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Friday, 29 March, 2024
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सिनेमा के दीवानों के लिए सौगात है ऑस्कर में गई गुजराती फिल्म ‘छेल्लो शो’

फिल्म की एक बड़ी खासियत इसके किरदारों का चरित्र-चित्रण है. हर किरदार को कुछ विशेषताएं दी गई हैं और वह उन पर लगातार टिका रहता है.

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हमारे-आपके बीच ऐसे बहुतेरे लोग होंगे जिन पर बचपन में देखी अपनी पहली ही फिल्म से सिनेमा की दीवानगी ऐसी छाई कि फिर उम्र भर उतरी ही नहीं. ऐसे ही लोगों में से ही कई फिल्म पत्रकार, लेखक, निर्देशक, अदाकार भी बने. यह फिल्म ऐसे ही एक बच्चे की कहानी दिखाती है जो सिनेमा का शैदाई बना तो इस कदर बना कि रोज़ाना स्कूल छोड़ कर सिनेमा में बैठा रहता. घर से लाया खाना वहां प्रोजेक्टर चलाने वाले को खिलाता और बदले में मुफ्त का शो देखता. लेकिन एक दिन उस थिएटर में ‘छेल्लो शो’ यानी ‘आखिरी शो’ हुआ और उसके बाद…!

गुजरात के एक छोटे-से गांव में रहने वाला नौ बरस का समय अपने साथी बच्चों के साथ पढ़ने के लिए ट्रेन से पास के कस्बे में जाता है. पढ़ाई और मस्ती के अलावा वह रेलवे स्टेशन पर अपने पिता की दुकान पर चाय बेचने में मदद करता है. एक दिन पिता पूरे परिवार को कस्बे के सिनेमाघर में एक फिल्म दिखाने ले जाते हैं. सब लोग फिल्म देखते हैं लेकिन समय उन प्रकाश-किरणों को देखता है जो प्रोजेक्टर से निकल कर पर्दे की तरफ जा रही होती हैं. और समय को प्यार हो जाता है-थिएटर से, सिनेमा से, रोशनी से, कहानियों से.

फिल्म- छेल्लो शो

इस साल भारत की तरफ से ऑस्कर पुरस्कार की दौड़ में भेजी गई गुजराती भाषा की यह फिल्म अब देश भर के सिनेमाघरों में रिलीज हुई है. गुजराती न जानने वालों के लिए अंग्रेजी में सब-टाइटिल दिए हुए हैं लेकिन इस फिल्म को देखना शुरू कीजिए तो बहुत जल्दी ये सब-टाइटिल किनारे हो जाते हैं और फिल्म सीधे अपनी सिनेमाई भाषा में आपको सब समझाने लगती है.

कुछ अलग हट कर फिल्में बनाने वाले पेन नलिन (नलिन कुमार पंड्या) की लिखी-बनाई यह फिल्म असल में एक आत्मकथात्मक कहानी दिखाती है जिसमें नलिन ने अपने बचपन के उन क्षणों को कैद करने की कोशिश की है जब सिनेमा की दीवानगी खुद उन पर छा रही थी. गांव से कस्बे में पढ़ने जाना, स्कूल छोड़ कर थिएटर में जमे रहना, प्रोजेक्टर वाले से दोस्ती और खाने के बदले मुफ्त के शो देखना समेत इस फिल्म के अन्य कई सीक्वेंस नलिन ने अपनी जिंदगी से निकाले हैं जिन्हें देख कर कह सकते हैं कि उनकी जिंदगी बहुत ही सिनेमाई रही है. गौर करें तो यह ‘सिनेमाईपन’ हम सब के जीवन में दिखेगा. बस, फर्क यह है कि हम जैसे लोग सिनेमा देखते हैं और नलिन जैसे दीवाने सिनेमा दिखाते हैं.

यह फिल्म हमें उस सफर पर ले जाती है जहां कोई बच्चा दुस्साहस करता है, किसी असंभव-से लगने वाले सपने को देखता है और फिर उसे सच करने में जुट जाता है. समय और उसके हमउम्र दोस्तों की हरकतों में आपको अपना बचपन दिख सकता है. इसकी कहानी की सरलता आपको छूती है और इसकी पटकथा का प्रवाह आपको अपने साथ बहा लिए जाता है. संवाद जरूरत के मुताबिक कभी सहज तो कभी चुटीले हैं.

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फिल्म की एक बड़ी खासियत इसके किरदारों का चरित्र-चित्रण है. हर किरदार को कुछ विशेषताएं दी गई हैं और वह उन पर लगातार टिका रहता है. खासतौर से समय के किरदार में जिस तरह से मस्ती, बेफिक्री, जिम्मेदारी, उद्दंडता, जिज्ञासा और सर्मपण का समावेश है, वह उसके प्रति हमारे प्यार को बढ़ाता है. समय और उसके पिता के बीच का अनबोला रिश्ता दिल छूता है. भविन रबारी ने समय की भूमिका में लाजवाब काम किया है. भावेश श्रीमाली, दिपेन रावल, ऋचा मीणा आदि अन्य सभी कलाकारों का काम भी उम्दा है.

पेन नलिन अपने निर्देशन से पर्दे पर जादू जगाते हैं. गांव से लेकर शहर तक ढेरों दृश्यों में वह असर छोड़ते हैं. फिल्म का अंत लुभावना है और भावुक करता है. कहीं-कहीं फिल्म का एकदम से धीमा होकर प्रतीकों के ज़रिए अपनी बात कहना भले ही इसे ‘क्लास’ दर्शकों के मतलब का बनाता है लेकिन इससे इसका असर कम नहीं होता. यह फिल्म सिनेमा को जानने, समझने, पढ़ने, गुढ़ने, उसमें तैरने, डूबने, उतराने वालों के मतलब की है. उन लोगों के मतलब की है जिन्हें थिएटर के अंदर की खुशबू पसंद है, पर्दे से छन कर आती रोशनी में जिन्हें जीवन का संगीत सुनाई देता है.

फिल्म- छेल्लो शो

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