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Wednesday, 24 April, 2024
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तात्या टोपे: 1857 के विद्रोह के करिश्माई नेता, जिनकी मृत्यु आज भी रहस्य बनी हुई है

ब्रिटिश सेना ने चारों ओर से तात्या का पीछा किया और राजाओं ने उसके लिए अपने द्वार बंद कर दिए, लेकिन जब भी उनका सामना भारतीय सैनिकों से हुआ टोपे उन्हें अपने खेमे की ओर करने में सफल रहे.

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18 अप्रैल 1859 को तात्या टोपे ने ब्रिटिश अधिकारियों से अपने साथी स्वतंत्रता सेनानियों से मिलने और अपनी पसंद का सफेद कुर्ता पायजामा पहनने की इच्छा ज़ाहिर की. अधिकारियों ने पहले तो इसे अस्वीकार कर दिया लेकिन आखिरकार वह मान गए और 1857 के विद्रोह के प्रमुख नेताओं में से एक को फांसी से पहले कपड़े चुनने की अनुमति दे दी.

वे सिपरी (अब शिवपुरी) में एक खेत में बने मचान पर चढ़कर फांसी के फंदे की ओर चल पड़े. जैसे ही जल्लाद ने उनके गले में फांसी का फंदा डाला, जाल का दरवाजा खुलने से पहले वे चिल्लाए- “भारत माता की जय”.

हालांकि, यह एक लोकप्रिय कथा है, जब तक कि संयुक्त राज्य अमेरिका में एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर और उनके वंशज पराग टोपे ने अपनी किताब, “तात्या टोपे ऑपरेशन रेड लोटस” में इस पर सवाल नहीं उठाए.

तात्या टोपे के ईर्द-गिर्द कई सिद्धांत

टोपे की फांसी के 150 से अधिक वर्षों के बाद, पराग ने दावा किया कि जिस व्यक्ति को अंग्रेज़ों को सौंपा गया था और उनके (तात्या) स्थान पर फांसी दी गई थी, वो नरवर के राजा मान सिंह थे. इतिहास में मान सिंह को तात्या टोपे को धोखा देने वाले व्यक्ति के रूप में याद रखा जाता है.

अपनी किताब में पराग ने ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा आदान-प्रदान किए गए उन पत्रों का हवाला दिया, जो बताते हैं कि टोपे उनकी कथित फांसी के लंबे समय बाद तक भी राम सिंह, जील सिंह और राव सिंह जैसे विभिन्न नामों से सक्रिय थे.

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एक अन्य सिद्धांत यह है कि 1857 के विद्रोह के नेता 1 जनवरी 1859 को मध्य प्रदेश में गुना के पास एक लड़ाई में मारे गए थे. यह सिद्धांत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से संबद्ध अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना (एबीआईएसवाई) द्वारा कथित तौर पर समर्थित है, जिसने संयोगवश पिछले साल आठ खंडों में “देश का व्यापक इतिहास” लाने के लिए एक महत्वाकांक्षी परियोजना शुरू की थी.

हालांकि, इस पृष्ठभूमि में तात्या की कहानी अधूरी है. नाना साहेब पेशवा द्वितीय की सेना के कमांडर-इन-चीफ और 1857 में कानपुर (तत्कालीन क्वानपुर) के पतन के पीछे प्रमुख नेताओं में से एक, जो बाद में ग्वालियर के किले पर कब्जा करने के लिए झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की सेना में शुमार हो गए, उनका हश्र आज भी बहस का मुद्दा है.

नाना साहिब के साथी: गुरिल्ला मास्टर

तात्या टोपे का जन्म महाराष्ट्र के नासिक में एक देशस्थ ब्राह्मण परिवार में रामचंद्र पांडुरंगा के रूप में हुआ. 2020 में, भारत सरकार ने टोपे को समर्पित एक संग्रहालय उनके गृहनगर येवला में बनाए जाने की घोषणा की.

सैयद जाफर महमूद ने अपनी किताब “पिलर्स ऑफ मॉडर्न इंडिया 1757-1947” में लिखा है कि तात्या वफादारी और कृतज्ञता के बंधन में नाना साहिब पेशवा द्वितीय से बंधे हुए थे.

अंतिम समय में एक गवाह ने उनका परिचय “मध्यम कद-काठी का व्यक्ति, गेहुंआ रंग और हमेशा एक सफेद चुखरी-दार पगड़ी पहने हुए” के रूप में दिया, रामचंद्र पांडुरंगा ने तात्या टोपे बनने का सफर तय करने के लिए कईं सैन्य रैंकों में वृद्धि की.

27 जून 1857 तक विद्रोह की लपटें प्रथम स्वतंत्रता संग्राम ईस्ट इंडिया कंपनी सेनाओं के गैरीसन शहर, कानपुर तक पहुंच गईं. ब्रिटिश जनरल ह्यूग व्हीलर, जो हिंदी में धाराप्रवाह संवाद में माहिर थे, उन्होंने स्थानीय रीति-रिवाजों को अपनाया और एक भारतीय महिला से शादी की. उन्हें विश्वास था कि उनके अधीन सिपाही लड़ाई में शामिल नहीं होंगे. नाना साहिब भी एक महीने पहले ही अपने 300 सिपाहियों के साथ अंग्रेज़ों का साथ देने पहुंचे थे. व्हीलर आश्वस्त थे कि उन्होंने दो ब्रिटिश कंपनियों को लखनऊ भी भेज दिया.

लेकिन गैरीसन में हिंसा भड़क उठी और जून की शुरुआत में सिपाही लड़ाई में शामिल हो गए. लगभग तीन हफ्ते की लंबी घेराबंदी के बाद, कम संख्या वाले यूरोपीय लोगों ने नाना साहिब के सामने आत्मसमर्पण कर दिया और इलाहाबाद में एक सुरक्षित मार्ग प्रशस्त किया, लेकिन जब वे सतीचौरा घाट पर नाव पर चढ़ रहे थे, तभी उन पर घात लगाकर हमला किया गया. नावों में आग लगा दी गई और जो बच गए उन्हें गंगा के किनारे गोली मार दी गई या बंदी बना लिया गया.

नवंबर 1857 तक टोपे ने विद्रोही सेना की कमान संभाल ली थी. उन्हें उनकी बहुत प्रभावी गुरिल्ला रणनीति के लिए जाना जाता था, जिसका इस्तेमाल वे ब्रिटिश आपूर्ति लाइनों और संचार को बाधित करने के लिए करते थे. अंग्रेज़ों द्वारा कानपुर पर कब्जा करने के बाद, टोपे ने मध्य भारत में विद्रोह का नेतृत्व किया और ब्रिटिश सेना के खिलाफ कईं लड़ाईयां लड़ीं.

मार्च 1858 तक, वे लक्ष्मी बाई की सहायता के लिए झांसी चले गए, जिन्हें उस समय ब्रिटिश सेना ने घेर लिया था.


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पीछा करो और कब्जा करो

20 जून 1858 को जब तात्या टोपे ग्वालियर भाग गए, तो उनकी सेना मुट्ठी भर लोगों तक सीमित हो गई. उनके पास हथियार भी नहीं थे. ब्रिटिश सेना ने चारों ओर से उनका पीछा किया और राजाओं ने उनके लिए अपने शहर के द्वार बंद कर दिए, लेकिन जब भी उनका सामना भारतीय सैनिकों से हुआ, तो वे उन्हें अपनी तरफ करने में कामयाब रहा.

पंडित सुंदरलाल ने अपनी किताब, “ब्रिटिश रूल इन इंडिया” में चंबल घाटी और नर्मदा नदी को पार करते समय टोपे और उनके लोगों के अंग्रेज़ों से बचने का एक ज्वलंत विवरण दिया है. उन्होंने लिखा, “तात्या को रोकने का पहला अंग्रेज़ी प्रयास 22 जून, 1858 को जावरा अलापुर में किया गया था” लेकिन टोपे भरतपुर की ओर भाग निकले और तुरंत एक और सशस्त्र टुकड़ी उनके सामने थी. उन्होंने जयपुर की ओर रुख किया, जहां उनके समर्थक थे, लेकिन अंग्रेज़ वहां उनसे पहले पहुंच गए.

सुंदरलाल ने आगे लिखा, “इसके बाद उन्होंने टोंक की ओर कूच की, लेकिन नवाब ने शहर के फाटकों को बंद कर दिया और चार बंदूकों के साथ एक टुकड़ी भेज दी. लेकिन टुकड़ी का जैसे ही तात्या से आमना-सामना हुआ वह भी बंदूकों के साथ उनके खेमे में चली गई.” सैनिकों और गोला-बारूद के साथ, उन्होंने इंद्रगढ़ की ओर कूच किया.

सुंदरलाल लिखते हैं, “मूसलाधार बारिश हो रही थी. (कर्नल) होम्स तेज़ी से तात्या के पीछे-पीछे चल रहे थे और जनरल रॉबर्ट्स उस पर हमला करने के लिए राजपुताना की ओर से एक सेना का नेतृत्व कर रहे थे. तात्या के सामने दिख रही चंबल नदी में बाढ़ आई हुई थी.”

टोपे ने उन्हें चकमा दिया और यह खेल कोटरा की लड़ाई तक जारी रहा, जहां वे हार गये. बचने के लिए उन्हें अपनी बंदूकें छोड़नी पड़ीं और चंबल पार कर गए.

चूहे-बिल्ली का यह खेल महीनों तक चलता रहा, जब तक कि उन्होंने नर्मदा नदी को पार नहीं कर लिया.

कुछ रिकॉर्ड्स का दावा है कि तात्या को नरवर के राजा मान सिंह ने धोखा दिया था, लेकिन पराग टोपे इसे कुछ और ही लिखते हैं.

वे लिखते हैं, “मान सिंह के वंशज पिछले 150 वर्षों से गलत तरीके से अपने देशभक्त कंधों पर उनके कथित विश्वासघात के अपराध को ढो रहे हैं.”

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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