बड़े संयोग की बात है कि ओमप्रकाश वाल्मीकि और प्रोफेसर तुलसी राम की जन्म तिथि लगभग एक साथ ही आती है. ये भी संयोग ही है कि दोनों ने अपने अनुभवों की तलहटी पर जो समाज के विभिन्न चित्कारों को दर्ज किया है वो न केवल वीभत्सता की कहानी बयां करती है बल्कि एक ऐसे स्याह हकीकत को भी सामने लाती है जो मानवता के सामने प्रश्न चिन्ह तो जरूर लगा सकती है.
30 जून को ओमप्रकाश वाल्मीकि की जयंती थी और माना जाता है कि 1 जुलाई 1949 को प्रोफेसर तुलसी राम का जन्म हुआ था. ये दोनों ही व्यक्तित्व कई मायनों में हिंदुस्तानी समाज के लिए महत्वपूर्ण हैं. न केवल अपनी बौद्धिकता के चलते बल्कि निडरता से जिन अनुभवों को वस्तुत: उन्होंने दर्ज किया वो न केवल उनके अपने स्वर थे बल्कि उन जैसे करोड़ों भारतीयों की भी आवाज थी, जो संसाधनों की कमी और उचित जगह न मिल पाने के कारण गांव-देहात की धूल तक ही सिमट कर रह गई.
दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रहे तुलसी राम की जयंती पर दिप्रिंट उनके शुरुआती जीवन, मार्क्सवाद और बौद्ध धर्म का असर, बंगाल में शुरू हुए नक्सल आंदोलन की तरफ झुकाव पर नजर डाल रहा है.
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‘मूर्खता मेरी जन्मजात विरासत थी’
तुलसी राम ने 2010 में आई अपनी आत्मकथा मुर्दहिया और मणिकर्णिका में अपने निजी जीवन को विस्तार से लिखा है. 2010 में आई मुर्दहिया में उन्होंने आजमगढ़ के अपने दिनों का वर्णन किया है वहीं मणिकर्णिका में बनारस के दिनों का लेखा-जोखा है जब वे बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में पढ़ने के लिए गए थे.
मुर्दहिया और मणिकर्णिका भले ही दो अलग-अलग शब्द हैं लेकिन दोनों ही जीवन की अस्मिताओं के खत्म होने को दर्ज करती हैं.
मुर्दहिया की शुरुआत उस मार्मिक और दारुण्य हकीकत से होती है जिसमें तुलसी राम कहते हैं, ‘मूर्खता मेरी जन्मजता विरासत है.’ मूर्खता के चलते पसरे अंधविश्वास के बीच उनका बचपन बीता.
तुलसी राम लिखते हैं, ‘मुर्दहिया हमारे गांव धरमपुर (आजमगढ़) की बहुउद्देशीय कर्मस्थली थी. चरवाही से लेकर हरवाही तक के सारे रास्ते वहीं से गुजरते थे. इतना ही नहीं, स्कूल हो या दुकान, बाजार हो या मंदिर, यहां तक कि मजदूरी के लिए कलकत्ता वाली रेलगाड़ी पकड़ना हो, तो भी मुर्दहिया से ही गुजरना पड़ता था,’
‘हमारे गांव की जिओ-पॉलिटिक्स यानी भू-राजनीति में दलितों के लिए मुर्दहिया एक सामरिक केंद्र जैसी थी. जीवन से लेकर मरन तक की सारी गतिविधियां मुर्दहिया समेट लेती थी. सबसे रोचक तथ्य यह है कि मुर्दहिया मानव और पशु से कोई फर्क नहीं करती थी. वह दोनों की मुक्तिदाता थी. विशेष रूप से मरे हुए पशुओं के मांसपिंड पर जूझते सैकड़ों गिद्धों के साथ कुत्ते और सियार मुर्दहिया को एक कला-स्थली के रूप में बदल देते थे. रात के समय इन्हीं सियारों की ‘हुआं-हुआं’ वाली आवाज उसकी निर्जनता को भंग कर देती थी. हमारी दलित बस्ती के अनगिनत दलित हजारों दुख-दर्द अपने अंदर लिए मुर्दहिया में दफन हो गए थे. यदि उनमें से किसी की भी आत्मकथा लिखी जाती तो उसका शीर्षक मुर्दहिया ही होता.’
इस स्याह हकीकत के साथ जीवन की शुरुआत कितनी दयनीय स्थिति से हुई होगी और उस जीवन का दायरा कितना सिकुड़ा हुआ होगा वो ऊपर की कुछ पंक्तियों से साफ समझा जा सकता है.
अपने स्कूली जीवन के बारे में तुलसी राम एक दिलचस्प वाकया बताते हैं. उन्होंने लिखा, ‘मैं पहले दिन स्कूल पहुंचा तो नाम लिखते हुए अध्यापक मुंशी राम सूरत लाल ने पिता जी से पूछा यह कब पैदा हुआ था? जवाब मिला चार-पांच साल पहले बरसात में. मुंशी जी ने तुरंत बरसात का मतलब 1 जुलाई, 1949 समझा और यही दिन हमेशा के लिए मेरे जन्म से जुड़ गया. चूंकि उस जमाने में दलितों के बीच निरक्षरता के चलते बच्चों के जन्मदिन का लेखा-जोखा या कुंडली आदि का कोई प्रचलन नहीं था, इसलिए लगभग सभी मां-बाप ऋतुओं से ही अपने बच्चों के जन्मदिन को जोड़ देते थे. यही कारण था कि उस समय के अध्यापक बरसात बताने पर हर एक का जन्मदिन एक जुलाई, जाड़ा बताने पर एक जनवरी तथा गर्मी बताने पर एक मार्च लिख देते थे. यही फॉर्मूला भारत के अनेक गांवों में आज भी प्रचलित है.’
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‘बुद्ध मेरी मुर्दहिया से अवश्य गुजरे होंगे….‘
हाई स्कूल के बाद पढ़ाई छूट जाने के कारण तुलसी राम पहली बार घर से 15 वर्ष की उम्र में भागे. उसके बारे में वो लिखते हैं, ‘घर से 1964 में भागा तो उसी मुर्दहिया से होकर अंतिम बार गुजरा था. वैसे तो मैं अकेला ही था किन्तु हकीकत तो यही थी कि चल पड़ी थी मेरे साथ मुर्दहिया भी. जब मुझे यह मालूम हुआ कि दुनिया में दुख, दुख का कारण है और उसका निवारण भी, तो ऐसा लगा कि इस सत्य को ढूंढने से पहले तथागत गौतम बुद्ध कभी न कभी मेरी मुर्दहिया से अवश्य गुजरे होंगे.’
दलित लोक संसार को समझने के लिए तुलसी राम की दोनों ही किताब मुर्दहिया और मणिकर्णिका एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है. इसमें लेखक का आत्म तो जुड़ा ही है साथ ही इतने भिन्न संसारों का समुच्चय है जो इस आत्मकथा को बेमिसाल बनाती है. लोकजीवन से जुड़ी घटनाओं की अनंत कथाएं इसमें दर्ज हैं. तुलसी राम की दोनों किताबें मानव विज्ञान पर किया गया विलक्षण काम है.
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‘मार्क्सवाद ने विश्वदृष्टि दी’
आजमगढ़ से बनारस के बीएचयू गए तुलसी राम ने सोचा था कि यहां कोई भूखा नहीं रहता. वो लिखते हैं, ‘बीएचयू मैं गया था इस अंधविश्वास के साथ कि बनारस में कोई भूखा नहीं रहता है, किंतु कुछ ही दिन बीते थे कि मेरी यह मान्यता ध्वस्त हो गई.’ वो कहते हैं कि एक ऐसा भी दिन आया, जब बुद्ध और मार्क्स ने मिलकर मेरे मस्तिष्क में बसे ईश्वर को भी ध्वस्त कर दिया.
तुलसी राम ने लिखा है, ‘मार्क्सवाद ने मुझे विश्वदृष्टि प्रदान की, जिसके चलते मेरा व्यक्तिगत दुख दुनिया के दुख में मिलकर अपना अस्तित्व खो बैठा. मुझको मार्क्सवाद तथा बौद्ध दर्शन की ऊंचाइयों तक पहुंचाने का पूरा श्रेय राहुल सांकृत्यायन को ही जाता है.’
मणिकर्णिका में बीएचयू और नक्सल विचारधारा के प्रति रूझान को उन्होंने दर्ज किया है. इसमें कई राजनैतिक घटनाओं का भी उल्लेख है जो कहीं और दर्ज नहीं हो सकी.
1950-60 के दशक में बीएचयू छात्र राजनीति के लिहाज से काफी सक्रिय था. उस दौर में बीएचयू के एडमिशन फॉर्म में एक कॉलम होता था- ‘आर यू ब्राह्मण आर नॉन ब्राह्मण?’ छात्र संगठनों के बीच संघर्ष जारी था. इसी बीच तुलसी राम की दोस्ती गोरख पांडे से हुई जो अपने मुखर स्वर के लिए हमेशा जाने जाते रहे और बाद में जेएनयू में तुलसी राम के सहयोगी भी रहे.
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विलक्षण व्यक्तित्व
13 फरवरी 2015 को तुलसी राम हमारे बीच से चले गए. लेकिन साहित्यिक और अकादमिक जगत उनके योगदान को कभी नहीं भुला सकता. विकारल परिदृष्य से निकलकर जेएनयू तक का उनका सफर उनके व्यक्तित्व को विलक्षण बनाता है.
तुलसी राम दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के रूसी अध्ययन विभाग के अध्यक्ष थे. विश्व कम्युनिस्ट आंदोलन तथा रशियन मामलों पर उनको महारत हासिल थी. साथ ही अंतर्राष्ट्रीय बौद्ध आंदोलन, दलित राजनीति पर भी उनकी गहरी दृष्टि थी. उन्होंने अश्वघोष नामक बुद्धिस्ट एवं साहित्यिक पत्रिका का संपादन भी किया.
उनकी प्रमुख रचनाओं में अंगोला का मुक्ति संघर्ष, द हिस्ट्री ऑफ कम्युनिस्ट मूवमेंट इन ईरान, पर्सिया टू ईरान, आईडोओलॉजी इन सोवियत-ईरान रिलेशंस, मुर्दहिया, मणिकर्णिका शामिल हैं.
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