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Sunday, 3 November, 2024
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आस्था और इतिहास के बीच झूलती ‘राम सेतु’ फिल्म

फिल्म बुरी नहीं है. राम और उनसे जुड़ी बातों, घटनाओं में आस्था रखने वालों को तो यह भीतर तक छुएगी. लेकिन थोड़ी और कसी होनी चाहिए थी.

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किसी खास वस्तु, खोए हुए खजाने या सच की तलाश में निकले लोगों की कहानी दिखाती ‘अभियान फिल्मों’ को हमने हॉलीवुड के पर्दे पर बहुत देखा है लेकिन अपने यहां इस किस्म की फिल्मों की कोई खास परंपरा बन ही नहीं पाई. वजह चाहे इस किस्म की कहानियों की कमी रही हो या हमारी फिल्मों का परंपरागत ढांचा. बदलते वक्त में आ रही अलग-अलग किस्म की कहानियों की कतार में यह फिल्म इस कमी को दूर करती है. बड़ी बात यह भी है कि यह फिल्म किसी ऐसे-वैसे अभियान की बजाय उस राम सेतु के अस्तित्व पर बात करती है जिसे नकारना करोड़ों लोगों की आस्था के साथ खेलना हो जाएगा. इस दुस्साहस के लिए इसे लिखने-बनाने वालों की सराहना होनी चाहिए.

राम सेतु-यानी समुद्र में डूबी हुई पत्थरों की वह संरचना जो भारत और श्रीलंका को जोड़ती है. मान्यता है कि यह पत्थरों का वही पुल है जो रामायण काल में श्रीराम की सेना ने लंका पर चढ़ाई के समय बनाया था. करोड़ों लोगों की आस्था जुड़ी हुई है इससे लेकिन बहुतेरे लोगों का यह भी मानना है कि यह सिर्फ एक कुदरती रचना है. यह भी कहा जाता है कि यदि इसे तोड़ दिया जाए तो श्रीलंका के पिछली तरफ से घूम कर आने-जाने वाले जहाजों का काफी समय और पैसा बचाया जा सकता है.


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कुछ बरस पहले की सरकार ने इसे तोड़ने की तैयारी शुरू भी कर दी थी. तब मामला अदालत में गया था और बहस यह हुई थी कि राम और उनसे जुड़ी बातें महज आस्था हैं या इतिहास का हिस्सा. यह फिल्म उसी वक्त की कहानी कहती है जिसमें एक आर्कियोलॉजिस्ट आर्यन को यह ज़िम्मा मिला है कि वह इसे श्रीराम के समय (यानी 7 हजार साल पहले) से पुरानी और कुदरती संरचना साबित कर दे ताकि इसे तोड़ा जा सके. लेकिन आर्यन को अपनी खोज में ऐसे सबूत मिलते हैं कि यह राम के समय की प्राकृतिक नहीं, बल्कि मानवीय रचना है और वह इसे बचाने में जुट जाता है.

लेकिन इस किस्म की कहानी कहते समय जिस किस्म की सशक्त लेखनी, जिस तरह के कसे हुए निर्देशन और जिस प्रकार के सधे हुए अभिनय की दरकार होती है, वह इस फिल्म में नजर नहीं आता. हालांकि इसे लिखते समय अभिषेक शर्मा और डॉ. चंद्रप्रकाश द्विवेदी ने काफी तथ्यों, किताबों का सहारा लिया जिनसे इसकी पटकथा को बल ही मिला, लेकिन इसकी स्क्रिप्ट में वे वैसा वाला पैनापन नहीं ला पाए जो दर्शकों को हर समय बांधे रख सके.

आर्यन को नास्तिक बताने का दांव सहूलियत भरा और कहानी को अफगानिस्तान से शुरू करने वाला हिस्सा बोरियत भरा लगता है. बाद में आर्यन का ‘राम को साबित करना है तो रावण को साबित कर दो’ वाला फॉर्मूला भी फिल्म को भटकाता है. सुप्रीम कोर्ट तीन दिन में राम सेतु को तोड़ने का फैसला देने वाला है, ऐसे में आर्यन को जो करना है फटाफट करना है. लेकिन इस जल्दबाजी के चक्कर में जरूरी रोमांच तो निर्देशक अभिषेक शर्मा नहीं जमा कर पाए अलबत्ता कुछ एक जगह छेद जरूर छोड़ गए. बेहतर होता कि वह श्रीलंका वाले हिस्से को थोड़ा और विस्तार देते. मुमकिन है तब फिल्म और गहराई में उतर पाती.

इस किस्म की फिल्मों में जिस तरह के किरदारों का एक तय सेट अप होता है, यहां भी वही है. एक हीरो, एक मददगार, दो-एक लड़कियां, एक अमीर खलनायक, उसके भेजे गुंडे और ऐन वक्त पर बचाने आ गए कुछ लोग. अक्षय कुमार जिस तरह का काम करते आए हैं, यहां भी उन्होंने वैसा ही किया है. बाकी के लोग बस ठीकठाक ही रहे हैं. हां, तेलुगू सिनेमा से आए सत्यदेव ने ज़रूर ए.पी. के रोल में अच्छा काम किया है. लोकेशन उम्दा हैं, कैमरा शानदार और वी.एफ.एक्स. जानदार. गीत-संगीत नहीं है.

फिल्म बुरी नहीं है. राम और उनसे जुड़ी बातों, घटनाओं में आस्था रखने वालों को तो यह भीतर तक छुएगी. क्लाइमैक्स वाला हिस्सा रोमांचित भी करेगा. लेकिन इसे देखने और देख कर पसंद करने के बाद भी यह मलाल मन में जरूर रहेगा कि काश इसे थोड़ा और कस कर लिखा जाता, कस कर बनाया जाता तो यह यूं हिचकोले नहीं खाती.

(दीपक दुआ 1993 से फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं. विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए सिनेमा व पर्यटन पर नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं.)


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