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Thursday, 18 April, 2024
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शमशेरा के पिटने पर संजय दत्त और करण मल्होत्रा का दुख सही है लेकिन इसके लिए दर्शक जिम्मेदार नहीं हैं

शमशेरा पिटी क्यों? इस फिल्म को दर्शकों का वो प्यार क्यों नहीं मिला जिसकी उम्मीद फिल्म बनाने वालों और उससे जुड़े लोगों को थी?

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प्रिय संजय दत्त,

इंस्टाग्राम पर आपका दर्द भरा पैगाम देखा कि किस तरह लोगों ने शमशेरा फिल्म को लेकर नकारात्मक बोला और लिखा और किस तरह आप लोगों की मेहनत की कद्र नहीं हुई. आपने ये भी बताया कि कोई फिल्म कितने जज्बे और मेहनत से बनती है और उसमें कितना खून-पसीना जाता है.

आपने लिखा कि – ‘फिल्म की आलोचना वे लोग भी कर रहे हैं जिन्होंने फिल्म देखी ही नहीं है.’ इस पैगाम में आपने बताया है कि किस तरह डायरेक्टर करण मल्होत्रा ने आपसे अग्निपथ फिल्म में कांचा चीना का यादगार रोल कराया. आपने ये भी लिखा कि रणबीर कपूर कितने प्रतिभाशाली और मेहनती हैं. आपको दुख है कि ‘इस समय के सबसे मेहनती और प्रतिभाशाली कलाकारों में से एक रणबीर कपूर से नफरत करने के लिए लोग किस कदर बेताब हैं.’

इसी तरह करण मल्होत्रा ने भी एक अलग सोशल मीडिया पोस्ट में इस फिल्म को लेकर जताई गई नफरत की शिकायत की है. वे भी दुखी और हताश हैं.

संजय दत्त जी, ये सही है कि शमशेरा को लेकर फिल्म जगत को काफी उम्मीदें थीं. बॉलीवुड के सबसे बड़े बैनर यशराज फिल्म्स ने इस के लिए टीम जोरदार बनाई थी. डायरेक्शन करन मल्होत्रा को सौंपा गया, जो इससे पहले अग्निपथ (2012) जैसी कामयाब फिल्म दे चुके हैं और ब्रदर (2015) से लेकर मैं हूं ना (2004), जोधा अकबर (2008) और माई नेम इज खान (2010) तक से जुड़े रहे हैं. रणबीर कपूर का भी जलवा रहा है. वाणी कपूर भी सुंदर मानी जाती हैं. डांस भी अच्छा करती हैं. फिल्म में उनसे काफी नाच-गाने भी कराए गए हैं. फिल्म से स्पेशल इफेक्ट देखकर लगता है कि इसे बनाना काफी खर्चीला रहा होगा. फिल्म लगभग 5000 स्क्रीन में रिलीज की गई. रिलीज के हफ्ते में कोई और फिल्म इससे कंपीट भी नहीं कर रही थी.

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लेकिन शमशेरा फिल्म वैसा बिजनेस नहीं दे पाई जिसकी उम्मीद फिल्म बनाने वाले को रही होगी. ये निराशा इसलिए भी गहरी है क्योंकि शमशेरा एक फॉर्मूला फिल्म है. ये वैसी फिल्म है जिनकी कामयाबी की परंपरा रही है. इसमें नाच-गाना, मार-धाड़, रोमांस, क्रूर और बदमाश विलेन, देह प्रदर्शन, झूठ पर सच की जीत, मां की ममता, तीस-चालीस लोगों पर एक हीरो के भारी पड़ने का स्टंट, लोकेशन वगैरह सब है.

फिर ये फिल्म पिटी क्यों? इस फिल्म को दर्शकों का वो प्यार क्यों नहीं मिला जिसकी उम्मीद फिल्म बनाने वालों और उससे जुड़े लोगों को थी?

इस बारे में मेरी कुछ व्याख्याएं और स्थापनाएं हैं. इनमें से कोई एक वजह या सारी वजहें फिल्म के खराब प्रदर्शन के लिए जिम्मेदारी हो सकती हैं.


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‘शमशेरा की सीधी सी कहानी’

– शमशेरा को बेशक फॉर्मूला फिल्म की तरह बनाने की कोशिश की गई है लेकिन वह फॉर्मूला फिल्म नहीं बन पाई. किसी भी फिल्म की कहानी को लेकर ये शिकायत तो गैर-वाजिब है कि इतिहास में ऐसा कभी कुछ नहीं हुआ. इस शर्त के साथ फिल्में नहीं बनाई जाती, न बनाई जानी चाहिए. कहानी में फैंटसी हो सकती है, होनी चाहिए लेकिन फैंटसी का मतलब सरासर हवा-हवाई नहीं होता. कहानी एकदम फर्जी भी नहीं लगनी चाहिए. राजपूताना में योद्धाओं की एक जमात को मुगलों के आक्रमण के बाद भागकर कहीं जाना पड़ा जहां उन्हें अछूत बनाकर उनका शोषण किया गया. इसकी वजह से इसका एक झुंड डकैत बन गया. इस झुंड का सरदार शमशेरा है, जो अपने लोगों को आजाद कराने के लिए अंग्रेजों से समझौता करता है लेकिन उसके साथ छल होता है जिसमें विलेन वहां का दारोगा और स्थानीय अंग्रेज अफसर है. ये कहानी बहुत सपाट है और इसमें करेक्टर्स में जटिलताएं नहीं हैं, लेयर्स नहीं हैं. जो बुरा है, वो सिर्फ बुरा है. जो अच्छा है, वह अच्छा ही अच्छा है. इतनी सीधी कहानी है शमशेरा की.

– ये सही है कि दक्षिण की कुछ एंटी-कास्ट मूवी इस बीच काफी सफल रही है. कबाली, काला, पेरियारुम पेरुमल, कर्णन, असुरन, श्याम सिंघा रॉय और जय भीम अच्छी चली. मराठी में सैराट भी सुपरहिट रही लेकिन इसकी हिंदी रिमेक धड़क पिट गई. पुष्पा में भी कास्ट का एंगल है क्योंकि पुष्पा लकड़हारा है और दबंग लोगों के मुकाबले अपना स्मगलिंग का धंधा खड़ा करता है. इसका जन्म भी संदिग्ध है. RRR की कहानी आदिवासी नायकों पर आधारित है. शमशेरा भी एंटी कास्ट मूवी बनने की कोशिश करती है, पर लड़खड़ाकर गिर जाती है. दक्षिण भारत की तरह उत्तर में एंटी कास्ट मूवमेंट की कोई समृद्ध परंपरा नहीं है. साथ ही दर्शकों का ऐसी फिल्में देखने का अभ्यास भी नहीं है. दक्षिण में एंटी-कास्ट मूवी 1960 के दशक से बन और चल रही हैं. हिंदी में ऐसा कुछ नहीं है. साथ ही, शमशेरा बनाने वालों ने फिल्म लाने से पहले एंटी-कास्ट मूवी होने का ढिंढोरा भी नहीं पीटा. इसलिए संभावित दर्शक फिल्म देखने नहीं आए. जब तक फिल्म के बारे में चर्चा शुरू होती, तब तक उसके उतरने का समय हो गया था.

– फिल्म का संगीत यादगार नहीं है. फिल्म का कोई भी गाना रिलीज से पहले जुबान पर नहीं चढ़ पाया. किसी भी फिल्म के सुपरहिट होने की ये लगभग बुनियादी शर्त है कि रिलीज से पहले गाने चल जाएं. शमशेरा का कोई भी गाना लोग गुनगुना नहीं रहे हैं. हीरोइन वाणी कपूर मौका मिलते ही नाचने लगती है. बल्कि मौका न होने पर भी वे नाचती हैं लेकिन जिन गानों पर वे नाचती हैं, वे पॉपुलर नहीं हुए.


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‘ओटीटी ने सीमाएं लांघ ली हैं’

– इस समय हिंदी में कुछ भी नहीं चल रहा है इसलिए शमशेरा भी नहीं चली. कोविड के बाद से बॉलीवुड का सूखा चल रहा है. सारी फिल्में धूल चाट रही हैं. अजय देवगन की रनवे 34, कंगना रानौत की धाकड़, अक्षय कुमार की पृथ्वीराज, तापसी पन्नू की शाबास मिट्ठू, इनमें से किसी ने भी उम्मीद जितना बिजनेस नहीं किया. भूलभूलैया-2 अकेली फिल्म थी, जिसने औसत बिजनेस कर लिया लेकिन सुपरहिट वो भी नहीं रही. इसलिए ये माना जा सकता है कि लोग फिल्में देखने आ ही नहीं रहे हैं. शमशेरा की नाकामयाबी को पूरे माहौल के साथ जोड़कर देखा जा सकता है.

– लोग ओटीटी के कारण स्ट्रीमिंग के जरिए दुनिया भर का कंटेंट देख रहे हैं. इन कंटेट ने देश और समाज की सीमाएं लांघ ली हैं. मिसाल के तौर पर मनी हाएस्ट या मेड जैसी सिरीज किसी और देश और समाज के बारे में हैं, पर भारत में भी खूब लोकप्रिय हैं. इन कटेंट ने भारतीय लोगों को विश्वस्तरीय सामग्री तक पहुंचा दिया है. इसके मुकाबले भारतीय, खासकर बॉलीवुड के कंटेट टिक नहीं पा रहे हैं.

– दक्षिण की हिंदी में डब की हुई फिल्में चल रही है. ऐसा नहीं है कि दर्शक सिनेमाघर आ ही नहीं रहे हैं. ये तर्क भी दिया जा रहा है कि लोगों के पास पैसे ही नहीं हैं, तो फिल्म कौन देखे. ये तर्क निराधार है. हिंदी क्षेत्र के लोगों ने इसी दौर में पुष्पा, केजीएफ-2 और RRR जैसी दक्षिण से आई और हिंदी में डब की हुई फिल्में देख लीं. अल्लू अर्जुन की पुष्पा ने हिंदी मार्केट में 100 करोड़ रुपए से ज्यादा का बिजनेस किया. केजीएफ-2 हिंदी में डब होकर 400 करोड़ रुपए से ज्यादा कमा गई. वहीं RRR का हिंदी में बिजनेस लगभग 250 करोड़ रुपए का रहा यानी लोग फिल्में देख रहे हैं लेकिन हिंदी फिल्में नहीं देख रहे हैं. दक्षिण की फिल्में ऐसा कुछ ऑफर कर रही हैं, जो हिंदी की फिल्में नहीं दे रही हैं.

संजय दत्त और करण मल्होत्रा से निवेदन है कि दर्शकों को कोसने की जगह वे उन वजहों के तलाशें जिसके कारण ये हो रहा है. क्योंकि वे किसी और देश से नया दर्शक तो ला नहीं सकते.

लेखक पहले इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका में मैनेजिंग एडिटर रह चुके हैं और इन्होंने मीडिया और सोशियोलॉजी पर किताबें भी लिखी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.


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