बाल ठाकरे के बीच ज़ुबानी जंग छिड़ गई. उद्धव को मजबूर होकर ‘मी मुंबईकर’ अभियान को लेकर नरम पड़ना पड़ा.

(लेखर और पत्रकार धवल कुलकर्णी की किताब ‘ठाकरे भाऊ ‘ को राजकमल प्रकाशन ने छापा है. प्रभात रंजन ने किताब का अनुवाद किया है)


यह भी पढ़ें: अमेरिका 2020– एक बंटा हुआ देश: महाशक्तिशाली छवि के पीछे की सच्चाई


 

share & View comments