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Monday, 4 November, 2024
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भरपूर मजे से काफी दूर है माधुरी दीक्षित की ये फिल्म ‘मजा मा’

अमेजन प्राइम वीडियो पर आई ‘मजा मा’ एक औसत किस्म की फिल्म है जो अपने विषय को भले ही थामे रहती है लेकिन भरपूर मजा नहीं दे पाती.

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यह फिल्म गुजरात की पृष्ठभूमि में एक हिन्दी फिल्म है. ‘मजा मा’ का शाब्दिक अर्थ है-सब ठीक है, मजे में है. मनोहर और पल्लवी पति-पत्नी हैं. गुजरात में रहते हैं. एक शादीशुदा बेटी और अमेरिका में रह रहे एक शादीलायक बेटे तेजस के माता-पिता हैं. इनकी जिंदगी में सब ठीक है. बेटे को अमेरिका में बरसों से रह रहे एक पंजाबी परिवार की बेटी ऐशा भाती है जिसके मां-बाप को सब कुछ परफैक्ट चाहिए, एकदम भारतीय, संस्कारों से लिपटा हुआ दामाद, उसका परिवार, सब कुछ.

लेकिन सगाई से ठीक पहले एक वीडियो सामने आता है जिसमें तेजस की मां पल्लवी चिल्ला कर कह रही है-‘मैं लेस्बियन हूं, मर्दों से ज्यादा औरतें पसंद हैं मुझे.’ अब क्या होगा? क्या यह सच है? सच है तो क्या उसका पति, बच्चे, होने वाले समधी, यह समाज उसके इस सच को स्वीकार कर पाएगा? और सबसे बड़ी बात कि क्या वह खुद बरसों से छुपा कर रखे गए अपने इस सच की चुभन बर्दाश्त कर पाएगी?

फिल्म ‘मजा मा’

स्त्री-पुरुष के यौन अधिकारों, उनकी पसंद-नापसंद को लेकर समाज और सिनेमा में गाहे-बगाहे बहस होती है. खुद को ‘अलग’ बताने वाले लोगों का मानना है कि उन्हें पूरा हक है कि वह कैसे जिएं, किसे पसंद करें, किसके साथ हमबिस्तर हों. लेकिन यह भी सच है कि बहुसंख्य समाज अभी इस बहस को सुनने के लिए भले ही तैयार हो, समझने के लिए तैयार नहीं दिखता. दो ‘लेस्बियन’ (समलैंगिक औरतों) के आपसी संबंधों के बारे में पहली बार सुनने पर एक आम प्रतिक्रिया यही होती है कि दो औरतें आपस में क्या और कैसे करती होंगी? यह सवाल इस फिल्म में भी है और इसका जवाब भी, जो भले ही खट से आकर फट से निकल जाता है.


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यह फिल्म कहना चाहती है कि एक औरत बेटी, पत्नी और मां होने के अलावा भी कुछ होती है, हो सकती है. उसका अपना भी एक वजूद होता है, उसकी अपनी भी चाहतें होती हैं. लेकिन क्या कभी उससे उसकी पसंद-नापसंद पूछी गई? क्या उसके पति में इतनी हिम्मत है कि वह उसके सच को अपनी मर्दानगी पर प्रहार न समझ ले? क्या उसके बच्चे यह स्वीकार कर सकते हैं कि उनकी मां कुदरती तौर पर ‘अलग’ है? यह सब कह पाने में यह फिल्म कामयाब भी हुई है. लेकिन इसका यह ‘कहन’ हल्का है, कच्चा है, उथला है, ढीला है.

कहानी में कमी नहीं है और उसका प्रवाह भी कमोबेश सही दिशा में रहा है. दिक्कत इसकी पटकथा के साथ है जो इसे ऐसे-ऐसे मोड़ों पर ले जाकर छोड़ देती है कि यह गोते खाने लगती है. थोड़ा संभल कर यह आगे बढ़ती है कि फिर कोई न कोई गड्ढा इसके आड़े आ जाता है. कह सकते हैं कि यह फिल्म भटकी भले ही न हो, लेकिन पूरी तरह से कसी-बंधी भी नहीं है और इसका यही हल्कापन सारे मजे पर पानी फेरने के लिए काफी है.

साथ ही फिल्म में शुरू से ही एक उदासी, एक तनाव हावी होने लगता है जो त्योहारों और गरबा-डांडिया की पृष्ठभूमि की इस कहानी को भारी बनाने लगता है.

इसके किरदार भी कायदे से विकसित नहीं किए गए. अमेरिका में बरसों रहने के बावजूद दकियानूसी सोच रखने वाले जोड़े के जरिए जो कटाक्ष किए गए हैं, वे असरदार न होने के कारण फिल्म को कमजोर बनाते हैं. सहायक किरदारों को उभर कर न आ पाना इसे हल्का बनाए रखता है.

माधुरी दीक्षित ने अपने किरदार को थामे रखा है लेकिन जिस मजबूती की अपेक्षा उनसे ऐसी भूमिकाओं में रहती है, वह नज़र नहीं आ सकी है. गजराज राव ऐसी भूमिकाओं में बंधते जा रहे हैं. सिमोन सिंह प्यारी भी रहीं और असरदार भी. निनाद कामत, ऋत्विक भौमिक, सृष्टि श्रीवास्तव आदि जंचे. शीबा चड्ढा, रजत कपूर, बरखा सिंह अपने बनावटी उच्चारण के चलते हल्के दिखे. गीत-संगीत हल्का ही रहा.

फिल्म ‘मजा मा’

कुल मिला कर अमेजन प्राइम वीडियो पर आई ‘मजा मा’ एक औसत किस्म की फिल्म है जो अपने विषय को भले ही थामे रहती है लेकिन भरपूर मजा नहीं दे पाती.

(दीपक दुआ 1993 से फिल्म समीक्षक व पत्रकार हैं. विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, न्यूज पोर्टल आदि के लिए सिनेमा व पर्यटन पर नियमित लिखने वाले दीपक ‘फिल्म क्रिटिक्स गिल्ड’ के सदस्य हैं और रेडियो व टी.वी. से भी जुड़े हुए हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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